लघुकथा का निबंध / जयप्रकाश मानस
लघुकथा पढ़ने–लिखने में एक शब्द पर वस्तुत: यह दो भावों का गठबंधन है–लघु और कथा। एक–दूसरे के संपूरक। यही लघुकथा की शास्त्रीयता है और इस शास्त्रीयता को आत्मसात किए बगैर लघुकथा की सिद्धि असंभव है।
लघुता ही लघुकथा की प्रभुता है और उसमें जो कथा है वही इस लघुता की प्रभूता है। लघु यानी कि विधात्मक तौर पर जीवन की कोई सूक्ष्म इकाई या कोई या फिर कोई दिशा। और कथा यानी कहानी जिसके बारे में फिलहाल किसी व्याख्या या पाद–टिप्पणी की जरूरत नहीं है। तो लघुकथा यानी छोटी–सी कथा। न तो कहानी का सार रूप और न ही अंग्रेजियत वाली शार्ट–स्टोरी। स्ट्रक्चर और टैक्स्चर दोनों में विशिष्ट और निजी मान्यताओं के साथ। लघुकथा का आशय घटना या समय के हिसाब से क्षण–क्षण की कथा किन्तु संवेदना या सरोकाार की दृष्टि से जीवन की सम्पूर्णता के लिए सूक्ष्म कथा। लघुकथा मत और मति–भिन्नता से भले ही अनगिनत परिभाषाओं से संपन्न है किन्तु अपने मूल में वह जीवन की आलोचना ही है। जीवन की आलोचना है इसलिए वह (कारण और परिणाम दोनों में) सर्वाधिक गतिशील रचनाकारों की प्रियतम विधा है। उसकी आत्मा में यथार्थ का निवास है पर वह मात्र यथार्थवादी विधा नहीं उसमें संपूर्ण भारतीयता, संपूर्ण मानवता और संपूर्ण वैश्विकता का अविछिन्न सौंदर्य भी है। फलत: शुष्क प्रगतिशीलता नहीं अपितु गतिशीलता का प्रखर प्रतिनिधित्व करने वाली विधा है और इस मायने में वह वाद नहीं–मानवीय संवाद का अजस्र आह्वान है। लघुकथा को वेद,पुराण, रामायण, महाभारत,पंचतंत्र,हितोदेश, बौद्ध–जैन, ईसप, जातक बाईबिल आदि की कथाओं की तारत्मयता में भले ही हमारे पुरातत्व प्रिय विधाविद् देख रहे हों। भले ही उसे नैतिक ओर आध्यात्मिक दृष्टांतों से विकसित मानने की आलोचकीय जिद्द भी हो, किन्तु लघुकथा सांस्कृतिक चेतना से दूर भागते मनुष्य की वापसी के लिए नई रचनात्मक चेष्टा है। वह हालात का हस्ताक्षर है। इन मायने में उसे दीर्घ ऐतिहासिकता से जोड़कर एक अखंड किन्तु असिद्ध कथा–परंपरा में देखना शायद अतिरिक्त मुगालता है या फिर लघुकथाकारों की आत्महीनता भी। यह मनुष्य की समग्रता के खंड–खंड होने के बरक्स रचनाकारों की संवेदनात्मक और समय–सम्यक विधा है। रंग और रूप दोनों ही दृष्टियों सें उसकी ज़मीन, उसका आकाश सबकुछ भिन्न है और ऐसी सारी कथागत अवधारणाओं से कहीं अलग। वह स्वंय में विशिष्ट और साहित्य के प्रजातंत्र में पूर्ण स्वतंत्र और पृथक विधा है।
व्यंग्य या तीखापन लघुकथा का रस है पर यह व्यंग्य या लघु–व्यंग्य भी नहीं है। भले ही नामवरीय या परमांनदीय या मैनेजरीय दृष्टि में उसकी परतंत्रता और पंगुता भी दिखती हो पर कमल किशोरीय और पुष्करणीय चेष्टा के सामने है कोई,जो उसे स्वतंत्र और अस्मितावान् विधा न मानने को सिद्ध कर सके। एक साहित्यिक विधा की संपूर्ण ्शर्तों के साथ...भगवान को धन्यवाद कि ऐसे महानुभावों की कृपा के बगैर ही आज लघुकथा समूचे पाठकीय संसार में कंठहार बन चुकी है और इसके लिए लघुकथाकार और पाठक दोनों ही प्रणम्य है। लघुकथाकारों को आभार दिया जाना चाहिए कि उन्होंने लघुकथा के माध्यम से नया पाठकीय स्वाद बगराकर घटती हुई पाठकीयता को बनाए रखा और पाठक को इसलिए बधाई कि उसने अपनी संपूर्ण आस्था और विश्वास लघुकथा की झोली में उड़ेल दिया है। लघुकथा को केवल द्रुत गति वाले समय के दबाव से उपजी, विकसित और स्वीकृत विधा कहना गलत होगा।
यद्यपि साहित्यिक विधाओं के उपवन में यह लघुतम है पर समापवर्तक भी है जीवन का। लघुकथा का मतलब जीवन का लघुतम समापवर्तन। लघुकथा कई अर्थों में लघु है। वह कथा–कुल की सबसे कनिष्ठ सदस्या है, इसलिए लघु है। लघुकथा गद्य परिवार की सबसे छोटी विधा है। इन दृष्टियों से आप हम उसे लघु कह कर उपेक्षा नहीं कर सकते। पर यदि आप जब कभी उसे चुटकुले या किसी प्रेरक प्रसंग की छवि में आँक रह होते हैं तो आप स्वंय को किसी नौसिखिए लेखक, फूहड़ किस्म के रचनाकार, संपादक, आलोचक होने का स्वत: प्रमाण भी सौंप रह होते है।
लघुता उसका शिल्पगत आचरण है। लघुता भी कैसी? दूब की मानिंद। चंद्रमा की मानिंद। दूब कभी बड़ी नहीं होती, पर दूब की आभा समूचा वृक्ष भी नहीं जुटा पाता । चंद्रमा भी बड़ी नज़र नहीं आता। फुटबाल जैसा दिखाई देने वाला चंद्रमा छह महाद्वीप, सैकड़ों देश, हजारों नगर, लाखों गाँव और करोड़ों खरबों लोंगों के नाम चाँदनी रचता है। तो लघुता उसका आचरण मात्र है। विनम्र चीज़ों की निशानी है कि वे अपनी हाँकते नहीं। लघुकथा भी हाँकने में कमजोर है। यह उसकी अयोग्यता नहीं वरन् परम योग्यता का प्रमाण है। है तो वह लघु पर वह एक समूची और सर्वकोणीय कथा का बखान या व्याख्या भी है। उसी कथा से कई कथाओं, इतिहासों, वर्तमानों और भविष्य की दिशा देखी जा सकती है। लघु होते हुए भी उसकी प्रभुता में विद्यमान है। अपनी प्रभुता को अपनी लघुता में ही दिव्यता देने वाली किसी और विधा का नाम शायद ही आप या हम हिंदी वाले बात सकते हैं।
लघुकथा जीवन के एकांश का साक्षात्कार है, किसी एक दृश्य की वीडियोग्राफी है, व्याधिग्रस्त किसी एक अंत:अंग का एक्सरा है। लघुकथा में अतिरिक्त उपकथा या प्रसंग का प्रवेश वर्जित है। कथापात्रों की शारीरिक उपस्थिति भी वहाँ सीमित और अनुशासित है। यही आत्मानुशासन लघुकथा में संक्षिप्तता का आवश्यक उपकरण है। और संक्षिप्तता केलिए चुस्त–दुरुस्त किन्तु स्वाभाविक वाक्य विन्यास अपरिहार्य है। ऐसे में जाहिर है कि शब्द अमिधा से कम व्यंजकता से अधिक प्रतिष्ठित हो। कथ्य और कथोपकथन या कथा–वर्णन निहायत स्वाभाविक हो। इसे एक चमकदार लघुकथा का खास आकर्षण कह सकते है। कृत्रिमता का लघुकथा से स्थायी बैर है। कथावस्तु और भाषा–शिल्प दोनों की ही दृष्टि से। हम जब लघुकथा की भाषा की बात करते हैं तो उसमें सहजता, पात्रानुकूलता, रोचकता, समकालीनता और संपूर्ण संप्रेषणीयता की भी बात करते हैं।
हम सभी जानते हैं कि लघुकथा की आकृति को लेकर तरह–तरह की अंकगणितीय उद्धोषणाएँ होती रही हैं। मैं समझता हूँ कि साहित्य में गणितीय स्थापानाएँ नहीं चलतीं। फिर लघुकथा मात्रिक छंद तो नहीं जिसे मात्राओं और शब्दों में बाँधा–छाँदा जा सके। पर इसका मतलब नहीं कि उसमें कथा या ललित निबंध जैसी वाचालता की छूट हो। लघुकथा के सभी मान्य आचरणों की अवहेलना यदि लघुकथाकार न कर तो वह स्वयं लघुकथा को सीमित शब्दों में रख सकता है। मैं एक योग्य पाठक हीन दृष्टि लघुकथा के समूचे भूगोल को एक ही बार में देखना चाहता हूँ यानी कि शीर्षक से लेकर उसक लेखक का नाम एक ही बार दिख जाए। उसके लिए पन्ना पलटने की बाध्यता न रहे।
लघुकथा लेखकीय उपस्थिति रहित विधा है। लघुकथा और जीवन के मध्य किसी ी की सत्ता स्वीकार नहीं है। लेखक यहाँ अदृश्य रहता है। उसी अदृश्यता में ही उसकी उपस्थिति होती है। रचना में उसकी उपस्थिति कला को खंडित करती है। उसे बोझिल बनाती है। पाठक और रचना के बीच व्यवधान बनती है। लघुकथाकार की अनुपस्थिति ही लघुकथा को कला-समृद्ध बनाती है। तो हम कह सकते हैं कि लघुकथाकार अन्य विधाकारों से कहीं अधिक त्यागी है। त्यों–त्यों लघुकथा की दम घुटने लगता हे। कह सकते हैं कि लघुकथा में कला का सीमित प्रक्षेपण होता है। इस मायने में लेखक की अनुशासनप्रियता और सीमितता यहाँ गौरतलब हो सकती है। सीमितता लघुकथाकार का अंकुश है। सीमित शब्दों के सुंसगति से पाठक लघुकथा जैसे बीज में ही पौधे और उसकी समूची हरितिमा से प्लावित हो सकता है।
सच्ची लघुकथा यथार्थ की ईमानदार पड़ोसन है। इस अर्थ में कि वह यथार्थ की संपूर्ण और बारीक से बारीक चुगली में चुकती नहीं है। उसे विडम्बनाओं से घृणा है; उसे विद्रपताओं से परहेज है। वह है ना आखिर मानवतावादी पड़ोसी। पड़ोसी इस रूप में भी हे कि वह आज पाठक के सबसे करीब की विधा है। एक आम पाठक कथा, उपन्यास,बॉचने से पूर्व उसके आकार और सीमा का परीक्षण करता है पर लघुकथा पर पहले अपनी आँखों और मन को ले जोड़ता है। लघुकथा ऐसी विधा है जो पाठक के आँखों में एक ही बार में अपनी आकृति के साथ दिखाई दे जाती है। प्रकृति भले ही बाद में पता चले पर लघुकथा की यही आकारगत शिल्प उसे अन्य विधाओं से कहीं अधिक पाठकीय आमंण भेजती है। लघुकथा इस मायने में भी लघु कि वह घाव गंभीर करती है। देखने में छोटे लगे–घाव करे गंभीर। उसका अर्थशास्त्र बहुत ही अनुशासन की माँग करता है। ठीक उस तरह जिस तरह से मनमोहन सिंह का वित्तीय अनुशासन उन्हें एक दिन प्रधानमंत्री की आसंदी तक ले पहुँचता है। एक भी शब्द यदि आप नाहक प्रयोग हैं तो समझिए कि आपमें मितव्ययिता के गुण नहीं है और आपमें मितव्यतिता के गुण नहीं है तो बेहतर है कि लघुकथा को दिया जाने वाला समय आपको कथा या फिर ललित निबंध के लिए देना चाहिए जिसे आप–हम जैसे वाचाल रचनाकारों की शख्त जरूरत है। तो शब्दानुपयोग में लघुकथाकार को सख्त और सचेत होना ही चाहिए। कुछ ही अतिरिक्त शब्द आपको लघुकथाकार के श्रेष्ठ पद से च्युत कर सकते हैं और कुछ ही सटीक,सार्थक और सारगर्भित शब्द आपको लघुकथाकार के रूप में स्थापित कर सकते हैं। कह सकते हैं कि अमिधा के बदले लक्षणा और व्यंजना के गांभीर्य के प्रति कहीं ज्यादा सचेतता अपरिहार्य है लघुकथा लिखने के लिए। कहा गया है–बातन हाथी पाइए, बातन हाथिन पाँव। प्रकारांतर से कहा जा सकता है कि शब्दों के भीतर प्रवेश किए बिना, उसकी लंबाई, चौड़ाई और गहराई नापे बिना लघुकथा का क्षेत्रफल सिद्ध नहीं किया जा सकता है। लघुकथा दोहे, गज़ल की तरह ऐसी विधा है जिसमें प्रत्येक शब्दों की विश्वसनीयता दर्ज होती है। अन्य विधा को उठाकर देखिए–सैकड़ों और कहीं–कहीं तो हज़ारों शब्द अकारज जगह घेरे दिखाई देते हैं। किसी महानगर में बेजा कब्जा किए हुए बेघरवारी की तरह। लघुकथा साहित्य में ऐसी बसाहट है, जहाँ शब्दों का बेज़ा कब्ज़ा का साफ और निहायत मनाही है।
शिल्प की सिद्धि कोई वैयाकरण नहीं कर सकता। शिल्प निहायत निजी मामला है। यही रचनाकार का व्यक्तित्व भी है। जिस दिन हम शिल्प के वैरायटीज के बारे में अपनी अंतिम राय दे देगें एक तरह से लघुकथा को परिसीमित करने का व्हीप भी जारी कर रहे होंगे। यह एक तरह से बंदीकरण का कार्य जैसा होगा। वैयाकरण दिशा दे सकते हैं। पर यह कतई जरूरी नहीं कि पथिक उसी दिशा में जाए। जो बताए गए मार्ग में चलता है, वह जाने–पहचाने गंतव्य तक ही पहुँचता है। असाधारण रचनाकार वही होता है जो अक्सर बिना मार्गदर्शक के खुद मार्ग बनाता है। कदाचित् वही भविष्य में कुछ आगे केलिए गंतव्य–सा बन जाता है।
लघुकथा का आलोचक स्वयं लघुकथाकार को होना पड़ेगा। वह इसलिए कि जहाँ आप छपते हैं जरूरी नहीं कि वहाँ कमलेश्वर, रमेश बतरा, बलराम, जगदीश कश्यप, विक्रम सोनी, सतीशराज पुष्करणा, डॉ.राजेन्द्र सोनी, सुकेश साहनी या गिरीश पंकज ही मिलें। वहाँ कई बार आप एक फीलर के रूप में लिए जाते हैं। इसे लेकर आप मुगालते में मत रहिए कि वही लघुकथा का नाता है। उसे कई बार विधाओं के हिसाब से भी पेज को इंद्रधनुषी रंग में सजाना होता है। आपकी रचना मिली, बस्स, छप गई धड़ाधड़....। जिसे लघुुकथाकार पत्र–पत्रिकाओं और पाठकों के लघुकथा की पैठ समझता है कहीं वह कचरा लेखन का प्रोत्साहन तो नहीं....इस पर भी बारीक आत्मपरीक्षण की आवश्यकता अब भी बनी हुई है।
तो चलिए सीधे लघुकथा के चरित्र पर गौर करते हैं। न अधिक शब्दों। न अधिक छंद। न अधिक राग, न ही अधिक द्वेष। लघुकथा अधिक तटस्थ विधा है। लघुकथा सिंहावलोकन वाली विधा है। विहंगलावलोकनीय लेखन की संभावना से परहेज करने वाली विधा। यहाँ उड़ान की गुंजाइश नहीं है। लघुकथा को कथ्य और शिल्प के स्तर पर हम विकल्पहीन विधा के रूप में भी सिद्ध कर सकते हैं। इसके पीछे दो कारण है। एक तो यह कि लघुकथा यथार्थ का दर्पण है। वहाँ कल्पना या फैंटेसी के लिए कोई खास स्पेस नहीं है। और है तो भी उतना ही जिससे उसकी विश्वसनीयता अमर रहे। काल्पनिकता तो लघुकथा में उस तरह से होती है जैसे कि देह में साँसें। हम हरदम साँस लेते हैं किन्तु हमें उसका प्रत्यक्ष अहसास कम ही रहता है।
कथ्यों का सही और सटीक चयन, तथ्यों का अनूठा प्रसतुतीकरण, सारगर्भिता, स्पष्ट दृश्यांकन एक स्वस्थ लघुकथा के आधार हैं जिसका र्म स्वयं–सिद्ध है। सतर्कता बस यही कि विषय–वस्तु की विश्वसनीयता संदेहास्पद न लगे। कथ्यका कालक्रम इतना अल्प हो कि वहाँ कथायी परितर की अनुगूँजें न सुनाई दे। ममन में छाप न छोड़ने वाले पात्रों के प्रति हमदर्दी से बचना एक अच्छे लघुकथाकार का गुण माना जाना चाहिए। यानी कि पात्र ऐसे हो जिनसे संघर्ष का पाठ मिल सके और उदात्तता का भी। लघुकथा का अंत विस्फोटक या मारक होो। पर इसी मारकता के नाम पर चमत्कारिक वाक्यों और उद्धरणों की प्रामाणिकता कहीं संदिग्ध न हो जाए इसकी गांरटी भी लघुकथाकार को लेनी होगी। जहाँतक शीर्षक की बात है–वह ऐसा हो जैसे देह में सिर। सिर में ही मस्तिष्क, आँख,मुँह,कान, नाक आदि होते हैं जिनके बिना धड़ की कोई खास अहमियत नहीं। जाहिर है शीर्षक लघुकथा के समग्र व्यक्तित्व का सूत्र भी हो।
बहुधा यह भ्रम पैदा होता है कि लघुकथा में कथ्य और पात्र का आसतन चरित्र एक सा लगता है पर मुझे लगता है कि भविष्य में नए पात्रों का संकट नहीं रहेगा। समय परिवर्तनशील है। यही परिवर्तनशीलता उसे नई घटनाओं, नये पात्रों, नयी मन–स्थितियों, नयी दृष्टियों, नये कथ्यों, नये विषयों से समृद्ध बनाएगी। मैं यहाँ पर सुकेश साहनी की कुछ लघुकथाओं की ओर ध्यान ले जाना चाहूँगा (जो ई–मेल, इंटरनेट आदि पर केंद्रित और सशक्त लघुकथाएँ कही जा सकती हैं) जहाँ आप तकनीकी विषयों,प्रसंगों पर की ऐसी लघुकथाओं से रूबरु हो सकते हैं जिसकी कल्पना शायद ही प्रेमचंद कर सकते थे या दास्तोवस्की। तो कहने का आशय यही कि एक समर्पित लघुकथाकार को विषयवस्तु का संकट कभी भी नहीं रहेगा। हाँ, हमें अपनी दृष्टि को पारंपरिक विषयों के इमेज से बचाते हुए और अधिक बृहत्तर बनाना होगा। यूँ भी इक्कीसवीं सदी की गंभीर चुनौतियों में जिस तरह हम बाजार, वैश्वीकरण, उदारीकरण, अदृश्य उपनिवेशीकरण और उससे जुड़ी तकनीकियों को देख रहे हैं। कथित और आरोपित उत्तर आधुनिकता के विचारों के गंदे नाले में बहकर ‘‘कुछ भी निश्चित नहीं’’ जैसे विचारों को स्वीकारने के लिए मनुष्य को बरगला रहे हैं यह ज़रूरी है कि वहाँ लघुकथाकर गंभीरता से प्रवेश कर सकता है। यहाँ वह नये समय में अपने सरोकारों को भी ढूँढ सकता है और लघुकथा की सिद्धि को भी चरितार्थ कर सकता है। और हम ऐसा कर सके तो कोई दो मत नहीं कि लघुकथा कविता की तरह पाठक और समाज में अपनी विश्वसनीय सहकारिता दर्ज करा सकती है।