लघुकथा की भाषा / सतीश दुबे

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जब हम किसी भी विधा की भाषा का प्रश्न उठाते हैं तो पहला विचार यह उठता है कि उस लेखन का संबंध हमारी किस चेतना से जुड़ा हुआ है। उस चेतना से जो हमारे सामने काल्पनिक बिम्ब खड़ा करती है या उससे जो वर्तमान की साफ–साफ तस्वीरें देखने को आदी है। यदि उसका संबंध प्रेमचन्द की सीख के अनुसार (ऐसी चीजें क्यों नहीं लिखते, जिनमें वर्तमान की समस्याओं और ग्रन्थिथियों को उकसाया गया हो) वर्तमान से जुड़ता है तो वर्तमान को देखने का भी एक नजरिया होता है, जिसके तहत लेखक अपने समय की देखी हुई जिन्दगी के परिदृश्यों को लिपिबद्व कर देता चाहता है। हो सकता है सोच की भाषा लेखक की भाषा बल्कि साहित्य की भाषा हो जाती है। सड़क से साहित्य तक यात्रा करने वाली इस भाषा का स्वरूप कैसा होना चाहिए इसके लिए न तो कोई निर्धारित मापदण्ड होता है, न ही आचार संहिता। लेखक स्वयं यह तय करता है कि जिन्दगी से जुड़ने वाली भाषा की शब्दावली कैसी हो।
वस्तुत: लेखक जो भाषा इस्तेमाल करता है, उससे साहित्य का मापदण्ड ही नहीं बल्कि समय से जुड़ी सभ्यता के बोध का भी निर्धारण होता है। भाषा रचना के एक पात्र की जुबान के साथ पाठक के लिए एक विचार भी होती है। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि सही भाषा अर्थ गाम्भीर्य से युक्त होकर पाठक तक पहुँचे यानी लेखक और पाठक में समझ के स्तर पर मानसिक एक रूपता बनना ही चाहिए।

लघुकथा जीवन्त क्षणों को साफ सुथरी और ताकतवर भाषा में व्यक्त करने वाली ऐसी विधा है जिसका शब्दों के संयम और भाषा के विकास से सीधा संबंध आता है। आठवें दशक के प्रारम्भ में चुटकुलों या पुराने टैक्सचर के रूप में जिस लघुकथा से हिन्दी लगत को परिचित कराया गया वह न केवल कथ्य बल्कि भाषागत पर भी लघुकथा के लिए परीक्षा की घड़ी का समय रहा है। यह लघुकथा की सही भाषा से पाठकों को दूर ले जाने वाली मासूम साजिश थी। दरअसल हो यह रहा था कि विसंगत परिवेश को चित्रित करने के लिए जिस भाषा का उपयोग किया जा रहा था वह सतही होने की वजह से मजा देने वाली बनकर रह गई थी। जबकि लघुकथा जिन प्रसंगों से जुड़कर जिस भाषा से लेस होकर आना चाहती थी वह चमत्कृत या मनोरंजन से हटकर मस्तिष्क के तन्तुओं को झंकृत कर चेतना को जागृत करना चाहती थी। लघुकथा लेखकों ने इस प्रारम्भिक खतरे का जम कर मुकाबला किया। संयोग ही समझिए कालांतर में भाषा खिलवाड़ करने वाले तमाम लेखक खारिज हो गए।

वस्तुत: लघुकथा को पूरी लेखकीय ताकत के साथ व्यक्त करने के लिए जिस भाषा की जरूरत थी वह किसी बड़े याने व्यावसायिक पत्रिका से नहीं बल्कि लघुपत्रिकाओं से मिल रही थी। नए पुराने में प्रकाशित एक लेख में मैंने लिखा भी था कि मेरे सामने पचासों लघुपत्रिकाओं के नाम हैं जो कविता कहानी,लघुकथा या समीक्षा जैसी विधाओं को नए तेवर और अन्दाज में प्रस्तुत कर रही हैं। इससे भाषा और शैली की जमीन टूटी है कथन और शिल्प को विस्तृत प्रकाश मिला है तथा खलीफाई अन्दाज वाले सम्पादक तेवर बदलने को विवश हुए हैं। यह इस बात को जाहिर करता है कि बेवाक अभिव्यक्ति अब मुट्ठी भर लोगों के कृपा कटाक्ष की मोहताज नहीं रही है।

जाहिर है कि अभिव्यक्ति को विस्तृत प्रकाश मिलने के कारण लघुकथा कार भी बड़ी पत्रिकाओं के मोह को तोड़ चुके थे। लघुकथा अभिव्यक्ति की नई दिशा की ओर निरन्तर अग्रसर थी, धीरे–धीरे लघुकथा ने जो नई भाषा इजाद की,वह ताजगी के अर्थ को विस्तार देने की क्षमता अपने परिवेश की आई हवा तथा व्यक्ति की संवेदना को गति देने वाली थी।

‘इ कइमें हुइ सकत है इत हमार मेरारू पर घटल रहै, जउन अईसन करे रहा न, उहो के परमात्मा उठाए लिहिन। मर गया हरामी।’

साक्षात्कार : विक्रमसोनी

विस्तार क्षे़त्र की कमी तथा एक लक्ष्मी स्थिति के कारण लघुकथा के लिए यह खतरा हो सकता था कि सरल बयानी की जीवतंता के लिए वह परिवेशगत जबान को पाठकों के सामने ला सके। पर लघुकथा को डॉ0 यामसुन्दर व्यास (एक जीवन दर्शन) बलराम (बहू का सवाल) बलराम अग्रवाल (और नेक मर गया) चित्रा मुदगल (ऐव या गरीब की माँ) अंजना अनिल (उसके बाप की मौत) शकुन्तला ‘किरण’ (धुँधला दर्पण) जैसे अनेक उर्जावान लेखक मिले जिनके सामने ऐसे खतरों का कोई महत्त्व नहीं रहा। सीधी सादी भाषा को आधार बनाकर कुछ शब्दों में जीवन की उथल पुथल को व्यक्त करना लघुकथा का एक तरह से अपना स्वभाव है–

–माँ भूख लगी है, रोटी दे दो’

–रोटी? अभी नहीं है बच्चे!

–कब होगी...?

–जब तेरे बाबा आएँगे।

–बाबा तो कई दिनों से नहीं आए।

–वह जरूर आएँगे मेरे बच्चे।

–अच्छा तो तुम कोई और चीज दे दो।

–घर में कोई चीज नहीं है।

–फिर पैसा ही दे दो।

–पैसा भी नहीं है।

–पर मुझे भूख लगी है, मैं क्या खाऊँ?

–तो मुझे खा ले राक्षस।

–मगर कैसे....

(माँए और बच्चे/रमेश बतरा)

रमेश बतरा की यह लघुकथा या पृथ्वीराज अरोड़ा, मधुदीप, कमल चोपड़ा की लघुकथाएँ कील। अन्त्योदय या ऊचाइयाँ जैसी लघुकथाएँ यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि सहजता और सपाट कलेवर में भी लघुकथाएँ भाषागत स्तर पर अर्थ गम्भीर्य से युक्त होती हैं।

कम शब्द, छोटा सा कैनवास और क्षण भर के कथ्य के प्रति भाषा के सजावट का आग्रह भी लघुकथाओं में मिलता है। यह आग्रह लघुकथा लेखक के रोमानी अंदाज से कम पर ाब्दों की बुनावट के ज्यादा निकट लगता है। भाषा के प्रति यह दोहरा व्यवहार कथा साहित्य में खतरा हो सकता है, पर लघुकथाकार इसे बखूबी निबाह रहे है।

इसी तारतम्य में कविता के टुकड़े जैसे कुछ लघुकथाओं के शीर्षक दृष्टव्य हैं कागज का आदमी/कमलेश भारतीय, चढ़ता हुआ जहर/विभारश्मि, नागफनी के फूल/कुलदीप जैन, पीले हाथों के लिए/कमल चोपड़ा, चेहरे सुबह के/राजकुमार गौतम, बड़ी मछली का आहार/विक्रमसोनी, मृगजल/बलराम, मुलाकातों के रंग/मोहन राजेश, छोटे बड़े हरे टुकड़े/राजा नरेन्द्र, विध गया सो मोती/विष्णुप्रभाकर, युग सूर्य/पूरन मुदगल।

लघुकथा अपने परिवेश में कम से कम बोलने तथा पाठकों से सीधे साक्षात्कार करने का प्रयास है। इसमें लेखकीय हिस्सेदारी या हस्तक्षेप की गुंजाइश कम ही होती है। इसलिए लघुकथा की भाषा में कसावट होती है। पर इस कसावट का मतलब संक्षिप्त प्रारूप् नहीं, बल्कि लघुकथा के तात्विक प्रभापुंजों से मंडित होना है। सामाजिक विसंगतियों, असंगत व्यवस्था संबंधों के निर्वाह में आया बदलाव या आदमी की मन: स्थिति को कम, पर ज्यादा ताकतवर शब्दों में लघुकथा प्रस्तुत कर सकी है। इस संदर्भ में सुनो कहानी (रमेश बतरा) या अंतर (प्रचंड) अनायास याद आ जाने वाली रचनाएँ हैं।

लघुकथा एक लक्ष्मी होती है, अत; संक्षिप्त कथ्य के अनुरूवप चरित्र को उकेरने वाली गहरी भाव–व्यंजना युक्त पात्रानुकूल भाषा कथा चरित्र की सही अर्थ में पहिचान बनाने के लिए जरूरी है। एक लघुकथा ‘रोजी (महेश दर्पण) इस संदर्भ में सहज ही ध्यान आकृष्ट करती है। प्रयोगधर्मी भगीरथ की लघुकथाओं में भाषा का कमाल मिलता है। उनके हर कथ्य के साथ भाषा निरीह सी सरकती रहती है। जैसे उनकी लघुकथा ‘अफसर’ जिसमें शीर्षक के अनुरूप न केवल अफसर की अभिजात्य मानसिकता, बल्कि उसके सम्पूर्ण परिवेश को पूरी कलात्मकता के साथ अभिव्यक्ति मिली है।

कहने की जरूरत नहीं कि लघुकथा की हिन्दुस्तान की भाषा है। यह उन तमाम शब्दों से बनती है जिसे हिन्दुस्तानी बोलता है। इसीलिए मुहावरों लोकोक्तियों या आंचलिक शब्दों का प्रयोग लघुकथा में जहाँ–तहाँ भी होता है एकदम स्वाभाविक लगता है–

‘शादी के बाद आठ आल लग तुम्हारि कोखि पर शनीचर देउता क्यार असरू रही, ज्योतिषी जी बतावत रहंय।

–बलराम (बहू का सवाल)

वृद्ध पिता ने विचलित होते हुए कम्पित स्वर में कहा, ‘मन की इस आग को पानी मत बना बेटे! ठंडी आग ठुकराई जाती है, पूजी नहीं जाती।’

–डॉ. श्यामसुन्दर व्यास (ठंडी आग)

‘उसके जी में आया कि वह झकझोड़ कर कहे–राकेश तुम मुझे अपना लो, मैं टूट रही हूँ।’ –जगदीश कश्यप (संबंध)

‘वो बचना जो धनसिंह के घर काम करता है, बता रहा था कि, इसी टोपी वाले ने धनसिंह को पट्टी पट्टी पढ़ाई कि, भेड़ की उन मूड़ने के लिए ही होती है।’

–कमल चोपड़ा (जब से वह आया) ‘जो लोग अभी तक कह रहे थे कि, इतना
बड़ा डूँड बज्जर करेजे का है, बापके मरने पर रोया तक नहीं...वे एकाएक खुश हो गए।’ –विक्रम सोनी (जूते के नाप का आदमी)

‘दोनों भाई गिद्ध दृष्टि से अपनी–अपनी बुद्धि खरोंच रहे थे....एक दूसरे से बीस ही पड़ना चाहते थे बरामदे में टेबुल फेन भी एक बराबर मात्रा में दोनों की ओर हवा झोंक रहा था...।’

–नंदल हितैषी (बंटवारा)

‘छांटव ऐसी हरिशचन्दर की माय नाही है बबुआइन।’

–चित्रा मुद्गल (ऐब)

‘वह कुछ पल एकटक जलती निगाहों से रग्घू को घूरती रही और अनायस फट पड़ी’–‘यह स्साला …है...।’

–महावीर प्रसाद जैन :(संस्कार)

‘मिस्टर गौड़! इट्स अवर वर्क, नॉट योर्स, आपका काम है–हमारे आदेश को फालो करना, अण्डर स्टेंड....।’

–मधुदीप (ऐलान–ए–बगावत)

‘जाहिर है कि लघुकथा के विकास के साथ उसकी भाषा में भी समृद्धि हुई है। आदमी की वाणी के रूप में संवेदन के हर स्तर से जुड़े लघुकथाओं के मनोभावों को ताजा तरीन भाषा मिली है। अनेक नाम लघुकथाओं से जुड़ रहे हैं। शमीम शर्मा ने छह सौ बीस लघुकथाकारों और उनकी प्रतिनिधि लघुकथा की खोज की है याने लघुकथा के माध्यम से एक अपरिचित शब्द–भंडार हिन्दी–भाषा को मिल रहा है।

यह तो तय है कि किसी भी लेखन की तरह लघुकथाओं के लिए भी यह किसी तरह का खतरा नहीं है। दरअसल, होता यह है कि लेखन के प्रवाह में सम्मिलित होने वाली भाषागत गंदगी कभी उसकी निर्मल प्रकृति से नहीं जुड़ती, प्रवाह के थपेड़े खाकर वह अपने आप किनारे लग जाती है। लघुकथा के भाषागत प्रवाह की भी लगभग यही स्थिति है।

लघुकथा वस्तुत: लेखन कला का परिणाम है और कला से जुड़ने वाला कोई भी प्रसंग तब तक उस महत्व से नहीं जुड़ता जब तक कि प्रासंगिकता के संदर्भ में उसका कोई नोटिस नहीं लिया जाता। प्रश्न यह नहीं है कि लघुकथा की भाषा कलात्मकता से जुड़ी है या नहीं! प्रश्न यह है कि लघुकथा विकास के पथ पर जिस गति से निरंतर अग्रसर है, उसका निर्वाह भाषा के गुणत्मक स्तर पर सही संभावनाओं से जुड़ा हुआ है या नहीं।

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