लघुकथा के मानदण्ड / शंकर पुणताम्बेकर

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कहा जाता है कि लघुकथा के निश्चित मानदण्ड नहीं बन सके हैं, उसके आकार और शिल्प को लेकर अब तक जो बातें कही गई हैं, उससे लगता है हमें सन्तोष नहीं है। लगता है, हम कहीं अंधेरे में हाथ मार रहे हैं और वहाँ से लघुकथा के सुनिश्चित रूप की तलाश कर रहे हैं। लगता तो यह भी है कि हम ही अंधे हैं और ‘हाथी’ की अपने–अपने ढंग से व्याख्या कर रहे हैं।

इस सन्दर्भ में यह मान लेना गलत होगा कि दूसरी विधाओं के स्वरूप और तत्त्व सुनिश्चित हैं। नहीं, आज की कहानी, उपन्यास, नाटक के स्वरूप और तत्व सुनिश्चित नहीं हैं। होने भी नहीं चाहिए। ऐसा यदि हो जाए तो इन विधाओं की कृतिशीलता तालाब–सी अवरुद्ध हो जाएगी, नदी–सी प्रवाहमयी नहीं बनी रहेगी।

आप यह सोचिए–नदी, जीवन और साहित्य के मानदण्ड क्या होने चाहिए? बड़ा कठिन है यह कार्य। क्या पक्के घाट में ही नदी के साथ–साथ जीवन ओर साहित्य की सार्थकता है? क्या वे ही नदियाँ धन्य है, जो बड़े शहरों की धनी हैं, अथवा तीर्थस्थलों के टीके से युक्त हैं?

अब तो नदियों के घाट नहीं बनते, बाँधे जाते हैं।

जीवन और साहित्य में भी यही हो रहा है, केवल बाँध जाते हैं। इससे हराभरापन आया है, पर औरों के हरेभरेपन की कीमत पर । खैर, यहाँ मुझे केवल इस बात की ओर संकेत करना है कि जो प्रवाहमय है, उसका मानदण्ड मात्र प्रवाहमयता है और बातें गौण हैं। ....और इस प्रवाहमयता में, फिर वह साहित्य की कोई भी विधा हो, प्रमुख बात है यथार्थ की। नदी के लिए जो स्थान पानी का है, वह जीवन और साहित्य के लिए यथार्थ का। यहाँ यह भी ध्यान रखना होगा कि जो नदियाँ उथली होती हैं वे सूख जाती हैं। साहित्य में इसीलिए वे ही यथार्थ शाश्वत हैं जो प्रवाहमयता के साथ गहरे भी हैं। लघुकथा के सन्दर्भ में भी यह बात इतनी ही सही है। बल्कि लघुकथा का लघु होना उसे इस बात की ओर से विशेष जागरूक बनाता है।

मैं लघुकथा को वास्तव में ‘‘वैचारिक कथागीत’’ मानता हूँ। वैचारिक कथागीत कहने पर लघुकथा की जो भी विशेषताएँ हैं, जो उसके मानदण्ड स्वरूप हो सकती हैं, वे इस छोटे पद में समाविष्ट हैं।

गीत छोटा होता है, वह कितना छोटा होता है? क्या हम उसके शब्दों की गिनती करते हैं? उसको समय से नापते हैं? वास्तव में गीत एक विशिष्ट भावप्रभाव उत्पन्न करता है जिसमें निमग्नता की अपनी सीमा होती है। आप कोई गीत चाहें तो रिकार्ड के दोनों ओर बजा लीजिए। उससे अधिक में श्रोता की निमग्नता संभव नहीं, चाहे वह अच्छा–से– गीत क्यों न हो। जो बात भावगीत पर लागू है, वही बात हमारी लघुकथा–कथागीत पर भी है।

अत: लघुकथा के आकार पर जब हम विचार करते हैं तो मुख्यत: हमें यही देखना चाहिए कि उसमें निमग्नता बनी रहती है या नहीं। यदि नहीं बनी रहती तो वह अनावश्यक दीर्घ है।

कुछ लघुकथाएँ ऐसी भी होती हैं जो पूर्ण निमग्नता का अवसर नहीं दे पातीं। गीत जैसे बीच में ही रुक गया हो। कहा जात सकता है कि ऐसी लघुकथाएँ अनावश्यक छोटी हैं। गीत भावात्मक होता है पद्य में । लघुकथा भाव नहीं, विचार को लिए रहती है गद्य में। इसीलिए हमने इसे वैचारिक कथागीत कहा है।

आज के समस्त लेखन की प्रवृत्ति ही वैचारिक है। कविता की भी, जो भावात्मक होती है। युग विचारका है, ठोस विचार का! यथार्थ के संदर्भ में किए जाने वाले विचार का! जब हम यथार्थ के संदर्भ में विचार की बात करते हैं, तो उसमें कटु–यथार्थों का ही आधिक्य मिलता है–भूख,महँगाई,अभाव, कालाबाजारी, तस्करी, रिश्वतखोरी, शोषण, बलात्कार, अत्याचार, भाई–भतीजावाद, दलवाद आदि के कटु यथार्थों का।

कटु यथार्थों का ही क्यों, मधुर यथार्थों का क्यों नही? यह इसलिए कि मधुर यथार्थ कुछ ही लोगों की बपौती है, अन्यायी–अत्याचारियों की बपौती।

साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा लघुकथा में कटु–यथार्थ अत्यन्त धने रूप में विद्यमान होता है, क्योंकि इसका आकार लघु है। वह जैसे लोहे की भारी गोली है। जब हम लघुकथा को गीत कहते हैं, तो उससे तात्पर्य केवल लघुकथा के आकार तक सीमित नहीं है। उससे और भी अर्थ निकलते हैं। गीत में एक–ही–एक भाव होता है, आदि से अंत तक। लघुकथा में भी यही अपेक्षित है। इसमें एक–ही–एक विचार होता है, आदि में अंत तक। और तीव्र प्रभाव गीत का प्राण होता है। लघुकथा में भी तीव्र प्रभाव उसका प्राण है। गीत में भावान्विति होती है, लघुकथा में विचारान्विति होनी चाहिए। गीत में भावात्मक लय होता है। लघुकथा यद्यपि गद्य की चीज है, तथापि उसमें भी विचारात्मक लय अपेक्षित है।

यही बात आप ही भाषा और शैली की आ जाती है।

कहा जाता है, गीत में कोमलकांत पदावली होती है–गीत की भावात्मकता के कारण, लघुकथा में यथार्थबद्ध पदावली होनी चाहिए–उसकी वैचारिक प्रकृति के कारण। पद्य में भाव के अनुरूप आप भाषा–शैली बनती है। गद्य में भी विचार–बल्कि यथर्थ के अनुरूप आप भाषा–शैली बनती है–बननी चाहिए।

वास्तव में रचना का प्रभाव मूलत: उसकी भाषा–शैली पर निर्भर करता है। लघुकथा में तो भाषा–शैली का ताना–बाना ही लघुकथा को सार्थक बनाता है।

आज लघुकथा पर भाषा–शैली को लेकर विस्तार से विचार करने की आवश्यकता है। हमने इस दृष्टि से अपने एक लेख ‘लघुकथा’ (हिन्दी साहित्य : आठवाँ दशक में संकलित–सं0डॉ0 पुष्पपाल सिंह) में प्रयास किया भी है। लघुकथा चूँकि आकार में छोटी होती है अत: प्रभावोत्पादकता के लिए सटीक शब्दों, प्रतीकों, संवादों के प्रति ही वह जागरूक नहीं होती, जिस यथार्थ को उसे प्रस्तुत करना होता है, उसके प्रसंग विधान के प्रति भी वह अत्यन्त सतर्क होती है। आचार्य कुन्तक की वचन- वक्रता का यहाँ ध्यान हो आता है। आचार्य कुन्तक ने अपने वक्रोक्ति सिद्धान्त में शब्द प्रयोग और वाक्य रचना की रमणीयता के अतिरिक्त प्रकरण या प्रसंग की सटीकता का भी उल्लेख किया है।

आचार्य कुन्तक का संदर्भ लघुकथा के परिप्रेक्ष्य में अत्यन्त विचारणीय है।

यहाँ मेरा उद्देश्य आचार्य कुन्तक को लेकर लघुकथा में कलावाद को प्रस्तुत करना नहीं है। मैं तो आचार्य का निर्देश केवल इस दृष्टि से कर रहा हूँ कि चूँकि लघुकथा आकार में छोटी होती है, अत: उसे अत्यन्त चुस्त–दुरुस्त रहने की आवश्यकता होती है–रचना विधान में पग–पग पर चुस्त–दुरुस्त और आचार्य कुन्तक अपने सिद्धांत में हमें यही बताते हैं। ‘लघुआघात’ के स्तम्भ ‘दृष्टि और सृष्टि’ में भी मैंने शैली के संदर्भ में काफी विस्तार और उदाहरणों के साथ अपनी बात रखी है।

आज लघुकथा का यह जो ढेर सारा कचरा बढ़ रहा है ,उसके पीछे कहना न होगा कि रचना शैली का अधकचरापन ही है।

आवश्यक नहीं है कि लेखक कदम–कदम पर वह इस तरह सावधानी बरते कि गीत का एक–एक बढ़ता स्वर जिस तरह श्रोता को पकड़ लेता है और अपनी चरमावस्था में वह उसे अपने में डुबा देता है उसी तरह लघुकथा का एक–एक बढ़ता शब्द और वाक्य पाठक को पकड़कर अपने में बाँध ले।

जब हम यह कहते हैं कि आज के समस्त साहित्य की प्रवृत्ति वैचारिक है, उससे तात्पर्य यह है कि साहित्य आज मनोरंजन की चीज नहीं है। साहित्य विचार–मनन के लिए है। यह वास्तव में मनुष्य की खोज है–उन सत्यों की, मानवीय मूल्यों की जो मनुष्य बनाते हैं।

आज के साहित्य में–लघुकथा में भी कौन–सी वैचारिकता परिलक्षित होती है? मैं इसे मार्क्सीय,सात्रींय और फ़्राायडीय रूपों में पाता हूँ। मार्क्सीय वैचारिकता के अन्तर्गत हम भूख,गरीबी, बेरोजगारी, अभावग्रस्तता, शोषण आदि का वित्रण पाते हैं । इस वैचारिकता को प्रगतिवाद भी कहा जाता हे। साधन–संपन्न (हैव्ज) और साधनहीन (हैव्ज नॉट) के बीच सरकार भी साथ साधन–संपन्न का ही देती है। अत: दोनों के बीच की विषमता की खाई दिनों–दिन बढ़ रही है। अन्याय–अत्याचार–शोषण बढ़ रहे हैं।

लघुकथा में यह चित्रण काफी मात्रा में हुआ है जो युग के यथार्थ को देखते हुए उचित भी है। पर सही लघुकथा में उसका मानदण्ड ‘‘क्या’’ यथार्थ नहीं है, ‘‘कैसे’’ यथार्थ है। उसके प्रस्तुतीकरण की पद्धति में है, शैली में है।

मार्क्सीय वैचारिकता समाज के निम्न तबके का प्रतिनिधित्व करती है जो सात्रींय वैचारिकता मध्यवर्ग का। आज का मध्यवर्ग भी उतना ही शोषित है जितना निम्नवर्ग। उसका शोषण शारीरिक नहीं, वैचारिक है। इसीलिए आज यह वर्ग इतना कुण्ठाग्रस्त, संत्रासबद्ध और घुटनभरा दिखाई देता है। वह अपने वैचारिक अस्तित्व की खोज में हैं पर इसके लिए अपनी आर्थिक कमजोरी के कारण वह ‘अपने चुनाव’ में स्वतंत्र नहीं अथवा ‘अपनी स्वतंत्रता’ में चुनाव–धर्म नहीं। अन्तत: उसकी वैचारिकता अर्थ की गुलाम बनने को बाध्य हो जाती है।

लघुकथा का यह चित्रण बहुत कम मात्रा में हुआ है। मध्यवर्ग लघुकथा में आया है, पर उसके संघर्ष को बहुत ही स्थूल रूप में प्रस्तुत किया गया है। उसके अवचेतन में तो केवल कुछ सिद्धहस्त लघुकथाकार ही पहुँच सके हैं। कहना न होगा कि इस मानसिकता को लेखक ‘कैसे’ प्रस्तुत करता है–यही अच्छी लघुकथा का मानदण्ड है।

वैचारिकता का तीसरा फ़्रायडीय रूप उच्च–वर्ग में देख पड़ता है। धर्म–अर्थ का काम मोक्ष है तो अर्थ–धर्म का मोक्ष काम। पूँजीवादी व्यवस्था में अर्थ का संचय समर्थ को ही सम्भव है। और समर्थ–संचित धन एक ओर मन्दिर–मस्जिद–गिरजा खड़ा करता है, पर दूसरी ओर वह काम का भक्ष्य भी बनता है।

लघुकथा ने इस उच्चवर्ग के धन–शोषण के साथ–साथ तन–शोषण का भी अंकन किया है। केवल काम–कथाएँ लघुकथा में नहीं हैं। यह ठीक भी है। वह काम चित्रित है जो शोषक है। और यही इस चित्रण का मानदण्ड है।

हमने ऊपर लघुकथा को ‘वैचारिक कथागीत’ कहा है। गीत पक्ष में लघुकथा का मानदण्ड है उसकी लघुता, शैली, प्रभावन्विति। और वैचारिक पक्ष में आ जाती है वह कथा जो युग के यथार्थ को प्रस्तुत करती है।