लघुकथा और भाषिक प्रयोग / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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भाषा मनुष्य का आत्मिक स्वरूप है, जिसके बिना उसके अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती।भाव , विचार , चिन्तन , कल्पना सबकी उड़ान भाषा से ही सम्भव है।इन सबकी अभिव्यक्ति ही उसे सामाजिक प्राणी बनाती है। यदि मानव के पास सम्प्रेषण का यह गुण न हुआ होता तो पूरी सृष्टि बेतरतीब होने के साथ-साथ अभिशप्त ही प्रतीत होती। भाषा शब्द सामने आते ही इसके विकास की कथा का सामाजिक स्वरूप सामने आ जाता है। समाज या समुदाय ही किसी भाषा के विकास का प्रमुख कारण है। जो समाज, जिस भाषा का प्रयोग करता है, वह भाषा उसके सम्पूर्ण चिन्तन और सामाजिक व्यवहार की संवाहक होती है। नदी जिस प्रकार निरन्तर प्रवाहित होने के कारण ही नदी है; ठीक उसी प्रकार समाज और भाषा भी अपने प्रवाह से ही जीवित रहते हैं। भाषा में उसके सुख -दु:ख, हर्ष-विषाद उत्थान -पतन के सारे दौर देखे जा सकते हैं। जिस समाज को ,समाज की भाषा को या चिन्तन को संकुचित करने की चेष्टा की जाती है , वह धीरे-धीरे अपनी इयत्ता खो बैठता है। इयत्ता खोने का डर उस भाषा और समाज को ज़्यादा होता है; जो जन सामान्य से कटने लगते हैं, अपना एक अलग कवच निर्मित कर लेता है। विश्व की समृद्ध भाषा संस्कृत विशिष्ट वर्ग तक सीमित होने के कारण बोलचाल में अपना अस्तित्व खो चुकी है, जबकि हिन्दी ने खड़ी बोली तथा अन्य बोलियों को साथ लेकर भारतीय समाज के बड़े वर्ग को अपने साथ बाँधा है। इसका मुख्य कारण है हिन्दी की समाहरण- शक्ति जो सात समन्दर पार भी अपना परचम फ़हराने का प्रयास कर रही है ।

जब हम अच्छी लघुकथा की बात करते हैं तो अच्छी भाषा की बात अनायास ही सामने आ जाती है। आज हिन्दी का समाज उत्तर भारत तक ही सीमित नहीं है, वरन् देश की सीमाएँ लाँघ चुका है। इसका कारण है, हिन्दी भाषा की समाहरण शक्ति। जिस प्रकार गंगा में अनेक जलधाराएँ आकर मिलती हैं और उसे और अधिक विशाल बना देती हैं, उसी प्रकार हमारे अंचल की अनेक बोलियों की शब्दावली, आचार, व्यवहार निरन्तर घुलते और समाहित होते जा रहे हैं। यही नहीं, आज़ादी के बाद स्वतन्त्र राष्ट्र बनने पर इसने दूसरे देशों की सरहदें भी पार कर ली हैं। वह समय नहीं रहा कि समुद्र यात्रा करने पर समाज से निष्कासित कर दिया जाएगा। राजनीति, विज्ञान प्रौद्योगिकी, चिकित्सा, व्यापार एवं कम्प्यूटर क्रान्ति ने नए द्वार खोल दिए हैं। ऐसी स्थिति में भाषा -सुन्दरी को सात पर्दों के अन्दर छुपाकर नहीं रखा जा सकता। कथा की भाषा कभी शब्दकोशीय शब्दावली का अन्धानुकरण नहीं कर सकती। भाषा सीमाओं में नहीं बँधती। उसका सामाजिक संवाद और सम्प्रेषण में उपयोग उसकी वास्तविक शक्ति है। भाषा जड़ नहीं होती; क्योंकि वह प्रवहमान समाज की जीवनी शक्ति है। एक बात और रेखांकित करने योग्य है कि शब्दकोशीय भाषा की एक सीमा है, वाक्- भाषा इससे कहीं ओर आगे है, कहीं अधिक बहुवर्णी और नवीनतम भावबोध की अनुचरी है। यह वही गोमुख है, जिसका जल शब्दकोश में आकर मिलता रहता है और उसको सागर बनाता है। अंग्रेज़ी भाषा में आज हिन्दी के कई हज़ार शब्दों का समावेश हो चुका है। भारत का ‘गुरु’ शब्द अब केवल भारतीय भाषाओं का शब्द नहीं बल्कि हज़ारों मील दूर अंग्रेज़ी के अखबारों में अग्रणी समाचार के शीर्षक की शोभा बढ़ा रहा है । भाषा के सन्दर्भ में ज़रा कुछ स्थितियों पर गौर कीजिएगा- 1-छात्र देर से कक्षा में पहुँचा तो शिक्षक ने चुटकी बजाई और दरवाज़े की तरफ़ इशारा किया । छात्र चुपचाप बाहर निकल गया । 2-कई दिनों की भाग दौड़ के बाद लूटमार करने वाला बदमाश आज पकड़ में आया । दारोगा जी के सामने लाया गया तो वे मुस्काराए -“आइए हुज़ूर ! आपका स्वागत है! आपके इन्तज़ार में तो हम पलक पाँवड़े बिछाए बैठे हैं”- फिर सिपाही की ओर मुड़े-जोधासिंह जी , अपने इन मेहमान की खातिरदारी में कोई कोर -कसर मत छोड़ना।” 3-ड्राइविंग लाइसेन्स न बन पाने से परेशान होकर जब युवक ने बाबू से कारण पूछा तो वह बत्तीसी निकालकर बेशर्मी से बोला -‘’भैया हम तो गाँधी जी के फोटो के पुजारी हैं। बाकी बात आप जितना जल्दी समझ लोगे , उतना जल्दी काम हो जाएगा।” -पहले वाक्य में रेखांकित कथन शब्दकोश के अर्थ का नही; वरन् देरी से आने के परिणाम स्वरूप सांकेतिक अर्थ का द्योतक है। -दूसरे वाक्य में दारोगा जी के कथन में स्वागत,पलक पाँवड़े बिछाए, मेहमान की खातिरदारी का शब्दकोशीय अर्थ नहीं, वरन् लाक्षणिक रूप में आए हैं। -तीसरे वाक्य में- 'गाँधी जी के फोटो के पुजारी हैं।' का सांकेतिक अर्थ रिश्वत के रूप में आया है। गाँधी जी के फोटो छपे नोट में वह आज के समाज की गिरती हुई नैतिकता का परिचय देता है ।

कथा में अभिप्रेत अर्थ कभी -कभी शब्द के पीछे बहुत सारी अर्थ सम्भावनाएँ एवं अर्थ छटाएँ छोड़ जाता है , जिसका अनुमित अर्थ रसज्ञ पाठक को सोचना पड़ता है।साहित्य की कोई भी विधा रचनाकार का ‘वन वे ट्रैफ़िक’ नही है। लघुकथा के लघु कलेवर और संश्लिष्ट शिल्प में यह और भी ज़रूरी हो जाता है कि रचना अपने पाठक के रूबरू हो सके । पाठकीय माँग पर कुछ भी परोसना या अपने हर लेखकीय अनुभव को या किसी घटना को पाठक के सिर पर थोपना रचनाकार की सबसे बड़ी कमज़ोरी है। अच्छा लेखक पाठक की रुचि को व्यापक बनाने के साथ-साथ परिष्कृत भी करता है। सब जगह एक ही जैसी भाषा या शैली नहीं चल सकती। कमज़ोर भाषा के चलते शिल्पगत प्रयोग कथा को और कमज़ोर करते हैं। हाँ, अच्छी भाषा कमज़ोर कथ्य के लिए ऑक्सीजन का काम कर अनुप्राणित कर सकती है और कमज़ोर भाषा अच्छे -भले कथ्य को भी चौपट कर सकती है। कथ्य की माँग पर ही भाषा और शिल्प का निर्धारण करना चाहिए। किसी लेखक की देखा -देखी केवल प्रयोग के नाम पर नया शिल्प अपनाना खतरे से खाली नहीं है ।

पात्र, पात्र की मन:स्थिति, परिवेश, स्तर , परिस्थिति बहुत सारे ऐसे कारक हैं, जो भाषा के स्वरूप का निर्धारण करते हैं। लघुकथा के बारे में मैं कहना चाहूँगा कि यह विधा भी कमज़ोर भाषा, सीमित अनुभव , घटना को ही कथा मान बैठना, उसे बिना तराशे अखबारी समाचार की तरह पेश कर देना या किसी प्रिय घटना को ही विषयवस्तु मान लेने वाले लेखकों के कारण और कुछ विधागत जानकारी से शून्य लोगों की वाहवाही में घिरकर सही उद्देश्य से भटक सकती है । शिल्प और शैली का नवीनतम प्रयोग करना लम्बे एवं गम्भीर भाषा-अध्ययन के पश्चात ही आता है। भाषा -शिल्प में भाषा उस अश्वमेध के घोड़े की तरह है , जिसकी वल्गा थामने का मतलब है पीछे आ रहे सैन्यदल से भी जूझना पड़ता है, अर्थात् वल्गा थामने वाले से अतिरिक्त शौर्य की उम्मीद की जाती है। इसी प्रकार लघुकथा में किसी नव्य प्रयोग का अपनाना ही महत्त्वपूर्ण नहीं है बल्कि उसका निर्वाह भी आवश्यक है ।

हर लघुकथा अपने कथ्यानुसार किसी न किसी पात्र पर ही टिकी रहती है। पात्र का क्षेत्र , शिक्षा , परिवेश भी उस कथा में बोलते हैं। किसी भी अच्छी कथा की मूल शक्ति है उसकी सम्प्रेषण शक्ति। उसे यह शक्ति भाषा की त्वरा से मिलती है, जिससे पात्र का कथन पूरी कथा का संवाहक बन जाता है। श्याम सुन्दर अग्रवाल की एक लघुकथा के कुछ वाक्य देखिए- गरीबों की एक बस्ती में लोगों को संबोधित करते हुए मंत्रीजी ने कहा, “इस साल देश में भयानक सूखा पड़ा है। देशवासियों को भूख से बचाने के लिए जरूरी है कि हम सप्ताह में कम से कम एक बार उपवास रखें।” मंत्री के सुझाव से लोगों ने तालियों से स्वागत किया।

“हम सब तो हफ़्ते में दो दिन भी भूखे रहने के लिए तैयार हैं। भीड़ में सबसे आगे खड़े व्यक्ति ने कहा। मंत्रीजी उसकी बात सुनकर बहुत प्रभावित हुए और बोले, “जिस देश में आप जैसे भक्त लोग हों, वह देश कभी भी भूखा नहीं मर सकता।

मंत्रीजी चलने लगे जैसे बस्ती के लोगों के चेहरे प्रश्नचिह्न बन गए हों।

उन्होंने बड़ी उत्सुकता के साथ कहा, ‘अगर आपको कोई शंका हो तो दूर कर लो।’

थोड़ी झिझक के साथ एक बुजुर्ग बोला, ‘साब! हमें बाकी पाँच दिन का राशन कहाँ से मिलेगा ? ’ ।(मरुस्थल के वासी)

नेता जी के इस सुझाव पर एक बुज़ुर्ग की यह शंका-‘साब! हमें बाकी पाँच दिन का राशन कहाँ से मिलेगा ?’भूख से पस्त बस्ती वालों की दारुण दशा का बहुत गहरा चित्रण कर देती है ।यह एक संवाद उस भूख रूपी मरुस्थल के वासियों की पीड़ा बन जाता है; जो सदैव इससे जूझने के लिए अभिशप्त हैं। ‘बोहनी: चित्रा मुद्गल' में भिखारी का संवाद झकझोर देने वाला है । इस संवाद की भाषा और चित्रण में शब्द प्रयोग पर ध्यान देना आवश्यक है-

‘‘नई, मेरी माँ !’’ वह दयनीय हो रिरियाया, ‘‘तुम देता तो सब देता....तुम नई देता तो कोई नई देता....तुम्हारे हाथ से बोनी होता तो पेट भरने भर को मिल जाता....तीन दिन से तुम नई दिया माँ...भुक्का है, मेरी माँ!’’ भीख में भी बोहनी। सहसा गुस्सा भरभरा गया।इस लघुकथा का शीर्षक ‘बोहनी’ आमफ़हम भाषा का शब्द है , लेकिन इस शब्द का अन्तरंग संसार बहुत व्यापक है ।

-इन पंक्तियों में रिरियाया,नई देता ,भुक्का है, मेरी माँ!’’,सहसा गुस्सा भरभरा गया। शब्दों पर ध्यान देना ज़रुरी है । रिरियाया की ध्वन्यात्मकता , गुस्सा भरभरा गया का लाक्षणिक प्रयोग और नहीं के स्थान पर ‘नई’,भूखा के स्थान पर ‘भुक्का’ का प्रयोग किसी शब्दकोशीय या व्याकरणिक शुद्धता का मोहताज़ नहीं है ।भाषा का यह सधा हुआ प्रयोग ही ‘बोहनी’ कथा को कई दशक से उत्कृष्ट लघुकथा की श्रेणी में रखे हुए है । भिखारियों पर लिखी गई सैकड़ों लघुकथा अपने कमज़ोर शिल्प के कारण कालकवलित हो चुकी हैं।

इसी तरह की लघुकथा है-‘ ठाकुर-हँसुआ-भात :चाँद मुंगेरी’ की । इस लघुकथा के ये संवाद देखिए - -अरे करमजला अब ही साल भर पहले जब बड़का ठाकुर मारा रहा तो तू हुनका मरण-भोज में भात खाया कि नहीं ....बोल ?

-हाँ! खाया रहा.!. लेकिन अम्मा का ई दूसरा ठाकुर नहीं मरेगा ?

-मरेगा कैसे? बड़का को चोर मारा रहा...हिनका कौन..मारेगा ?

क्षेत्रीय बोली के ये शब्द इस लघुकथा की धुरी हैं। बड़का ,हुनका, ई, मारा रहा --हिनका शब्दों का परहेज़ करके यह लघुकथा लिखी जाती; तो उतना गहन प्रभाव न छोड़ती और न पात्रों की मन: स्थिति का अपरिचय ही दे पाती । आंचलिक शब्दावली इसकी शक्ति कई गुना बढ़ा देती है । ‘करमजला’ का सबसे बड़ा भाग्य है कि उसने सालभर पहले ही तो भात खाया था । विपन्नता की इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है ! वह भी कोई छप्पन भोग नहीं , वरन् साधारण -सा भोजन भात । उनके लिए वही सबसे बड़ा भोज है।

बच्चे की भाषा के बहुत सारे उदाहरण लघुकथा जगत में मिल जाएँगे। ‘बीमार" सुभाष नीरव’ की लघुकथा का एक उदाहरण - बच्ची ने किताब में बने सेब के लाल रंग के चित्र को हसरत-भरी नज़रों से देखते हुए पूछा, “मैं कब बीमाल होऊँगी, पापा ?” इस वाक्य में -“मैं कब बीमाल होऊँगी, पापा ?”पाठक को भीतर तक बेध जाता है और परिवार की विपन्न स्थिति का अनायास ही आभास करा जाता है । बीमार के स्थान पर ‘बीमाल’ शब्द भीतर तक बेध जाता है ।

‘चटसार" :पंकज कुमार चौधरी’ की इस लघुकथा में बच्चे देखते हैं कि सड़क से एक आदमी सूअर के बच्चे की पिछली टाँग बाँधकर लाठी से टाँगे हुए ले जा रहा था। सूअर का बच्चा (पाहुर) लगातार चिल्ला रहा था। स्कूल के सारे बच्चे खेलकूद छोड़कर उसके चिल्लाने का अनुमान लगाते हैं । एक बच्चे का यह कथन -“अरे । वह डोम पढ़ाने के लिए उसे स्कूल ले जा रहा था। उसी डर से वह रो रहा था। एकाएक सब बच्चे चिल्ला पड़े–हाँ... हाँ सही बात! सही बात!!!

इस अन्तिम वाक्य में बच्चों का अनुमान और सहमति आतंक का पर्याय बन चुके हमारे स्कूलों ( चटसार) की वास्तविकता का दर्शन कराती है , जहाँ पूरा शिक्षा शास्त्र एक हठयोग ही सिद्ध होता है। सूअर के बच्चे को पात्र के रूप में प्रस्तुत करना कथा को और भी धारदार बना देता है ।शिक्षा व्यवस्था के के लिए और किसी व्याख्या की ज़रूरत नहीं है ।

अपनी लघुकथाओं में सुकेश साहनी ने भाषा और शिल्प के कई बार नए प्रयोग किए हैं; जो उनके गहन चिन्तन और विषयवस्तु पर उनकी मज़बूत पकड़ का सशक्त उदाहरण हैं।‘बॉलीवुड डेज़’ डायरी शैली में लिखी इनकी लघुकथा सचमुच में भाषा और शिल्प का चुनौती पूर्ण कार्य है। इस कथा में लेखक का जीवन अनुभव , अनुभव की वह विश्वसनीयता जो उन्होंने मुम्बई में कई वर्ष रहकर अर्जित की है ; सब मिलकर लघुकथा का नया स्वरूप गढ़ते हैं । एक ओर पूरा विश्व विश्वग्राम ( ग्लोबल विलेज) की ओर बढ़ रहा है , जिसमें नैतिक मूल्य जर्जर होते जा रहे हैं । बड़ी कम्पनियों की गलाकाट प्रतियोगिता उन्हें किसी भी हद तक गिरने के लिए तैयार कर रही है । इससे और आगे बढ़ें तो आजकल चिट्ठी -पत्री का स्थान चैट रूम ले चुके हैं । विश्व स्तर पर आँधी की तरह एक अलग भाषा नही वरन उसका स्थान लेने वाले परिवर्णी शब्द ( ऐक्रॉनिम्स-acronyms) सामने आ रहे हैं । जैसे- BBN-Bye Bye Now ; FYI=For your information ; KIT=Keep in Touch आदि प्रयोग में लाए जा रहे हैं । यही नहीं ,चैट रूम की सांकेतिक भाषा में नए प्रतिरूप भी गढ़े जा चुके हैं।क्रुद्ध (> --),स्वादिष्ट(:-9--) हाई फ़ाइव के लिए ( ^5--), आश्चर्यचकित (: 0--) और मुस्कान के लिए(--) सांकेतिक चिह्नों के अलावा सैकड़ों संकेत गढ़े जा चुके हैं । मैं भाषा के किसी भ्रष्ट रूप का समर्थन नहीं कर; बल्कि यह आग्रह कर रहा हूँ कि अपनी आँख और अपना दिमाग खोलकर देखें -समझें। हम दुनिया से अलग नहीं हैं । लाठी लेकर बहती नदी नहीं रोकी जा सकती। भाषा में आए बदलाव को महसूस ही नहीं वरन् स्वीकार भी करना पड़ेगा ; चैटरूम में फेरी वाले की या सब्जीमण्डी की भाषा नहीं चलेगी और सब्जी मण्डी में विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग की भाषा या विवाह संस्कार की भाषा नहीं चलेगी । हमें कथ्य के अनुरूप अवसर , आवश्यकता और परिस्थिति को समझना होगा ; इस सन्दर्भ में सुकेश साहनी की ही इस लघुकथा के अंश अपनी बात कह रहे है-

खेल (रेनड्रॉप के चैटरूम से)

सुकेश साहनी

मायसेल्फ : तुम्हारे ज़िस्म पर ये निशान?

रेनड्रॉप : दंगाइयों ने हमारे साथ सामूहिक बलात्कार किया, हमारे ज़िस्मों को बेरहमी से रौंदा गया, ये उन्हीं ज़ख्मों के निशान हैं। मायसेल्फ : ओह!… तब तो तुमने उन्हें बहुत करीब से देखा है, वे कौन थे?

रेनड्रॉप : पहचानना मुश्किल था, उन्होंने एक ही सांचे में ढले मुखौटे पहन रखे थे।

मायसेल्फ : टेल मी एवरीथिंग अबॉउट दिस, हम इस स्टोरी को अपनी पार्टी की वेबसाइट के मुख्य पृष्ठ पर देंगे।

रेनड्रॉप : वाट इज द नेम ऑफ योअर पार्टी?

मायसेल्फ : सेकुलर 2002 डॉट काम।

रेनड्रॉप : ओके… आय एम रेडि फॉर नेट मीटिंग।

मायसेल्फ : लेकिन आगे बढ़ने से पहले- जस्ट फॉर फॉरमेलिटी- हमारा यह जानना ज़रूरी है कि तुम किस सम्प्रदाय से हो। -जो इस लघुकथा की गहराई में नहीं जाना चाहेगा, जो साम्प्रदायिक दोगलेपन की कलुषित भावना को नहीं पकड़ना चाहेगा वह चैट रूम की नग्नता को कोस कर रह जाएगा । उसकी समझ में भाषा की समन्वित शक्ति का प्रयोग नहीं आएगा। वह इस लघुकथा की प्रभविष्णुता को भी हास्यास्पद जुमलों में समेटकर कम करने का प्रयास कर सकता है और खुद ही अपनी पीठ थपथपाने का काम करके वाह ! वाह! कर सकता है। साहित्य ऐसा मरीज़ नहीं है, जो परहेज़ी खाने पर निर्भर हो या जिसे डाइऐलिसिस पर ज़िन्दा रखा जा सके।प्यार, क्रोध , भय ,दुविधा ,सम्मान ,अनुनय-विनय आदि की परिस्थिति में क्या हमारी भाषा एकरूपता से ग्रस्त होती है? क्या हम एक व्यक्ति होते हुए भी सबके साथ एक जैसा भाषा व्यवहार करते हैं । यदि ऐसा हुआ होता तो दैनन्दिन जीवन का काम तो चार सौ -पाँच सौ से चला जाता है। चाँद-सूरज , बिजली , पानी ,बादल , सागर के लिए कई -कई शब्द अकारण नहीं हैं।भाषा में लोकोक्तियाँ और मुहावरे हमारे इतिहास , भूगोल , कृषि- सभ्यता ,धर्म ,दर्शन, संस्कृति की सदियों से पाली पोसी फसल है ।इस फ़सल को हम क्षेत्रीय सीमाओं से बाहर की जलवायु में भी प्रसारित कर रहे हैं। जहाँ करेला और नीम नहीं होंगे वहाँ , ‘एक तो कड़वा करेला दूजे नीम चढ़ा’, जहाँ कंगन नहीं होगा वहाँ ‘हाथ कंगन को आरसी ‘ भी नहीं होगा । जिस प्रकार भाषा एक व्यवहार है उसी प्रकार कथा भी एक व्यवहार है । वह रूखा -सूखा निबन्ध नहीं है; बल्कि समाज में निरन्तर हो रहे विकास-ह्रास सबकी प्राणवान् गाथा है।

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