लघुकथा का वर्तमान परिदृश्य:एक दृष्टि / सुषमा गुप्ता
लघुकथा का वर्त्तमान परिदृश्य (लघुकथा समालोचना) , लेखक श्री रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, अयन प्रकाशन, 1 / 20 महरौली, नई दिल्ली-110030 प्रथम संस्करण, 2018, मूल्य रु0 280 / -पृष्ठ: 136, आई एस बी एन-978-93-87622-79-1
आज के दौर में लघुकथा एक महत्त्वपूर्ण विधा है। लघुकथा लेखन के साथ-साथ इसके चिन्तन-पक्ष पर भी विचार करना बहुत ज़रूरी है। इस दिशा में लघुकथा का वर्त्तमान परिदृश्य (लघुकथा समालोचना) , पुस्तक पढ़ने का अवसरमिला। 'लघुकथा: संचेतना एवं अभिव्यक्ति' में काम्बोज जी बताते है किस तरह मानवेतर पात्रों का समावेश लघुकथा को नया आयाम देता है पर अगर इन पात्रों का निर्वाह ठीक से न किया जाए, तो रचना पाठकों के हृदय में स्थान नहीं बना पाती। ठीक ऐसे ही प्रतीकों एवं मिथकों का प्रयोग भी बहुत सोच समझकर किया जाना बेहद ज़रुरी है। लघुकथा में भाषा के महत्त्व पर प्रकाश डालता बेहद उपयोगी आलेख है ये।
'बहुआयामी जीवन को आकर देती लघुकथाएँ' आलेख में लघुकथा के शिखर सुकेश साहनी जी की लघुथाओं पर आधारित है। उनकी एक से एक कालजयी रचनाओं का उदाहरण देकर उन्होंने लघुकथा में भाषा, शिल्प, शीर्षक सब के महत्त्व को उजागर किया है। 'डरे हुए लोग' साहनी जी का यह लघुकथा संग्रह है जो मेरे भी मन के बहुत निकट है।
तीसरा आलेख जयशंकर प्रसाद जी की लघुकथाओं पर आधारित है। उनकी प्रतिनिधि लघुकथाओं की बहुत सुंदर विवेचना को केंद्र में रख कर लेखक ने लघुकथा की बहुत-सी बारीकियाँ समझाई हैं। प्रसाद जी की अधिकतर लघुकथाओं का ताना-बाना जहाँ सड़ी गली रूढ़ियों और राजनीति के गिरते स्तर को उजागरकर विरोध दर्शाता है वहीं लघुकथा में काव्यमयी भाषा का प्रयोग भी उन्होंने किया हैं। प्रसाद जी के लेखन की अनगिनत खूबियों से रूबरू कराता सुंदर आलेख है ये।
'लघुकथा और भाषिक प्रयोग' आलेख की एक-एक पंक्ति मन-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव छोड़ती है "भाषा सीमाओं में नहीं बँधती।" कितनी गहरी बात कही काम्बोज जी ने कि भाषा सीमाओं में नहीं बँधती और जो बँधती है वह बदलते परिवेश में अपना अस्तित्व खो देती है। किसी भी समाज के विकास का आइना है भाषा। इसी आलेख की एक और पंक्ति देखिए जो लघुकथा के संदर्भ में है-
"पात्र, पात्र की मनःस्थिति, परिवेश, स्तर, परिस्थिति बहुत सारे ऐसे कारक हैं, जो भाषा के स्वरूप का निर्धारण करते हैं।" हर नवोदित लघुकथाकार के लिए इस पंक्ति की महत्ता समझना बहुत आवश्यक है।
काम्बोज जी ने श्यामसुंदर अग्रवाल, चित्रा मुद्गल, सुभाष नीरव एवं सुकेश साहनी की लघुकथाओं के माध्यम से लघुकथा में भाषा सौंदर्य के महत्त्व को बेहद असरदार तरीके से सामने रखा है। भाषा किसी भी रचना के प्राण है ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी।
'बालमनोविज्ञान की कसौटी' राजस्थान के चुनिंदा लघुकथाकारों को में रख लिखा गया आलेख बेहद महत्त्वपूर्ण है, जो इस बात पर ध्यान खींचता है कि बच्चों से सम्बंधित लघुकथाएँ सिर्फ़ कल्पना की उड़ान पर ही आधारित न हो, अपितु बाल मनोविज्ञान की जानकारी होना भी उनके सुख-दुख के पलों और समस्याओं को उजागर करने के लिए अत्यंत आवश्यक है अथवा वह रचना कभी प्रभावशाली नहीं बन पाएँगी।
'इंटरनेट और लघुकथा' , बदलते परिवेश में इंटरनेट के माध्यम से लघुकथाओं और अन्य साहित्यिक सामग्री अब देश ही नहीं अपितु विदेशों में भी सहज पहुँच रही है। इस आलेख में लघुकथा डॉट कॉम सहित बहुत-सी वेब साइट्स और वेब पत्रिकाओं की जानकारी दी गई है। बहुत से लोगों का उल्लेख है, जिनको आप तक ये सामग्री सहजता से घर बैठे उपलब्ध कराने का श्रेय जाता है।
'लघुकथा में समालोचना का भविष्य' आलेख बेहद ही महत्त्वपूर्ण है। बेबाकी से आज के परिवेश की कमियों को उधेड़ा गया है। जहाँ एक तरफ सतीशराज पुष्करणा, डॉ रूपदेव गुण, इरा वलेरिया शर्मा, कृष्णानंद कृष्ण एवं सुकेश साहनी जी के समीक्षक रूप में किए महत्त्वुपूर्ण कार्यों का उल्लेख है, वहीं दूसरी तरफ सिर्फ़ अपने कार्य से आत्ममुग्ध रहने वालों पर गहरा कटाक्ष किया गया है। पर स्पष्ट दिखाई देता है कि लेखक का उद्देश्य किसी कटाक्ष का नहीं अपितु समालोचना में गिरते स्तर की तरफ ध्यान आकर्षित करना है, ताकि भविष्य में अच्छी रचनाओं को ज़्यादा से ज़्यादा पाठकों तक पहुँचाया जा सके.
'कथ्य की नवीनता एवं प्रस्तुति की सजगता की लघुकथाएँ' आलेख साहित्य के स्थापित स्तंभ श्री बलराम जी के महत्त्वपूर्ण कार्यों पर एवं लघुकथा क्षेत्र में दिए गए उनके अभूतपूर्व योगदान पर प्रकाश डालता है। बलराम जी की लघुकथाएँ किसी भी नवोदित के लिए किसी इनसाइक्लोपीडिया से कम नहीं हैं।
'शोषित नारियों की कथाएँ' ये आलेख उन महत्त्व पूर्ण लघुकथाओं का समावेश है, जो नारी को देह-व्यापार या वैसी ही परिस्थितियों में धकेले जाने पर मन से आक्रोश या व्यथा बन कर फूटी हैं। इसी सन्दर्भ में सुकेश साहनी जी द्वारा सम्पादित मील का पत्थर सरीखी पुस्तक देह व्यापार की लघुकथाएँ" जैसे महत्त्वपूर्ण संग्रह का भी उल्लेख है।
'साझा संस्कृति की तलाश करती लघुकथाएँ, आलेख आधारित है सर्वश्री बलराम जी एवं सुकेश साहनी जी के सम्पादन में आई पुस्तक " वह पवित्र नगर' पर। काम्बोज जी ने खलील जिब्रान और अन्य देश-विदेश के लघुकथाकारों की शामिल रचनाओं पर और रोशनी डालते हुए, हिन्दी पाठकों को विश्वस्तर की इतनी लघुकथाएँ एक पुस्तक में उपलब्ध कराने के लिए दोनों संपादकों का आभार प्रकट किया है।
अगले दो आलेख मुरलीधर वैष्णव जी के लघुकथा संग्रह 'अक्षय तूणीर' और पवन शर्मा के 'हम हैं जहाँ'
पर आधारित है। काम्बोज जी ने उन्हें अनुभवों से सृजित लघुकथाएँ कहा है और साथ ही समझाया है कि किसी भी घटना को ज्यों का त्यों लिख देना लघुकथा नहीं है। बल्कि शीर्षक, कथ्य, संवाद सबका निर्वाह पूरी कुशलता से होना चाहिए, जो मुरलीधर वैष्णव जी ने बखूबी किया है और पवन शर्मा जी ने भी एक वर्ग विशेष की आशा, आकांक्षाओं और व्यथा को गहराई से प्रस्तुत किया है।
'प्रसंग वश: परिवेश के प्रति लेखकीय ईमानदारी' आलेख सतीशराज पुष्करणा साहित्य में वह नाम है जिसे किसी परिचय की ज़रूरत नहीं है। उन्हीं के दुसरे लघुकथा संग्रह की बहुत सुंदर समीक्षा पर आधारित है ये आलेख।
'बीसवीं सदी की चर्चित हिन्दी लघुकथाएँ' , पुस्तक का संपादन जगदीश कश्यप जी ने किया, जिसे काम्बोज जी ने 'विवादों से घिरे लेखक का अविवादित संपादन' का शीर्षक देकर कश्यप जी के व्यक्तित्व और कुशल संपादन से हम पाठकों का परिचय कराया। काम्बोज जी ने 'दुःख की तपती ज़मीन पर' शीर्षक दिया है सुरेश शर्मा के संपादन में आई 'बुजुर्ग जीवन की लघुकथाएँ' को और उसकी निष्पक्ष समीक्षा की है।
'काँच के कमरे' लघुकथा संग्रह है डॉ गोपाल बाबू शर्मा का जिसे काम्बोज जी ने 'समाज की टीस को आकर देती लघुकथाएँ' शीर्षक दिया है। गोपाल जी की बहुत-सी उत्कृष्ट लघुकथाओं के माध्यम से उन्होंने हम सब को उनके लेखन की ऊंचाइयों से रूबरू कराया है।
ऐसा ही एक बेहतरीन लघुकथा संग्रह है सुदर्शन रत्नाकर जी का 'साँझा दर्द' जिसकी बहुत सुंदर विवेचना करते हुए काम्बोज जी ने इन लघुकथाओं को समाजबोध और मानवीय संवेदना की लघुकथाएँ कहा है। इस आलेख में उन्होंने रत्नाकर जी के साहित्यिक जीवन और विविध विषयों पर उनकी गहरी पकड़ को उनकी बेहतरीन लघुकथाओं के माध्यम से हमारे समक्ष बहुत सुंदर ढंग से रखा है।
अपने अगले आलेख में काम्बोज जी ने कुछ बहुत महत्त्वपूर्ण बातों को उजागर किया है-जैसे लघुकथा में लेखकीय हस्तक्षेप से हर लघुकथाकार को बचना चाहिए. उन्होंने उदाहरणों से स्पष्ट किया कि सर्जन और लेखन दो विपरीत ध्रुव हैं। इसी आलेख में उन्होंने दीपक मशाल की बेहतरीन लघुकथाओं की विस्तृत समीक्षा करते हुए कहा है कि नई पीढ़ी के होने के बावजूद दीपक जी के काम में विविधता एवं विशिष्टता दोनों है। वे आज के दौर के संभावनाओं से भरे बेहतरीन लघुकथाकार हैं।
2014 में आया पवित्रा अग्रवाल का लघुकथा संग्रह 'आँगन से राजपथ तक' को केंद्र में रख कर काम्बोज जी ने अपने इस आलेख में लघुकथा सर्जन की बारीकियों पर ध्यान आकृष्ट किया है। उन्होंने कहा कि लघुकथा में बेहद महत्त्वपूर्ण है कथ्य का चयन, अभिव्यक्ति की कलात्मकता एवं उपयुक्त शीर्षक। उन्होंने उदाहरण देकर बताया किस तरह रमेश बतरा जी, सुकेश साहनी जी, सुभाष नीरव जी, श्याम सुन्दर अग्रवाल जी ने अपनी लघुकथाओं को विशिष्ट शीर्षक देकर अपनी लघुकथाओं को नए आयाम दिए. आलेख के अंत में काम्बोज जी पवित्रा जी के लघुकथा संग्रह को आम आदमी के जीवन से जुड़ी उत्कृष्ट लघुकथाएँ कहा।
अगले दो आलेख कमल चोपड़ा जी के लघुकथा संग्रह 'फंगस' और डॉ उपेन्द्र प्रसाद राय के लघुकथा संग्रह 'तुलसी चौरे पर नागफणी' पर आधारित हैं। कमल जी की लघुकथाओं को उन्होंने 'शोषितों की लघुकथाएँ' कहा है। वहीं डॉ राय के संग्रह को समाज, धर्म, शिक्षा, राजनीति व्यवस्था आदि पर लिखा गया एवं बेहद सजग एवं विशिष्ट लघुकथा संग्रह माना है।
पुस्तक बहुत से आयाम पार करती हुई अब अपने अंत में सार्थक लघुकथाओं के ज़रिए बहुत से वरिष्ठ लघुकथाकारों के काम को सराहती हुई, उल्लेख करती है एक ऐसे ही विशिष्ट लघुकथाकार बालकृष्ण गुप्ता 'गुरु' जी का, जिनका लेखन काल दो अंतराल में बँटा तो ज़रूर है, पर उससे उनके लेखन पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ा। उनका लघुकथा संग्रह 'गुरु-ज्ञान' एक पठनीय संग्रह है।
हर लघुकथा प्रेमी के लिए 'लघुकथा का वर्तमान परिदृश्य: लघुकथा समालोचना' बेहद उपयोगी पुस्तक है एवं संग्रह में रखने को सर्वथा उपयुक्त है।