लघुकथा का गुण धर्म और पुरस्कृत लघुकथाएँ / सुकेश साहनी

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कथादेश लघुकथा प्रतियोगिता 2016 हेतु बड़ी तादाद में लघुकथाएँ प्राप्त हुईं ;परन्तु सदैव की भाँति कुछ ही रचनाओं का चयन निर्णायकों के पास भेजने हेतु किया जा सका। सम्पादक कथादेश द्वारा हर वर्ष पुरस्कृत लघुकथाओं के अलावा शेष स्तरीय लघुकथाओं को कथादेश के आगामी समान्य अंकों में प्रकाशित किया जाता है। इस वर्ष कुल विचारार्थ चयनित लघुकथाओं का विवरण निम्नवत् है-

एक स्पेस: सारिका भूषण, जरूरत: महेश शर्मा, हैसियत: सीताराम गुप्ता, सीमा की सुसीमा: उर्मिला ठाकुर, बँटवारे की सहूलियत’: अनिता ललित, समाधान: सुरेश बाबू मिश्रा, इच्छा: सुनील गज्जाणी, पुरानी कहानी: रामकुमार आत्रेय, डर: सीमा जैन, बाइस्कोप…: बाल कीर्ति, राक्षस: संध्या पी.दवे, रिश्तों की नई इबारत: नीतू मुकुल, लार पर आघात: संतोष सुपेकर, टच स्क्रीन:नीना छिब्बर, चेहरे: राधेश्याम भारतीय, कारण: विद्यालाल, नेटवर्क: महेश शर्मा, एक बदलाव: सारिका भूषण, एक बार फिर: सुधीर द्विवेदी, संवेदना: सत्या शर्मा ‘कीर्ति’, अशुभ: चन्द्रशेखर, संवाद: आभासिंह, डस्टबिन: अनिता ललित, अपने अपने दुख: हरीश अमित, प्रदूषण: विकेश निझावन, माँ: अनिता पाण्डा,ग्यारह सौ की प्लेट: योगेन्द्र शर्मा, कुछ नया: सीमा जैन, खिड़की: छवि निगम, दंड: सुमति दुबे, आफिस आर्डर: सुनील गज्जाणी, सुन्दरकाण्ड: अनिता मण्डा, मेला: सरस्वती माथुर।

प्राप्त लघुकथाओं में से मात्र 33 लघुकथाओं का चयन चौंकाने वाला है। वर्तमान में नई पीढ़ी के बहुत से लेखक लघुकथा लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हैं। हरियाणा साहित्य अकादमी ने अपने स्वर्ण जयंती समारोह के अवसर पर पूरा एक सत्र लघुकथा विधा पर केन्द्रित किया, जिसमें सबसे ज्यादा श्रोता उपस्थित रहे। यहाँ आयोजित युवाओं की कार्यशालाओं में लघुकथा-लेखन को भी अकादमी ने सम्मिलित किया है। फेसबुक पर कई समूहों में लघुकथाओं पर कार्य हो रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस वर्ष आयोजित होने वाली प्रतियोगिता में अधिक स्तरीय रचनाएँ विचारार्थ चयनित होंगी।

पुरस्कार हेतु प्राप्त अधिकतर लघुकथाएँ आधी-अधूरी-सी होने के कारण अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाईं। पहले भी इस विषय पर काफी चर्चा हुई है कि किसी घटना का ब्योरा लघुकथा नहीं हो सकता। इस बार ऐसी बहुत सी लघुकथाएँ देखने को मिली , जो किसी घटना की कथा तक सीमित होकर रह गईं। यानी मुकम्मल कृति तक पहुँचते-पहुँचते रह गईं। दूसरी विधाओं की तरह लघुकथा भी लेखक के भीतर लम्बी रचना प्रक्रिया के बाद जन्म लेती है। हर मुकम्मल लघुकथा की रचना के पीछे एक कथा तो होती ही है। जो देखा-सुना ,उसे चुभते हुए या मार्मिक किस्से के रूप में लिख देना पर्याप्त नहीं है;उसमें रचनात्मकता होना उतना ही ज़रूरी है। इसे एक उदाहरण के रूप में समझा जा सकता है-मेरे लखनऊ निवास की दूसरी मंजिल पर धर्मदेव शर्मा जी रहते थे। उनकी आयु 90 के आस-पास हो चुकी थी। वे अकेले रहते थे। बेटियों की शादी हो गई थी, बेटा कोई था नहीं अपना सारा खुद काम करते थे। एक दिन मेरे बड़े भाई उनसे मिलकर लौटे तो चर्चा करने लगे-‘शर्मा जी तो बड़े अजीब हैं, जब मैं उनसे मिलने पहुँचा,तो बिना लाइट जलाए अँधेरे में ही टटोल-टटोलकर काम कर रहे थे। पूछने पर उन्होंने कहा कि प्रैक्टिस कर रहा था कि जब दूसरी आँख से दिखना बंद हो जाएगा , तो अपने जीवन की गाड़ी कैसे खींचूँगा। उनकी एक आँख पहले ही जाती रही थी।

अब यदि मेरे बड़े भाई द्वारा सुनाए गए इस किस्से को कथा का जामा पहनाकर झटपट लिख दिया जाए तो कहने को लघुकथा तैयार तो हो ही जाएगी। इस प्रकार तत्काल प्रतिक्रिया स्वरूप लिखी गई रचनाएँ किसी मुकम्मल कृति का आनन्द नहीं देतीं, उनमें डैप्थ नहीं होती। प्रतियोगिता हेतु इस श्रेणी की रचनाएँ भी बहुतायत में प्राप्त हुर्इं। यहाँ रचना- प्रक्रिया पर जो बात कहने का प्रयास किया जा रहा है ,उसे गौतम सान्याल की टिप्पणी से बखूबी समझा जा सकता है-लघुकथा हठात् जन्म नहीं लेती, अकस्मात् पैदा नहीं होती। जब कोई कथ्य-निर्देश देर तक मन में थिरता है और लोक-संवृत्त में अँखुआ उठता है, तब जाकर जन्म ले पाती है लघुकथा-जैसे सीपी में मोती जन्म लेता है। जब कोई धूलकण या फॉरेन बॉडी बाहर से सीपी में प्रवेश करती है, तो उसे घेर कर सीपी में स्राव शुरू हो जाता है। एक दीर्घकालिक प्रक्रिया के तहत वह धूलिकण एक टयूमर के रूप में मोती का रूप ग्रहण कर लेता है। कहना न होगा कि इस सहजात जैव प्रक्रिया के तहत सीपी को एक गहरी और लम्बी वेदना से गुज़रना होता है। आदमी विवश होकर ही लिखता है ,जैसे कोई झरना विवश होकर अंततः फूट निकलता है। साधारणतया एक लघुकथा का अंतिम प्रारूप व्यक्त होने के पहले ही अपना रूपाकार ग्रहण कर लेता है। यह तथ्य क्रोचे का गड़बड़झाला नहीं है। कहना बस इतना है कि जीवन महज एक तथ्य नहीं है-यह अपने आप में कथ्य भी है। जब जीवन के तथ्य और कथ्य एकमेक होकर गद्य के प्रारूप में अन्वित-संक्षिप्तियों में प्रकट होते है तो उसे लघुकथा कहते है।

लेकिन मोती का प्रारूप प्राप्त कर लेने से ही लघुकथा की सृजन प्रक्रिया संपन्न नहीं हो जाती। इस के बाद एक सूक्ष्म कलाजन्य-शल्य चिकित्सा अपेक्षित है। इसके बाद अत्यंत सतर्कता बरतते हुए सीपी से मोती को निकालना होता है। जो सीपी से मोती को नोंचकर निकालते है, वे हत्यारे हैं। कसाई हैं, शीघ्रस्रावी हड़बड़िए हैं।उन्हें किसी भी दृष्टि से लघुकथाकार नहीं कहा जा सकता।

बड़े भाई द्वारा सुनाया गया वह किस्सा बहुत दिनों बाद लघुकथा में तब्दील हो सका। शर्मा जी को और करीब से जानने की कोशिश की, कई बैठकों के बाद उनके होठों की मुस्कराहट के पीछे छिपे दर्द को जान पाया। तब जाकर ‘विजेता’ लघुकथा लिख सका ,जो हंस के जून 94 के अंक में प्रकाशित हुई-

“बाबा, खेलो न!’’

“दोस्त, अब तुम जाओ। तुम्हारी माँ तुम्हें ढूँढ रही होगी।”

“माँ को पता है-मैं तुम्हारे पास हूँ। वो बिल्कुल परेशान नहीं होगी। ‘पकड़म-पकड़ाई’ ही खेल लो न!’’

“बेटा, तुम पड़ोस के बच्चों के साथ खेल लो। मुझे अपना खाना भी तो बनाना है।”

“मुझे नहीं खेलना उनके साथ! वे अपने खिलौने भी नहीं छूने देते।”

अगले ही क्षण कुछ सोचते हुए बोला, “मेरा खाना तो माँ बनाती है, तुम्हारी माँ कहाँ है?’’

“मेरी माँ तो बहुत पहले ही मर गई थी।” नब्बे साल के बूढ़े ने मुस्कुराकर कहा।

बच्चा उदास हो गया। बूढ़े के नजदीक आकर उसने उसका झुर्रियों-भरा चेहरा अपने नन्हे हाथों में भर लिया, “अब तुम्हें खाना बनाने की कोई जरूरत नहीं, मैं माँ से तुम्हारे लिए खाना ले आया करूँगा। अब तो खेल लो!’’

‘दोस्त!’’ बूढ़े ने बच्चे की आँखों में झाँकते हुए कहा, “अपना काम खुद ही करना चाहिए…और फिर…अभी मैं बूढ़ा भी तो नहीं हुआ हूँ …है न !’’

“और क्या, बूढ़े की तो कमर भी झुकी होती है।”

“तो ठीक है, अब दो जवान मिलकर खाना बनाएँगे।” बूढ़े ने रसोई की ओर मार्च करते हुए कहा। बच्चा खिलखिलाकर हँसा और उसके पीछे-पीछे चल दिया।

कुकर में दाल-चावल चढ़ाकर वे फिर कमरे में आ गए। बच्चे ने बूढ़े को बैठने का आदेश दिया, फिर उसकी आँखों पर पट्टी बाँधने लगा।

पट्टी बँधते ही उसका ध्यान अपनी आँखों की ओर चला गया-मोतियाबिन्द के ऑपरेशन के बाद एक आँख की रोशनी बिलकुल खत्म हो गई थी। दूसरी आँख की ज्योति भी बहुत तेजी से क्षीण होती जा रही थी।

“ बाबा, पकड़ो…पकड़ो…!’’ बच्चा उसके चारों ओर घूमते हुए कह रहा था।

उसने बच्चे को पकड़ने के लिए हाथ फैलाए ,तो एक विचार उसके मस्तिष्क में कौंधा-जब दूसरी आँख से भी अन्धा हो जाएगा…तब?….वह …क्या करेगा?..किसके पास रहेगा?…बेटों के पास? नहीं…नहीं! बारी-बारी से सबके पास रहकर देख लिया…हर बार अपमानित होकर लौटा है…तो फिर …?

“मैं यहाँ हूँ …मुझे पकड़ो!’’

उसने दृढ़ निश्चय के साथ धीरे-से कदम बढ़ाए…हाथ से टटोलकर देखा…मेज..उस पर रखा गिलास..पानी का जग…यह मेरी कुर्सी और यह रही चारपाई…और…और…यह रहा बिजली का स्विच…लेकिन..तब..मुझ अन्धे को इसकी क्या जरूरत होगी?…होगी…तब भी रोशनी की जरूरत होगी…अपने लिए नहीं….दूसरों के लिए….मैंने कर लिया…मैं तब भी सब काम कर लूँगा!

“बाबा, तुम मुझे नहीं पकड़ पाए। तुम हार गए…तुम हार गए!’’ बच्चा तालियाँ पीट रहा था।

बूढ़े की घनी सफेद दाढ़ी के बीच होठों पर आत्मविश्वास से भरी मुस्कान थिरक रही थी।

प्राप्त बहुत सी लघुकथाएँ ‘कालदोष के प्रेत से आक्रान्त दिखीं, जिसे साधने में लघुकथाओं का बण्टाधार हो गया। पता नहीं कब और क्यों लघुकथा के विद्वानों ने इस शब्द का आविष्कार किया था। हो सकता है कि उनका उद्देश्य पवित्र रहा हो, लेकिन यह भ्रमित ही अधिक करता है। लेखक को बिना किसी बन्धन के स्वतंत्र रूप से लिखना चाहिए। बाद में यदि कथा-प्रवाह बाधित हो रहा हो, तो उसको अन्य तरीकों से साधने का प्रयास करना चाहिए । प्रसिद्ध साहित्यकार एवं नाटयकर्मी उर्मिल कुमार थपलियाल ने अपने आत्मकथ्य में कहा है, “ लघुकथा में मध्यान्तर नहीं होता’’ कालदोष के सम्बन्ध में हम इतनी-सी बात याद रखें, तो सारे भ्रम दूर हो जाएँगे।

संवाद-शैली में बहुत सी लघुकथाएँ प्राप्त हुईं । आधुनिक संदर्भों में मण्टो की तर्ज पर लिखी गई रचनाएँ बिलकुल प्रभाव नहीं छोड़ पाईं। संवाद-शैली में लिखना बहुत कठिन है, इसे साधना हरेक के बस की बात नहीं है। संवाद के माध्यम से आपको कथ्य विकास करना होता है और इन्हीं के माध्यम से चर्मोत्कर्ष तक पहुँचना होता है ; लेकिन बहुत से रचनाकार कसम खाकर पूरी रचना में संवाद से इतर कोई वाक्य (अनिवार्य होने पर भी) नहीं आना देना चाहते ,जिससे रचना बहुत अस्वाभाविक हो जाती है। इसे स्पष्ट करने के लिए उदाहरणस्वरूप एक मोटर मैकेनिक एवं कार मालिक के बीच गढ़ा गया संवाद प्रस्तुत है-

“आओ साहब,चाय पी लो’’

“अरे भाई, तुम पियो,मैं तो एसिडिटी का मरीज हूँ।”

“एक बात पूछूँ ,मास्टर?’’

“हाँ.., पूछो साहब।”

“शादी कब करोगे?”

“………………..’’

यहाँ पात्र लेखक के हाथ की कठपुतली नज़र आते हैं। लेखक उनसे जो कहलवाना चाह रहा है ,कहलवा रहा है। मास्टर से एकाएक बिना सन्दर्भ के शादी की बात पूछना अटपटा लगता है।सवाल जबरदस्ती मोटर मालिक के मुँह से ही कहलवाया गया लगता है। इसको इस रूप में भी लिखा जा सकता था-

“आओ साहब,चाय पी लो’’

“अरे भाई, “तुम पियो ,मैं तो एसिडिटी का मरीज हूँ।”

तभी गैराज के सामने से एक युवक और युवती खिलखिलाते हुए गुज़रे। मास्टर चाय पीना भूलकर एकटक उन्हें देखता रह गया।

“एक बात पूछूँ मास्टर।”

“हाँ.., पूछो साहब।”

“मास्टर, जिंदगी भर इन मोटर के कल-पुर्जों से जूझते रहोगे या शादी के बारे में भी सोचोगे ?

“…………………….’’

प्रस्तुत संवाद में युवक युवती का वहाँ से गुज़रना और मास्टर का चाय पीना भूलकर एकटक उन्हें देखते रहना,मोटर मालिक द्वारा पूछे गए सवाल की भूमिका तैयार करता है, और संवाद स्वाभाविक लगते हैं। लेकिन पहला उदाहरण संवाद-शैली में लिखने की जिद के कारण बनावटी मालूम होता है। इसी प्रकार अनेक छोटे-छोटे उदाहरण दिए जा सकते है, जहाँ लघुकथा के पात्र लेखकों के हाथ की कठपुतली मालूम पड़ते हैं।

लघुकथा का शीर्षक और समापन बिन्दु दोनों अन्य विधाओं की तुलना में अधिक श्रम की माँग करते हैं। प्राप्त लघुकथाओं में इनके प्रति लापरवाही दिखाई देती है। यहाँ तक कि पुरस्कृत लघुकथाओं में ‘टचस्क्रीन’ को छोड़कर अन्य में शीर्षक चयन पर मनन नहीं किया गया प्रतीत होता है। आप जो कहना चाहते हैं उसमें शीर्षक और समापन बिन्दु बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं। उर्मिल कुमार थपलियाल लिखते हैं,-‘लघुकथा स्वयं में नाटक का दृश्यबोध रचती है, वह विवरणों में नहीं जाती। लघुकथा में अन्त खुलना नहीं चाहिए। यही बारीक ख्याली है, शायरी की तरह। लघुकथा को केवल उसके शिल्प तक साधना उसे नष्ट करना है। फेंटेसी को भी आज का आधार तो लेना ही होगा। यह एक सरलीकरण होगा कि लघुकथा को एक गोली की तरह दगना और धँसना चाहिए।

लघुकथाओं में महेश शर्मा की ‘ज़रूरत’ निर्णायकों के सम्मिलित अंकों के आधार पर प्रथम स्थान पर रही। इसमें लेखक ने पुराने सामान को ऑनलाइन बेचने के आधुनिक संदर्भ को घर में अलग-थलग पड़ गए बुजुर्गों से जोड़कर उस अपसंस्कृति की ओर ध्यान आकर्षित किया है ,जिससे बुज़ुर्गों को अक्सर दो चार होना पड़ता है। लघुकथा में प्रवाह है ,जो पुराने एलबम एवं स्वर्गवासी पत्नी को स्मरण करते हुए कहीं से बाधित नहीं होता । लघुकथा चरमोत्कर्ष पर समाप्त होती है। समापन में जिस अतिरिक्त रचना-कौशल की बात की जाती है,वह इस रचना में देखने को मिलती है। कैमरे की फ्लैश का तेजी से उनकी ओर लपकना और घर में दूसरे पुराने सामान की तरह उनके गैर जरूरी हो जाने के डर से उनका जीवन पर्यन्त मुस्कराकर फोटो खिंचवाने वाले चेहरे का सन्न रह जाना! यहाँ लेखक द्वारा ‘लपकना’ शब्द का इस्तेमाल लघुकथा के मूल स्वर के अनुरूप है। अदभुत! लघुकथा अपने गुणधर्म के पूर्णतया अनुरूप है।

सुरेश बाबू मिश्र की लघुकथा ‘समाधान’ भ्रष्टाचार पर लिखी जा रही लघुकथाओं में अपनी पहचान बनाने में सफल रही है। इस तरह की लघुकथाओं के लेखन में लम्बी सृजन प्रक्रिया की ज़रूरत नहीं होती। कुछ तथ्यों से दो चार होते लेखक के सामने अकस्मात् कथ्य खुल जाता है। इसको वही लिख पाता है ,जो इन परिस्थितियों से गुज़रा हो या जिसने इन परिस्थितियों को बहुत करीब से देखा हो। मंत्री जी के कैंडिडेट की सिफारिश आते ही चयन समिति के चट्टे-बट्टों को इस संकट का यही समाधान सूझता है कि सबसे ब्रिलिएंट अभ्यर्थी का नाम काट दिया जाए। वह तो काबिलियत के बल पर कहीं भी नौकरी पा जाएगा। रचना में तथ्य और कथ्य एकमेक होकर निर्णायकों का ध्यान खींचने में सफल हुए हैं।

कभी-कभी लघुकथा का कथ्य इतना पावरफुल होता है कि वो रचना की कुछ कमियों के बावजूद पाठक को प्रभावित करने में सफल हो जाता है। राधेश्याम भारतीय की लघुकथा ‘चेहरे’ को और कसा जा सकता था। ‘थोड़े दिनों बाद उस रास्ते पर मिट्टी डलनी शुरू हो गई और फिर सीमेण्ट की ईंटें भी बिछने लगीं’ जैसे वाक्य लघुकथा के प्रवाह को बाधित करते हैं, इसे साधा जा सकता था। परन्तु जो बात लेखक लघुकथा के माध्यम से कहना चाह रहा है कि वह इतनी महत्त्वपूर्ण है कि रचना के समापन बिन्दु तक आते-आते सब कमियाँ पीछे छूट जाती हैं। यह रचना हमारा ध्यान उस विडम्बना की ओर खींचती है, जिसमें हम अपेक्षा करते हैं कि फलाँ सामाजिक कार्य हो जाए, पर दूसरों के द्वारा। अपने योगदान की बात आते ही हम पीछे हट जाते हैं। फौज में भर्ती जवानों को हम सब सैल्यूट करते हैं पर अपने बेटे को फौज में भेजने के नाम पर बगलें झाँकने लगते हैं।

सन्तोष सुपेकर की लघुकथा ‘लार पर आघात’ लघुकथा के गुण धर्म पर खरी उतरती है; परन्तु लेखक को शीर्षक पर और अधिक मेहनत करनी थी। इस रचना में स्टेशन पर तैनात वर्दी वाले को आबण्टित कार्य में जब आम आदमी सहयोग करना चाहता है ,तो क्या होता है, उसे रोचक ढंग से दर्शाया गया है।

नीना छिब्बर ने ‘टच स्क्रीन’ के माध्यम से सोशल मीडिया के इस दौर में आत्मकेन्द्रित युवा पीढ़ी की सम्वेदनाशून्य सोच को उजागर किया है। वहीं बुजु़र्गों की पीड़ा हृदय को मथ देती है-‘दादी ने भी हँसते हुए पोपले मुँह से कहा कि बिटिया आप सब लोग हमें सह रहे हो ,वही बहुत है, छूकर महसूस करने की ताब तुम लोगों में कहाँ, मुझे तो यह मोबाइल भी इसीलिए दिया गया है कि पता चलता रहे कि बुढ़िया की घण्टी कहीं बजना बंद तो नहीं हो गई। फिर बिटिया, स्पर्श काँच छूकर नहीं, दिलों से हाथों तक पहुँचता है। शीर्षक ‘टचस्क्रीन’ सटीक है और कथा के मूल स्वर को समापन बिन्दु तक बखूबी सम्प्रेषित करता है।

फेसबुक चैटिंग की मायावी दुनिया की गुलाम होती जा रही पीढ़ी की संवादहीनता के संकट को सुनील गज्जाणी ने ‘इच्छा’ लघुकथा में पेश करने का प्रयास किया है। आभासी संसार के मित्रों के साथ पति दिन रात चैटिंग में व्यस्त रहता है, अकेलेपन का दंश झेल रही पत्नी द्वारा पूछे गए प्रश्नों का हाँ- हूँ में उत्तर देता है। पत्नी पति से एंड्रायड फोन की माँग करती है। पति द्वारा प्रयोजन पूछने पर भीगी पलकों से उत्तर देती है, “और कुछ नहीं, चैटिंग के जरिए आप भी मुझसे खुलकर बातें करेंगें।” रचना का अंत अस्वाभाविक लगता है फिर भी रचना अपने उद्देश्य में सफल है।

सीमा जैन की ‘डर’सकारात्मक सोच की सशक्त लघुकथा है। आकार प्रकार में अपने गुणधर्म का निर्वहन भी करती है। इन विषयों पर लिखा भी बहुत जा रहा है , यही वजह है कि निर्णायकों की पसन्द में अपेक्षाकृत नीचे रही है। समाज के हालात को देखते हुए माँ बाप अपने पुत्र को जीते जी सब कुछ सौंपने में डरने लगे हैं। लेखिका ने अच्छाई पर फोकस करते हुए ऐसे भाग्यशाली बुज़ुर्गों के डर को कम करने का सार्थक प्रयास किया है।

आज बच्चे मोबाइल या टीवी पर गेम खेलने में व्यस्त रहते हैं । जहाँ खेल में विरोधी से युद्ध करना होता है ,वहाँ बच्चे जिस तरह तड़-तड़ मशीनगन चलाते हैं, कृत्रिम दुश्मनों को ढेर कर खिलखिलाते हैं । यह देखकर डर लगता है। यह मशीनी खेल किस कदर बच्चों को समवेदनाशून्य बना रहा है ।इसी को संध्या पी दवे ने अपनी लघुकथा ‘राक्षस’ में सम्प्रेषित करने का प्रयास किया है।

सारिका भूषण की लघुकथा ‘एक स्पेस’ को लघुकथा में नये विषयों की तलाश के रूप में रेखांकित किया जा सकता है। रचनाकार स्वयं स्त्री है, उसकी प्रस्तुति निःसंदेह विश्वसनीय मानी जानी चाहिए। लेखिका ने इस कथा के माध्यम से उस स्पेस की बात की है ,जो स्त्री -पुरुष सभी को अपने रिश्ते के बीच चाहिए।

सीताराम गुप्ता की ‘हैसियत’ का विषय पुराना है।हैसियत का दिखावा करने वाले व्यक्ति किस कदर संवेदनाशून्य हो जाते हैं, इसकी प्रस्तुति दो स्थितियों की माध्यम से लेखक ने की है। बेटी की सास को शॉल देना और दो दिन बाद ही उसकी मृत्यु हो जाने पर पुनः शॉल खरीदने जाना संयोग आधारित होने के कारण रचना को कमजोर करता है।

बाल कीर्ति की ‘बाइस्कोप… लघुकथा में प्रयोग की दृष्टि से निर्णायकों का ध्यान खींचने में सफल रही है। रचना में बिखराव है। ऐसी रचनाओं का समापन काफी चुनौती- भरा होता है। कथा में उठाए गए विभिन्न विषयों का संयोजन नहीं हो सका है। बड़े आकार के बाद भी लघुकथा मुकम्मल मालूम नहीं पड़ती।

पुरस्कृत लघुकथाओं की यदि ग्रेडिंग की जाए तो महेश शर्मा की लघुकथा ‘जरूरत’ और अन्य लघुकथाओं में काफी फासला दिखाई देता है। कुल मिलाकर पुरस्कृत लघुकथाएँ इस दृष्टि से आश्वस्त करती हैं कि सभी रचनाकारों का हाथ समाज की नब्ज पर है,वे अपने लेखकीय दायित्व के प्रति सजग हैं । सभी प्रतिभागियों को निर्णायकों की ओर से बधाई एवं शुभ कामनाएँ!

एक रचनाकार होने के नाते मैं सभी साथियों से निवेदन करना चाहूँगा कि वे अपनी कथाओं के रचयिता है। रचनाएँ हमें किसी संतान की तरह प्रिय होती हैं। अच्छी रचना वही है ,जो पाठक को पसन्द आए। पाठक को लघुकथा के गुण-धर्म से कुछ लेना देना नहीं होता, फिर भी लघुकथा की विकास-यात्रा के लिए इस प्रकार के आयोजन बहुत जरूरी प्रतीत होते हैं। प्रतियोगिता के बहाने नए लेखकों को राष्ट्रीय स्तर पर एक प्लेटफ़ॉर्म उपलब्ध कराने का विनम्र प्रयास भी है। आशा है आगामी आयोजनों में आपका भरपूर सहयोग मिलेगा।