लघुकथा का वर्तमान परिदृश्य : संक्षिप्त विवेचना / शिवजी श्रीवास्तव

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गत दो दशकों में हिन्दी लघुकथा ने लोकप्रियता के नवीन शिखर स्पर्श किये हैं, पाठक और आलोचक दोनों ने ही लघुकथा की सामर्थ्य को समझ कर उसे गम्भीरता से लेना प्रारम्भ किया है, साहित्य की केंद्रीय पत्रिकाओं एवम समाचार पत्रों में अब लघुकथा एक फिलर के रूप में नहीं अपितु गम्भीर विधा के रूप में स्थान पा रही है, अनेक प्रतिष्ठित पत्रिकाएँ लघुकथा पर पूर्ण विशेषांक निकाल कर उसे साहित्य की केंद्रीय विधा के रूप में सम्मान दे रही हैं, उसकी लोकप्रियता बढ़ाने में सोशल मीडिया भी एक महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में उपस्थित हुआ है, आशय यह है कि लघुकथा अब साहित्य की केंद्रीय एवम महत्त्वपूर्ण विधा के रूप में स्थापित है। महत्त्वपूर्ण एव केंद्रीय विधा होने के बावजूद भी लघुकथा के वस्तु, शिल्प या इतिहास के संदर्भ में अपेक्षित लेखन नहीं हुआ है, कम आलोचक ही इस क्षेत्र में सक्रिय हैं। लघुकथा के आलोचनात्मक लेखन के क्षेत्र में कुछ चुनिंदा रचनाकार ही सक्रिय हैं, उन्हीं में एक महत्त्वपूर्ण नाम है श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' । श्री काम्बोज जी लघुकथा के क्षेत्र की अत्यंत चर्चित विभूति हैं, वे एक श्रेष्ठ सम्पादक, उत्कृष्ट कथाकार होने के साथ ही लघुकथा के समालोचनात्मक स्वरूप को स्थापित करने की दिशा में सक्रिय हैं, उनकी नवीन कृति 'लघुकथा का वर्तमान परिदृश्य' इस कड़ी की एक महत्त्वपूर्ण कृति है।

प्रस्तुत कृति में लेखक की 'मेरी बात' के अतिरिक्त उनके बाईस महत्त्वपूर्ण आलेख हैं, जिनमें अनेक लघुकथाओं के उदाहरणों द्वारा लघुकथा के स्वरूप, शिल्प एवम सम्वेदना पर गम्भीरता से विचार किया गया है। लघुकथा क्या है? एक अच्छी लघुकथा में क्या-क्या गुण होने चाहिए? लघुकथा अपने विषय कहाँ से चुनती है? लघुकथा की भाषा कैसी हो? एक अच्छे आलोचक के क्या गुण हों? परम्परा से आज तक लघुकथा ने विकास की मंजिलें किस प्रकार तय की हैं? इस विकास यात्रा में समाचार पत्रों से इंटरनेट तक का क्या महत्त्व रहा? ऐसे ही अनेक प्रश्नों पर इस पुस्तक में विविध बिंदुओं से विचार किया गया है। लघुकथा के सैद्धांतिक पक्षों पर विचार / विश्लेषण हेतु लेखक ने अपने आलेखों में अनेक लघुकथाओं एवम प्रसिद्ध लघुकथाकारों के संकलनों को आधार बनाया है।

सर्वप्रथम लेखक लघुकथा की सर्जन प्रक्रिया की मीमांसा करते हुए 'मेरी बात' में लिखते है 'लघुकथा का सर्जन लम्बे अर्से के जीवन-अनुभव के ताप में तपकर सामने आता है' वे यहाँ स्पष्ट कर देते हैं कि लघुकथा एक गम्भीर विधा है, उसके लघु स्वरूप में तीक्ष्ण मारक क्षमता है, इसे हल्के-फुल्के रूप में नहीं लिया जाना चाहिये, लघुकथा-लेखकों को गम्भीर मनन-चिंतन के पश्चात ही लघुकथा लेखन की ओर प्रवृत्त होना चाहिए, उन्होंने स्पष्ट किया है-"किसी लघुकथा की सर्जन प्रक्रिया (वह लघुकथा भले ही 10-12 पंक्तियों की हो) एक दिन का या एक पल का काम नहीं है, वह स्रोत से रिसने वाली क्षीण धारा है, जो चट्टानों से उतरते-उतरते आगे चलकर बेगवती बनने को आतुर हो उठती है।" लघुकथा को साधारण समझकर फैशन के लिए लघुकथा लेखन करने वाले नए लेखकों के विषय में काम्बोज जी का विचार है-"लघुकथा जगत में कुछ नए लेखक और कुछ अन्य विधाओं से असफल होकर हाथ आजमाने के लिए उतरे नए लेखक घटना या घटनाओं को ही लघुकथा मानने लगे जायें तो पुलिस का रोजनामचा हफ्ते भर में ही लघुकथा संग्रह में ही तब्दील हो जायेगा।" किसी घटना को लघुकथा के रूप में

परिवर्तित होने की प्रक्रिया संश्लिष्ट एवम समयसाध्य होती है, यह गहरे चिंतन एवम मनोयोग की माँग करती है। कोई घटना कितने समय में लघुकथा के रूप में परिपक्व होगी इसका कोई निश्चित विधान नहीं है, लेखक के शब्दों में, "किसी लघुकथा को परिपक्व होने में कई महीने भी लग सकते हैं और कई बरस भी।"

इस संदर्भ में वे अपनी एवम सुकेश साहनी जी की एक-एक लघुकथा का उदाहरण देकर स्पष्ट करते हैं कि कोई घटना और किस प्रकार रचनाकार के मनोमस्तिष्क को मथते हुए लघुकथा के रूप में सामने आती है। उनकी स्वयं की लघुकथा 'ऊँचाई' 17 नवम्बर 1988 को लिखना प्रारम्भ हुई, जो अक्टूबर 1989 में पूर्ण हुई। यह एक उदाहरण मात्र है, जो यह सिद्ध करता है कि रचना की सर्जन प्रक्रिया कोई सहज कार्य नहीं है।

सर्जन प्रक्रिया से जूझते हुए लघुकथाकार को भाषा के संदर्भ में सर्वाधिक सचेत रहना पड़ता है, यूँ तो प्रत्येक विधा के रचनाकार को भाषा प्रयोग में सजग रहना होता है किंतु लघुकथा-लेखन में अधिक सजग एवम सचेत रहने की आवश्यकता है क्योंकि भाषा वह प्रमुख शक्ति है, जो लघुकथा को सामर्थ्यवान बनाती है, भाषा का असन्तुलित प्रयोग लघुकथा की सामर्थ्य एवम शक्ति को कम करके उसे निष्प्रभ भी कर सकता है। अपनी लघुता के कारण इस विधा की ऊर्जा का स्रोत उसकी भाषा ही है, लेखक का स्पष्ट अभिमत है, "अच्छी भाषा कमजोर कथ्य के लिए ऑक्सीजन का काम कर अनुप्राणित कर सकती है और कमजोर भाषा अच्छे भले कथ्य को चौपट कर सकती है।"

'लघुकथा और भाषिक प्रयोग' अध्याय में काम्बोज जी ने लघुकथा के भाषा और शिल्प पर विस्तार से विचार किया ही साथ ही अन्य अध्यायों / आलेखों में भी यत्र तत्र भाषा प्रयोग के संदर्भ में टिप्पणियाँ की हैं। प्रायः साहित्यिक विधाओं में भाषा-प्रयोग के सम्बंध में ये प्रश्न सदा उठते रहे हैं कि साहित्य में किस प्रकार की भाषा का प्रयोग हो, शास्त्रीय / शब्दकोषीय आभिजात्य भाषा अथवा लोक जीवन में घुली मिली सहज भाषा। लघुकथा हेतु काम्बोज जी लोक जीवन के अनुरूप शब्द-चयन एवम विकसित हो रही भाषा को श्रेष्ठ मानते हैं, वे भाषा में आने वाले अन्य भाषा के शब्दों के प्रयोग को भी उचित मानते हैं, उनका स्पष्ट मत है-"राजनीति, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, चिकित्सा, व्यापार एवम कम्प्यूटर क्रांति ने नए द्वार खोल दिए हैं, ऐसी स्थिति में भाषा सुंदरी को सात पर्दों के अंदर छुपा के नहीं रखा जा सकता...क्योंकि भाषा जड़ नहीं होती वह प्रवहमान समाज की जीवनी शक्ति है।"

लघुकथाकर किस प्रकार की भाषा का प्रयोग करें इसके लिए भी कोई निश्चित मानक निर्धारित नहीं किये जा सकते। पात्र, पात्र की मनःस्थिति, परिवेश, परम्परा इत्यादि अनेक कारक हैं, जो भाषा के स्वरूप का निर्धारण करते हैं, पर ये निश्चित है कि अभिधा की तुलना में लक्षणा एवम व्यंजना गुणों वाली भाषा अधिक प्रभावी होती है। वस्तुतः जिस कथाकार का अध्ययन जितना विशद होगा, लोक-जीवन के निरीक्षण की क्षमता जितनी सूक्ष्म होगी और सतत परिवर्तित सामाजिक जीवन के मनोविज्ञान की जितनी गहरी समझ होगी उतनी ही उस कथाकार की भाषा प्रभावी एवम तीक्ष्ण होगी। काम्बोज जी का मानना है कि जब सम्पूर्ण विश्व विश्वग्राम की ओर अग्रसर है, एक नई संस्कृति विकसित हो रही है तो उसके अनुरूप भाषा भी नए तेवर धारण कर रही है, भाषा में नई प्रकार की शब्दावली विकसित हो रही है, भाषा में अनेक परिवर्णी शब्द भी आ रहे है, उन्हें नकारा नहीं जा सकता, हमे बदलते समाज के अनुरूप ही भाषा के नए स्वरूप को स्वीकार करना होगा। उनका स्पष्ट कथन है-", भाषा में आए बदलाव को महसूस ही नहीं वरना स्वीकार भी करना पड़ेगा; चैटरूम में फेरी वालों की या सब्जी मण्डी की भाषा नहीं चलेगी और सब्जी मण्डी में विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग की भाषा या विवाह संस्कार की भाषा नहीं चलेगी।"

भाषा के अभिनव प्रयोगों को किस प्रकार लघुकथा अपनी ताकत बना रही है इसे स्पष्ट करने के लिए लेखक ने सुकेश साहनी की कहानी 'खेल' (रेनड्रॉप, के चैटरूम से) को उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत किया है। नए बनते हुए परिवर्णी शब्दो से युक्त भाषा के अभिनव प्रयोग की ये एक उत्कृष्ट कहानी है।

लघुकथा की भाषा और शिल्प के विवेचन के साथ ही इस पर भी विस्तार से चर्चा की है कि वर्तमान में लघुकथाकर कथ्य चयन किस प्रकार और किन क्षेत्रो से कर रहे हैं, वर्तमान में लिखी जा रही लघुकथाओं की चिंता के केंद्र बिन्दु क्या हैं, वे किन समस्याओ को अपनी लघुकथाओं का आधार बना रहे हैं। इस संदर्भ में काम्बोज जी ने अनेक लघुकथा संकलनों को केंद्र बनाया है साथ ही अनेक चर्चित लघुकथाओं को भी उद्धृत किया है। जहाँ तक कथ्य एवम विषय वस्तु के चयन का सम्बंध है तो शायद ही कोई विषय हो, जो लघुकथा से छूटा हो, समस्त, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, नैतिक, मनोवैज्ञानिक समस्याओ पर लघुकथाकार सृजनरत हैं। आज की लघुकथाओं में पारिवारिक समस्याएँ हैं, बाल मनोविज्ञान की समस्याएँ हैं, नारी जीवन के अनेक आयामों एवम विविध स्तरों पर होने वाले शोषण की समस्याएँ हैं, शोषण के विरुद्ध विद्रोह के भाव को व्यक्त करती कथाएँ है, वंचित वर्ग की समस्याएँ हैं, सांस्कृतिक संक्रमण की समस्याएँ हैं...इन विविध समस्याओं पर लिखी जा रही लघुकथाओं को काम्बोज जी ने विविध शीर्षकों में व्याख्यायित किया है, कुछ शीर्षक इस प्रकार हैं-नारी के शोषण की कथाएँ, सामाजिक विद्रूपताओं पर प्रहार करती लघुकथाएँ, साझा संस्कृति की तलाश करती लघुकथाएँ, आँगन से राजपथ की लघुकथाएँ...इत्यादि। ये शीर्षक इस बात के परिचायक हैं कि लघुकथा जीवन के हर क्षेत्र में प्रवेश कर चुकी है।

लघुकथा के वर्तमान स्वरूप के साथ ही काम्बोज जी ने लघुकथा केआलोचकों के आलोचना-धर्म की ओर भी गम्भीरता से संकेत करते हुएआलोचकीय धर्म के सम्यक निर्वाह न होने की चिंताएँ भी व्यक्त की हैं। इस संग्रह की मुख्य विशेषता यह है कि काम्बोज जी ने समस्त निष्कर्षो / तर्कों को उदाहरण के साथ प्रस्तुत किया है। विशद अध्ययन, मनन और चिंतन द्वारा शोधपूर्ण ढंग से लिखी गई यह कृति लघुकथा के पाठकों / अध्येताओं एवम समालोचकों के साथ ही शोधार्थियो हेतु भी अत्यंत उपयोगी कृति है।