लघुकथा के विविध आयाम (कथ्य एवं शिल्प)-1 / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
जीवन की सार्थकता के दो अनिवार्य सहयोगी घटक हैं-प्रकृति और मानव। दोनों एक दूसरे के अनिवार्य पूरक हैं। एक की उपेक्षा, दूसरे को दूसरे को भी अशक्त या अप्रासंगिक बना देती है। मानव के न होने पर भी, प्रकृति थी और मानव के न रहने पर भी रहेगी; किन्तु प्रकृति को नष्ट करके मनुष्य का तो अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा। विकास मानव की उन्नति के लिए आवश्यक है; लेकिन विनाश को जन्म देने वाला विकास मनुष्यमात्र के लिए केवल अभिशाप ही सिद्ध होगा। विकास के नाम पर क़त्ल होते पेड़, नंगे बुच्चे पहाड़, कारखानों का अपशिष्ट पीती, हाँफती, दमतोड़ती नदियाँ, कचरे को उदरस्थ करते समुद्र, विषाक्त धुँएँ को फेफड़ों में भरता आकाश, घातक रसायनों को अपने गर्भ में समेटती धरती माता, कब आखिरी साँस गिनने को बाध्य हो जाए, कह नहीं सकते।
प्रातः जागकर शय्या से नीचे पाँव स्पर्श करने पर धरती माता से क्षमा माँगते थे। वायु और नदी के लिए माधुर्य की कामना करते थे-
समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे।
(समुद्ररूपी वस्त्र धारण करनेवाली, पर्वतरूपी स्तनोंवाली एवं भगवान श्रीविष्णु की पत्नी हे भूमिदेवी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। मैरे पैरों का आपको स्पर्श होगा। इसके लिए आप मुझे क्षमा करें।) ।
मधु वाता ॠतायते, मधु क्षरन्ति सिन्धव, माध्वी न सन्तु औषधी-म-अ-सू-मंत्र-1-14-90-6
मधुनक्तमुतोषसो मधुम्त्पार्थिवं रज, मधु द्यौरस्तु नः पिता॥ म-अ-सू-मंत्र-1-14-90-6
वायु का मधुर संचार हो, नदियों का जल माधुर्य युक्त हो, हमारी वनस्पतियाँ, हमारे रात-दिन, पृथ्वी की रज, हमारा द्युलोक सब माधुर्य से पूरित हों। यह कल्याण-कामना किसी विशिष्ट व्यक्ति, देश और समाज के लिए नहीं, वरन् पूरे जीव-जगत् के लिए है। ऋग्वेद के प्रथम मंडल की ये ऋचाएँ विश्व के लिए आज और भी अधिक प्रासंगिक हैं, अनमोल सन्देश समेटे हुए हैं।
भूकम्प से लेकर प्रलय तक के कितने आघात पृथ्वी सहन करती है, हमारा पोषण करती है, अपनी वनस्पति और नदियों से हमको जीवन-दान देती है, हमें इसके लिए कृतज्ञ होना चाहिए। यह कृतज्ञता हमारे व्यक्तित्व की शक्ति और संस्कार बनकर हमें तेजोमय बनाती है।
हम कल्याण को प्रमुख मानने वाली अपनी परम्परा को भूलकर, केवल उपभोक्ता बनते जा रहे हैं। सजग साहित्यकार इससे कभी विमुख नहीं हो सकता। युद्धों के कारण पृथ्वी-आकाश-वायु-जल आदि सभी अपना प्रकृत व्यवहार और आचरण खोते जा रहे हैं। लघुकथाकारों ने प्रकृति की क्षीण होती शक्तियों को अपनी लघुकथाओं में बहुत गहराई से व्यंजित किया है। भूमिगत जल के निरन्तर घटने और प्रदूषण ने सबको चिन्तित कर दिया है। इसके लिए पूरा समाज उत्तरदायी है।
भू-गर्भ जल वैज्ञानिक एवं विश्व प्रसिद्ध लघुकथाकार सुकेश साहनी की यह चिन्ता किसी फैशन के तौर पर नहीं; बल्कि व्यावहारिक चिन्ता के रूप में उनकी लघुकथाओं का कथ्य बनी है। 'उतार' (कुआँ खोदने वाले मिस्त्री की डायरी से) लघुकथा में आपने गिरते हुए जलस्तर को डायरी शैली में प्रस्तुत किया है-
10 मई 1966 को अधिक जल प्राप्त करने की लालसा में खुदाई करने पर कुएँ की कुल गहराई: 30 फीट, चुआन (भूजल स्तर) : 14 फीट, 25 मई 1976 को दसवें कुएँ के रूप में पंडितों वाला कूप तैयार हो गया, अब हर जाति का अलग कुआँ है, कूप की कुल गहराई: 60 फीट, चुआन: 28 फीट।
30 जून 1986 को हरनामसिंह के घर पर गाँव का पहला हैडपम्प लगा। हैंडपम्प की कुल गहराई: 90 फीट, चुआन: 45 फीट, 17 जुलाई 1996 मिस्त्री द्वारा तैयार सभी कुएँ बन्द होने पर कचराघर बन गए।
घर-घर में हैंडपम्प लग रहे हैं। पाठशाला वाली बोरिंग का काम पूरा हो गया, जिसकी कुल गहराई: 120 फीट, चुआन: 75 फीट। अब 25 जुलाई 2006 आते-आते पुराने लोग खत्म होते गए। घर-खेत बँटे, अलग-अलग बोरिंग लगे। नेता जी के फार्म हाउस पर चल रहे बोरिंग के काम से मिस्त्री थक चुका। कुल 'बोरिंग: 160 फीट, चुआन: जाने कहाँ बिला गई है!' चुआन का बिला जाना जीवन के लिए भयानक स्वप्न की तरह है। कुओं का जातियों के अनुसार बँट जाना, अमीर-गरीब के नाम विभाजित होना, संकेत करता है कि केवल जल-स्रोत नहीं बँटे, हमारे मन भी बँट गए। मन बँटना यानी मन का जल भी सूख गया। जल-स्तर ही उतार पर नहीं हृदय की संवेदना भी उतार पर हैं।
'विरासत' लघुकथा में साहनी जी ने 54 साल बाद की यानी 2060 की जो परिकल्पना की है, वह लोमहर्षक है। सचमुच में भूमिगत जल-दोहन की क्रूरता आसन्न भविष्य में मानवता को अभिशप्त करने वाली है। 'कोमा में पड़े दादू को' दो बूँद' पानी नसीब नहीं हो सका-
' माँ के याद दिलाते ही पुत्र ने लपककर फ्रिज से छोटी-सी शीशी निकाली, जिसमें 2 मि।ली। जल जमी हुई अवस्था में था। फ्रिज से बाहर निकालते ही गंगाजल द्रव के रूप में परिवर्तित हो गया। हड़बड़ाहट में बिना कमरे के तापमान का आकलन किए उसने जल वाली शीशी उनके होठों पर लगा दी।
उसका दिल धक् से रह गया। सभी की आँखें फटी की फटी रह गईं। पिता के होठों तक पहुँचने से पहले जल भाप बनकर वातावरण में विलीन हो गया।
यह त्रासदी आने वाले समय में घट सकती है, इसकी कल्पना ही डराती है।
पेड़ों के कटने के क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं, आज किसी से नहीं छुपे हैं। सरकार और निजी संस्थाएँ पेड़ों को बचाने की मुहिम चलाए हुए हैं। पर्यावरण हमारे पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग है, लेकिन इसका व्यावहारिक रूप क्या है, इसे निरन्तर कटते और घटते जंगल के रूप में देखा जा सकता है।
बहुत से देश, राज्य और क्षेत्र जलापूर्त्ति की विभीषिका से जूझ रहे हैं। वर्षा ॠतु में हर साल बाढ़ की विनाश-लीला बहुत कुछ लील जाती है। नदियों से होकर यह पानी समुद्र में विलीन हो जाता है। इसके संरक्षण का समुचित उपाय किया जाए, तो जलाभाव कभी नहीं हो सकता। जल के प्रति उपेक्षाभाव की मुद्रा भविष्य में भयावह स्थिति का उत्पन्न कर सकती है।
जिस चिन्ता को साहनी जी ने 'विरासत' में उकेरा है, उसी चिन्ता को हरभगवान चावला ने 'ख़ून और पानी' (निकट भविष्य में संभावित यथार्थ की कथा) में अल्पतम शब्दों में प्रस्तुत किया है-
थाने में पकड़कर लाए गए आदमी का अपराध यह था कि उसने एक ही बार में एक पूरा गिलास पानी पी लिया था, जबकि क़ानूनन हर आदमी को पूरे दिन में चार बार आधा-आधा गिलास पानी पीने की अनुमति थी। अधिक पानी पीने के लिए सज़ा का प्रावधान था-उस व्यक्ति का एक गिलास ख़ून निकालने का आदेश हुआ। आदमी पानी के लिए कुछ भी कर सकता था।
वह गिड़गिड़ाया, "थानेदार साहब, दो गिलास ख़ून निकाल लीजिए, पर मेहरबानी करके एक गिलास पानी और पिला दीजिए।"
सुकेश साहनी की 'खारा पानी' लघुकथा में सगुनिया शकुनक दण्ड (डिवाइनिंग रॉड) से मीठे पानी को खोज निकालता है। यहाँ मुख्यमन्त्री और सगुनिया के संवाद उल्लेखनीय हैं-"आगे चलकर पानी खारा तो नहीं हो जाएगा?" इस बार मुख्यमंत्री ने बूढ़े से पूछा।
"इसके लिए ज़रूरी है कि आँसुओं की बरसात को रोका जाए।" बूढ़े ने क्षितिज की ओर ताकते हुए धीरे से कहा।
"आँसुओं की बरसात?" सचिव चौंके।
"ऐसा तो कभी नहीं सुना।" मुख्यमंत्री के मुँह से निकला।
"इस बरसात के बारे में जानने के लिए ज़रुरी है कि मुख्यमंत्री जी भी उसी कुएँ से पानी पिएँ, जिससे कि प्रदेश की जनता पीती है।"
सुकेश साहनी की ही 'कुआँ खोदने वाला' लघुकथा में झोंपड़ी (निम्न वर्ग) और महल के प्रतीक से बताया गया कि संसाधनों पर उच्च वर्ग (महल) अपने चातुर्यपूर्ण आधिपत्य के द्वारा दोहन के लिए सक्रिय हो उठा है। इस तरह के कृत्य सामान्य वर्ग को जीवन की न्यूनतम आवश्यकता और सुविधा से भी वंचित कर देते हैं। उच्चवर्ग का निम्नवर्ग को झाँसा देने वाला यह कथन देखिए-
"चलकर मेरे कुएँ की खुदाई कर दो, ताकि जरूरत भर का पानी उसमें आ जाए... तभी मेरे प्राणों की रक्षा हो सकेगी। ...मैं तुम्हारा यह अहसान जिंदगी भर नहीं भूलँगा।"
परिणामस्वरूप झोंपड़ी को जल से वंचित होना पड़ा। निर्जलीकरण की वजह से झोंपड़ी मूर्च्छित होकर गिर पड़ी; लेकिन झोंपड़ी को कुछ नहीं हुआ था। ऐन वक्त पर महल ने उसे बचा लिया था। झोंपड़ी को आज भी महल के यहाँ पानी के एवज में मजदूरी करते देखा जा सकता है।
विकास के नाम पर वृक्षों का कटान, जल के लिए अभिशाप है, साथ ही भूस्खलन के लिए भी उत्तरदायी है। ठेकेदारों की अमानवीय लोलुपता मानव जाति के लिए क्रूर अभिशाप बनती जा रही है।
'मछली-मछली कितना पानी' में सुकेश साहनी ने भूजलविद् अजय के माध्यम से गाँवों के कुओं की दुर्गति का जो चित्र खींचा है, वह आज का कटु सत्य है। कुएँ को सेप्टिक टैंक बना दिया है। केवल एक बूढ़े और बच्चे की आँखों में पानी के बचे रहने की सम्भावना है। । उस गाँव के युवकों के पास कुओं की स्थिति के बारे में कोई जानकारी नहीं। खुश्क आँखों वाला युवक, पानीदार आँखों से देखने वाला बूढ़ा, बच्चा-जिसकी आँखों में पानी किसी झील-सा चमक रहा था, लेखक के ये पदबन्ध इस लघुकथा की भाषिक क्षमता और उच्च कोटि की शैली की अतिरिक्त विशेषता हैं, जो लघुकथा को और अधिक गहरा और सम्प्रेष्य बना देते हैं तथा बिना कहे ही बहुत कुछ कह जाते हैं। आँखों के पानी को प्रतीक रूप में व्यंजित करते ये संवाद देखिए-
"भैया, यहाँ पास में कोई कुआँ?" उसने उनसे पूछ लिया।
"कैसा कुआँ?" जवाब में खुश्क आँखों वाले युवक ने भी सवाल किया।
"पानी वाला कुआँ...जिसमें से गाँव वाले पानी लेते हैं।" उसने समझाया।
थोड़ा आगे बढ़ने पर एक घर के बाहर बूढ़ा आदमी बैठा दिखाई दिया, जो पानीदार आँखों से उसी की ओर देख रहा था।
"कौन है?" तभी घर से किसी आदमी ने चिल्लाकर पूछा। आवाज किसी गहरे कुएँ से आती हुई मालूम हुई.
वह उदास कदमों से आगे बढ़ गया। तभी उसकी नजर एक बच्चे पर पड़ी, जिसकी आँखों में पानी किसी झील-सा चमक रहा था।
"बेटा, तुम्हें कोई पानी वाला कुआँ मालूम है?"
"हाँ पता है।" बच्चे ने आत्मविश्वास से कहा, "मेरे पीछे आइए!"
बच्चे के आत्मविश्वास में आसन्न भविष्य के लिए आशा का सन्देश निहित है।
अरुण अभिषेक की लघुकथा 'आत्मघात' में वृक्षों पर कुल्हाड़ा चलाने वाला थक जाने पर समीप के छायादार वृक्ष के नीचे बैठकर सुस्ताकर तरोताजा हो जाता है। इसके बाद फिर नई ताकत से वृक्ष काटने के लिए टूट पड़ता है। वृक्ष के धराशायी होने पर थक जाने पर चिलचिलाती धूप से बचाव के लिए आस–पास नजर दौड़ाता है, तो वहाँ केवल ठूँठ पाता है। 'सब कुछ लुटाकर होश में आए, तो क्या किया'-पर्यावरण के प्रति की गई यह क्रूरता मानव-विनाश की चेतावनी है। यह विडम्बना ही है कि जिसकी छाया में बैठकर सुस्ताते हो, 'काटने के लिए टूट पड़ने की' ऊर्जा ग्रहण करते हो, उसको ही समूल नष्ट करके ठूँठ में बदलने के दोषी होकर भी उसी से छाया की आशा करते हो।
पर्यावरण-प्रदूषण को आनन्द हर्षुल-ईश्वर की खाँसी-लघुकथा को बहुत मार्मिकता से प्रस्तुत किया है। क्या भोजन, क्या पानी दोनों ही प्रदूषित हो चुके हैं। इस लघुकथा की ज्वलन्त कथावस्तु और कलात्मक प्रस्तुति, दोनों ही अप्रतिम हैं। नए लेखकों को इन रचनाओं के कथ्य और प्रस्तुति पर गम्भीरता से ध्यान देना चाहिए, ताकि लघुकथा को सपाटयानी और उपदेशक की मुद्रा से दूर रखकर व्यंजना-शक्ति को पहचाना जाए। इन उद्धरणों में देखिए—मनुष्य, पानी पी रहा है और अचानक ईश्वर को आ जाती है खाँसी, ईश्वर की खाँसी से पृथ्वी हिलने लगती है। -मनुष्य खा रहा है खाना और हिलने लगती है पृथ्वी। -ईश्वर खाँस रहा है और पृथ्वी हिल रही है। मनुष्य हजारों हजार बरसों से महसूस कर रहा है कि ईश्वर जब भी खाँसता है तो पृथ्वी हिलने लगती है। -ईश्वर के फेफड़े हैं, हजारों हजार बरस पुराने। -मनुष्य को डर लग रहा है कि ईश्वर की खाँसी से हिलते-हिलते, कहीं नष्ट न हो जाए यह पृथ्वी।
ओज़ोन की पर्त छीजती जा रही है। यही तो धरती के फेफड़े हैं। इनको बचाना अनिवार्य है।
आनन्द हर्षुल की एक अन्य लघुकथा है-बच्चों की आँखें। बच्चे बगीचे में बैठे हैं, जहाँ बहुत से पेड़ हैं। पेड़ों पर बहुत—सी चिड़ियाँ हैं। पौधे हैं। बहुत से फूल हैं, पौधों पर, फूलों पर बहुत—सा पराग है, पराग पर, बहुत-सी तितलियाँ हैं। लेकिन बच्चों के हाथों में मोबाइल है, मोबाइल की स्क्रीन पर एक गेम चल रहा है, मोबाइल पर योद्धा, बगीचे, पेड़, चिड़ियाँ पौधे, तितलियाँ, पराग जंगल की घास सब कृत्रिम। बगीचे का सबसे बड़ा दुख है कि उसको देखने की फ़ुर्सत बच्चों को नहीं।
'बगीचे के असली, पेड़ पौधे, चिड़ियाँ तितलियाँ, फूल।दुखी हैं कि उनके लिए नहीं है बच्चों की आँखें'।
यह आज के बच्चों की विडम्बना है कि वे प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं। नए आभासी संसाधनों ने उनको जीव-जगत् से दूर कर दिया है।
58 वर्ष पूर्व पढ़ी W. H. Davies–की Leisure (1911) कविता में रची गई थी। कवि भविष्यद्रष्टा होता है, इस रचना से पता चलता है। आज वही स्थिति है कि हमारा स्वर्णिम समय निर्जीव साधनों ने छीन लिया है-
What is this life if, full of care,
We have no time to stand and stare?-
No time to stand beneath the boughs
And stare as long as sheep or cows:
No time to see, when woods we pass,
Where squirrels hide their nuts in grass:
No time to see, in broad daylight,
Streams full of stars, like skies at night:
No time to turn at Beauty' s glance,
And watch her feet, how they can dance:
No time to wait till her mouth can
Enrich that smile her eyes began?
A poor life this if, full of care,
We have no time to stand and stare.
इसी विडम्बना को मीनू खरे की लघुकथा 'गौरैया का घर' भावी संकट से सचेत करती है। पर्यावरण-विनाश के कारण पेड़-पौधे नहीं होंगे, वन्य पशु नहीं होंगे। बच्चे केवल चित्रों में ही इनको देख सकेंगे। बहुत से पशु पक्षियों की प्रजातियाँ विलुप्त होने के कगार पर हैं। नन्हे नीटू का अपनी माँ मानसी से किया संवाद देखिए-
नन्हे नीटू ने मानसी से पूछा-"माँ गौरैया कैसी होती है?"
मानसी ने बताया "गौरैया एक चिड़िया होती है।"
"माँ गौरैया कहाँ रहती है?"
"गौरैया पेड़ों पर रहती है और फुदक-फुदककर चूँ-चूँ बोलती है।"
इसके बाद उसके सवाल-'गौरैया कैसी होती है, कहाँ रहती है? आँगन क्या होता है'-सभी विचलित और चिन्तित करने वाले हैं।
नीटू की जिज्ञासा-"माँ मुझे गौरैया देखनी ही है।"
मानसी लैपटॉप पर गूगल खोलकर 'गौरैया' के बारे में बताती है।
अन्ततःनीटू इतना ही समझ पाता है कि गौरैया के घर को गूगल कहते हैं। इस कथा की प्रस्तुति हृदय को मथकर रख देती है। संवाद के माध्यम से इस तरह की प्रस्तुति अच्छे शिल्प का उत्कृष्ट उदाहरण है।
यह विकट स्थिति क्यों उपस्थित हुई? इसका उत्तर बलराम अग्रवाल की लघुकथा–'अकेला कब गिरता है पेड़' में मिलता है। लेखक ने हवा के ठिठकने और पत्तियों के किलकने के अवरोध, पत्तियों के जड़वत् होने के भय को किसी आसन्न आपदा के संकेत को कलात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। पेड़ मरता है, तो उसके साथ बहुत कुछ मर जाता है।
'खेलती हवा एकदम से ठिठक गई। पत्तियों का किलकना रुक गया। टहनियाँ जड़वत् हो गईं।'
सब उपादान क्यों ठिठक गए। इस सन्त्रास का कारण था-
'नीचे, छोटे-बड़े सभी पेड़ों के तनों पर निशान लगाने वाले आ जुटे थे।'
इसके बाद पेड़-पौधों की नियति ही बदलने वाली थी कारण-
आरियाँ और कुल्हाड़ियाँ गाड़ी से उतारी जाने लगी थीं।
इसका वैज्ञानिक कारण है-पेड़ होंगे बदरी भी घिरेगी, तो वर्षा होगी, वर्षा होगी, तो पेड़ जीवित रहेंगे। इस करुण भाव को बलराम अग्रवाल ने अन्तिम पंक्ति में इस प्रकार पिरोया है-
'उस दिन पानी नहीं बरसा था; लेकिन पेड़ जब धराशायी हुआ, उसकी पत्ती-पत्ती, टहनी-टहनी, कोर-कोर भीगी थी। हवा, पत्ती, बदरी सब उसी के साथ मर गए थे।'
पेड़ अकेला नहीं गिरता। वह जब मरता है, तो उसके साथ सब मर जाते हैं-पत्ती, टहनी, बदरी सब।
पेड़ परहित का प्रतीक है। उसका गुण धर्म है छाया और फल देना। 'मरुभूमि का पेड़' में हर भगवान चावला ने इसी तथ्य को विषयानुरूप 'कथा-कथन' शैली के माध्यम से मार्मिकता प्रदान की है।
पेड़ चल नहीं सकते। एक स्थान पर खड़े रहने से ऊब चुके हैं। वन के प्रेत से घूमने-फिरने की शक्ति चाहते हैं। प्रेत चलने की सामर्थ्य के साथ उसे मोह में न पड़ने के लिए सचेत करते हैं। कारण-"जिस दिन किसी के मोह में पड़कर तुम्हारे चलते क़दम रुक गए, उसी समय तुम चलने की शक्ति खो दोगे।"
किशोर पेड़ मरुभूमि में आ पहुँचा। वहाँ किसन का खेत था। वह अकाल और अनावृष्टि की विषम परिस्थिति से जूझकर फसल उगाने के लिए प्रयासरत रहता। ऊबने पर पेड़ अब कहीं और जाने का निश्चय करता है; लेकिन किसान तो इसी की छाया में दोपहर काटता है। उसका क्या होगा। आँधियाँ आकर उसे झकझोरती रहीं। किसान के मोह ने उसको सदा के रोक लिया।
लेखक ने लघुकथा का समापन इन शब्दों में किया है-'यह सिलसिला आज तक जारी है। पेड़ की दुआओं में किसान की सलामती और भरपूर बारिश की कामना हमेशा शामिल रहती है।'
यही पेड़ का गुणधर्म है, दुआ देना और छाया भी देना। सार्थक शैली ने लघुकथा को सहज और मार्मिक बना दिया है।
हरियाली का अपना महत्त्व है। वह आँखों को भली लगती है, तो मन को भी सूकून देती है। उमेश महादोषी की लघुकथा 'एक रिश्ता यह भी' इस कथ्य पर आधारित है। पत्नी, पति से पौधों को देखने-भर के लिए कहती है, जो उन्हें तार्किक नहीं लगता। पत्नी कहती है-लोग तो हरे-भरे पौधों को, फूलों को देखने के लिए तरसते हैं और एक तुम हो...!
पड़ोस की भाभी भी पत्नी की बात की पुष्टि करती है-"सुबह-सुबह इन गमलों की हरियाली देखोगे, तो आपका मन तो प्रसन्न होगा ही, भाभी जी के साथ गमलों में लगे इन पौधों को भी अच्छा लगेगा।"
'गमलों में लगे इन पौधों को भी अच्छा लगेगा' इस बात की पुष्टि करता है कि यह प्रकृति अगर हमारे सुख के लिए है, तो प्रकृति का सुख भी हमसे जुड़ा है। 'पौधों को अच्छा लगना' कथा में अनुस्यूत सकारात्मक सोच है, जिससे प्रकृति और मानव दोनों जुड़े हैं। प्रकृति का संरक्षण तभी सम्भव है, जब मानव इसे जीवन का अनिवार्य और अपरिहार्य अंग मानकर अनुपालन करे।
कमल कपूर की लघुकथा 'सपनों के गुलमोहर' उनके उत्कट प्रेम की प्रस्तुति है। अमेरिका से लौटने पर 'पार्किंग-लॉट' 'इनोवा' को देखकर यह सोचकर उदास हो गई कि कार के लिए शेड बनवाने के लिए गुलमोहर कटवा दिए होंगे। घर पहुँचने पर छोटी बिटिया के यह कहने पर कि मम्मा! आपके लिए सरप्राइज़ है, वह खुश नहीं होती।
' उसे परे करते हुए पिछले आँगन में पहुँची। यह क्या? अबीरी-फूलों की आभा बिखेरते उसके दोनों गुलमोहर सिर जोड़े खड़े मुस्कुरा रहे थे और उनके आसपास एक संगमरमरी चबूतरा भी बनवा दिया था। चार हाथ की दूरी पर सफ़ेद नीली पॉली-शीट का बना एक सुंदर कार-शेड भी जैसे उसका स्वागत कर रहा था।
लेखिका ने अपने गुलमोहर प्रेम को लघुकथा के माध्यम से जीवन्त कर दिया है।
एक बात हमें निश्चित रूप से समझनी होगी कि धर्म किसी मत-मतान्तर या मज़हब का पर्याय नहीं है। यह सार्थक जीवन जीने की व्यावहारिक और सार्वभौम पद्धति है, जिसके मूल में हर प्राणी का हित निहित है। व्यक्ति की विशेष पहचान के 'प्रतीक' धर्म नहीं हैं। अन्तःकरण की शुद्धता, सद्गुण तथा तदनुरूप उत्तम आचरण ही धर्म है। धर्म मानव मात्र के हित के लिए है। मत या सम्प्रदाय के नाम पर रक्तपात करना, किसी की भावना को आहत करना, चाहे कुछ भी हो, धर्म नहीं। अज्ञान और अवैज्ञानिकता पाखण्ड हो सकती है, धर्म नहीं। व्यक्ति पंथनिरपेक्ष हो सकता है, लेकिन धर्मनिरपेक्ष नहीं; क्योंकि धर्म वही है, जो शुद्ध रूप में, सार्वभौम रूप में सर्व स्वीकार्य हो। दया, करुणा, अहिंसा, सत्य लोभ-त्याग आदि सर्व स्वीकार्य हैं। इनका किसी वाम या दक्षिण पंथ से कोई लेना देना नहीं है। पाखण्ड और अनैतिकता, कथनी और करनी में विरोधाभास कोई धर्म नहीं है। अर्थलोलुप और भ्रष्ट आचरण वाले लोग धर्म की आड़ में समाज को अपने कुत्सित आचरण से नष्ट करने पर तुले हैं। जन समान्य उनकी चिकनी-चुपड़ी बातों में उलझकर सन्मार्ग से विमुख होकर उनका शिकार बनकर रह जाता है। गुरुडम को विस्तार देने वाले ये तथाकथित ध्वजावाहक धर्मगुरु, समाज के लिए अभिशाप हैं; क्योंकि ये अपने अनाचार से समाज को विकृत करने का काम करते हैं।
उपर्युक्त चिन्तन पर केन्द्रित बहुत-सी लघुकथाएँ हैं। अलग-अलग तेवर की डॉ. कविता भट्ट की 'कुलच्छन' , डॉ. सुषमा गुप्ता की 'ज़िंदा का बोझ' , रमेश गौतम की 'गंगा-स्नान' और योगराज प्रभाकर की 'चौथी आवाज़' विचारणीय हैं।
कुलच्छन में जिस आस्था का प्रचार-प्रसार तथाकथित आचार्य अपनी कथा में करते हैं, उससे उनके जीवन का दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं होता। वे पाखण्डपूर्ण ऐशो-आराम का जीवन बिताकर भोली-भाली जनता को मूर्ख बनाते हैं। आचार्य सुरेशानंद कथा कहने और प्रसाद बाँटने के बाद जब घर पहुँचते हैं, तो पत्नी कमला से कहते हैं-
"कुछ अच्छा खाना हो, तो मज़ा आ जाए। अरे कमला! ज़रा फ़्रिज से व्हिस्की की बोतल निकाल ला और चिकेन थोड़ी देर से सर्व करना गरम-गरम।"
कमला बोली-"आज तो मैंने खाने में आलू बनवाए हैं, बिना प्याज लहसुन के; कथा सुनने गई थी, तो शांता को फोन करके कह दिया था।"
यह सुनकर वे आपा खो बैठते हैं-"दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा, किसने कहा था काम-धाम छोड़कर कथा सुनने जाओ और हाँ कान खोलकर सुन लो; कथा सिर्फ दूसरों को सुनाने के लिए होती है, इसीलिए वह उपदेश कहलाता है। सत्यानाश कर दिया सारे मूड का! कलमुँही कहीं की...कुलटा...!"
कमला अपमानित और आहत हो उठी। आज कथा में आचार्य ने कहा था-"भक्तो! हम जैसा खाएँगें अन्न, वैसा ही होगा मन। प्याज, लहसुन एवं मांस-मदिरा आदि बुद्धि को भ्रष्ट कर देते हैं। इनका सेवन व्यक्ति को राक्षस बना देता है। इसलिए इनका सेवन किसी भी परिस्थिति में वर्जित है...भूमि पर बैठकर शुद्ध सात्त्विक भोजन ही करना चाहिए।"
कमला जब आचार्य के इस कथन की याद दिलाई, तो वे फट पड़े-"तुम्हारी इतनी हिम्मत, कुलच्छिनी!"
लघुकथा की अन्तिम पंक्ति ओढ़ी गई छद्म धार्मिकता के पाखण्ड का अनावरण कर देती है। क्रोध में बर्तन फेंकने और मारपीट की आवाज़, घर को नारकीय बना देती है। सुरेशानन्द जैसे पाखण्डियों की बहुत बड़ी संख्या है, जो सीधे-साधे लोगों को गुमराह करके अपना उल्लू सीधा कर रही है।
डॉ.सुषमा गुप्ता की 'ज़िंदा का बोझ'-के पीर साहब का इलाके में बड़ा नाम है। लोगों ने उनको 'अल्लाह का दर्ज़ा तक दे डाला था और गुलाबो को पीर रानी का'। पीर साहब वैसे तो डेरे पर ही रहते थे; पर महीने में दो-चार बार घर भी आते, नशे में धुत होते और चिल्लाते। भागती-सी गुलाबो आती और कमरे का दरवाज़ा भीतर से बन्द हो जाता। सुबह गुलाबो के शरीर पर जख़्म दिखते, तो बच्चियों के पूछने पर उनको समझा दिया जाता।
इस बार जब रात गए आए, तो गुलाबो को बुखार था। जूही भागकर आई।
पीर साहब ने उस पर ऊपर से नीचे तक भरपूर नज़र डाली, फिर बेहद प्यार से बोले-"अरे तू इतनी बड़ी कब हो गई? आ ...अंदर आ... बैठ मेरे पास।"
दरवाजा फिर बंद होने ही वाला था कि गुलाबो दौड़ती-हाँफती पहुँची। पलभर में सब समझ गई, खींचकर जूही को कमरे से बाहर कर दिया और ख़ुद अंदर होकर दरवाजा बंद कर लिया। पीर साहब का चिल्लाना और माँ की दर्दनाक चीखें बाहर तक सुनाई देने लगीं।
'अचानक चीखों का स्वर बदल गया'-कथन से लघुकथा में एक मोड़ आ गया। सुषमा गुप्ता ने सधी हुई सांकेतिक भाषा में 'ज़िंदा का बोझ' का अन्तर स्पष्ट कर दिया। प्रतिकार के लिए वासनामयी दृष्टि का यही उपाय बचा था।
अब दालान में ज़माने भर का मजमा लगा है। पीर साहब नहीं रहे।
पीर रानी की सबसे विश्वस्त नौकरानी ने सबको खबर पहुँचाई, कोई लूटके इरादे से घर में घुसा और हाथापाई में पीर साहब का गला रेत गया।
आँगन में खूब विलाप-प्रलाप हो रहा था।
छाती-पीटती अम्मा बोली-"हाय गुलाबो! कैसे उठाएगी तू बेवा होने का बोझ!"
गुलाबो मन ही मन बुदबुदाई-"इसके तो जिंदा का बोझ ज़्यादा था अम्मा। इसकी लाश में बोझ कहाँ ..."
पीर होने की आड़ में वासना का एक पुतला घर के बाहर के समाज में पूज्य बना हुआ था, जबकि वह कुत्सितकर्मा व्यक्ति ही था। जिन्दा होने के बोझ का अर्थ है कि पीर साहब अपने कुकर्मों से जीवित होने के कारण समाज पर बोझ बने हुए थे। वह बोझ आज उतर गया।
कुछ लोग केवल शारीरिक शुद्धि को ही स्वर्ग प्राप्ति तथा पुण्य प्राप्ति का साधन समझ बैठे हैं। मनुस्मृति का एक श्लोक है-
अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति।
विद्यातपोभ्याँ भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति। (मनुस्मृति 5 / 109)
(जल से शरीर के अंग शुद्ध होते हैं, सत्य का आचरण करने से मन शुद्ध होता है, विद्या और तप से प्राणी की आत्मा तथा बुद्धि ज्ञान से शुद्ध होती है।)
रमेश गौतम ने 'गंगा-स्नान' लघुकथा में अन्धी आस्था के इस पाखण्ड को अनावृत्त किया है। पाँच लोग वे भी हैं, जो गंगा के एकांत छोर पर अपना डेरा जमाए हुए हैं। उनमें से एक बोला, "यार, आज स्नान में कुछ भी आनंद नहीं आया। एक भी ढंग की चीज नज़र नहीं आई।"
दूसरे ने टोका, "अबे चुप भी कर, अभी रात बाकी है। अपनी लाल परी निकाल।" तीसरे ने ताश फेंटने शुरू किए। अब वे पाँचों शराब के दौर और ताश की बाजी में खो गए। इसी बीच एक प्रौढ़ा भिखारिन को तम्बू के पास याचना की मुद्रा में पाया। पाँचों ने सौदा पटा लिया। सबने उस भिखारिन के साथ मुँह काला किया। पाँचों में से एक ने कहा-"मुझे एक बार फिर गंगा-स्नान करना पड़ेगा।"
चारों एक साथ बोल पड़े, "हमें भी।"
अनाचार करके केवल गंगा स्नान करने से कोई पापमुक्त हो जाएगा, ऐसा सम्भव नहीं। चुटीले संवादों के द्वारा इस छोटी-सी लघुकथा में रमेश गौतम ने शीर्षक, विषयवस्त्तु और शिल्प का उत्कृष्ट संधान किया है।
बाह्य सौन्दर्य सबको आकर्षित करता है; लेकिन वह क्षरणशील है। मन का निर्मल होना वास्तविक सौन्दर्य है। अगर हम मानव के बाह्य सौन्दर्य की बात करें, तो किसी का सुन्दर होना उसके चिन्तन-मनन से भी जुड़ा हो, आवश्यक नहीं। नारी को केवल शरीर मान लेना, उसे केवल उपभोग की वस्तु समझना, सबसे बड़ा दु; खद पहलू है। शरीर के आकर्षण को सब कुछ समझ लेना, नारी का अपमान है, केवल वासना है। वासना का यह कर्दम हमारे समाज में विषाणु की तरह घर-परिवार से लेकर पूरे समाज में फैला है। प्रेम के नाम पर नित्य प्रति वीभत्स काण्ड होते रहते हैं।
सत्या शर्मा 'कीर्ति' की लघुकथा 'फटी चुन्नी' उसी वासनात्मक दृष्टि का परिणाम है। उसके कौमार्य को पंकिल करने वाला कोई और नहीं उसका फूफा ही है। सीमा जिस कौमार्य को ओढ़कर बुआ के यहाँ गई थी, लौटते समय वह बिखर चुका था। कारण यह था-
फूफा जी जिस तरह प्यार करते-'पापा तो ऐसे प्यार नहीं करते। ऐसे नहीं छूते।'
वहाँ वह हँसती खिलखिलाती बुआ का सारा काम करती, फूफा जी भी बात-बेबात उसे प्यार करते रहते। बुआ उसे उदास देखकर कारण पूछा, लेकिन वह नहीं पता सकी। कारण-बुआ के घर में कितना बड़ा तूफ़ान आएगा, यही सोचकर वह चुप रह जाती। आज हज़ारों परिवार की यही स्थिति है, जहाँ घर के निकटतम लोग मुँह काला करके बहुत-सी कलियों की मुस्कान छीन ले रहे हैं।
सुषमा गुप्ता की लघुकथा 'फ़्रॉक' वासनामयी दृष्टि के प्रति सचेत करने वाली है। लेखिका ने 'फ़्रॉक' शीर्षक के शब्द मात्र से ही कथ्य का अवगुण्ठन खोलकर रख दिया है। बालिकाओं की जो अवस्था फ़्रॉक पहनने की होती है, वे उस अवस्था में भी सुरक्षित नहीं है। विकृत और अपराधी मानसिकता के लोग गली-मुहल्लों में हर जगह मिल जाएँगे। तेरह साल की लाली जब पानी भरने के लिए जाती है, तो ढाबे वाले किशन चाचा उसका रास्ता रोककर कुचेष्टा करते हैं। लाली और उसकी माँ बिल्लो का यह संवाद देखिए-
"माँ, कल से मैं बाहर नल पर पानी भरने नहीं जाऊँगी"-तेरह साल की लाली रोते हुए बोली।
"क्यों री, क्या हुआ?"
"माँ, वह ढाबे वाले बिशन चाचा है न, रोज रास्ता रोक लेते है। कहते है-अंदर ढाबे में चल बढ़िया-बढ़िया खाना खिलाऊँगा। अजीब ढंग से हाथ लगाते है, मुझे बहुत गंदा—सा लगता है।"
बिल्लो का प्रतिरोध का साहस हवा हो जाता है; क्योंकि बिशन के भाई के पास हमेशा बन्दूक रहती है, साथ ही उसे नेता का संरक्षण भी प्राप्त है। सुखिया की घरवाली का हाथ पकड़ लिया था बिशन ने। सुखिया ने प्रतिरोध किया, तो उसे मौत के घाट उतार दिया। किसी ने मुँह तक नहीं खोला।
माँ का यह कथन उसकी विवशता और दुश्चिन्ता दर्शाता है-
"सुन लाली। कल से तू पानी लेने नहीं जाएगी और स्कूल छोड़ने लेने भी मैं आऊँगी। अब से ये फ़्रॉक्र पहनना बिल्कुल बंद। कल से सूट पाईं और दुपट्टा लेके सिर ढकके जाईं।"
लाली को और भी सचेत कर देती है-"... खबरदार कुछ पापा को बोली तो।"
यह समस्या आज लाली की नहीं; बल्कि हर किशोरी की है, भय और विवशता के कारण माता-पिता चुपचाप यह विष पी जाते हैं। यह विकृति सामाजिक मर्यादा को तार-तार कर दे रही है। कुछ विदेशी अपने विशेष सम्प्रदाय की धूर्त्त परम्पराओं के कारण भारत में आकर यह निश्चित अवधि के लिए शादी का करार कर लेते हैं। इन मासूम और कमसिन कन्याओं को अपने मनोरंजन के लिए उपभोग करते हैं। उनका शारीरिक और मानसिक शोषण करके उनके भविष्य को विषाक्त कर देते हैं। लचर कानूनों के चलते वे अपने देश निकल जाते हैं। इस तरह के अवैध एवं आपराधिक कृत्यों पर कानून का शिकंजा कसा जाना चाहिए।
प्यार में छल-प्रपंच आज का सबसे बड़ा हथियार बन गया है। छद्म धार्मिकता का रूप धारण करके अपने निहित उद्देश्य के लिए निश्छल लड़कियों का ब्रेन वाश करके उनको प्रेम के जाल में फँसाकर शारीरिक शोषण / धर्मान्तरण आदि किया जा रहा है। मनोनुकूल कार्य न करने पर उन लड़कियों की नृशंस हत्या तक कर दी जाती। जब प्रेम का भूत उतरता है, उस समय सब कुछ नष्ट हो जाता है। प्रेम के प्रपंच की इस समस्या को महेश शर्मा ने अपनी 'लव जिहाद' लघुकथा में कलात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। किसी धर्म या सम्प्रदाय का नाम न लेकर तटस्थ भाव से लड़के और लड़की के फोन की रिंग टोन से अभिव्यक्त किया है। शर्मा जी की बेटी 'ऑफिस जाने की जल्दबाज़ी में, साथ ले जाना भूल गई थी'। उसी की रिंग टोन थी- ('बेकस पर करम कीजिए! सरकारे मदीना!') फोन करने वाले का नाम था निसार। उधर फोन मिलाया तो रिंग टोन बजी-"दर्शन दो घनश्याम! नाथ मोरी अँखिया-प्यासी रे!" शर्मा जी सुनकर गश खा गए। आवश्यक नहीं कि प्रेम करने वाले (वे किसी भी जाति या सम्प्रदाय के हों) सदा गलत ही होंगे। समान जाति या धर्म में भी नित्य-प्रति बहुत से जघन्य-काण्ड होते रहते हैं। वर्त्तमान में कुछ षड्यन्त्रों के वशीभूत होकर वर्ग विशेष की लड़कियाँ, छद्म रूप धारण करने वाले कुछ अराजक तत्त्वों की योजनाबद्ध ढग से शिकार हो रही हैं। शर्मा जी को यही आघात डराता है।
भावावेश में प्रेम करने, उस क्षणिक प्रेम को ही शाश्वत और चिरस्थायी समझने की भूल लाखों लोग करते हैं। छोटी-छोटी बातों पर विवाद होते ही प्रेम का सारा नशा दूर हो जाता है। प्रेम करने वाला उस असफल प्रेम की हर निशानी को कठोरतापूर्वक मिटा देना चाहता है। महेश शर्मा की 'निशानी' में कम्मो नौकरानी ने देखा था कि उसकी मालकिन पिंकी आईने के सामने अपनी बाँह पर गुदे नाम को निहारकर सहलाया था और बाँह उठाकर चूम लिया था। वही टैटू गायब था। कम्मो कि कलाई पर भी दाग़ था, जो प्रेम की निशानी मिटाने से हुआ था। फ़र्क यही है-पिंकी के टैटू का निशान तक नहीं बचा और कम्मो अपने प्यार की निशानी को आज भी सँजोए है। कम्मो और पिंकी के माध्यम से असफल प्रेम की व्यथा को अलग-अलग ढंग से व्यक्त किया गया है। कम्मो का यह कथन कितना मार्मिक है-"काश, हमारे ज़माने में भी यह मुई लेज़र-फेज़र होती। देखो, नाम तो मिट गया, पर निशान रह गया। कभी-कभी यह कमबखत बहुत टीसता है बेबी!"
वैधव्य का जीवन बहुत कंटकाकीर्ण होता है। विधवा यदि सुन्दर और नवयौवना है, तो उसका जीवन और अधिक चुनौतियों से भरा होता है। परिवार और सगे-सम्बन्धियों की कुदृष्टि भी उसे निगल जाना चाहती है। मृणाल आशुतोष की लघुकथा 'कवच' में इस तथ्य को कुशलता से चित्रित किया है। अनीता के हाथों की मेहँदी का रंग छूटा भी न था, उसके शोक का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। सास इकलौते बेटे को खोने के गम में डूबी हुई थी। इस बीच मँझले ननदोई का आना-जाना बढ़ा, आँखों तक का सीमित मज़ाक सीमा लाँघकर वासना के मार्ग में परिवर्तित होकर मर्यादा का उल्लंघन करने लगा था। ननदोई ने उसको बलपूर्वक पास बिठाना चाहा, तो वह हाथ छुड़ाकर आँगन की ओर दौड़ी, जिसे सास की अनुभवी आँखों पढ़ लिया। सास, बहू का सम्बल बनकर उसके सम्मान के लिए चट्टान की तरह खड़ी हो गई। दादा ससुर की खड़ाऊँ सास ने सँभालकर रखी थी। निम्न पंक्तियाँ सास की प्रतिक्रिया को क्रियात्मक रूप से प्रस्तुत करती हैं। बहू के सम्मान के लिए सास द्वारा लिया गया कठोर निर्णय इस लघुकथा का सौन्दर्य है-
बहू के कन्धे पर हाथ रख उसने भर्राये गले से कहा, "बेटी, मुझे तो इसकी जरूरत अब तक न पड़ी, लेकिन तुझे अब इसकी सख्त जरूरत है। पुरखों की बिरासतें यूँ जाया नहीं जातीं।" कहते हुए सास ने खड़ाऊँ को ज़ोर से ज़मीन पर पटक दिया। खड़ाऊँ छिटकी, गुलाटियाँ मारते हुए बरामदे से कमरे की ओर दौड़ी। अन्दर से चीखने की आवाज़—सी आई।
लेखक ने केवल समस्या तक ही कथ्य को सीमित नहीं रखा, बल्कि उसे सार्थक और अनुकरणीय निदान तक पहुँचाया, जिसकी आश्वस्ति बहू सास के कन्धे पर सिर टिकाकर अभिव्यक्त करती है।
ऐसा नहीं कि पूरा समाज अपनी मर्यादा खो चुका है। कहीं न कहीं, सदाचार और नारी के प्रति सम्मान अभी बचा है। सत्या शर्मा की लघुकथा- 'रक्षक' नारी के उसी सम्मान पर केन्द्रित है, जो विकृतियों की भीड़ में संस्कार को पोषित करती है। शिप्रा पहली बार अकेले इलाहाबाद के लिए सफ़र कर रही है। उसकी रिज़र्वेशन वाली बोगी में किसी कैम्प में जाने वाले लड़कों का झुण्ड भरा है, जो मज़ाक और चुटकुलेबाजी में मस्त हैं। भय से पीली पड़ चुकी शिप्रा को एक युवक अपनी बातों से अपनत्व जताकर भयमुक्त कर देता है कि वह भी 'नानी घर इलाहाबाद' ही जा रहा है। साकेत का यह वाक्य उसी नारी-सम्मान की निर्मिति करता है, जिसका आजकल अभाव है-
"बहन, ऐसा नहीं है कि सभी लड़के बुरे ही होते हैं कि किसी अकेली लड़की को देखा नहीं कि उस पर गिद्ध की तरह टूट पड़ें। हम में ही तो पिता और भाई भी होते हैं।"
सुरेश सौरभ की लघुकथा-'रेड लाइट' मानवीय मूल्य एवं नारी के सम्मान को प्रतिष्ठित करने वाली लघुकथा है। देरी होने, रास्ते में झोला गिरने और वापस मिल जाने के बारे में पति-पत्नी के सार्थक संवादों से घटना का विवरण मिल जाता है। संवादों के स्थान पर लेखक स्वयं ही विवरण दे देता, तो रचना कमज़ोर हो जाती। भले मानुष, रंडी, बेचारी और भैया शब्दों से व्यंजित ये संवाद परोक्ष रूप में कितना कुछ कह जाते हैं, देखिए-
"किस भले मानुष ने वापस किया।"
"एक रंडी ने, रेड लाइट एरिया के पास वहीं खड़ी एक रंडी के हाथ लग गया। वापस आया, तो वह बेचारी झोला लिये खड़ी थी, बोली," भैया, मैंने गिरते देख लिया था, पर तुम इतनी स्पीड में थे कि निकल ही गए। "
पत्नी मुँह बिसूरते हुए तैश में बोली-"एक भला इंसान भी कह सकते हो, पढ़े लिखे हो, बिलकुल असभ्यों की तरह ।"
पत्नी को पति के बोलने का तरीका रास न आया। यह एक नारी का दूसरी नारी के प्रति पुरुष को सचेत करके उसकी सोच का प्रतिरोध कराना मात्र नहीं, बल्कि समाज द्वारा उपेक्षित और शोषित नारी के सम्मान की स्थापना भी है। यही कारण है कि अब पति को वह 'रंडी' शब्द उसके मनोमस्तिष्क में सैकड़ों सुइयों की तरह चुभ रहा था। पीड़ा का पहाड़ सिर पर बढ़ता जा रहा था'।
दाम्पत्य एवं पारिवारिक संघर्ष नारी को कहीं दूर पीछे धकेल देता है। यह सोच किसी अनपढ़ या गँवार की नहीं; बल्कि पढ़े-लिखे समाज की संकीर्णता है, जिसमें नारी को अक्षम और मन्द बुद्धि समझ लिया जाता है। डॉ. जेन्नी शबनम की लघुकथा 'पहचान' उसी की सार्थक अभिव्यक्ति है। पति कहता है कि वह लेख लिख देगा, पत्नी उसको अपने नाम से भेज दे। पत्नी ऐसा न करके स्वयं लेख लिखती है, जो एक पत्रिका में छप जाता है। वह पत्रिका को अपनी अलमारी में न रखकर टेबल पर ही रख देती है, ताकि-'जब वह इसे देखेगा तो? ... सोचते ही मेरा आत्मविश्वास और भी बढ़ गया'। अभिप्राय यह है कि पति भले ही स्वीकार न करे; लेकिन पत्रिका में छपे उसके लेख को देखे और उसकी क्षमता को समझे। पहचान की पत्नी स्वय को दुर्बल नहीं मानती।
ठीक इसके विपरीत कमल चोपड़ा की 'दंभ' लघुकथा में दाम्पत्य भाव और असमानता का स्वर अलग तरह से मुखरित है। पति-पत्नी का सम्बन्ध किसी प्रतिस्पर्द्धा का हिस्सा न होकर, आपसी समझ और सद्भाव का सुदृढ़ आधार है। इसमें कोई छोटा-बड़ा या हीन नहीं है। इस लघुकथा में पत्नी रश्मिका अपनी व्यथा पति करण को बताती है-
"दो-तीन बार पहले भी बता चुकी हूँ कि मुझे ऑफिस में साथ काम करने वाले पुरुषों की गंदी नजरें और बॉस की गंदी नियत का शिकार बनना पड़ रहा है। मैं नौकरी छोड़ना चाहती हूँ?"
पत्नी की इस व्यथा से पति कोई सहानुभूति नहीं। लगता है, धनार्जन के लिए उसका ज़मीर ही मर गया है। उसका क्रोध भरा यह कथन देखिए-
"घर की हालत तुम्हें पता है। इन दिनों में नौकरी कर नहीं रहा हूँ। बच्चे की फीस, काम वाली बाई के पैसे, कार, फ़्रिज, एसी, फ्लैट की किश्तें? किश्तें टाइम पर न दी गई, तो रिकवरी वाले गुंडे आकर परेशान करेंगे? आस-पड़ोस रिश्तेदारी में क्या इज्जत रह जाएगी?"
पत्नी की पीड़ा है-"...पत्नी की इज्जत खतरे में है और तुम्हें पैसे की पड़ी है?" पति का पत्नी को डाँटना, फटकारना, थप्पड़ मारना, उसका मोबाइल चैक करना-लगता उसके दम्भ को सन्तुष्ट करता है। कारण, इस समय पत्नी का पैकेज़ उसके पैकेज़ से अधिक है। घर और ऑफ़िस दोनों ओर की प्रताड़ना से आहत पत्नी आत्महत्या तक का निश्चय कर चुकी थी, यह जानकर करण उसे रिज़ाइन करने के लिए कहता है। गैरबराबरी की यह कुण्ठित धारणा, दाम्पत्य सम्बन्धों से समवेदना तथा सम्मान को सदा-सदा के लिए निष्कासित और निर्वासित कर देती है।
भावना सक्सैना की लघुकथा 'परिवर्तन' पत्नी में आए परिवर्तन का कारण प्रस्तुत करती है। परिवारीय संवेदना के क्षीण होने पर निराश न होकर पत्नी हर पल को जीभर जीना चाहती है। बीस वर्ष शादी को हो चुके, फिर भी बन-सँवरकर रहना, उस प्रत्येक कार्य को करने के लिए तत्पर रहना, जिससे सबको अच्छा लगे और खुशी मिले। पति जब इस परिवर्तन पर ध्यान देते हैं, तो पुत्र बताता है-"पापा! माँ अब फेसबुक पर है!"
भावना सक्सैना ने जीवन की एकरसता को तोड़ने के लिए जो सकारात्मक चिन्तन और क्रियाशीलता का मार्ग सुझाया है, वह बहुत से क्लेशों का निवारण कर सकता है। नारी को स्वयं भी एकरसता से बाहर निकलने का प्रयास करना चाहिए।
लड़कियों के बारे में कुछ लोगों की सोच बहुत पुरानी हो सकती है। प्रेम गुप्ता मानी की लघुकथा 'लड़की' के बारे में समाज की यही रुग्ण सोच सामने आती है। ताँक-झाँक के अभ्यस्त पड़ोसी पण्डित राघोराम की जवान लड़की गीता के बारे में दुष्प्रचार शुरू कर देते हैं-पूरे मोहल्ले में यह ख़बर आग की तरह फैल गई कि पण्डित राघोराम की जवान लड़की गीता को पुलिस पकड़कर ले गई। लेडी पुलिस जीप लेकर आई थी। अन्नो ताई का कहना था कि सब कुछ उन्होंने अपनी आँखों से देखा है।
पण्डित राघोराम को कुछ खबर नहीं कि आसपास के लोग उनके बारे में क्या सोच रहे हैं। पाँच दिन बाद सबकी सोच को झटका लगा। लघुकथा का समापन लेखिका ने इस प्रकार किया कि सब अफ़वाहों पर विराम लग गया।
'थोड़ी देर बाद एक जीप पण्डित राघोराम के दरवाज़े पर आकर रुकी। उस पर से हँसती हुई गीता उतरी, तो सबके चेहरे लटक गए। जीप में एन.सी.सी की वर्दियाँ पहने लड़कियाँ बैठी थीं, जो चार दिनों का कैम्प लगाने के बाद लौटी थीं। उनकी वर्दी के कारण ही अन्नो ताई ने उन्हें पुलिस समझ लिया था।'
लड़कियों के लिए भविष्य-निर्माण करने के मार्ग में घर-परिवार भी अड़चन बनते हैं। घर में पुराने विचारों के लोग हों तो और अधिक बाधाएँ हैं। कृष्णा वर्मा ने 'गैप' लघुकथा में इस-सामाजिक सोच और असमानता के अन्तर्द्वन्द्व को घर के प्रगतिशील और संकीर्ण विचारों के टकराव को बहुत खूबसूरती के साथ चित्रित किया है। नेहा के प्रति दादी का यह प्रतिरोध बाधक बनता है-
"औरत की ज़ात तो दबी-ढकी ही अच्छी लगती है। वह अपनी पलकें और कंधे ज़रा झुकाकर चले, तो जीवन भर रिश्ते-नाते और घर-गृहस्थी सुर में रहती है, समझी।"
नेहा, नौकरी और घर-गृहस्थी के बोझ से ऐसी दबी कि झुककर चलने की सीख के कारण उसकी कमर जवाब देने लगी। डॉक्टर ने सुझाव दिया, "आपकी रीढ़ की हड्डी में कुछ गैप आ गया है और दो-एक हड्डियाँ अपने स्थान से थोड़ी-सी खिसक भी गई हैं। पीड़ा से जल्दी छुटकारा पाने के लिए आप सुबह-शाम व्यायाम करो और ज़रा तनकर चला करो। झुककर चलना रीढ़ के लिए घातक होता है।"
सीधे तनकर न चलने से ही गैप आया। इससे बचने का उपाय है, तनकर चलना। लेखिका की यह सीख रीढ़ को सीधा रखने के लिए ज़रूरी है। 'गैप' शीर्षक लघुकथा की संवेदना और कथ्य के लिए चाबी का काम करता है, जिससे वैचारिक अन्तर्द्वन्द्व के सारे द्वार खुलते हैं। इस लघुकथा में तीन पीढ़ियों के वैचारिक टकराव को सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया गया है।
सौन्दर्य क्या है, इसके उत्तर में प्रसाद की कामायनी में श्रद्धा का यह सौन्दर्य सामने आता है। मातृत्व धारण करने पर वह सौन्दर्य और अधिक स्पृहणीय बन जाता है-
केतकी गर्भ-सा पीला मुँह, आँखों में आलस-भरा स्नेह;
कुछ कृशता नई लजीली थी, कंपित लतिका-सी लिए देह!
डॉ. उपमा शर्मा की लघुकथा 'खूबसूरती' में सौन्दर्य को लेकर एक मॉडल काजल का अन्तर्द्वन्द्व कलात्मक रूप से उभारा है। ऑपरेशन थियेटर में चिकित्सक उसके पेट पर टाँके लगा रही थी। साथ ही परिचारिका को कुछ हिदायत देती जा रही थी। वह तय नहीं कर पा रही थी कि पेट पर लगे कट का दर्द अधिक था या अपनी खूबसूरती खत्म होने का। सहेलियों की ये बातें उसे उद्वेलित कर रही थीं-
"अब तेरे पेट पर बर्थ मार्क बन जाएँगे।"
"तू अब सुंदर नहीं रही।"
"देख तो मोटापे से सारी खूबसूरती का सत्यानाश कर लिया।"
"देखना, सुंदर मॉडल देखकर एक दिन राज भी तुझे भूल जाएगा।"
ये कथन उसे विचलित कर रहे थे, तो उसने डॉक्टर से उसने अपनी मनोव्यथा प्रकट की।
"डॉक्टर! क्या मैं अब सुंदर नहीं रही।" काजल के आँसू रुक ही नहीं रहे थे।
"किसने कहा?"
डॉक्टर के संकेत करने पर नर्स ने रोते हुए बच्चे को जैसे ही काजल के सीने पर लिटाया-'बच्चा पहचानी हुई धड़कनों को सुन चुप हो गया। अपने बच्चे को अपने सीने से लगाए वह ख़ुद को दुनिया की अब सबसे खूबसूरत औरत लगी।'
वास्तविकता है कि जीवन का सौन्दर्य मातृत्व ही है। कोई मॉडल हो या विश्व सुन्दरी, सभी की जन्मदायिनी, माँ ही होती है। यह सौन्दर्य माँ, बहिन, बेटी, प्रिया किसी भी रूप में हो सकता है। उदात्त भाव इसके मूल में है। विशृंखल होकर सौन्दर्य पदच्युत हो जाता है। उदात्तता के लिए संस्कार का संस्पर्श आवश्यक है। यह संस्कार घर-परिवार के सही आचरण से ही मिल सकता है। इस सन्दर्भ में मेरी लघुकथा 'खूबसूरत' भी देखी जा सकती है।
मातृत्व का आत्मीय संस्पर्श माता और सन्तान दोनों के लिए अव्यक्त और आत्मीय शक्ति है। संसाधनों की शक्ति और सहायता से इसकी पूर्त्ति नहीं की जा सकती। निर्देश निधि की 'बेचारा' लघुकथा 'खूबसूरती' के विपरीत दूसरे ध्रुव की व्याख्या है। कामकाजी महिला के लिए घर और ऑफ़िस की बहुत-सी चुनौतियाँ होती हैं। वहाँ परिवारीय संवेदनहीनता का प्रभाव पड़ता है। छोटी बहू ने घर और बच्चों की देखभाल को प्राथमिकता देते हुए सरकारी नौकरी छोड़ दी। दूसरी ओर बड़ी बहू नौकरी के कारण बच्चे को पूरा समय नहीं दे पाती, जिससे बच्चा उदास और अनमना रहता है। घर आने पर छोटी के बच्चे बड़ी के बच्चे को खेलने का आग्रह कर रहे थे।
"कैसा उदास लग रहा है बेचारा बच्चा..."-छोटी के यह कहने पर बड़ी ने बीच में ही टोक दिया, तो उसने अपने बच्चे को दी जा रही सुविधाओं की सूची गिनवा दी। ढेर सारे खिलौनों की, देखभाल के लिए आया की, आया की निगरानी के लिए घर के हर कोने में लगवाए-सी सी टी वी कैमरों की गिनती करा दी। निर्देश निधि ने एक वाक्य-'अब तो छोटी को यकीन हो गया था कि वह नन्हा बच्चा वाकई बहुत बेचारा था।' में कथा का समापन किया है। यह कथन इस लघुकथा की रीढ़ है। छोटे बच्चे के लिए खिलौने, आया आदि का अम्बार उसके कोमल हृदय की भूख नहीं मिटा सकते। आत्मीय संस्पर्श वात्सल्य की सबसे बड़ी शक्ति और सुविधा है। ममत्व का संस्पर्श यदि तिरोहित हो जाए, तो शिशु का मानसिक विकास प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। बच्चे की उदासी का यही मूल कारण है।
अनायास पलते कुसंस्कार और दोगलापन घर से लेकर बाहर समाज तक की सारी सुन्दरता को निगल जाते हैं। इन्हें डॉ. सुषमा गुप्ता की वर्तमान का दंश और सूर्यकान्त नागर की 'प्रदूषण' में देख सकते हैं।
'वर्तमान का दंश' में मुम्बई से दिल्ली आए रमानाथ जी, अपने सत्रह साल के भतीजे से घुमा-फिराकर पूछते हैं-
"अरे पढ़ाई वढ़ाई तो चलती रहती है। तू तो ये बता तेरी गर्लफ्रैंड्स कितनी है?"
"अरे क्या ताऊजी, आप भी न, मैं नहीं पड़ता इन चक्करों में।"
"हट! जिंदगी खराब है तेरी फिर। अबे जवानी में ये सब नहीं करेगा, तो बुढ़ापे में करेगा क्या। पूछ अपने बाप से, स्कूल-कॉलेज में कैसे लड़कियों की लाइन लगती थी मेरे पीछे।"
"मुझे है न ख्याल घर की इज्जत का ताऊजी।" बाहर से आती मिताली बोली।
"क्या मतलब?" ...
"मतलब ये, मेरे हैं न खूब सारे बॉय फ्रैंड्स। आप चिंता मत करो। मैं हूँ न खानदान की परम्परा निभाने को।" मिताली दाँत दिखाती हुई चहकी।
रमानाथ जी की हँसी में ब्रेक लग गया और चेहरा गुस्से से तमतमाने लगा।
यह है रुग्ण मानसिकता कि लड़का किसी लड़की नैन मटक्का करे, तो यह बहादुरी की तरह स्वीकार्य है। अपने घर की लड़की यही करे, तो स्थित उलट जाती है, जिसे लेखिका ने 'रमानाथ जी की हँसी में ब्रेक लग गया और चेहरा गुस्से से तमतमाने लगा।' इस कथन द्वारा दोहरी मानसिकता को अनावृत्त किया है। संस्कार और कुसंस्कार घर-परिवार देता है। यदि घर-परिवार बच्चों को लड़कियों के साथ गरिमामय व्यवहार के ये संस्कार दें, तो छेड़खानी और नारी शोषण की अधिकतम घटनाएँ निर्मूल हो जाएँ।
घर के परिवार के अतिरिक्त कुछ अनुचित व्यवहार हमारा वह परिवेश भी सिखाता है, जिसके बीच में हम रहते हैं। सूर्यकान्त नागर की लघुकथा 'प्रदूषण' उन्हीं अनायास पलते कुसंस्कारों की ओर ध्यान दिलाती है।
लेखक को विद्यालय जाती तेरह से सोलह वर्ष की लड़कियाँ के संवाद चौंका देते हैं, जिसमें 'ए सर्टिफिकेट वाली' फ़िल्म देखने की ललक भी छुपी हुई है। छींट का नया बुशर्ट पहनकर इतराने वाले शिन्दे सर के सन्दर्भ में जब बात होती है, तो जानी-पहचानी आवाज़ में अन्तिम समूह की लड़की का यह संवाद लेखक को विचलित कर देता है-"मुझे तो बहुत प्यारा लगता है, बिल्कुल अमोल पालेकर जैसा।"
अन्तिम समूह का वह अन्तिम वाक्य उनकी बेटी का ही था। इस तरह का सामाजिक प्रदूषण भविष्य के लिए संकट पैदा करने वाला है। यह संकेत भर है। यदि समाज जागरूक नहीं होता है, तो आसन्न संकट और वैचारिक प्रदूषण सारी सीमाएँ छिन्न-भिन्न करने वाला है।
भीड़-तन्त्र और नारेबाजी किसी समस्या का समाधान नहीं। हर भीड़ के अपने निजी सरोकार और विचारगत एजेण्डा होते हैं, जिन्हें अपने स्वार्थ के लिए रबर की नाक की तरह मोड़ लिया जाता है। अपने लाभ और वर्चस्व के लिए अपनी सुविधानुसार इन नारों को जाग्रत कर लिया जाता है। इस तरह के प्रपंच, समस्या के समाधान के लिए नहीं, किसी राजनीतिक लाभ के लिए किए जाते हैं। होना तो यह चाहिए कि जो पीड़ित एवं प्रताड़ित है, हम उसके साथ खड़े हों, वह चाहे किसी भी विचारधारा का पोषक हो। योगराज प्रभाकर की लघुकथा 'चौथी आवाज़' इस तरह की नारेबाजी की कुरूपता की व्याख्या है। एक-एक करके कई आवाजें आती हैं-
पहली आवाज़..."1984 के दिल्ली दंगों में मारे गए सिखों के हत्यारों को फाँसी दो।"
दूसरी आवाज़—"दंगों में मारे गए मुसलमानों के क़ातिलों को-को फाँसी दो!"
एक सामूहिक नारा गूँजा, "फाँसी दो, फाँसी दो!"
तीसरी आवाज़..."हमारे पादरी और उसके बच्चों को ज़िंदा जलाने वाले को फाँसी दो!"
एक सामूहिक नारा गूँजा, "फाँसी दो, फाँसी दो!"
मन्त्री जी जल्दी में हैं, लेकिन चौथी आवाज़ ने पूरी न्याय प्रणाली पर ही सवाल उठा दिए।
"उन्नीस सौ अस्सी और नब्बे के दशक में पंजाब में हज़ारों निर्दोष हिंदुओं की हत्याएँ हुईं, काश्मीर में आतंकवादियों ने सैकड़ों हिंदुओं की जान ली और लाखों हिंदुओं को घरबार छोड़कर पलायन करने के लिए मजबूर किया गया। देश के विभिन्न हिस्सों से जबरन धर्म-परिवर्तन की ख़बरें आ रही हैं। इसके बारे में आज तक सरकार ने कुछ नहीं किया, ऐसा क्यों?"
इस बार मंत्री जी कुछ नहीं बोले।
न्याय-प्रणाणी पर विश्वास न करके, एक वर्ग सदा स्वयं के शोषित होने का प्रचार करके 'विक्टिम कार्ड' खेलता है। बहुसंख्यक अगर शोषित है, तब भी उसी को निशाना बनाया जाता है, यह घातक है, अन्याय है। देश की एक बड़ी आबादी इस प्रपंच को समझ चुकी है।
साम्प्रदायिक संकीर्णता राष्ट्र को निरन्तर जर्जर कर रही है। हमारे लिए राष्ट्रहित सर्वोपरि होना चाहिए। किसी भी वर्ग को अल्पसंख्यक / बहुसंख्यक होने के नाते विशेष सुविधा क्यों मिले। न्याय के द्वार सबके लिए समान रूप से खुले हों। यह बात मेरी समझ से परे है कि हज़ारों दूर मील दूर बैठे क्रूर देशों के कुकृत्य के समर्थन में तो प्रस्ताव पास किए जा सकते हैं; लेकिन अपने ही देश में दंगे, बम धमाके, कश्मीर में क्रूरता और सामूहिक पलायन जैसी त्रासदी पर कोई प्रश्न नहीं उठता, कोई संज्ञान नहीं लेता। असह्य रक्तपात और क्रूरता पर राजनीतिक दलों की वाणी को लकवा क्यों मार जाता है। वे मौन साध लेते हैं, जैसे कुछ हुआ ही नहीं। वोट पाने की लालसा में तुष्टीकरण के लिए जातियों और वर्गों में बाँटकर घृणा करने की राजनीति का बहिष्कार होना चाहिए।
सामाजिक सौहार्द को ध्वस्त करने वाले अराजक तत्त्व कई रूप में पाए जाते हैं। ज़रूरी नहीं कि उनके हाथ में हथियार हों। उनके हाथ में आग से भरी बाल्टी हो सकती है। वे खाली हाथ भी हो सकते हैं। उनकी वाणी की आग सब कुछ भस्म कर सकती है। कुछ लोग इस वाणी की आग से भारत को शक्तिहीन और अस्थिर करने का षड्यन्त्र अहर्निश रच रहे हैं। 'आग' लघुकथा में हरभगवान चावला, जिस आग का संकेत करते हैं, वही आग आज जगह-जगह लगी हुई है। निर्लज्ज अवसरवादी, संकीर्ण विचारधारा के बहुत से तथाकथित बुद्धिजीवी, आन्दोलनजीवी, नेता, पत्रकार इस आग को भड़का रहे हैं। इन पंक्तियों को देखिए-
उन दोनों को बस्तियों में आग लगाने का काम सौंपा गया था। पहले के हाथ में आग से भरी बाल्टी थी, दूसरे के हाथ ख़ाली थे। पहले ने दूसरे से पूछा, "तुम्हारी आग कहाँ है, आग के बिना बस्ती कैसे जलाओगे?"
"मेरी आग मेरे मुँह में है। ज़रूरत पड़ने पर निकाल लूँगा।"
XX
शाम को दोनों आक़ा के दरबार में मौजूद थे। पहले ने चार बस्तियाँ जलाई थीं, दूसरे ने आक़ा की नज़र में बढ़ गया होगा। मायूस पहले ने आक़ा से कहा, "मैंने पूरी मेहनत की पर कामयाबी बहुत कम मिली। भविष्य में मैं भी मुँह की आग से काम लूँगा।"
समाज को विभाजित नष्ट करने के लिए दोनों आग में ऐक्य होना चाहिए-' मुँह की आग और हाथ की आग एक दूसरे की पूरक हैं। जब तक इन दोनों में गठबंधन है, तभी तक खेल है। "
एक मुँह से आग उगलता है, दूसरा उसके लिए हथियार बनकर जलाने का काम करता है। हरभगवान चावला की यह लघुकथा अपनी मारक क्षमता से सदैव याद रखी जाएगी। वोट की कलुषित राजनीति ने वर्ग विशेष के प्रति घृणा फैलाने के लिए 'मुँह की आग' का विस्तार करना प्रारम्भ कर दिया। आए दिन भारतीय संस्कृति को छिन्न-भिन्न करने के लिए बयान बहादुर आग उगलते रहते हैं। देश के समभाव को नष्ट करके अस्मिता को लक्ष्य बनाया जा रहा है।
अन्ततः इस भेद-नीति और साम्प्रदायिक विद्वेष को कैसे दूर किया जा सकता है! इसका एकमात्र उपाय है-मत-मतान्तर से निरपेक्ष रहकर, मानवीय मूल्यों की स्थापना और सबके द्वारा उनका अनुपालन। इतना ही पर्याप्त नहीं, विद्वेष का विस्तार करने वाले संकीर्ण विचारधारा वाले तत्त्वों का प्रतिरोध भी आवश्यक है। न्याय-प्रणाली तक जन सामान्य की पहुँच होनी चाहिए। ऐसा न हो कि धनपशु और बाहुबलि अपनी विध्वंसकारी गतिविधियों और तिकड़मों से न्याय-व्यवस्था को पंगु बना दें।
मानवीय मूल्य ही वास्तविक धर्म है, इसे सुकेश साहनी ने अपनी प्रतीकात्मक लघुकथा 'मेढकों के बीच' में कुशलता से प्रतिपादित किया है। साहनी जी के ही शब्दों में-'अपनी सृजित लघुकथाओं में से किसी एक को रेखांकित करना बहुत मुश्किल है। यहाँ मैं अपनी प्रिय लघुकथा के रूप में' मेढकों के बीच'का चयन करना चाहूँगा। इसको अपनी पसंद की दूसरी लघुकथाओं की तुलना में आगे रखने के भी कई कारण हैं। इसके सर्जन के बाद मुझे बहुत संतुष्टि मिली थी, सृजनात्मक तृप्ति की अनुभूति हुई थी। इस रचना के समापन पर बहुत सोचना पड़ा था, लेकिन अंततः जो कहना चाह रहा था, वह सभी तरह के पाठकों तक पहुँच रहा था। यह लघुकथा सितम्बर 98 में कथादेश में प्रकाशित हुई थी यानी लगभग 23 वर्ष पहले। यह रचना कैसे लिखी गई, किस्सागोई का फॉर्मेट क्यों चुना, आदमी से मेढ़क से तब्दील होने का विचार क्योंकर आया; इसके पीछे की अलग कहानी है। इसको अपनी प्रिय लघुकथा के रूप में यहाँ उद्धृत करने पीछे यही भावना है कि आज इतने वर्षों के बाद इस रचना का महत्त्व और भी बढ़ गया है। आज देश में जगह-जगह जिस तरह की घटनाएँ घट रही हैं, उनके विरोध में पूरी तीव्रता के साथ हस्तक्षेप करती है ये लघुकथा।'
नाले में गिरी गाय को एक व्यक्ति ने बाहर निकाला। कुत्ता-बिल्ली गिर जाते, तो उन्हें भी निकाला जाता। जीव-दया ही इसके मूल में है।
"अब वे (मेढक) इस बहस में उलझे हुए थे कि गाय को बाहर निकालने वाला हिन्दू था कि मुसलमान।"
"फिर..."
"फिर क्या? उनका टरटराना आज भी जारी है।"
ये पंक्तियाँ साथ में यह सन्देश भी देती हैं कि नकारात्मक सोच वाले व्यक्ति हाय-तौबा मचाते रहते हैं। इन्हें हतोत्साहित करने के लिए सकात्मक चिन्तन करने वालों को सकारात्मक कार्य करने के लिए आगे आना होगा।
गाँव अच्छे हैं या शहर अच्छे हैं, इस पर सबका अपना-अपना मत हो सकता है, अन्तर केवल सामंजस्य का है। दोनों की सुविधा-असुविधा हो सकती है। अब तो गाँव शहर की ओर भाग रहे हैं और शहर सोसायटी के फ़्लैट की संस्कृति के कारण गाँव तक विस्तार पाता जा रहा है। पारिवारिक प्रेम और संवेदना-नए सन्दर्भ में नया आकार लेते जा रहे हैं। आज गाँव में भी पहले जैसी चहल-पहल न होकर सन्नाटा है। जिनका परिवार जीविका और नौकरी के कारण शहर में चला गया, उनके गाँव के दरवाज़ों पर ताले लटके नज़र आएँगे। पहले जैसी आत्मीयता हवा हो चुकी है। लघुकथाओं में भी इन परिवर्तित परिस्थितियों को लघुकथाकारों ने अपने ढंग से सम्प्रेषित किया है।
ज्ञानदेव मुकेश की लघुकथा 'हाइटेक प्रेम' में अविवाहित बेटे के पास आए और सुबह-सुबह उठकर चाय पीने के आदी दयाल जी की मनःस्थिति का चित्रण किया है। उन्होंने ड्राइंग रूम में सोफे पर अलसाए बेटे से पूछा, "बेटा, रसोईघर में चाय-वाय का कोई इंतजाम है या नहीं?"
बेटे ने मुरझाए हुए स्वर में कहा, "पापा, मैं चाय कहाँ लेता हूँ?"
दयालजी बीते दिनों में खो गए कि वे किस प्रकार अपने पिता का ख्याल रखते। आजकल के बच्चों की अपनी ही अलग तरह की भटकाव-भरी दुनिया हैं। बेटे की उँगलियाँ मोबाइल के स्क्रीन पर व्यस्त थीं। कॉल बेल बजी, तो दयालजी ने दरवाजा खोला। लड़के ने हाथ का पैकेट दयाल जी की तरफ बढ़ा दिया। पैकिंग पर कुछ लिखा था, चायोज डॉट कॉम। दयालजी ने पूछा, "बेटा, यह क्या है?"
बेटे ने बताया कि यह चाय है। इसे ऑनलाइन बुक किया था। दयाल जी ने पैकिंग खोल उसमें कई पेपर कप भी। चाय से उनका मन प्रफुल्लित हो गया। दयाल जी के चेहरे पर कृतज्ञता के भाव थे। उनके कुछ देर पहले के चिन्तन पर ब्रेक लगा कि उन्होंने जो सोचा, वह सही नहीं था। बेटे ने ही टिकट बुक कर उन्हें व्हाट्सएप किया था। कल रात बेटे ने ही घर बैठे उनके लिए एयरपोर्ट पर कैब भिजवाई। उन्होंने स्वीकार किया कि आज के बच्चे भी पूरा ख़्याल रखते हैं। बस, तरीका बदल गया है।
सीमा वर्मा की 'शहर अच्छे हैं' लघुकथा अपनेपन का एहसास दिलाती है। कॉलेज से लौटती लवीना एक परेशान बुजुर्ग को देखती है, भयंकर शीत लहर में भी, जिसके चेहरे पर पसीना चुहचुहा रहा है। स्कूटी रोककर वह उनकी परेशानी पूछती है।
वे कुछ बोल नहीं पाए, तो दोबारा पूछती है, "दादू ...आप कहाँ रहते हैं और कहाँ जाना है आपको?"
पास की बेंच पर बिठा और बोतल से पानी पिलाकर पूछने पर पता चलता है कि दादू बेटे से मिलने शहर आए हैं और रास्ता भूल गए हैं? उसकी सहानुभूति-भरी आवाज सुन कुर्ते की जेब से परिचय पत्र निकालकर लवीना को देते हैं। उनका
बटुआ भी किसी ने मार लिया है। लवीना उन्हें खाना खिलाती है और आश्वस्त कर देती है कि इस शहर में वे असहाय या अकेले नहीं हैं।
अपनेपन के एहसास को रेखांकित करती सुभाष नीरव की लघुकथा 'शहर से दोस्ती' इससे अलग है। पिताजी को गाँव से दिल्ली आए महीनाभर होने को है। उन्होंने पोते रिंकू को सुबह स्कूल बस पर चढ़ाने और दोपहर को बस स्टैंड से लाने का काम, बाज़ार का काम स्वयं ही सँभाल लिया है। चाहे हज्जाम हो या गली के नुक्कड़ पर कपड़ों पर प्रेस करने वाली अधेड़ औरत या सब्जी बेचने वाली कमला, सर्दियों की गुनगुनी धूप सेंक रहे बूढ़े सबके परिचित और आत्मीय बन गए। यह कैसे हुआ, इसके लिए मोहन शाह का यह संवाद समझना पड़ेगा-"हाँ बेटा, अगर किसी शहर-कस्बे को अपना बनाना हो, तो पहले उससे दोस्ती गाँठनी पड़ती है, वहाँ के लोगों से दुआ-सलाम करनी पड़ती है। तब कहीं जाकर वह अपनेपन का अहसास करवाता है।"
आत्मकेन्द्रित व्यक्ति हर जगह अकेला होता है, चाहे गाँव हो या शहर। अपनेपन के अहसास के लिए खुद भी दूसरों जुड़ना पड़ता है। समरसता का पथ अपनाना पड़ता है।
इसी सामाजिक समरसता के दर्शन हमें कमलेश भारतीय की लघुकथा मेरे अपने' में होते हैं। सामंजस्य और अपनत्व का अनुपालन करने वाला पराए शहर में भी अपनत्व का परिवेश सृजित कर देता है। बिटिया की शादी के शगुन के अवसर पर सगे सम्बन्धियों की प्रतीक्षा में आँखें द्वार पर लगी हैं। जल्दी न आने की सबकी अपनी-अपनी विवशताएँ उदासी बढ़ा रही हैं। कथा का यह अंश देखिए-
मैं उदास खड़ा था। इतने में ढोलक वाला आ गया। उसने ढोलक पर थाप दी। सारे पडोसी भागे चले आए और पण्डित जी को कहने लगे–और कितनी देर है? शुरू करो न शगुन!
पण्डित जी ने मेरी ओर देखा। मानो पूछ रहे हों कि क्या अपने लोग आ गए? मेरी आँखे खुशी से नम हो गईं। परदेस में यही तो मेरे अपने हैं। मैंने पण्डित जी से कहा-शुरू करो शगुन, मेरे अपने सब आ गए!
उदासी को दूर करने के लिए 'परदेस में यही तो मेरे अपने हैं।'
अर्चना राय की लघुकथा-'मेट्रो लाइफ' शहरी जीवन की ऊबाऊ, थकाऊ और पस्त करने वाली जीवन-शैली की विडम्बना को चित्रित करती है। आलीशान बहुमंजिला भवन में रहना, कार आदि की सुविधा, पति-पत्नी की अच्छी नौकरी और धनार्जन ही सब कुछ नहीं है। जीवन की ऊष्मा का दूर-दूर तक पता नहीं। पति-पत्नी के ये संवाद 'फीकी मुस्कान' और 'थकी हुई आवाज' के माध्यम से जीवन की ऊब का अनावरण कर देते हैं-
"हैलो डियर।"-एक दूसरे को देखकर फीकी मुस्कान के साथ पति ने कहा।
"हाय" -पत्नी ने भी थकी हुई आवाज में कहा।
दोनों ऑनलाइन खाना मँगाते हैं। फ्लैट में पहुँचकर थके ने पति टीवी ऑन किया। दोनों ने टीवी से नजरें हटाए बिना, जल्दी-जल्दी अपना खाना खत्म किया और अपनी-अपनी प्लेट्स धोकर रख दी। बिस्तर पर लेटे, मोबाइल, सोशल मीडिया की खबरे, व्हाट्सएप, इन्स्टा, फेसबुक पर प्रतिक्रिया दी। साथ ही अपने फेवरेट सिलेब्रिटी, स्पोर्ट्स प्लेयर, दोस्तों और रिश्तेदारों की जन्मदिन, पार्टी, वेकेशन आदि की आई पोस्टों पर आधी रात तक लाइक और कमेंट किए, नींद आई तो 'गुड नाइट डियर।'–कहकर दोनों एक-दूसरे की तरफ पीठ कर सो गए।
दोनों के पास आपस में आत्मीय बात करने के लिए न कोई समय है, न अवसर। संयुक्त परिवार का प्रत्यय बहुत पहले ध्वस्त हो गया। अब एकल परिवार भी आभासी दुनिया की भेंट चढ़ते जा रहे हैं। धीरे-धीरे इस तरह के परिवारों का विघटन, सामाजिक अभिशाप बनता जा रहा है। दोनों का अपनी-अपनी प्लेट्स धोकर रखना मरती हुई संवेदना और अति आत्मकेन्द्रीयता का सूचक है। दोनों में आत्मीयता का इतना-सा सूत्र भी नहीं बचा कि एक दूसरे की प्लेट धो सकें। ' एक-दूसरे की तरफ पीठ कर सो जाना-दाम्पत्य जीवन की ऊष्मा के विलुप्त होने और सम्बन्धों के विघटन की इस त्रासदी को अर्चना राय ने कलात्मक कौशल से सजीव कर दिया है। भले ही कम लिखा जाए, सधा हुआ लेखन, रचनाकार की रचनाधर्मिता को अनुकरणीय बनाता है।
अभिव्यक्ति की औपचारिकता और संवेदना के निर्वासन से एक अलग तरह का संसार सृजित हुआ है। इस आभासी जगत् में एक नई भाषा और नए चिन्तन ने जन्म लिया और वह है, प्रदर्शनप्रियता। हृदय की नमी जब तिरोहित हो जाती है, तब एक असंवेद्य और कृत्रिम भाषा आकार लेती है। इस भाषा में वह सब आरोपित शब्दावली है, जिसका हमारी भावानुभूति से कोई सम्बन्ध नहीं। अगर किसी आत्मीय के प्रति हृदय में समवेदना (किसी के सुख-दुःख के प्रति आत्मीय अनुभूति) है, तो उसको अभिव्यक्ति करने के लिए अनेक माध्यम हैं। अपरिचितों और अर्धपरिचितों के बीच ले जाकर अपनी असंवेद्य और कृत्रिम भाषा की हाँडी पटकना, आज का भाषायी फ़ैशन बन गया है। कल्पित छवि को गढ़ने का यह काम फ़ेसबुक पर बहुत हो रहा है। फ़ेसबुक का एक अच्छा माध्यम, जो हमारे बेहतर सर्जन और उसके आदान-प्रदान का माध्यम हो सकता था, उसे कुछ ने अपनी कुन्द प्रदर्शनप्रियता से विकृत ही किया है। इसकी क्रूर छाया डॉ. सुषमा गुप्ता की लघुकथा संवेदनाओं का डिजिटल संस्करण में देखी जा सकती है। पिताजी की बीमारी के बहाने दुआओं की ज़रूरत, बीमार पिताजी के अस्पताल में लेटे फोटो को फ़ेसबुक स्टेटस पर लगाना, अपनी सक्रियता और दयनीयता का प्रदर्शन, पिताजी के मरने पर संसार लुट जाने की शोक-संतप्त छवि, 51 पण्डितों को भोज कराने की आत्मश्लाघा की भूख कितनी दयनीय है!
दूसरी ओर पति के खाली बिस्तर को देखकर टूटती हुई, खाँस-खाँसकर दोहरी होती माँ है, जिसकी दवाइयाँ खत्म हो चुकी हैं। बेटे से गुहार लगाने पर जिसे झिड़क दिया जाता है-"बहुत व्यस्त हूँ मैं। पापा के मरने के बाद जो इतना तामझाम फैला है, अभी वह तो समेट लूँ। समय मिलता है तो ला कर दूँगा।"
यही झिड़कने वाला श्रवणकुमार की विडम्बना देखिए कि वह फिर से फोन में व्यस्त हो गया। आभासी साथियों की सहानुभूति का दोहन करने के लिए नए स्टेटस पर ओढ़ी हुई भाषा में छद्म संवेदना का प्रदर्शन करने के लिए आतुर हो जाता है। स्टेटस पर लिखी यह टिप्पणी भाषा एव संवेदना के अवमूल्यन का सबसे क्रूर उदाहरण है-
'पिताजी के बाद अब माँ की हालत बिगड़ने लगी है। हे ईश्वर! मुझ पर रहम करो। मुझमें अब और खोने की शक्ति नहीं बची है।'
इसके पास माँ की दवाई लाने के लिए समय नहीं। पति की मृत्यु से बिखरी माँ के लिए केवल झिड़कियाँ ही बची हैं।
डिज़िटल क्रान्ति के इस युग में हमने बहुत कुछ पाया, लेकिन जो मानवीय संवेदना हमने खोई है, उसकी क्षति-पूर्त्ति कभी हो सकेगी, इसकी आशा करना व्यर्थ है।
-0- —क्रमशः