लघुकथा के विविध आयाम / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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जन-जीवन में उठने वाली तरंगों को रूपायित करना किसी भी विधा की शक्ति का अहसास कराता है। लघुकथा के विषय क्षेत्र पर दृष्टिपात करें तो पता चलता है कि यह विधा समाज के दुःख-दर्द से अन्य विधाओं की तरह ही जुड़ी है। काल के निरन्तर प्रवाह में परम्परा उतनी ही स्वीकार्य हो सकती है, जितनी वह समसामयिक हो, जितनी भावी स्थितियों के लिए उत्तरदायी बन सकती हो। अतीत में जो समस्याएँ थीं, वे ज्यों की त्यों वर्तमान फलक पर नहीं हैं। कुछ समस्याओं के समाधान खोजे गए हैं; कुछ नई समस्याएँ अपने निकट रूप में हमारे सामने आ खड़ी हुई हैं। शिक्षा, राजनीति, व्यक्तिगत जीवन और मानव-समाज, चिन्तन और कार्य रूप सभी में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं। ये परिवर्तन शकुन और अपशकुन दोनों ही रूपों में हमारे सामने आए हैं। लघुकथा ने शुभ संकेत देकर जहाँ आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त किया है, वहाँ सामाजिक संवेदना के लिए भयावह अपशकुनी रोगी हमें आगाह किया है।

लघुकथा के क्षेत्र में ऐसे लेखकों की लम्बी सूची है, जिन्होंने सार्थक रचनाओं का सर्जन किया है। इन लेखकों में कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, विष्णु प्रभाकर, रमेश बतरा, बलराम सतीश राज पुष्करणा, जगदीश कश्यप, मधुदीप, मधुकांत, सुकेश साहनी, अंजना अनिल, शकुन्तला किरण, प्रतिभा श्रीवास्तव, अशोक भाटिया, अशोक लव, रूपदेव गुण, शंकर पुणताम्बेकर, उपेन्द्र प्रसाद राय, श्याम सुन्दर अग्रवाल, श्याम सुन्दर दीप्ति, सुभाष नीरव, कमल चोपड़ा, जगरूप सिंह दातेवास, संतोष दीक्षित, विक्रम सोनी, माधव नामदा आदि प्रमुख हैं।

लघुकथाओं में नारी के विविध रूपों का चित्रण किया गया है। माँ, बहिन, प्रेमिका, मित्र, पतिता, शोषिता, बेटी, परिवार के लिए रोटी का जुगाड़ करती संघर्षरता, सन्तान-पति-प्रेमी द्वारा उपेक्षिता एवं वंचिता आदि विभिन्न रूप लघुकथा के वामनरूप में अभिव्यक्त हुए हैं। रिश्तों के दायरे को नकारती गुण-दोष की प्रतिमा; किन्तु सहजता का जीवन जीने वाली, समाज के उपालम्भ सहकर भी अपना रास्ता ख़ुद बनाने वाली नारी अपने ढंग से जीने का प्रयास कर रही है।

प्रेम करने वाली आनन्दी ( 'कायर' : कमलेश भारतीय) से राजीव लोकाचार में बहिन का रिश्ता जोड़ लेता है; लेकिन मन में आनन्दी को पली-रूप में पाने के लिए लालायित रहता है। इस प्रकार आनन्दी के सामने राजीव की यह भावना जैसे ही प्रकट होती है, वह उसकी कठोर भर्त्सना करती है। सुकेश साहनी की लघुकथा 'मृत्युबोध' में बूढ़ी सुमित्रा के साथ ठण्डी, पथराई पारिवारिक संवेदना केवल मृत्यु का इंतज़ार कर सकती है। दूसरी ओर 'गुठलियाँ' की बिट्टो और बूढ़ी माँ के लिए उपेक्षा को सींचने वाली भी नहीं है। 'हिस्से का दूध' (मधुदीप) की पत्नी तमाम अभावों के बीच पारिवारिक सम्बन्धों की उष्मा बनाए हुए है। 'जगमगाहट' (रूप देव गुण) की नौकरीपेशा 'गुनती' हर समय अपना अस्तित्व खतरे में घिरा पाती है। उसके पूर्व अनुभव उसके मन में शंका पैदा करते हैं। यद्यपि वर्तमान दफ़्तर में उसकी आशंका निर्मूल सिद्ध होती है। फिर भी दफ़्तरों में होने वाले यौन-शोषण को नकारा नहीं जा सकता। 'विश्वास' (पुष्करणा) की पत्नी को अपने पति की लम्पटपन का पता नहीं। वह उस पर इतना विश्वास करती है कि उसके से दवाई पीने को भी तत्पर है, जबकि वह उसे दवाई न देकर, ज़हर देना चाह रहा है।

साठ वर्षीय मिस्टर खन्ना अपनी पत्नी को सुन्दर और जवान देखना चाहता है। इसके लिए वह प्लास्टिक सर्जरी करवाने के लिए तैयार है; परन्तु मिसेज खन्ना के घुटनों के दर्द, आँखों की कमजोरी की शिकायत पर ध्यान नहीं दे पाता। पुरुष की भोगवादी लिप्सा की श्याम सुन्दर अग्रवाल ने 'अपना-अपना दर्द' में सूक्ष्म अभिव्यक्ति की है। 'सीधी बात' (डॉ. कमल चोपड़ा) में लड़की की सामाजिक उपेक्षा को रेखांकित किया है, तो 'खेल' में देह-शोषण की त्रसद स्थिति चित्रित है। 'पाप और प्रायश्चित' (बलराम) में प्यार को मातृत्व को पाप मानने वाले धार्मिक विधि-निषेधों पर प्रहार किया है। 'लड़की' (डॉ. उपेन्द्र प्रसाद राय) में विभिन्न स्तरों पर शोषित लड़की की करुण कथा है। 'नारी' में नारी को रुग्ण संस्कारवश भोग्या मानने वाले वर्ग पर कटाक्ष किया गया है। डॉ. शकुन्तला किरण ने 'रूप रेखा' और 'मौखिक परीक्षा' में छात्रओं का शोषण करने वाले शिक्षकों को बेनव़क़ाब किया है। 'तार' में प्रेम की गहराई और रिश्तों के अपरिभाषित सूत्रें को व्यंजित किया है। सारे सिद्धान्त इसकी अनुगूँज के सामने मूक हो जाने के लिए बाध्य है।

धर्म का स्थान कट्टरता और उम्र साम्प्रदायिकता ने ले लिया है। गुमराह राजनेता इन दोनों में फ़र्क नहीं करते; वरन् इनको स्वार्थपूर्ति का साधन बना लेते हैं। सीधे-साधे जनमानस को दूषित करने वाले लोग असहिष्णुता बढ़ाने के अवसर तलाशते रहते हैं। घोर साम्प्रदायिकता से उपजी विकृतियाँ नफ़रत की विषबेल के रूप में फैलने लगती है। हम अपने मन में पलने वाले नफ़रत के जानवर को न मारकर बेकसूर आदमी का खून करने के लिए उतावले हो उठते हैं। रमेश बतरा की लघुकथा 'सूअर' बड़ी सादगी से साम्प्रदायिक प्रश्नों का उत्तर देती है। 'मस्जिद में सूअर घुस आया' का निदान करवट लेकर फिर से सोता आदमी देता है–"यहाँ क्या कर रहे हो?-जाकर सूअर को मारो न!" कमल चोपड़ा की लघुकथा 'छोनू' का बच्चा साम्प्रदायिक घृणा का शिकार होने लगता है, तो भयाक्रांत हो कह उठता है–"मैं छिक्ख-छुक्ख नई ऊँ—मैं तो छोनू हूँ—।" साम्प्रदायिक विद्वेष के मूल में प्रायः भय और अफवाहें होती है। सुकेश साहनी ने 'आइसवर्ग' में भीड़ के मनोविज्ञान का विश्लेषण किया है तो 'सन्नाटा' में धार्मिक सद्भाव को रेखांकित किया है। 'उसकी शहादत' (जगदीश अरमानी) आदि लघुकथाओं ने मानवीय सरोकारों को महत्त्व दिया है।

धनी-निर्धन की खाई निरन्तर गहराती जा रही है। श्रम करने वाला पग-पग पर शोषण का शिकार होता है। दो जून भरपेट भोजन मिल जाए यह उसके लिए 'पहला आश्यर्च' (कमल चोपड़ा) जैसा ही है। 'आँधी' (चित्रेश) में गरीब बनाए रखने की तिकड़म का भद्दा प्रतिरोध उभरा है। 'मृगजल' (बलराम) में भविष्य के असंभावित सुख की कल्पना के सहारे वर्तमान में दुर्दशाग्रस्त जीवन जीने को बाध्य कृष्ण का परिवार है। 'प्रश्नहीन' (कमलेश भट्ट 'कमल' ) में बेरोजगारी की छटपटाहट, 'वैकुण्ठ लाभ' (कुमार नरेन्द्र) में दिहाड़ी की विवशता में घुटता सामाजिक दायित्व, 'पेट पर लात' (विक्रम सोनी) में मज़दूर की दयनीय दशा का चित्रण किया गया है।

हमारे समाज में ढेर सारी विद्रूपताएँ हैं। हम उन्हें सतही तौर पर देखकर हँस सकते हैं, परन्तु गहराई से सोचें तो छटपटाहट होती है। हमारे आसपास के बहुत सारे चेहरों, परिस्थितियों एवं खोखले सिद्धान्तों का मिथक टूटता नज़र आता है। शिक्षा जगत् को ही लें-अभिभावक की जल्दबाजी और अदूरदर्शिता बच्चे से उसका बचपन ही छीन ले रही हैं। 'सपना' (अशोक भाटिया) में इस अदूरदर्शिता पर करारी चोट की गई है। साहनी की 'बैल' में बाल मानसिकता को न समझ पाने की भूल है, तो 'ग्रहण' में परिवेशगत परिवर्तन के प्रति जिज्ञासा की घोर उपेक्षा मुखर हुई है। 'कितना बड़ा मूल्य' (डॉ. राय) में अनुशासन के ढोंग की ओट में नन्हे-मुन्नों की कुचली सहज भावनाओं की प्रतिध्वनि मन पर खरोंच छोड़ जाती है। 'बन्द आँखें' (रमेशा गौतम) में छात्रों को दुर्व्यसन की ओर धकेलने वाले शिक्षक अपनी गरिमा दाँव पर लाग चुके हैं, तो दूसरी ओर ऐसे शिक्षक भी हैं-जो चारों तरफ़ से बढ़ रहे दबाव में भी अपने वजूद के लिए संघर्ष करते-करते अकेले पड़ गए हैंः 'सही व्याकरण'-डॉ. राय।

आर्थिक और सांस्कृतिक दबाव के कारण मनुष्य का स्वार्थ प्रबल से प्रबलतर होता जा रहा है। यही कारण है कि रिश्तों की गर्माहट कम होने लगी है। कमल चोपड़ा ने 'जीने वाले' , 'पिता' और 'माँ पराई' लघुकथाओं में इस टूटन को उजागर किया है तो 'अंत तक' में उसी टूटन को जोड़ने का प्रयास किया है। सुकेश साहनी ने अर्थ लोलुपता के कारण दिन-रात आपाधापी में जुटे वर्ग की 'काला घोड़ा' में ख़बर ली है, तो 'अन्नदाता' में आर्थिक निर्भरता की दयनीयता को पर्त-दर-पर्त खोला है। 'बिरादरी' में अर्थ को वरीयता देने वाले मित्र को शर्मसार होते दिखाया है।

सामाजिक विद्रूपताओं पर कुछ लेखकों ने चुटीले व्यंग्य किए हैं। शंकर पुणताम्बेकर, डॉ. राय, बलराम, श्याम सुन्दर अग्रवाल आदि ने कहीं सीधे तौर पर कहीं अन्तर्धारा के रूप में व्यंग्य किया है। 'जानवर' , 'चिड़ियाघर' (श्याम सुन्दर अग्रवाल) 'दीमक' (सुकेश साहनी) , 'सिद्धि' (बलराम) , 'डाका' (कमल चोपड़ा) , 'फ़र्क' (विष्णु प्रभाकर) , 'संस्कृति-रक्षक' (डॉ. पुणताम्बेकर) , 'शोर' (शराफत अली खान) , 'रास्ते' (साबिर हुसैन) में क्रमशः व्यवस्था, शिक्षा-संस्थान, दफ़्तर, साहित्यकार, दहेज-प्रथा, मानव की मानव से बढ़ती दूरी, अपसंस्कृति, कर्मकाण्ड आदि पर करारा व्यंग्य किया है।

लघुकथा की बहुआयामी विषय-चयन की यात्रा में जीवन-जगत् का कोना-कोना देख-परख लिया है। 'लघुकथा ने गिने-चुने विषयों को ही छुआ है'-कुछ लोगों का यह कथन स्वतः निरस्त हो जाता है। अन्य विधाओं की तरह लघुकथा जन-जीवन से अंतरंगता स्थापित कर चुकी है और अपने सामाजिक उत्तरदायित्व को बखूबी निभा रही है।