लघुकथा की सृजनात्मक -प्रक्रिया / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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[हिन्दी चेतना अक्तुबर-दिसम्बर-2012]

[hindichetna]

सृजन और लेखन दो विपरीत ध्रुव हैं। प्रयास के बिना तो कुछ भी नहीं हो सकता। ख़्याली पुलाव किसी रचना का रूप धारण नहीं कर सकते। लेकिन सर्जन वह अन्त: स्फूर्त कार्य है, जो समय-कुसमय नहीं देखता। बस मनोमस्तिष्क पर इस तरह छा जाता है कि रचनाकार लिखने को बाध्य हो जाए. न लिखे तो वह पाखी-सा फुर्र भी हो सकता है और बरसों बरस कभी हाथ आने वाला नहीं। सर्जन की इस त्वरा के पीछे कोई क्षणिक हड़बड़ाहट नहीं, वरन् अनुभव जन्य चिन्तन का वह आवेशित स्वरूप है जो किसी न किसी रूप में प्रकट होना चाहता है, स्वरूप धारण करना चाहता है। वह कोई आकस्मिक, बेतरतीब और आधारहीन चिन्तन नहीं है। न चुटकियों का खेल है। जीवन में बहुत तरह के अभाव होते हैं ,उन अभावों का भी अपना कोई स्थायी भाव होता ही है। समृद्धि का भी अपना कोई न कोई दु:खद अभाव होता है। अभावों का भाव जहाँ हमें सुख-दु:ख में जोड़ता है, समृद्धि का अभाव वहीं गलाकाट प्रतियोगिता में सबको पछाड़ने की कसम खा लेता है। यह उसकी परेशानी बढ़ाने वाला कारक है।

लघुकथा का सर्जन भी लम्बे अर्से के जीवन-अनुभव के ताप में तपकर इसी प्रकार सामने आता है। लघुकथा-जगत् में कुछ नए लेखक और कुछ अन्य विधाओं में असफल होकर हाथ आज़माने के लिए उतरे नए-नए लेखक घटना या घटनाओं को ही लघुकथा समझकर धड़ाधड़ लिखने में लगे हैं। अगर घटनाओं को ही लघुकथा मानने लग जाएँ ,तो पुलिस का रोज़नामचा हफ़्तेभर में लघुकथा संग्रह में तब्दील हो जाएगा। प्रवचन देने वालों के दृष्टान्तों, किसी चुभते कथन या आन्दोलित करने वाले विचारों को लघुकथा मानने लगें तो साहित्य-जगत् में वैचारिक कोहरा और अधिक घना हो उठेगा। घटना एक आधारभूत तथ्य को खुद में छुपाए होती है, जैसे एक प्रस्तर खण्ड अपने में खूबसूरत मूर्त्ति समाहित किए हुए होता है। वही तथ्य जब कथ्य का आधार बनता है तो लघुकथा में परिवर्तित हो जाता है। यह सम्भव है कि उस लघुकथा में आधारभूत घटना का कोई एक छोटा-सा अंश परिमार्जित होकर हमारे सामने आ जाए. यह अंश उससे उद्भूत होने पर भी उससे एक दम अलग नज़र आ सकता है, जैसे प्रस्तर-खण्ड से बनी मूर्ति, उस बेडौल पत्थर की सूरत से कहीं मेल नहीं खाती। यह निर्मिति ज्यों की त्यों घटना न होकर एक अलग एक पुनर्गठित स्वरूप है; जो मूल घटना या उत्प्रेरक घटना से कोसों दूर है। यह भी सम्भव है कि कई घटनाएँ, कुछ संवाद परस्पर अनुरूप होते हुए पूरक रूप में जुड़कर किसी एक बिन्दु पर केन्द्रित हो गए हों। एक मुख्य कथा-बिन्दु बन गए हों। यही बात विचार-सरणी को लेकर भी है। कोरा विचार लघुकथा नहीं। किसी बात को सार रूप में लिख देना भी लघुकथा नहीं। विचार तो वह धुरी है जिस पर वह कथा घूमती है। विचार किसी क्षण विशेष से उपजा वह स्रोत है जिसकी विरल धारा उन किनारों की कोई बात कहती हो, जिन्हें छूकर वह कुछ अपनापन महसूस करती रही है। इस प्रकार किसी लघुकथा की सर्जन-प्रक्रिया (वह लघुकथा भले ही 10-12 पंक्तियों की हो) एक दिन का या एक पल का काम नहीं। वह स्रोत से रिसने वाली क्षीण धारा है, जो चट्टानों से उतरते-उतरते आगे चलकर वेगवती बनने को आतुर हो उठती है।

अपनी लघुकथा 'ऊँचाई' की सृजन-प्रक्रिया से पहले इसकी पृष्ठभूमि बताना ज़रूरी है। मैं एक मध्यमवर्गीय परिवार से सम्बन्धित हूँ, जिसके पास न इफ़रात में कभी धन रहा और न ऐसी स्थिति आई कि किसी समय भूखा रहना पड़ा हो। जिसको निभाने का अहसास है, ज़िम्मेदारियाँ कभी उसका पीछा नहीं छोड़ती। घर का बड़ा बेटा होने के कारण मुझे कभी अपने बारे में सोचने का समय ही नहीं मिला। खुद को पीछे छोड़कर घर की चिन्ता की। घर के किसी सदस्य को कभी बोझ नहीं समझा। आज तक भी हम भाइयों का घर या खेती की ज़मीन का कोई बँटवारा नहीं हुआ। सन् 1988 की बात है-एक बार पिताजी ने कहा कि अब घर पैसा न भेजो। काम चल रहा है। जब ज़रूरत होगी, बता दूँगा। यह इतनी-सी बात थी, कोई घटना नहीं है। एक बार पिताजी ने कहा था कि बच्चे कमज़ोर लग रहे हैं, इनका ध्यान रखा करो। बहू का भी ध्यान रखा करो। मेरी पत्नी ने घर में सहायता करने की आदत पर कभी टोका-टोकी नहीं की; बल्कि सबका हर तरह से ख्याल रखा। हाँ ,ऐसा ज़रूर हुआ कि बड़े बेटे ने घर की परिस्थिति देखकर नया जूता पहनने के प्रस्ताव को अगले महीने पर टाल दिया। मरम्मत करवाकर एक महीना निकाल दिया। पत्नी बीमार हुई ,तो वेतन का काफी हिस्सा खर्च हो गया। जिसने कभी ट्यूशन न की हो, वेतन ही उसका सब कुछ है। कुछ खर्चों में कटौती की गई. बाकी प्रसंग, संवाद, स्वत: जुड़ते चले गए. यह लघुकथा लिखते समय मेरे अक्खड़ और कड़क आवाज़ वाले पिताजी मेरे सामने थे। मुझे याद नहीं कि पिताजी ने मुझे कभी डाँटा हो या कोई कड़ी बात कही हो। मेरी या मेरे जैसे कई व्यक्तियों की आपबीती मिलकर ऊँचाई लघुकथा बन गई. 'ऊँचाई' के लघुकथा बनने में खीझने वाली पत्नी की अहम भूमिका है। लघुकथा को ऊँचाई देने के लिए यह तमतमाने वाला पात्र महत्त्वपूर्ण है। पिताजी भी आते नहीं, आ धमकते हैं। बाकी जितने भी सन्दर्भ हैं, वे एक ही पहिए के अरे (स्पोक्स) हैं; जो एक ही धुरी पर टिके हैं। पिताजी को ऊँचा बनाने में सारी परिस्थितियाँ सहायक हैं। यहाँ मैं एक बात यह कहना चाहता हूँ कि किसी लघुकथा को परिपक्व होने में कई महीने भी लग सकते हैं, कई बरस भी। अगम्भीर लेखक लिखते ही लघुकथा को कहीं न कहीं भेजकर मुक्ति पाना चाहता है। उसमें अपनी ही रचना को दुबारा पढ़ने का धैर्य नहीं है, जबकि अपनी रचना से दुबारा गुज़रना सधे हुए लेखक के लिए ज़रूरी है। दुबारा अपनी रचना को तटस्थ दृष्टि से पढ़ना, अपेक्षित सुधार करना रचना को निखारने के लिए ज़रूरी है।

17 नवम्बर 1988 को लिखी यह लघुकथा अक्तुबर 1989 में पूरी हुई और नवम्बर 89 में प्रकाशित हुई. कई ड्राफ़्ट बदलने पर इसका जो वर्तमान स्वरूप सामने आया, वह इसके मूल रूप से एकदम अलग है। अन्तिम रूप यहाँ दिया जा रहा है। -0-

ऊँचाई

पिताजी के अचानक आ धमकने से पत्नी तमतमा उठी, "लगता है बूढ़े को पैसों की ज़रूरत आ पड़ी है, वर्ना यहाँ कौन आने वाला था। अपने पेट का गड्‌ढा भरता नहीं, घर वालों का कुआँ कहाँ से भरोगे?"

मैं नज़रें बचाकर दूसरी ओर देखने लगा। पिताजी नल पर हाथ-मुँह धोकर सफर की थकान दूर कर रहे थे। इस बार मेरा हाथ कुछ ज़्यादा ही तंग हो गया। बड़े बेटे का जूता मुँह बा चुका है। वह स्कूल जाने के वक्त रोज़ भुनभुनाता है। पत्नी के इलाज़ के लिए पूरी दवाइयाँ नहीं खरीदी जा सकीं। बाबू जी को भी अभी आना था।

घर में बोझिल चुप्पी पसरी हुई थी। खाना खा चुकने पर पिताजी ने मुझे पास बैठने का इशारा किया। मैं शंकित था कि कोई आर्थिक समस्या लेकर आए होंगे। पिताजी कुर्सी पर उकड़ू बैठ गए. एकदम बेफिक्र, "सुनो" -कहकर उन्होंने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। मैं साँस रोककर उनके मुँह की ओर देखने लगा। रोम-रोम कान बनकर अगला वाक्य सुनने के लिए चौकन्ना था।

वे बोले, "खेती के काम में घड़ी भर की फ़ुर्सत नहीं मिलती है। इस बखत काम का जोर है। रात की गाड़ी से ही वापस जाऊँगा। तीन महीने से तुम्हारी कोई चिट्ठी तक नहीं मिली। जब तुम परेशान होते हो, तभी ऐसा करते हो।"

उन्होंने जेब से सौ-सौ के दस नोट निकालकर मेरी तरफ़ बढ़ा दिए-"रख लो। तुम्हारे काम आ जाएँगे। इस बार धान की फ़सल अच्छी हो गई है। घर में कोई दिक्कत नहीं है। तुम बहुत कमज़ोर लग रहे हो। ढंग से खाया-पिया करो। बहू का भी ध्यान रखो।"

मैं कुछ नहीं बोल पाया। शब्द जैसे मेरे हलक में फँसकर रह गए हों। मैं कुछ कहता इससे पूर्व ही पिताजी ने प्यार से डाँटा-"ले लो। बहुत बड़े हो गए हो क्या?"

"नहीं तो"-मैंने हाथ बढ़ाया। पिताजी ने नोट मेरी हथेली पर रख दिए. बरसों पहले पिताजी मुझे स्कूल भेजने के लिए इसी तरह हथेली पर इकन्नी टिका दिया करते थे, परन्तु तब मेरी नज़रें आज की तरह झुकी नहीं होती थीं। -0-

इसी बात की पुष्टि सुकेश साहनी जी की लघुकथा 'स्कूल' भी करती है। मैं इस लघुकथा की सर्जन यात्रा का पूरी तरह साक्षी रहा हूँ, लेकिन मैं इस पर लघुकथा की सम्भावना नहीं तलाश पाया। वहीं एक छोटे और महत्त्वहीन से क्षण के कारण एक मुकम्मल लघुकथा तैयार हो गई. बच्चे के जीवन का एक छोटा-सा लम्हा जीवन का स्कूल बन गया। माँ की व्याकुलता और बेटे की बेफ़िक्री दोनों जीवन की बहुत गम्भीर व्याख्या करते हैं।

मैं और सुकेश साहनी दिल्ली से बरेली लौट रहे थे। मुरादाबाद-बरेली के रेल–ट्रेक में कोई खराबी आ गई. मुरादाबाद में की गई घोषणा हमारी साहित्यिक चर्चा में खो गई ट्रेन चंदौसी स्टेशन पर पहुँची तो हम दोनों भौंचक्के. बस से सफ़र करना मेर्र लिए किसी आफ़त से कम नहीं, अत: हमें चंदौसी स्टेशन पर कई घंटे व्यतीत करने पड़े थे। वहाँ प्रतीक्षालय में कॉलेज के लड़के जमा थे। वे खूब हो हल्ला मचाए हुए थे। सिगरेट का धुँआ उस छोटे से कमरे में भर गया। ऊपर से जुआ खेलना, बेहूदे चुटकलों का न खत्म होने वाला सिलसिला। इन सबसे बेखबर वहीं पर एक लड़का अपना स्कूल का काम पूरा कर रहा था। पूछने पर उसने बताया कि वह गाँव से रोज़ यहाँ पढ़ने आता है। शाम को सवारी गाड़ी से वापस जाता है। घर में केवल माँ है। पिता जी दूसरे शहर में कहीं नौकरी करते हैं।

उन अराजक युवकों के बीच घिरा वह किशोर अपने काम में मग्न था। उसी प्रसंग पर सुकेश साहनी ने 'स्कूल' लघुकथा लिखी। मैं भी इस घटना का साक्षी रहा; लेकिन लघुकथा लिखने की बात मेरे मन में नहीं आई. मेरे लिए यह रोज़मर्रा की साधारण-सी बात थी। लेखक के लिए तह विशिष्ट बन गई; लेकिन उस रूप में नहीं, जिस रूप में हम इसके द्रष्टा थे। लघुकथा बनते ही इसमें बहुत कुछ बदल गया।

स्कूल

"तुम्हें बताया न, गाड़ी लेट हैं," स्टेशन मास्टर ने झुँझलाते हुए कहा–"छह घंटे से पहले तो आ नहीं जाएगी, अब जाओ...कल से नाक में दम कर रखा है तुमने!"

"बाबूजी, गुस्सा न हों," वह ग्रामीण औरत हाथ जोड़कर बोली–मैं बहुत परेशान हूँ, मेरे बेटे को घर से गए हुए तीन दिन हो गए हैं...उसे कल ही आ जाना था! पहली दफा घर से अकेला निकला है..."

"पर तुमने बच्चे को अकेला भेजा ही क्यों?" औरत की गिड़गिड़ाहट से पसीजते हुए उसने पूछ लिया।

"मति मारी गई थी मेरी," सह रूआँसी हो गई–"बच्चे के पिता नहीं हैं, मैं दरियाँ बुनकर घर का खर्चा चलाती हूँ। पिछले कुछ दिनों से जिद कर रहा था कि वह भी कुछ काम करेगा। टोकरी–भर चने लेकर घर से निकला है..."

"घबराओ मत...आ जाएगा!" उसने तसल्ली दी।

"बाबूजी...वह बहुत भोला है, उसे रात में अकेले नींद भी नहीं आती है...मेरे पास ही सोता है। हे भगवान! ...दो रातें उसने कैसे काटी होगी? इतनी ठंड में उसके पास ऊनी कपड़े भी तो नहीं हैं..." वह सिसकने लगी।

स्टेशन मास्टर अपने काम में लग गया था। वह बेचैनी से प्लेटफार्म पर टहलने लगी। उस गाँव के छोटे से स्टेशन पर चारों ओर अंधकार छाया हुआ था। उसने मन ही मन तय कर लिया था कि भविष्य में वह अपने बेटे को कभी भी अपने से दूर नहीं होने देगी।

आखिर पैसेंजर ट्रेन शोर मचाती हुई उस सुनसान स्टेशन पर आ खड़ी हुई. वह साँस रोके, आँखें फाड़े डिब्बों की ओर ताक रही थी।

एक आकृति दौड़ती हुई उसके नज़दीक आई. नज़दीक से उसने देखा–तनी हुई गर्दन...बड़ी–बड़ी आत्मविश्वास भरी आँखें...कसे हुए जबड़े...होंठों पर बारीक मुस्कान...

"माँ, तुम्हें इतनी रात गए यहाँ नहीं आना था।" अपने बेटे को गंभीर, चिंताभरी आवाज़ उसके कानों में पड़ी।

वह हैरान रह गई. उसे अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था–इन तीन दिनों में उसका बेटा इतना बड़ा कैसे हो गया? -0-