लघुकथा के विविध आयाम कथ्य एवं शिल्प / उपमा शर्मा

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मानव जीवन और साहित्य का गहरा सम्बंध है। साहित्य में वह शक्ति समाहित है जिससे समाज के मूल्यों का निर्माण होता है। कथा कल्प की सबसे छोटी विधा लघुकथा पर अनवरत काम हो रहे हैं। 'लघुकथा के विविध आयाम (कथ्य और शिल्प)' पुस्तक में रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' ने लघुकथा के इन्हीं कार्यों से पाठकों को जोड़ने का प्रयास किया है। इस पुस्तक में कथ्य और शिल्प के लिए 53 लघुकथाकारों की 100 लघुकथाओं के 'विभिन्न कथ्य और शिल्प' से संदर्भित किया गया है।

वैसे तो लघुकथा हमारे लिए कोई अपरिचित शब्द नहीं है। बचपन से ही पंचतंत्र, विक्रम बैताल, हितोपदेश की कहानियों में हम किस्सागोई के तंतु देखते आ रहे हैं। लघुकथा का लक्ष्य कुछ भी हो, उसमें भाव विचार के प्रभाव की अभिव्यक्ति के लिए उसमें कथा का होना अति आवश्यक है। लघुकथा में वर्णित घटना को कथानक, कथावस्तु, विषयवस्तु आदि भी कहते हैं। लघुकथा की विशेषता, इसकी लघुता में प्रभुता है। यह एक ऐसी रचना है जिसमें एक क्षण विशेष में घटी घटना को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य रहता है और उसकी शैली, भाषा तथा कथा विन्यास उसी एक भाव की पुष्टि करते हैं। यह ऐसा ही है जैसे किसी पौधे का माधुर्य अपने समुन्नत रूप में ही दृष्टिगोचर होता है।

आज विकास के नाम पर प्रकृति के अंधाधुंध दोहन ने ग्लोबल वार्मिंग, पानी की कमी, जलवायु की असामानता जैसे संकट ला खड़े किए हैं। कहीं लगातार असमय बारिश हो रही है तो कहीं कड़ी हीट वेव्स। पहाड़ों और मैदान दोनों पर ही इसका असर साफ़ दिख रहा है। अगर मानव समय रहते नहीं चेता, तो उसे अपने विकास और पर्यावरण के असंतुलन की बहुत बुरी क़ीमत चुकानी होगी। रामेश्वर काम्बोज इस पर सटीक कथन कहते हैं-

'हम कल्याण को प्रमुख मानने वाले अपनी परम्परा को भूलकर केवल उपभोक्ता बनते जा रहे हैं।'

इस विषय पर सुकेश साहनी ने 'उतार' , 'विरासत' , 'खारा पानी' , 'कुँआ खोदने वाला' , 'मछली-मछली कितना पानी' जैसी लाजवाब लघुकथाएँ दी हैं। डायरी शैली में लिखी इस लघुकथा में घटते भूमिगत जल स्तर पर चिंता स्पष्ट दृष्टि गोचर हुई है। आज भारत के कई शहर भी पानी की कमी की समस्या से जूझ रहे हैं। नहर, बावड़ियाँ सूख रही हैं। कुँए सैप्टिक टैंक बना दिए गए हैं।

अरुण अभिषेक की 'आत्मघात' , आनन्द हर्षुल की 'ईश्वर की खाँसी' और 'बच्चों की आँखें' , मीनू खरे की 'गौरेया का घर' , बलराम अग्रवाल की 'अकेला कब गिरता है पेड़' , हरभगवान चावला की 'मरुभूमि का पेड़' , कमल कपूर की 'सपनों के गुलमोहर' , उमेश महादोषी की 'एक रिश्ता ऐसा भी' वनस्पति के महत्त्व पर लिखीं शानदार लघुकथाएँ हैं।

कहा गया है-साहित्य में जो कल्याण की भावना है, यदि वह नहीं है, तो एक दिन वह साहित्य नहीं रहेगा। साहित्य में यह कल्याण की भावना समाज से ही प्रतिबिंबित होती है। लेकिन आज यह भावना कम बहुत कम होती जा रही है। किसान, मजदूर, गरीब, यह श्रमजीवी वर्ग उत्पादन करते हैं, निर्माण करते हैं, किले से लेकर स्कूल तक बनाते हैं; लेकिन इसके बदले क्या पाते हैं? छल, धोखा और श्रम के बाजिब मूल्य से वंचित होने की मजबूरी। कितनी हैरत की बात है इस 95 प्रतिशत आबादी पर कुल पाँच प्रतिशत लोग हुकुम चलाते हैं।

अशोक भाटिया की 'पीढ़ी दर पीढ़ी' , आनन्द हर्षुल की 'कोयले की इच्छा' डॉ. उपेन्द्र प्रसाद राय की 'किसान की रोटी' , पवन जैन की 'एक टोकरी सब्जी' रामकरन सोनी की हार और 'काँटा, सुदर्शन रत्नाकर की' फाँस',' साँझा दर्द' इस सर्वहारा जगत् की मजबूरियों को उकेरती हैं।

भारतीय कला में सौन्दर्य को कला का प्राण माना जाता है। अमूर्त अनुभूति को मूर्त रूप प्रदान करना ही कला की अभिव्यक्ति है; लेकिन सबको कला की कद्र करने की कला नहीं आती। आज समाज यथार्थ को त्याग दिखावे की ओर बढ़ रहा है। ऐसे में कला का सच्चा सम्मान कोई एक व्यक्ति भी करे तो कला को सार्थक मान लेना चाहिए। सौंदर्य का सम्बंध सुंदरता की उस गुणवत्ता या मानव निर्मित प्राकृतिक स्वरूपों से है जो देखने वाले में एक अनुभूति को उत्पन्न करते हैं। रामेश्वर काम्बोज की 'खूबसूरत' में थुलथुल सविता अपने बाह्य सौन्दर्य से निराश करती है; लेकिन जब कार्यकुशलता और मधुर व्यवहार में उसके आंतरिक सौन्दर्य के दर्शन हुए, तब वह बहुत खूबसूरत लगती है।

आधुनिकीकरण के इस दौर में अपनी आत्मकेंद्रित प्रवृत्ति के कारण इंसान का अपनों से ही निर्वाह कठिन हो गया है। स्वार्थपरतता ने रिश्तों की कलई खोल दी है। दुनियादारी से अनजान बचपन एक आँगन में हँसते-खेलते, लड़ते-झगड़ते बीत जाता है; परंतु जैसे ही स्वार्थ की परतें मन पर अपना कब्जा ज़माने लगती हैं, रिश्तों की उण्णता उदासीनता में बदलने लगती है और यह उदासीनता इस हद तक आ जाती है कि घर के बुज़ुर्ग ही बोझ लगने लगते हैं।

इस संदर्भ में रामेश्वर काम्बोज की लघुकथा 'स्पेस' में घर के बुज़ुर्ग के इकलौते शौक को धीरे-धीरे समेटकर कोने तक सीमित कर दिया गया। प्रिय चीज़ कबाड़ी को देने का ग़म और अकेलेपन की त्रासदी का असर देर तक पाठकों के मन पर रहता है।

प्रियंका गुप्ता की 'भूकंप' लघुकथा में पिता की मृत्यु का सोच पुत्र की निकृष्ट सोच है; लेकिन वही पिता दुधमुँहे को गोद में व्हील चेयर चलाते बाहर निकलते हैं।

डॉ. मधु सन्धु की लघुकथा 'अभिसारिका' में बुज़ुर्ग दंपती के दोनों बेटों के पास अलग-अलग रहने से पाठक के मन में सहज ही पीड़ा उभरती है। जहाँ रिश्तों में स्वार्थ इतना घुल चुका है कि परिवार के सदस्य ही एक दूसरे के प्रति उदासीन हो गए हैं, ऐसे में सविता मिश्रा की लघुकथा 'तोहफा' , सीमा वर्मा की लघुकथा 'शहर अच्छे हैं' , शशि पाधा की 'मंजिलें लाँघता दर्द' कृष्णा वर्मा की 'हैप्पी मदर्स डे' , सुभाष नीरव की 'शहर से दोस्ती' सुषमा वर्मा की 'कैमिस्ट्री' , कमलेश भारतीय की 'मेरे अपने' रामेश्वर काम्बोज की 'क्रौंच-वध' ये आश्वस्त करती हैं कि संवेदनाएँ अभी बची हैं।

अफसरशाही पर व्यंग्य कसती रामेश्वर काम्बोज की लघुकथा 'एजेंडा' आज के परिवेश की कलई खोलती है।

रामेश्वर काम्बोज की ही लघुकथा 'कटे हुए पंख' में तोते के रूपक से लेखक ने बताया है कि कैसे सदियों से आज तक सुकरात को ज़हर का प्याला पिला दिया जाता है और जनता के पंख काटकर उसे वायदों को झुनझुने पकड़ा दिए जाते हैं।

लिंगभेद के दंश को झेलते पाठक जब रामेश्वर काम्बोज की लघुकथा 'नवजन्मा' पढ़ते हैं, तो बेटी के जन्म पर बजने वाली तिड़क-तिड़-तिड़ धुम्म की आवाज़ महसूस कर ख़ुद भी नाच उठते हैं। लघुकथा में बजने वाले ढोल की मिठास देर तक मन मस्तिष्क पर असर छोड़ती है।

किसी भी विधा में प्रयोग नई रचनात्मकता के दरवाजे खोलते हैं। नए-नए प्रयोग किसी भी विधा के सजीवता के द्योतक होते हैं, उसमें ताज़गी लाते हैं, उसमें प्राण फूँकते हैं। नवीनता सदैव आकर्षित करती है। अत: शिल्प की दृष्टि से नए प्रयोगों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। सुकेश साहनी ने अपनी लघुकथाओं में लगातार सफल प्रयोग किए हैं। उन्होंने लघुकथा की पारम्परिक परिपाटियों को विखंडित करके उसे एक नई बुनावट और शिल्प में ढाला है। इसके पीछे प्रयोग और नूतनता के आग्रह हैं। ये लघुकथाएँ नूतन शिल्प, कल्पनाशील व्यंग्य और भाषा के साथ मास्टर स्ट्रोक हैं। इसमें समाज के लिए आवाजें हैं। पर्यावरण को बचाने की चिंता निहित है। हुनरमंद कारीगर, छोटे रोजगार, मानवीय संवेदना और कार्पोरेट सभी का इन लघुकथाओं में दायरा है। ये छोटे कैनवास की बड़ी लघुकथाएँ हैं, जो मनुष्यता को बचाने का प्रयास कर रही हैं। इनमें विकास की मौजूदा स्थिति का क्रिटिसिज्म है, तो जीवन रूपी स्कूल से सहज सीखने की अवधारणा। भविष्य में पानी की कमी पर लिखी लघुकथा 'विरासत' , डायरी शैली की लघुकथा 'उतार' , 'कुँआ खोदने वाला' , 'कोलाज' , 'मेंढको के बीच' शिल्प और लघुकथा में प्रयोग के शानदार उदाहरण हैं।

विभिन्न शैलियों, धैर्य के साथ कथ्य का निर्वहन करती और भाषा की सजगता पर प्रकाश डालता यह संग्रह लघुकथाकारों के लिए एक बेजोड़ उपहार है।

: लघुकथा के विविध आयाम (कथ्य एवं शिल्प) , लेखक: रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' , प्रथम संस्करण: 2024, मूल्य: 310, प्रकाशकःपी.पी, पब्लिशिंग प्रा। लि। भारत, 3, / 186 राजेन्द्र नगर, सेक्टर-2, साहिबाबाद, गाजियाबाद 201005

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