लघुकथा: स्वरूप और दिशा / सुकेश साहनी

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पटना-सम्मेलन-88 की बात है। कार्यक्रम के बाद हम सब लघुकथा की तत्कालीन स्थिति पर विचार कर रहे थे। भगीरथ उस दौर के चर्चित एवं सक्रिय लघुकथा-लेखकों की प्रदेशवार सूची तैयार कर रहे थे। मैं और अशोक भाटिया उन्हें इस कार्य में सहयोग दे रहे थे। वहीं उपस्थित थे, भाई कृष्णानंद 'कृष्ण' जो बहुत सकुचाते हुए हमारी जानकारी में महत्त्वपूर्ण इज़ाफा कर रहे थे। उनके द्वारा उपलब्ध कराई जा रही जानकारी से समझा जा सकता था कि वे लघुकथा के प्रति काफी गम्भीर हैं और लघुकथा-जगत में हो रही गतिविधियों का बहुत बारीकी से अध्ययन कर रहे हैं। लघुकथा के प्रति उनकी इसी गम्भीरता का सुफल है यह पुस्तक। उनके द्वारा समय-समय लिखे गए इन आलेखों का प्रकाशन लघुकथा-जगत् की उल्लेखनीय घटना है। जहाँ तक मेरी जानकारी है-लघुकथा-समीक्षा के क्षेत्र में पंजाबी (गुरुमुखी) के डॉ. अनूप सिंह के बाद कृष्णानंद 'कृष्ण ही हैं, जिनका एकल संग्रह प्रकाशित हुआ है। इस दृष्टि से इस पुस्तक का ऐतिहासिक महत्त्व है, जिसके लिए कृष्णानंद' कृष्ण' बधाई के पात्र है।

श्रेष्ठ लघुकथाओं का शुरू से ही अभाव रहा है। जो श्रेष्ठ रचनाएँ लिखी जाती हैं, वे लघुकथा के नाम पर लिखे जा रहे कूड़े के ढेर में गुम हो जाती हैं। ऐसे में लघुकथा-समीक्षा का कार्य खासा जोखिम भरा है। कृष्णानंद ने इस चुनौती को स्वीकारा है। सफल रचनाकार एवं ' पुनः के कुशल सम्पादक के रूप में उनसे सभी परिचित हैं। विभिन्न लघुकथा-सम्मेलनों में पढ़ी गई लघुकथाओं की तत्काल समीक्षा कर वे अपनी प्रतिभा का परिचय देते रहे हैं, पर इस पुस्तक में संकलित आलेखों के माध्यम से वे कुशल समीक्षक के रूप में हमारे सामने आते हैं। पुस्तक में कुल 19 आलेख संकलित हैं। संक्षिप्त परिचय की दृष्टि से इन्हें दो भागों में बाँटा जा सकता है-

एक: हिन्दी-लघुकथा के विकास-क्रम की पड़ताल।

दो: विभिन्न लघुकथा-संकलनों की समीक्षा के माध्यम से हिन्दी-लघुकथा के बदलते परिदृश्य की विवेचना। एक: हिन्दी लघुकथा के विकास क्रम की पड़ताल करते सात आलेख इसमें सम्मिलित हैं। अध्ययन की दृष्टि से इन्हें तीन श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है। (क) हिन्दी-लघुकथा का प्रस्थान बिन्दु-

लघुकथाके विकास-क्रम को सुनिश्चित करने के क्रम में हिन्दी लघुकथा के प्रथम रचयिता की खोज पर बल देते हुए कृष्णानंद 'टोकरी भर मिट्टी (माधवराव सप्रे) का उल्लेख करते हुए' परिहासिनी (भारतेन्दु हरिश्चन्द्र) में संकलित छोटी-छोटी रचनाओं में आधुनिक लघुकथा के बीज तत्व मानते हैं। यह सही है कि इस श्रेणी के आलेखों में जिन रचनाकारों का उल्लेख है, उन्होंने ये लघु रचनाएँ लघुकथा मानकर नहीं लिखी थीं। इस पर बहस हो सकती है, इस स्थिति को अपने आलेख में स्पष्ट करते हुए कृष्णानंद लिखते हैं-"इन रचनाओं में अधिकतर हास-परिहास पैदा करने के उद्देश्य से लिखी गई हैं और इन रचनाओं के माध्यम से ऐसा व्यंग्य उत्पन्न नहीं होता, जो पाठक को तिलमिलाने के लिए बाध्य कर सके. शिल्प और स्वरूप के स्तर पर ये रचनाएँ लघुकथा के निकट भी नहीं पहुँच पातीं। क्योंकि ये रचनाएँ सिर्फ़ हास-परिहास उत्पन्न करती हैं। पाठक-मन को कहीं से भी नहीं झकझोरती। मेरी दृष्टि में ये लघुकथाएँ शुद्ध रूपेण चुटकुला की श्रेणी में आती हैं।" इस टिप्पणी से स्पष्ट है कि लेखक की लघुकथा-समीक्षा विषयक दृष्टि बिल्कुल साफ है। भारतेन्दु जी की रचनाओं का उल्लेख लघुकथा के प्रस्थान बिन्दु की तलाश के सन्दर्भ में ही किया गया है।

'प्रतिध्वनि' में संकलित रचनाओं में लघुकथा के तत्त्वों की खोज की गई है। विशेष रूप से 'प्रसाद' , 'गुदड़साई' , 'गुदड़ी में लाल' , 'पत्थर की पुकार' , 'कलावती की शिक्षा' , 'उस पार की योगी' , 'खंडहर की लिपिर' के माध्यम से लेखक यह स्थापित करता है कि जयशंकर प्रसाद के मन यह बात ज़रूर रही होगी कि कहानी से अलग छोटी-छोटी रचनाएँ लिखी जाएँ, जो पाठकों को संवेदित करें, प्रभावित करें। अपने जीवन-अनुभवों को उन्होंने जीवन के अंतरंग क्षणों से जोड़ते हुए मानवीय धरातल पर इन लघु रचनाओं में अभिव्यक्त किया है। कृष्णानंद का मानना है कि जयशंकर प्रसाद को हिन्दी में संवदेनात्मक लघुकथाओं के जनक के रूप में प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए. 'आधुनिक लघुकथा' की पीठिका और दिनकर की 'उजली आग' में खलील जिब्रान की भाववादी और दर्शनवादी लघु रचनाओं के प्रभाव को स्पष्ट करते हुए 'उजली आग' में संकलित 46 रचनाओं को आधुनिक हिन्दी-लघुकथा के लिए सुदृढ़ पीठिका माना गया है। यहाँ भी लेखक ने इस बिन्दु पर आगे अनुसंधान की गुंजाइश से इंकार नहीं किया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि इस श्रेणी के तीनों आलेखों में उन रचनाकारों की लघु रचनाओं में आधुनिक लघुकथा के बीच-तत्व तलाश किए हैं, जिनके मन में सर्जन के दौरान लघुकथा विधा का कोई स्वीकृत स्वरूप नहीं था।

(ख) लघुकथा की पहचान-

इस श्रेणी में लेखक ने उपेन्द्रनाथ अश्क एवं विष्णु प्रभाकर की लघुकथाओं के माध्यम से आधुनिक लघुकथा की विकास-यात्रा के विभिन्न पड़ावों का मूल्याकंन किया है। दोनों कथाकारों ने लघुकथा-लेखन अनजाने में नहीं किया, बल्कि उनके सामने लघुकथा का स्वरूप एवं विषय-वस्तु स्पष्ट थे। विष्णु प्रभाकर के संग्रह 'कौन जीता कौन हारा' में तो 1938 से 97 तक की लघुकथाएँ संकलित हैं। अश्क जी की लघुकथाओं में सामाजिक विसंगतियों एवं गिरते मानव मूल्यों पर व्यंग्यात्मक प्रहार हुआ है, जिनका विश्लेषण लेखक ने बड़ी बारीकी से किया है। समीक्षक के अनुसार प्रभाकर जी की लघुकथाएँ ज़िन्दगी के आस-पास बिखरी घटनाओं पर आधारित हैं। यही वजह है कि उनकी लघुकथाओं का कैनवास बड़ा ही विस्तृत है। कृष्णानंद ने प्रभाकर जी की लघुकथाओं पर शिल्प के स्तर पर खलील जिब्रान का प्रभाव माना है। इस प्रकार ये लघुकथा-विकास-यात्रा का महत्त्वपूर्ण दौर कहा जा सकता है। जिसमें अश्क एवं विष्णु प्रभाकर सरीखे कथाकार लघुकथा के माध्यम से अपनी बात कहते हैं।

(ग) हिन्दी-लघुकथा का स्वर्णकाल-

आठवें एवं नौवें दशक को हिन्दी-लघुकथा का स्वर्णकाल माना जाता है। इस स्वर्णकाल में लिखी जा रही लघुकथाओं का विश्लेषण डॉ. सतीशराज पुष्करणा एवं बलराम की लघुकथाओं के माध्यम से हुआ है। कृष्णानंद 'कृष्ण' के समीक्षा-कर्म की यह विशेषता है कि लघुकथाओं का मूल्यांकन वे लघुकथा की विकास-यात्रा के सन्दर्भ में करते चलते हैं। फलस्वरूप वे लेखक की दृष्टि के साथ-साथ लघुकथा के क्रमिक विकास को प्रस्तुत करने में सफल हुए हैं। मानवोत्थानिक एवं प्रयोगधर्मी कथाकार डॉ. पुष्करणा की विभिन्न लघुकथाओं का विस्तृत विवेचन करते हुए लेखक लघुकथा-विकास-यात्रा में उनके द्वारा किए गए विभिन्न प्रयोगों को रेखांकित करने में सफल हुआ है। बलराम की लघुकथाएँ शिल्प और शैली के स्तर पर अलग पहचान बनाती हैं। समीक्षक के अनुसार इस दौर में लघुकथा भाषा एवं सम्प्रेषण के स्तर पर पहले की तुलना में अधिक समृद्ध हुई है।

दो-इस श्रेणी में विभिन्न एकल एवं सम्पादित लघुकथा-संकलनों के माध्यम से लघुकथा के बदलते परिदृश्य पर प्रकाश डाला गया है। समीक्षित कृतियाँ है-'यथार्थ का एहसास' (डॉ. परमेश्वर गोयल) , 'बदलती हवा के साथ' (डॉ. सतीशराज पुष्करणा) , 'सांझा हाशिया' (कुमार नरेन्द्र) , 'डरे हुए लोग' (सुकेश साहनी) , 'तरकश का आखिरी तीर' (अतुल मोहन प्रसाद) , 'बूँद-बूँद' (अमर नाथ चौधरी 'अब्ज' ) , 'समकालीन हिन्दी-लघुकथा के बदलते आंयाम' (पटना सम्मेलन में पढ़ी गई लघुकथाओं पर टिप्पणी) 'महानगर की लघुकथाए' ँ (सं सुकेश साहनी) , 'आम जनता के लिए' (चितरंजन भारती) 'भविष्य का वर्तमान' (भगवती प्रसाद द्विवेदी) , 'कमल चोपड़ा की लघुकथाएँ' 'समकालीन हिन्दी-लघुकथा के बहाने' और 'अंजुरी भर लघुकथाएँ' (सत्यानारायण नाटे एवं श्यामल) ।

उपर्युक्त संकलनों की समीक्षा के माध्यम से कृष्णानंद न केवल हिन्दी-लघुकथा के बदलते स्वरूप का मूल्यांकन करते हैं बल्कि कुछ संकटों की ओर हमारा ध्यान भी खींचते हैं, यथा- (एक) भाषा एवं संप्रेषण का संकट—सशक्त भाषा एवं फोर्सफुल संप्रेषण के अभाव में लघुकथा का प्रभाव गहरा नहीं हो पाता, (दो) किसी रचना का चमत्कारिक अन्त किसी चमत्कारवाद की रचना नहीं कर सकती। लघुकथा के इस गुण को काफी पीछे छोड़ दिया है। चमत्कार आम जनता के लिए नहीं है, (तीन) वैचारिकता के स्तर पर एक ही थीम को बार-बार दुहराना-इससे लेखक के सीमित अनुभव का बोध होता है, आदि।

लेखक ने इस पुस्तक में संकलित विभिन्न आलेख किसी योजना के तहत नहीं लिखे होंगे, फिर भी संकलित आलेख लघुकथा के प्रस्थान बिन्दु से लेकर अब तक के क्रमिक विकास केा बखूबी पेश करते हैं। इस पुस्तक का प्रकाशन इस दृष्टि से आश्वस्त करता है कि लघुकथा समीक्षा क्षेत्र में जिस रिक्तता को हम लंबे समय से महसूस कर रहे थे, उसे भरने की शुरूआत कृष्णानंद कृष्ण ने कर दी है।

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