लघुकथा के कथानक की प्रकृति और पुरस्कृत लघुकथाएँ / सुकेश साहनी

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निरंतर बढ़ती लोकप्रियता के बीच ‘कथादेश अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता-16’ का आयोजन संपन्न हो गया और 17 वें आयोजन की घोषणा कर दी गई है। साहित्य-जगत् में ‘कथादेश मासिक’ द्वारा निरंतर आयोजित इस प्रतियोगिता को बहुत सम्मान प्राप्त है, यही कारण है कि इस प्रतियोगिता में भाग लेने वालों में नए लेखकों के साथ-साथ अनेक वरिष्ठ लेखक भी हैं।

लघुकथा प्रतियोगिता-16 के लिए लगभग नौ सौ लघुकथाएँ ई-मेल से प्राप्त हुईं, करीब सौ लेखकों ने डाक से रचनाएँ भेजीं। सदैव की भाँति बहुत ही कम लघुकथाओं को निर्णायकों के पास भेजने के लिए उपयुक्त पाया गया। बड़ी संख्या में प्राप्त लघुकथाओं में से केवल 21 का अंतिम चक्र तक पहुँचना, इस विधा के सम्बन्ध में कुछ प्रश्न खड़े करता है। पिछली प्रतियोगिताओं की टिप्पणियों में इसके पीछे निहित कारणों की पड़ताल की जाती रही है। पिछले 16 आयोजनों के आकड़ों के विश्लेषण से स्पष्ट है कि लघुकथा- लेखन के क्षेत्र में सक्रिय बहुत से लेखकों की सृजन-दृष्टि सीमित है और वे जाने /अनजाने, साहित्यकार कहलाने के लोभ में आसान विधा समझकर इसमें लेखन कर रहे हैं। सोशल मीडिया पर सक्रिय कुछ समूह, अर्थलोभी संस्थान और प्रायोजित ऑनलाइन गोष्ठियाँ, उनके इस भ्रम को पोषित करने के लिए आवश्यक खाद-पानी देते रहते हैं। इस परिदृश्य पर टिप्पणी करते हुए रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' लिखते हैं- ‘सुना-देखा, लिख देना रचना की नियति नहीं। यह केवल गढ़ना हुआ, बिना किसी संवेदना के। क्या लिखा, क्यों लिखा? किसके लिए लिखा? रचना में प्राणों का संचार हुआ या नहीं? लिखने के बाद यदि लगा कि अन्तस् को सुकून मिला, भीतर कुछ अंकुरित हुआ, कुछ भीगा, तो समझो कुछ रचा गया। कहीं का टुकड़ा, कहीं जोड़ देना, कथ्य नहीं। कथ्य है, उस ‘जोड़ने के संवेदना-सूत्र’ को पकड़ना, उसे एकाकार करना, उसमें प्राणों का संचार करना। किसी डाई/ साँचे से पुर्जा बनाना, लघुकथा-सृजन नहीं।’

वर्त्तमान में लघुकथा- लेखन सिखाने वाले कई स्कूल खुल गए हैं, यह सिखाई /पढ़ाई नए संभावनाशील लेखक के रचनात्मक विकास के लिए कितनी हितकारी है, इसका अभी सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता है। इस सम्बन्ध में अधिकतर साहित्यकार यही मानते हैं कि लेखक को किसी बंधन में बँधकर नहीं लिखना चाहिए, श्रेष्ठ साहित्य का अवगाहन ही लेखक की पाठशाला होनी चाहिए।

लघुकथा में हो रहे उथले लेखन के कारण जीवंत और सशक्त लघुकथाएँ सामने नहीं आ पातीं, तो इसमें दोष विधा का नहीं है। इस पर ‘श्रेष्ठ लघुकथाओं से गुजरते हुए’ में प्रो. रवींद्र नाथ ओझा लिखते हैं -

‘लघुकथा विधा के रूप में यदि जीवंत, सशक्त नहीं हो पा रही, तो यह उस विधा का दोष नहीं है, यह उसका Native Defect या Disadvantage नहीं है, यह दोष है, उसके सर्जक का, उसके रचनाकार का, उसके प्रणेता का, विधाता का। रचनाकार का अंतर यदि सूखा है, रसहीन–अनुर्वर रश्मि–शून्य है, तो उसकी रचना कैसे भरपूर होगी, उसकी सर्जना कैसे शक्तिशाली जीवन्त होगी, सरस रसदार होगी? तो दोष सिर्फ़ रचनाकार का है। रचनाकार अपने को श्रेष्ठ रचना के योग्य बना नहीं पाता–वह वांछित पात्रता का अर्जन नहीं करता–वह वेदना के ताप में तपता नहीं, साधना की आँच में पकता नहीं, वह सृजनात्मकता की गंगा में नहाता नहीं, उसका अंतर उद्भासित नहीं होता, उसे जीवन की ऊँचाई, गहराई–विस्तार के दर्शन नहीं होते, उसे जीवन की सूक्ष्मातिसूक्ष्म तरंगों कंपनों से मुठभेड़ नहीं होती, जीवन की अनेक अमृतरूप छवियाँ अनदेखी रह जाती हैं, जीवन के अनेक वर्ण, गंध अनाघ्रात, अस्पृष्ट रह जाते हैं, जीवन के अनेक गीत-संगीत, जीवन की अनेक राग–रागिनियाँ, जीवन के अनेक छंद, लय-ताल, स्वर ,सुर, तान, ध्वनि, अजात-अलक्षित,अश्रुत–अश्रव्य रह जाते हैं, जीवन का अनंत वैभव कोष अछूता रह जाता है, अनेक रस-रसायन अननुभूत–अनास्वादित, जीवन की विविधामयी, बहुरंगमयी पुस्तक के अनेक पृष्ठ अनपढ़े, अनदेखे–अनबूझे रह जाते हैं। ऐसी स्थिति में वह क्या खाक सर्जना कर पाएगा? रचना और सृजन के लिए बड़ी लंबी तैयारी और साधना की ज़रूरत पड़ती है, बड़ी तपस्या और तपन की जरूरत पड़ती है–ग्रीष्म की दारुण तपन के बाद ही सर्जना की सावनी, समाँ बाँधती है–सर्जन का पावन सावन सम्पूर्ण हर्षोंल्लास समेत सर्जक के अन्तराकाश में समवतीर्ण हो उठता है।'

पिछले आयोजन (लघुकथा प्रतियोगिता-15) में लघुकथा में कथा की अनुपस्थिति के गहराते संकट पर विस्तृत चर्चा की गई थी। यह लेख ‘लघुकथा डॉट कॉम और ‘गद्यकोश’ पर ऑनलाइन उपलब्ध है। इस बार प्रतियोगिता हेतु प्राप्त लघुकथाओं से गुजरते हुए, इसमें प्रयुक्त घटनाओं की ‘विश्वसनीयता’ की ओर ध्यान गया। जब हम लघुकथा- जगत् की प्रसिद्ध एवं श्रेष्ठ लघुकथाओं का अध्ययन करते हैं, तो इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि एक या दो घटनाओं वाले कथानक लघुकथा की प्रकृति के अधिक अनुकूल हैं, उनमें भी दो घटनाओं वाले कथानक आदर्श कहे जा सकते हैं। कोई दृश्य, विचार,घटना, खबर या संवाद लघुकथा लेखन कि लिए प्रस्थान बिंदु हो सकता है। इस ‘प्रस्थान बिंदु’ से ‘मुकम्मल लघुकथा’ की रचना-यात्रा बहुत ही कठिन है,यहाँ उस ‘तप’ या ‘साधना’ की जरूरत है, जिसका उल्लेख ओझा जी ने ऊपर अपनी टिप्पणी में किया है। अधिकतर लघुकथाओं में यही देखने को आता है कि लेखक अपनी सृजन-यात्रा में धैर्यपूर्वक उस दूसरी घटना की प्रतीक्षा नहीं करता,जो पहली घटना की पूरक होती है, उसे मायने देती है। इस प्रकार हड़बड़ी में लिखी गई, पूर्णतया कल्पना पर आधारित रचना ‘विश्वसनीय’ नहीं होती, जबकि उसे लेखक की सृजन-यात्रा के वास्तविक क्षणों से अनुप्राणित होकर पूर्णता ग्रहण करनी चाहिए, समय और समाज की वास्तविकता से जन्मना चाहिए। लघुकथा के कथानक को लेकर जगदीश कश्यप की यह टिप्पणी उल्लेखनीय है -

‘मैं प्राय: यह दुहराता रहा हूँ कि लघुकथा में एक या दो घटनाओं वाला कथानक होना चाहिए। लघुकथा का कलेवर कहानी की अपेक्षा छोटा होता है और इस उपलब्ध छोटे रूप में ही हमें उस घटना या घटनाओं का कथ्य–विकास करना पड़ता है। न तो हम लघुकथा को मात्र संवादों के आधार पर पूरा कर सकते हैं और न कहानी की तरह किसी वर्णन में पूरा का पूरा पैराग्राफ ही लिख सकते हैं। लघुकथा में निजी अनुभव को संस्मरण के तौर पर प्रस्तुत करना भी ठीक नहीं और न समाचार की तरह अभिधापरक वर्णन ही वांछनीय है। लघु कलेवर और एक–दो घटनाओं वाली मानवीय संवेदनाओं से गुंफित जीवन मूल्यों की स्थापना करने वाली निर्दोष शिल्प की रचनाएँ ही कालजयी बन जाती हैं।’

लघुकथा लेखक के मस्तिष्क की उर्वर भूमि में उन्हीं कथाओं के बीज रहने चाहिए, जिनमें सशक्त लघुकथा के रूप में जन्म लेने की क्षमता/संभावना हो। पात्रों के ‘हृदय परिवर्तन’ सम्बन्धी कथानक लघुकथा के लिए उपयुक्त नहीं होते हैं, इन्हें लघुकथा के कलेवर में साधना हरेक के बूते की बात नहीं है। लेखक छोटी-सी रचना में कथ्य-विकास की कोशिश करता है,फलस्वरूप रचना (?) ‘अविश्वसनीयता’ का शिकार हो जाती है, जैसे-सास बहू के बीच नहीं बनती, एक-दूसरे को फूटी आँखों नहीं सुहाते, तभी लेखक द्वारा फेब्रिकेटेड किसी छोटी-सी घटना से सास का हृदय परवर्तन हो जाता है और वह बहू को बेटी मानने लगती है।

इसी प्रकार मालकिन और कामवाली बाई को केंद्र में रखकर लिखी गई अनगिनत लघुकथाएँ मिल जाएँगी, जहाँ पत्थर दिल मालकिन को कामवाली के प्रति अत्यधिक क्रूर दिखाया गया है, पैसों को दाँत से पकड़ती है, घंटों के हिसाब से उसके पैसे काटती है। एकाएक उसकी तबियत के बारे में जानकर मालकिन का हृदय परिवर्तित हो जाता है, वह कामवाली को छुट्टी ही नहीं देती, आर्थिक मदद भी करती है। ऐसा लेखन ‘विश्वसनीय’ न होने के कारण कोई प्रभाव नहीं छोड़ता। यहाँ अविश्वसनीय और विश्वसनीय कथानक के मध्य की बारीक विभाजक रेखा को स्पष्ट करने के लिए प्रस्तुत है- इवान तुर्गनेव की ‘भिखारी’ लघुकथा -

मैं एक सड़क के किनारे जा रहा था। एक बूढ़े जर्जर भिखारी ने मुझे रोका। लाल सुर्ख और आँसुओं में तैरती–सी आँखें, नीले होंठ, गंदे और गले हुए चिथड़े सड़ते हुए घाव....ओह, गरीबी ने कितने भयानक रूप से इस जीव को खा डाला है।

उसने अपना सड़ा हुआ, लाल, गंदा हाथ मेरे सामने फैला दिया और मदद के लिए गिड़गिड़ाया।

मैं एक–एक करके अपनी जेब टटोलने लगा। न बटुआ मिला, न घड़ी हाथ लगी, यहाँ तक कि रूमाल भी नदारद था....मैं अपने साथ कुछ भी नहीं लाया था और भिखारी अब भी इंतजार कर रहा था।

उसका फैला हुआ हाथ बुरी तरह काँप रहा था, हिल रहा था।

घबराकर, लज्जित हो, मैंने वह गंदा,काँपता हुआ हाथ उमगकर पकड़ लिया, ‘‘नाराज मत होना,मेरे दोस्त! मेरे पास भी कुछ नहीं है,भाई!’’

भिखारी अपनी सुर्ख, आँखों से एकटक मेरी ओर देखता रह गया। उसके नीले होंठ मुस्करा उठे और बदले में उसने मेरी ठंडी अंगुलियाँ थाम लीं, ‘‘तो क्या हुआ,भाई!’’ वह धीरे से बोला, ‘‘इसके लिए भी शुक्रिया, यह भी तो मुझे कुछ मिला,मेरे भाई!’’

और मुझे ज्ञात हुआ कि मैंने भी अपने उस भाई से कुछ पा लिया था।

(लघुकथा डॉट कॉम, अक्टूबर 2007)

‘भिखारी’ लघुकथा लेखकों का प्रिय विषय रहा है। आठवें दशक में भिखारी को केंद्र में रखकर बहुत -सी लघुकथाएँ लिखीं गईं। उसी दौर में इवान तुर्गनेव की इस लघुकथा से प्रेरित होकर कुछ कथाकारों ने कलम चलाई,जैसे- कहीं भिखारी को अपने साथ बिठाकर खाना खिला दिया गया, किसी रचना में चरमोत्कर्ष पर भिखारी को गले लगा लिया गया, किसी रचना में कथानायक ने अपना कम्बल भिखारी को दे दिया आदि- आदि। आज ऐसी कोई रचना याद नहीं आ रही, जो उत्कृष्ट श्रेणी में शामिल की जा सके। इस तरह की लघुकथाओं के कथानक मनगढंत(फैब्रिकेटेड) होने के कारण अविश्वसनीय लगते हैं और पाठक को प्रभावित नहीं करते।

वहीं ‘भिखारी’ लघुकथा में तुर्गनेव का रचना-कौशल प्रभावित करता है, लघुकथा के कलेवर में कथ्य- विकास का उम्दा उदाहरण।लेखक ने रचना में भिखारी का वर्णन करते हुए लिखा है -

लाल सुर्ख और आँसुओं में तैरती–सी आँखें, नीले होंठ, गंदे और गले हुए चिथड़े सड़ते हुए घाव...सड़ा हुआ , लाल, गंदा हाथ........

लेखक ने कथ्य को उभारने के लिए भिखारी का ऐसा चित्रण किया है। संवेदनशील कथानायक जेब टटोलता है, भिखारी का हाथ उसके सामने फैला है। सभी जेब खाली होने पर उसे अपराधबोध होता है और वह लज्जित होकर उसका गन्दा हाथ पकड़ लेता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि एक अति साधारण कथानक पर तुर्गनेव असाधारण लघुकथा लिखते हैं, जो किसी भी दृष्टि से ‘अविश्वसनीय’ नहीं लगती।

घटना प्रधान कथानक से इतर कुछ ऐसी रचनाएँ भी हैं, जिनपर सिर्फ लघुकथाएँ ही लिखी जा सकती हैं। दीपक जगताप की छोटी-सी लघुकथा ‘स्माइल प्लीज’ के निहितार्थ देखें -

फोटोग्राफर ने कैमरे के बटन पर आहिस्ता से उँगली रखी। सेकेंड से भी कम समय के लिए जिन्दगी में कभी न हँस पाने वाले साठ वर्ष पुराने चेहरे पर मुस्कान की रेखाएँ उभर आईं। लेकिन, दूसरे ही पल उनका चेहरा पूर्ववत् निस्तेज हो गया।

मृत्यु के बाद जब उनकी आदमकद तस्वीर ‘पटेल एण्ड कम्पनी’ के केबिन में, कुर्सी के पीछेवाली दीवार पर टाँगी गई–तब से आज तक फ़्रेम में जड़े मुस्कराते चेहरे को देखकर आगन्तुक कहते हैं–वे कितने हँसमुख थे!

रचना ‘पटेल एन्ड कम्पनी’ के मालिक के जीवन की उस त्रासदी की झलक दे जाती है, जिसके कारण वह हँसना/मुस्कराना भूल गए थे। लघुकथा का कथ्य हमारा ध्यान उस विडंबना की ओर दिलाता है, जहाँ फोटोग्राफर के स्माइल प्लीज कहने के कारण चेहरे पर आई यांत्रिक मुस्कराहट के कारण लोग मुगालते में रहते हैं कि वह कितने हँसमुख थे। ‘स्माइल प्लीज’ शीर्षक मानो रचना पर टिप्पणी करता प्रतीत होता है।

पहले भी लिखा गया है कि दो घटनाओं वाले कथानक लघुकथा लेखन के लिए आदर्श होते हैं; लेकिन वहीं यह देखना भी जरूरी होगा कि ये ‘घटनाएँ’ किस प्रकार की हैं-परस्पर विरोधी हैं या एक दूसरे की पूरक हैं।लघुकथा में सबसे अधिक सतही लेखन परस्पर विरोधी घटनाओं को लेकर हुआ है- शराबबंदी पर भाषण देकर नशे में धुत नेता जी घर लौटते हैं; बाल मजदूरी के विरोध में रैली में भाग लेकर लौटी समाज सेविका घर में काम कर रहे बाल श्रमिक को पीट देती हैं, आदि।वहीं एक-दूसरे की पूरक घटनाओं के विषय में यह देखना जरूरी हैं कि कथ्य में नवीनता है या नहीं, कहीं पुराने कथानकों का पिष्ट-पेषण तो नहीं। यहाँ श्याम सुन्दर अग्रवाल की ‘उत्सव’ लघुकथा याद आ रही है, जो वर्षों पहले ‘कथादेश मासिक’ में प्रकाशित हुई थी। इसे दो घटनाओं वाले कथानक, जहाँ दूसरी घटना (विषय की दृष्टि से भी) पहली की पूरक है, के सशक्त उदहारण के रूप में देखा जा सकता है -

पहला भाग(घटना)

सेना और प्रशासन की दो दिनों की जद्दोजेहद अंतत: सफल हुई। साठ फुट गहरे बोरवैल में फंसे नंगे बालक प्रिंस को सही सलामत बाहर निकाल लिया गया। वहाँ विराजमान राज्य के मुख्यमंत्री एवं जिला प्रशासन ने सुख की साँस ली। बच्चे के माँ-बाप व लोग खुश थे। दीन-दुनिया से बेखबर इलैक्ट्रॉनिक मीडिया दो दिन से निरंतर इस घटना का सीधा प्रसारण कर रहा था। मुख्यमंत्री के जाते ही सारा मजमा बिखरने लगा। कुछ ही देर में उत्सव वाला माहौल मातमी-सा हो गया।

दूसरा भाग(घटना)

टी.वी. संवाददाताओं के जोशीले चेहरे अब मुरझाए हुए लग रहे थे। अपना साज़ो-सामान समेट कर जाने की तैयारी कर रहे एक संवाददाता के पास समीप के गाँव का एक युवक आया और बोला, “हमारे गाँव में भी ऐसा ही…”

युवक की बात पूरी होने से पहले ही संवाददाता का मुरझाया चेहरा खिल उठा, “क्या तुम्हारे गाँव में भी बच्चा बोरवैल में गिर गया?”

“नहीं।”

युवक के उत्तर से संवाददाता का चेहरा फिर से बुझ गया, “तो फिर क्या?”

“हमारे गाँव में भी ऐसा ही एक गहरा गड्ढा नंगा पड़ा है,” युवक ने बताया।

“तो फिर मैं क्या करूँ?” झुँझलाया संवाददाता बोला।

“आप महकमे पर जोर डालेंगे, तो वे गड्ढा बंद कर देंगे, नहीं तो उसमें कभी भी कोई बच्चा गिर सकता है।” संवाददाता के चेहरे पर फिर थोड़ी रौनक दिखाई दी। उसने इधर-उधर देखा और अपने नाम-पते वाला कार्ड युवक को देते हुए धीरे से कहा, “ध्यान रखना, जैसे ही कोई बच्चा उस बोरवैल में गिरे, मुझे इस नंबर पर फोन कर देना। किसी और को मत बताना। मैं तुम्हें इनाम दिलवा दूँगा।”

(कथादेश, अप्रैल 2008)

श्याम सुन्दर अग्रवाल की यह लघुकथा कुछ सवाल भी खड़े करती है, जैसे- दीन-दुनिया से बेखबर इलैक्ट्रॉनिक मीडिया दो दिन से निरंतर इस घटना का सीधा प्रसारण कर रहा था। मुख्यमंत्री के जाते ही सारा मजमा बिखरने लगा। कुछ ही देर में उत्सव वाला माहौल मातमी-सा क्यों हो गया?

दूसरी घटना से हमें यह भी पता चल जाता है कि बच्चा प्रिंस किन परिस्थितियों में बोरवैल में गिरा होगा।

प्रतियोगिता हेतु प्राप्त लघुकथाओं में से कुल 21 लघुकथाओं का चयन निर्णायकों के पास भेजने हेतु किया जा सका। निर्णायकों (कथाकार ओमा शर्मा, आलोचक राजकुमार और कथाकार सुकेश साहनी) द्वारा दिए गए अंकों के आधार पर 10 लघुकथाओं का पुरस्कृत करने हेतु चयन किया गया –

(1)पाप (हरभगवान चावला ), (2) सम-विधान (ट्विंकल तोमर सिंह ), (3) फर्क (इंद्रजीत कौशिक ), (4) चोर (शिवचरण सरोहा ), (5) हैप्पी फैमिली (आशा शर्मा), (6) वरदान (बसंत राघव ), (7) चर्चा (राम करन), (8)पापी (सुरेश सौरभ), (9) बड़कऊ (रचना श्रीवास्तव), (10) अंधा रास्ता (पूरन सिंह)

अंतिम चक्र तक पहुँची अन्य लघुकथाओं का विवरण निम्नवत् है –

स्वीकारोक्ति (रश्मि स्थापक), रजस्वला (सुनीता बिशनोलिया ), परहेज (अनिता ललित ),छाया दान (ऋचा शेखर ‘मधु’ ), थैला किताबों वाला ( मुकेश पोपली ), जलदिवस (अतुल मिश्रा), परित्यक्त (राजशेखर चौबे), मुआवजा (अखिलेश श्रीवास्तव चमन ), बेकार आदमी (विजय उपाध्याय), निद्राजीवी (अनीता सैनी), भोज (अरिमर्दन कुमार सिंह)

प्रथम स्थान के लिए पुरस्कृत हरभगवान चावला की लघुकथा ‘पाप' का पाठ विचलित कर देता है। यह लघुकथा पढ़ते हुए ‘बुराड़ी कांड’ की याद हो आई, जबकि कथ्य की दृष्टि से यह कथा उससे भिन्न है।

कन्या को पैदा होते ही मार दिया जाता है। घर के सब लोग एकदम ख़ामोश हैं। दो मर्द, जिनमें से एक कन्या का पिता है, गड्ढा खोदते हैं और निरासक्त भाव से उसे धरती के अँधेरे में पहुँचा देते हैं । दफ़न के वक्त कन्या का पिता कन्या से कहता है, "जा, जहाँ से आई थी, आगे अब भैया को भेजना।" इस संवाद को पढ़कर ही बुराड़ी कांड की याद आई, जहाँ पूरा परिवार इस अंध-आस्था के चलते कि फंदे पर लटकने के बाद भी वे मरेंगे नहीं, बल्कि इस ‘तपस्या’ के बाद उनका जीवन और भी अच्छा और खुशहाल हो जाएगा, मौत को गले लगा लेते हैं।

यह कैसी अंध-भक्ति है? कौन सी दुनिया में जी रहे हैं ये लोग, जहाँ कन्याओं की बलि चढ़ाई जाती है, बेटी की हत्या में पिता का साथ देने वाला दूसरा मर्द एक पुजारी है, पिता बेटी की हत्या के बावजूद उसे जीवित मानते हुए कहता है कि अब भैया को भेजना।

यहाँ लेखक कथ्य-विकास के क्रम में दूसरी घटना का समावेश करता है -

कन्या का पिता बेटी को दफ़न करने और पुजारी को घर पहुँचाने के बाद कन्या की माँ के पास आ बैठता है। वह रो रही है। कन्या का पिता कहता है, "रोती क्यों हो? वंश तो बेटे से ही चलेगा न!"

"हमारा अंश थी वह! दुनिया में आई और आँख खोलने से पहले चली भी गई। भारी पाप लगेगा हमें।" कन्या की माँ रोते हुए कहती है।

"पाप क्यों लगेगा, हमने कौन सी गऊ हत्या की है?" अंध-आस्था में लिप्त ऐसे लोगों का इस कदर ‘ब्रेन वाश’ कर दिया गया है कि उनकी दृष्टि में गौ हत्या से बड़ा पाप कोई और नहीं है। उम्दा, उद्देश्यपूर्ण रचना के लिए लेखक को बधाई।

निर्णायकों के अंकों के आधार पर ट्विंकल तोमर सिंह की लघुकथा ‘सम-विधान’ दूसरे स्थान के लिए पुरस्कृत हुई। विषय की नवीनता और उससे सम्बंधित समसामयिक सन्दर्भों पर बारीक पकड़ के कारण रचना विशिष्ट हो गई है।हमने मीडिया जगत पर श्याम सुन्दर अग्रवाल की लघुकथा ‘उत्सव’ पढ़ी, जिसमें गॉंव का भोला-भाला युवक है, जो टी वी संवाददाता को एक दूसरे खुले बोरवैल के बारे में बताता है। उत्सव लघुकथा का रचनाकाल लगभग 16 वर्ष पहले का है। ट्विंकल तोमर सिंह की लघुकथा ‘सम-विधान’ इसलिए भी महत्त्वपूर्ण कही जाएगी कि इधर के वर्षों में मीडिया को लेकर देश में जो सामाजिक, राजनैतिक परिवर्तन आए हैं, वे लेखिका की रचना में दिखाई देते हैं, पैसेवालों द्वारा गरीबों का जो शोषण हुआ या हो रहा है, उसके विरुद्ध आवाज बुलंद करता छोटू दिखाई देता है।रचना के अंत में छोटू का जेब से मोबाइल निकालकर रील्स देखने लगना शोषक-वर्ग को उन्हीं की भाषा में जवाब देने का प्रयास है।

सोशल मीडिया पर कोई फोटो, रील वायरल हो जाए, इसके लिए होड़ मची रहती है। 26 जनवरी का दिन है, दो सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर भूखे- नंगे बच्चों की तलाश में घूम रहे हैं।तभी उन्हें आधा नंगा बच्चा मिट्टी में खेलता दिखाई देता है -

‘‘चल चल, उसे तिरंगा पकड़ाकर फ़ोटो खींचते हैं ...’’

‘‘क्यों छोटू ...फ़ोटो खिंचवाएगा?’’

छोटू भावहीन चेहरे से दोनों को देखता है, फ़ोटो खिंचाने का जो गुड़ चारे की तरह उसकी तरफ फेंका गया था, लगता था कि यह गुड़ उसके लिए नया नहीं है।

‘‘ये ले, पकड़ ये तिरंगा...देख कितनी बढ़िया फ़ोटो खींचता हूँ तेरी...."

‘‘दो सौ रुपिया" छोटू अचानक सपाट स्वर में बोला।

‘‘क्या?" दोनों की आँखें फैल गईं।

"दो सौ रुपिया…फोटू खिंचाने का..." छोटू लापरवाही और धृष्टता के साथ बोला।

‘‘अरे छोटू, तू तो बड़ा स्मार्ट हो गया है। लूटना है हमको? फ़ोटो खिंचाने का पैसा लेगा?"

‘‘संविधान देश के कानून की क़िताब को कहते हैं न, भैया?"

‘‘हाँ, बड़ा ज्ञानी है तू तो।"

‘‘उसमें नहीं लिखा है, पर मैं बता रहा हूँ, स्मार्ट बनने का अधिकार सबके पास है," छोटू कुटिलता से मुस्कुरा दिया। दोनों मित्र जब तक आश्चर्य के समुद्र में गोते लगा कर बाहर आते तब तक छोटू ने जेब से मोबाइल निकाला और रील्स चला कर देखने लगा।

इंद्रजीत कौशिक की लघुकथा ‘फर्क’ तीसरे स्थान के लिए पुरस्कृत हुई ।वर्णात्मक शैली में लिखी गई इस लघुकथा के अवलोकन से स्पष्ट है कि यदि कथ्य दमदार है तो सीधे, सरल-अंदाज़ में लिखी गई लघुकथा भी पाठकों को बहुत पसंद आती है - घर के मुखिया राम प्रसाद की इस बात को लेकर बहुत तारीफ होती है कि वे परिवार और बागीचे की देखभाल बहुत जी-जान से करते हैं, जिसके कारण उनका भरा पूरा परिवार और पिछवाड़े में लगाया हुआ बाग हर समय खुशियों से महकता-चहकता, गुलजार नजर आता है ।

कुछ दिन बाद लोगों ने देखा कि पिछले कुछ समय से बगीचा तो पूरी तरह से हरा-भरा और खिला-खिला दिखाई दे रहा है; परंतु उनका परिवार बिखरा-बिखरा नजर आने लगा है। आए दिन के झगड़े झंझट होते देखकर एक दिन पड़ोसियों से रहा नहीं गया और उन्होंने रामप्रसाद जी से पूछ ही लिया, ‘‘हमें लग रहा है कि आप अपने परिवार की इतनी अच्छे से देखभाल नहीं कर पा रहे, जितनी अपने बगीचे की कर रहे हो?"

उनका सवाल सुनकर रामप्रसाद जी कुछ पलों के लिए शून्य में ताकते रहे और फिर धीमी आवाज में बोले, ‘‘बंधुवर, देखभाल तो मैं दोनों की बराबर ही कर रहा हूँ। फर्क बस इतना है कि काश, जितनी संवेदनशीलता बगीचे के पौधों ने दिखलाई वैसी परिवार के लोग भी दिखाते।" कहते हुए उनकी आँखों का गीलापन सब कुछ बयान कर रहा था। घर-परिवार पर लिखी गई उत्कृष्ट लघुकथाओं में इसे रखा जा सकता है।

शिवचरण सरोहा की लघुकथा ‘चोर’ चौथे स्थान के लिए पुरस्कृत हुई। गत वर्ष उनकी लघुकथा ‘रंग-बदरंग’ पुरस्कृत हुई थी। शिवचरण अपनी लघुकथाओं में अनावश्यक फैलाव के प्रति सजग रहते हैं, उनकी लघुकथाओं में बहुत कुछ ‘अनकहा’ रहता है, जबकि कथ्य की दृष्टि से वह महत्त्वपूर्ण होता है। ‘चोर’ लघुकथा में भी लेखक ने दो घटनाओं वाले कथानक के माध्यम से कटटरपंथियों द्वारा धर्म के नाम पर बाँटे जा रहे समाज की निर्दोष भावी पीढ़ी में व्याप्त असुरक्षा और डर का चित्रण किया है।

मस्ज़िद से निकलते ही लड़के की नज़र आसमान में लहराती हुई कटी पतंग पर पड़ती है, पतंग एक आँगन में जा गिरती है। आँगन तो पड़ोस का है, किंतु वह ठिठक जाता है। डरते हुए सोचता है कि वह पतंग उठाए या नहीं. . ललचाई आँखें पतंग पर गड़ी हैं। आँगन पहले सिर्फ़ आँगन थापरंतु अब वहाँ तो...दूसरे ही लोग आ गए थे, पहले वह बेधड़क उठा लाता था- गेंद, पतंग और आँगन में पड़े अमरूद. लेकिन अब... (अनकहा )

हिम्मत करके वह दबे पाँव आँगन में घुसता है और पतंग उठाते ही सरपट भागता है; लेकिन गली के कोने पर जाकर वह फिर ठिठक जाता है, सामने से एक जुलूस नारे लगाता हुआ गुज़र रहा है।उसका दिल ज़ोर से धड़कने लगता है, वह घबराकर झट से अपने सिर की टोपी उतार लेता है और दीवार की ओट में छिप जाता है (अनकहा)। पता नहीं क्यों उसे लगता है कि उसने चोरी की है?

आशा शर्मा की लघुकथा ‘हैप्पी फैमिली’ चुस्त गठन और महत्त्वपूर्ण कथ्य के कारण निर्णायकों का ध्यान खींचने में सफल हुई है। जो लेखक यह मानते हैं कि लघुकथा का समापन अनिवार्य रूप नुकीला, धारदार और बेधक होना चाहिए, उन्हें ऐसी लघुकथाओं का अवलोकन करना चाहिए। भारतीय परिवेश में संयुक्त परिवारों के विघटन के दुष्परिणामों से हम सब वाकिफ हैं। लेखिका ने इस विघटन के बाद ऐसे परिवारों की दशा पर फोकस किया है। लघुकथा का समापन एक दृश्य के रूप में होता है, जो आँखों के आगे फ्रीज़ हो जाता है और पाठक को सोचने पर बाध्य करता है।

उत्पादों की बिक्री बढ़ाने के लिए कोई धमाकेदार ऑफर की स्कीम के तहत ‘हैप्पी फैमिली कांटेस्ट’ आयोजित किया जाता है, उत्पाद खरीदने वाले ग्राहकों से उनके खुशहाल परिवार की तस्वीर मँगवाते हैं और बेस्ट तस्वीर वाले परिवार को उपहार स्वरूप एक ‘फैमिली होलीडे ट्रिप’ देने की घोषणा करते हैं।

स्कीम लॉन्च की जाती है और जैसा कि अनुमान था, कंपनी के रिकॉर्ड उत्पादों की बिक्री होती है और ढेरों तस्वीरें प्राप्त होती हैं। निर्णायक बेस्ट हैप्पी फैमिली की तस्वीर को चुनने में दुविधा में पड़ जाते हैं; क्योंकि अधिकांश तस्वीरों में पति-पत्नी के साथ उनके पालतू कुत्ते या बिल्ली थे, माता पिता या बच्चे नहीं।

छठे स्थान के लिए पुरस्कृत बसंत राघव की लघुकथा ‘वरदान’ में गिरगिट की तरह रंग बदलते मंत्री जी की कथनी और करनी की रोचक प्रस्तुति हुई है। लघुकथा के कलेवर में कथा रस से भरपूर रचना में मंत्री जी की वोट केंद्रित सोच से संचालित उनके चरित्र के आरोह-अवरोह को देखा जा सकता है। लघुकथा का समापन -

दूसरे वरदान से मास्टर साहब और अधिक खुश हो गए। तीसरा वरदान मुख्यमंत्री दें, इसके पूर्व ही सन्तरी ने सलाम बजाकर कहा- ‘‘हुजूर यह बूढ़ा यहाँ तीन दिन से अनशन कर रहा था।’’

सुनकर अचानक मुख्यमंत्री की आँखें लाल हो गईं।उन्होंने यमराज जैसे घोर गर्जना की- ‘‘इस मनहूस को मेरे सामने से दूर करो और जेल में ठूँस दो ! ’’ यह उनका तीसरा वरदान था।

राम करन की लघुकथा ‘चर्चा’ का सातवें स्थान के लिए चयन हुआ। राम करन नवीन विषयों पर उत्कृष्ट लघुकथाओं के सृजन के लिए जाने जाते हैं। कथादेश समेत कई राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित प्रतियोगिताओं में उनकी लघुकथाएँ प्रथम स्थान के लिए पुरस्कृत हुई हैं। वर्तमान प्रतियोगिता हेतु चयनित ‘चर्चा’ भी विषय में नवीनता की दृष्टि से रेखांकित करने योग्य है। वोटों की राजनीति ने समाज को जातिगत आधार पर इस कदर बाँट दिया है कि अन्य बहुत-सी महत्त्वपूर्ण बातें गौण हो जाती हैं। ‘चर्चा’ लघुकथा में लेखक ने करीब के गाँव से बदली होकर आए मास्टर जी के माध्यम से गॉववालों की उस सोच को उजागर किया है, जहाँ दोस्ताना व्यवहार के कारण बच्चे मास्टर जी को गॉंव में उनको लेकर हो रही चर्चा के बारे में एक-एक बात बता देते हैं। अपनी और परिवार कि निजी बातें सुनकर मास्टर जी हक्के-बक्के रह जाते हैं।सबसे ज्यादा हैरानी उन्हें इस बात से होती कि उनको लेकर हो रही चर्चा में यह बात कहीं भी नहीं आती कि वह कैसा पढ़ाते हैं। बच्चों के मुँह से कुछ संवाद अस्वाभाविक लगते हैं, पर कुल मिलाकर इस रचना में भी राम करन अपने लेखकीय उद्देश्य में सफल रहे हैं।

आठवें स्थान के लिए पुरस्कृत सुरेश सौरभ की लघुकथा ‘पापी’ अपने कथ्य, कथा-प्रवाह और चुस्त बुनावट के कारण प्रभावित करती है। यह रचना छदम धार्मिक आस्था के साथ-साथ ध्वनि प्रदूषण की ओर भी पाठक का ध्यान खींचती है। कथानायक रात की ड्यूटी से थका लौटा है। पड़ोस में लाउड स्पीकर पर चल रही भागवत कथा के कारण सो नहीं पाता। सात दिन तक रात के नौ बजे से शुरू होकर देर रात के चलने वाली कथा के शोर से आजिज आकर वह आयोजकों से आवाज कम करने का विनम्र निवेदन करता है। बदले में आयोजकों द्वारा उसे पापी और दुराचारी कहकर अपमानित किया जाता है।घर लौटकर पत्नी को बताता है तो पत्नी कहती है, ‘‘अरे! शुक्र मनाओ आपको पापी ही कहा, कहीं और किसी धर्म के होते, तो पाकिस्तानी-खालिस्तानी भी कह देते” रचना का समापन लघुकथा के कथ्य के अनुरूप बहुत ही सुन्दर अंदाज़ में हुआ है -

“बुढ़वा से जवनवा हो गये सैंया हमार…” -किसी फिल्मी तर्ज़ पर पंडित जी का बेसुरा राग बज रहा था, हारमोनियम, ढोलक, मंजीरे चिमटे में जैसे जंग छिड़ी हो। लाउडस्पीकर मेरे कानों को बेध रहा था, मन में अनेक हलचलें उठ रहीं थीं, जिससे हृदय की धड़कनें डांवाडोल हो रही थीं।

रचना श्रीवास्तव की लघुकथा ‘बड़कऊ’ कथ्य में नवीनता के कारण निर्णायकों का ध्यान खींचने में सफल रही है। पति द्वारा पत्नी को प्रताड़ित करने की घटनाएँ बहुतायत में देखने को मिलती हैं। पति का पत्नी के चरित्र पर शक करना, उसकी जासूसी करवाना सामान्य-सी बात है। ‘बड़कऊ’ जैसी घटनाएँ भारतीय समाज में घटती हैं, पर पुरुष प्रधान समाज के कारण प्रकाश में नहीं आती।

रचना श्रीवास्तव की इस लघुकथा में बड़कऊ पंखे से लटककर जान दे देता है। पूरा घर दहाड़े मार- मार कर रो रहा होता है। अम्मा बार-बार बेहोश हुए जा रहीं हैं। पड़ोसी फुसफुसा कर बातें कर रहे हैं, आखिर बड़कऊ ने ऐसा क्यों किया। इस अशांत घर में बस रीमा ही शांत है। उसको मानो कोई दुःख नहीं है।दरअसल वह शुरू से ही बड़कऊ के मधुरिमा से नाजायज़ संबंधों को लेकर शक करती है। उसे मधुरिमा के मार्फत बड़कऊ का उसे सम्बोधित आखिरी खत मिलता है -

प्रिय रीमा,

जब तक तुमको ये पत्र मिलेगा, मैं तुमसे बहुत दूर जा चुका होऊँगा। शक का जो कीड़ा तुम्हारे अंदर घुस चुका है, उसने तुम्हारी आत्मा तक को दूषित कर दिया। मैंने बहुत प्रयास किया कि तुम्हारा शक दूर हो सके; पर नाकाम रहा। संदेह करने की तुम्हारी आदत ने मेरा जीना कठिन कर दिया था। मुझे मर जाना आसान लगा। मैंने सोचा- शायद तुम समझ सको कि मेरा कहीं चक्कर नहीं था और तुम्हारा शक दूर हो सके।

तुम्हारा बड़कऊ

रीमा थोड़ी देर पत्र हाथ में लिये बैठी रही। फिर खुद से ही बोली ‘मरकर भी झूठ बोल गया’ और बड़बड़ाते हुए बाहर आकर बैठ गई।

पूरन सिंह की लघुकथा ‘अंधा रास्ता’ दसवें स्थान के लिए पुरस्कृत हुई। वर्षों बीत जाने के बाद भी जातिवाद और छुआछूत के अंधे रास्ते पर चलने वालों पर लेखक ने गहरा कटाक्ष किया है। कथानायक की नज़र भीड़ भरी सड़क पार करने की कोशिश कर रहे अंधे व्यक्ति पर पड़ती है, वह उसका हाथ पकड़कर सड़क पर कराने लगता है। बीच सड़क पर अंधा व्यक्ति उससे उसका नाम पूछता है। जाटव सुनते ही वह उसका हाथ झटक देता है और गले में पड़े भगवान राम के पैंडल को चूमते हुए- ‘राम राम ...शिव ...शिव......हे राम ...हे राम’ जपने लगता है।

लघुकथा का शीर्षक बहुत उम्दा है, कथा उद्देश्यपूर्ण है। अंधे आदमी का बीच रास्ते सड़क पार करवाने वाले से नाम पूछना ‘अविश्वसनीय’ लगता है, रचना के प्रभाव को कम करता है।

और अंत में

इस लेख में लघुकथा के कथानक की प्रकृति पर जो भी टिप्पणियाँ या विचार प्रस्तुत किये गए हैं, उनका आधार प्रसिद्ध/उत्कृष्ट लघुकथाएँ ही हैं। यदि विद्वान साथियों ने दो घटनाओं वाले कथानक को आदर्श कहा, तो उसका आधार भी लघुकथा-जगत की प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। इसका यह तात्पर्य कतई नहीं कि जिन लघुकथाओं में दो घटनाओं से अधिक हैं, वे श्रेष्ठ नहीं हो सकती। बिलकुल संभव है कि वे एक या दो घटनाओं वाली रचनाओं को पीछे छोड़ दें। लघुकथा के कलेवर में अनेक घटनाओं वाले कथानक को लेकर मुकम्मल रचना का सृजन बहुत चुनौतीपूर्ण है, यह सब लघुकथा के कथ्य और लघुकथाकार की क्षमता और रचना-कौशल पर निर्भर करेगा। एक से अधिक घटनाओं वाली लघुकथाओं में 'वो जो नहीं कहा' (स्नेह गोस्वामी), तिड़के घड़े(सुभाष नीरव), स्वागत(श्याम सुन्दर दीप्ति), आग (असगर वजाहत), नवजन्मा(रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’) और कोलाज़(सुकेश साहनी) जैसी अनेक लघुकथाओं को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है जो आलोचकों/पाठकों द्वारा काफी पसंद की जाती रही हैं। इससे उलट इसी प्रतियोगिता में पुरस्कृत लघुकथाओं का अवलोकन करें, तो पता चलता है कि ‘फर्क’ और ‘हैप्पी फैमिली’ जैसी रचनाएँ निर्णायकों द्वारा अधिक पसंद की गईं, जबकि उनका कथानक दो घटनाओं वाला भी नहीं है। इन पंक्तियों को लिखते हुए फेसबुक पर एक लघुकथा प्रतियोगिता का विज्ञापन देख रहा था, जिसमें प्रतियोगिता हेतु 150 से 300 शब्दों की लघुकथाएँ माँगी जा रही थीं। लेखक से ऐसे मशीनी लेखन की अपेक्षा करना विधा को पीछे ही ले जाएगा। प्रसन्नता की बात है कि लघुकथा लेखन में ऐसी प्रतिभाएँ हैं, जो इस प्रकार के बंधनों की पक्षधर नहीं हैं। वे नई जमीन तोड़ रहे हैं, अपने उत्कृष्ट लेखन से चमत्कृत कर रहे हैं। ऐसे रचनाकारों को लघुकथा लेखन के लिए किसी व्याकरण के अध्ययन की जरूरत नहीं पड़ती। इसी क्रम में प्रस्तुत हैं दो लघुकथाएँ -

1-बमों की बातें/ अनूप मणि त्रिपाठी

“हाय!” नया नवेला बम बोला।

“हैलो!” पुराने बम ने जवाब दिया।

“तो तैयार हो!”

“किस बात के लिए!”

‘‘फटने के लिए!”

“अगर तुम किसी अस्पताल, खलिहान, कारखाने पर गिरो, तो तुम्हें कैसा लगेगा!” पुराने बम ने पूछा।

“मुझे अपना काम करना है, उसका परिणाम नहीं देखना!” नए बम ने जवाब दिया।

“अच्छा, पहले यह बताओ कि तुम्हारे अंदर क्या-क्या है!” कुछ देर चुप रहने के बाद पुराने बम ने पूछा।

“बारूद, केमिकल और बहुत कुछ!” नए बम ने जवाब दिया।

“गलत!”

“फिर!”

“तुम्हारे अंदर किसी मज़दूर के हिस्से की चुराई गई रोटी, किसी बुज़ुर्ग की ख़त्म की गई पेंशन, किसी बच्चे के हाथ से छीनी गई किताब, कीटनाशक पिया हुआ कोई किसान, प्रसव वेदना से दम तोड़ती हुई किसी महिला की एंबुलेंस की प्रतीक्षा, बड़े सेठ की गहरी अय्यारी, अंतर्राष्ट्रीय नेता की नई चाल की तैयारी और तो और किसी नवजात की ली गईं किलकारी है ...”

“तुम तो बहुत भरे बैठे हो यार! कहीं बैठे-बैठे ही न फट जाना!” नए बम ने व्यंग्य किया।

“मगर एक्सपर्ट तो मुझे सीला हुआ कहते हैं!” पुराने बम ने अपना हाल बताया।

“तुम सीले नहीं हिले हुए हो!” नया बम मस्ती में बोला।

“मैं हिला हुआ कैसे!” पुराने बम ने पूछा।

“क्योंकि मेरे अंदर केमिकल है और तुम्हारे अंदर केमिकल लोचा है!” नया बम यह कहकर अकड़ा।

“तो मैं हिला हुआ हूँ!”

“हाँ,कोई शक!”

“अगर मैं हिला हुआ हूँ, तो तुम पूरे ठस्स हो ठस्स!”

“कैसे!!!”

“तुम फटकर हुक्म बजाते हो!”

“और तुम सीले रहकर क्या करते हो बे!” नए बम ने गुस्से से पूछा।

“मैं फर्ज निभाता हूँ!” पुराने बम ने विनम्रता से जवाब दिया।

(लघुकथा डॉट कॉम, सितम्बर 2024)

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2- उस मकान में/ मुकेश वर्मा

​रिटायरमेंट के अगले ही दिन हम जिस मकान में पहुँचे, वह शहर से थोड़ा हटकर अर्धविकसित कॉलोनी में बना था। मकान पहाड़ी की चढ़ाई पर था। वहाँ से ढेर सारा आसमान और दूर की झील पास दिखती थी, यहाँ तक कि उसका पानी भी दिखता था। बाजार नहीं दिखता था; लेकिन पास था। मेरी पत्नी ने बहुत सोच-समझकर पसन्द किया था। रिटायरमेंट के नजदीकी दिनों में काम की कुछ ऐसी व्यस्तता रही कि मैं इस मकान को पहिले देख नहीं पाया; लेकिन सदा की तरह पत्नी की कार्य-कुशलता, दूरंदेशी, चतुर बुद्धि के भरोसे भली तरह निश्चिन्त रहा।

​जब मैं पहली बार पहुँचा, रिटायर हो चुका था। सामान उतर रहा था। सबसे पहले मैंने ट्रक से एक कुर्सी निकलवाई। बरामदे में रखी और बैठ गया। सिगरेट जलाकर कौतूहल से उस मकान को देखा, जहाँ मुझे अब जिन्दगी के आखिरी दिन गुजारने थे। फिर टहलते हुए उस खिड़की को देखा, जिसके करीब हमारा पलंग लगाया जा रहा था। खिड़की में से किसी डाल के फूल बार-बार भीतर घुसने की कोशिश करते और बाहर हो जाते। उस रसोई-घर को देखा, जहाँ मेरी आखिरी दाल-रोटी बननी थी। उस छोटे से पूजाघर को देखा, जहाँ जल्द ही पत्नी के साथ चटाई पर बैठकर मुझे भगवान के साथ अपना और उनका आखिरी समय गुजारना था।

​धीरे से बाहर निकला। गेट से एक रास्ता सीधे झील को जाता था। झील के दूसरे सिरे पर श्मशान था। लौटते हुए कदमों को गिना। आश्वस्त वापस लौट आया; लेकिन गहरी थकान लगी। रिटायरमेंट के बाद पहली गहरी थकान। मैंने हँसना चाहा; लेकिन हँस नहीं पाया। यह अजब लगा।

वापसी पर देखा- पत्नी अखबार वाले को कल से ज्यादा अखबार लाने के निर्देश दे रही थी। साहब अब ज्यादा अखबार पढ़ेंगे। सोने के कमरे में टी.वी. ऐसी जगह रखा गया, जहाँ से दिन-रात देखा जा सकता है, पसरे हुए, अधलेटे भी।

​हाथभर दूरी पर किताबों की अलमारी, जिससे टेबिल पर टेलीफोन, पानी का जग, गिलास,दवाइयों की ट्रे। पलंग के पास घंटी, जिससे कभी भी किसी को बुलाया जा सके। नजदीक दीवार पर चिपके कागज में फेमिली डाक्टर, बेटे-बेटियों, बैंक,पोस्ट ऑफिस, पेंशन-ऑफिस और एक-दो दोस्तों के टेलीफोन नम्बर।

​पत्नी ने मेरे सूट और कपड़े सन्दूक में बन्द कर दिए। मेरे लाख मना करने पर भी चार-छह कुर्त्ता- पजामा सिलवाए गए। धोती भी ली और शॉल भी। ऐसी चप्पलें खरीद लाए, जिसके तल्ले खुरदुरे और चिकने फर्श पर कतई फिसल न सकते हों। मैंने देखा कि जहाँ चप्पलें रखी हैं, वहाँ एक छड़ी भी रख दी गई है। छड़ी की मूँठ भद्दी और चिकनी थी। कमरे में कहीं ऐश ट्रे नहीं थी। कचरे में फेंक दी गई थी।

रात का कातर अँधेरा है। बहुत दूर से तेज ढोलकों पर कीर्तन की अस्पष्ट आवाजें उभरकर, रह-रहकर आ रही हैं, करीब लेटी पत्नी के हल्के खर्राटे हौले से उठ-बैठ रहे हैं। मैं उठा। बाहर छत पर आया। दूर झील का पानी, चाँदनी में चमक रहा है। उसके आगे श्मशान का अँधेरा है। भीतर आकर मैंने धोती-कुर्त्ता पहना।शाल ओढ़ी। चप्पलों में पाँव डाले और छड़ी उठा ली। ड्रेसिंग टेबिल के सामने खड़ा हो गया। बत्ती जला दी। आईने में एक अजनबी इंसान खड़ा था। मैंने रोना चाहा; लेकिन रो नहीं सका। यह अजब लगा।

(मास्टर स्ट्रोक, संपादक-सुकेश साहनी)