लघुकथा के सामाजिक सरोकार-4 / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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साधारण और विशिष्ट व्यक्तित्व किसी विशेष परिवार में जन्म लेने से, किसी पद-प्रतिष्ठा के कारण नहीं बनते; बल्कि विशिष्ट व्यक्तित्व का मूल आधार है-संवेदना, एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति को समझना। सुकेश साहनी की लघुकथा 'मास्टर' से इसको भली-भाँति समझा जा सकता है। जूते के पंजे की सिलाई ऐन मौके पर खुलने से असहाय व्यक्ति ने मोची की तलाश में नज़र दौड़ाई, तो मोची दिखाई दे गया। मोची का हुलिया एक दबंग व्यक्ति का लग रहा था-'बड़ी-बड़ी मूँछों के सिरे किसी बर्छी की तरह नुकीले थे। कुल मिलाकर वह अपने हुलिए से दबंग किस्म का आदमी लग रहा था।'

उधड़े जूते पर निगाह डाली, तो उसने बेरुखी से बताया कि तीस रुपये लगेंगे! वह तनाव में आ गया; क्योंकि उसकी जेब में कुल साठ रुपये थे। मरम्मत के लिए वह दस रुपये से अधिक खर्च नहीं कर सकता था; क्योंकि रिश्तेदार को घर तक ले जाने के लिए पचास रुपये तो लगेंगे ही। वह दस रुपये से अधिक नहीं देना चाह्ता था और मोची तीस रुपये से कम पर राज़ी नहीं था। मोची उसे मजबूरी का फ़ायदा उठाने वाला गुण्डा! मवाली! ...ही लगा। आर्थिक विवशता के कारण वह दो बार सोल बदलवाकर किसी तरह आठ साल पहले खरीदे जूते चला चुका है। मन मारकर जूता सिलने के लिए दे दिया।

जूता थामते ही मोची चौंका। उस दबंग की सुरमा लगी आँखों में विचित्र भाव तैर गए। उसने जूता सिलकर पहले जैसा कर दिया था।

तीस रुपये उसकी ओर बढ़ा दिए; पर उसने दस रुपये रखकर बीस रुपये लौटा दिए-"बाबूजी!" अपनी पनीली आँखों से मेरी आँखों में झाँकते हुए उसने कहा, "चालीस साल हो गए यह काम करते हुए. जूते, चप्पल हाथ में आते ही हमसे बतियाने लगते हैं। सिलाई करते हुए आपके जूते से हमारी खूब बातें हुईं। हम बहुत कुछ जान गए हैं। विश्वास करें, हमने अपना पूरा मेहनताना आपसे ले लिया है।"

मोची का यह कथन ही वह संवेदना है, जो एक सामान्य जन को दूसरे से जोड़ती है। मोची केवल जूते की मरम्मत करने वाला मास्टर नहीं है, वह जूते को देखकर उसके पहनने वाले की स्थिति को भी पढ़ लेता है। यह अनुभूति कर्मक्षेत्र में निष्ठापूर्वक कार्य करने से ही उत्पन्न होती है।

ठीक इसके विपरीत सुकेश साहनी की 'दाहिना हाथ' है, जहाँ संवेदना और संवेदनशून्यता का अन्तर्द्वन्द्व है। यह मनोसामाजिक लघुकथा है। अभावग्रस्त समाज से आने वाला 15 वर्षीय काला-कलूटा मरगिल्ला-सा लड़का, जिसने एक लाठी के बल पर आदमखोर बाघ के ख़ूँखार पंजों से दो बच्चों की जान बचाई। अधिकारी सोच रहा था कि वह लड़का उसके पैर छुएगा और वे उसकी पीठ थपथपाकर शाबाशी देंगे; लेकिन वैसा नहीं हुआ। उसने आँखों में आँखें डालते हुए अपना दाहिना हाथ बढ़ा दिया। अधिकारी को उसका यह अन्दाज़ पसन्द नहीं आया। उसे फिर भी उससे हाथ मिलाना पड़ा था। हाथ मिलाते ही लड़के ने चौंककर विचित्र नजरों से अधिकारी की ओर देखा था। उसका सख्त, खुरदुरा हाथ बहुत गर्म था, जबकि अधिकारी का हाथ मुलायम और बर्फ की तरह ठंडा। उसने दाहिने हाथ से अपने बाएँ हाथ को छूकर देखा, वह दाहिने की तुलना में गर्म था। कुछ और लोगों से भी हाथ मिलाना पड़ा, पर किसी का हाथ उतना ठंडा नहीं था।

कार्यक्रम बाद अपने मित्र डॉक्टर पंकज के पास चला गया और उसको दाहिने हाथ के ठण्डेपन की बात की तो आग्रह करने पर उसने टेस्ट्स भी करवाए। सभी रिपोर्ट्स नार्मल थी, यानी अधिकारी बिल्कुल 'फिट' था।

चलते समय जब उसने डॉक्टर पंकज से हाथ मिलाया, तो वह बिल्कुल बेफिक्र हो गया; क्योंकि डॉक्टर का हाथ उसके हाथ से भी कहीं ज्यादा ठंडा था।

दाहिना हाथ हमारे कर्म का प्रतीक है। हमारी संस्कृति में सौ हाथों से धन अर्जित करने और हजार हाथों से दान करने का विधान है। अर्जन और दान, दोनों में दाहिने हाथ की प्रमुख भूमिका है। अथर्ववेद में कहा है-

शतहस्त समाहर सहस्रहस्त संकिर। (अथर्ववेद 3 / 24 / 5)

जिसने दाएँ हाथ से केवल लूटना ही सीखा है, उसके हाथ में सुकर्म की गरिमा और गरमाहट कहाँ से आएगी! सरकारी अधिकारी जनहित को वरीयता न देकर अपने अधिकार, अवैध कमाई और आधिपत्य के अहंकार में दबे रहेंगे, डॉक्टर पीड़ित जन से अनाप-शनाप कमाई करके अपनी मानवीय संवेदना खो देंगे, अनुभूति ठण्डी होकर पथरा जाएगी, तो सत्कर्म की उष्णता कहाँ से लाएँगे। अपने शुभ कर्म की शक्ति पर जीने वाला काला-कलूटा मरगिल्ला-सा स्वाभिमानी युवक भी उन पर भारी पड़ेगा। पद-प्रतिष्ठा, धन-वैभव सत्कर्म के सामने बौने पड़ जाएँगे।

इसी सत्कर्म को लेकर कोरोना-काल में लिखी स्वर्गीय मुरलीधर वैष्णव की एक लघुकथा है–'फिर कभी...'

इस कथा का डॉ. त्यागी डबल ड्यूटी करके अपनी जान की परवाह किए बिना करीब एक दर्जन मरीजों को रोग मुक्त करके रात में ग्यारह बजे घर पहुँचा ही था कि उसके मोबाइल की रिंगटोन बज उठी। उधर से मौत का कॉल था। कह रही थी-"ठीक बारह बजकर तेरह मिनट पर मैं तुझे लेने आ रही हूँ।" वह घड़ी में अलार्म भरकर सो गया।

मृत्यु के आ जाने पर उसने कहा-"मैं तैयार हूँ, लेकिन मेरी अंतिम इच्छा है कि मरने से पहले कुछ और मरीजों का इलाज कर उन्हें बचा सकूँ। आगे आपकी मर्जी।"-वह मौत से बोला।

मृत्यु कुछ सोचकर मुस्कराते हुए वह लौटने लगी। लौटते हुए उसने मुड़कर डॉ.त्यागी पर एक नजर और डाली। उसे उसी प्रसन्न मुद्रा में खड़ा देख इशारे से उसे कहा-"आज नहीं, फिर कभी।"

यहाँ वह डॉक्टर है, जिसके सिर पर मृत्यु आ खड़ी हुई है। उसे तब भी मरीज़ों के स्वास्थ्य की चिन्ता है, अपने जीवन की नहीं। मृत्यु भी हार मानकर कहती है-आज नहीं, फिर कभी। यही वह कर्म है, जिसे हमारा दायाँ हाथ सम्पन्न करता है। मन का यह सकारात्मक चिन्तन ही जीवन की ऊष्मा है। जब हमारे मन: सामाजिक ढाँचे में विकार आएगा, कथनी और करनी में अन्तर आएगा, सामाजिक सामंजस्य ध्वस्त हो जाएगा। कार्यालयों की लालफीताशाही और डॉक्टरों द्वारा की जा रही निर्लज्ज लूट इसका साक्षात् उदाहरण है। दाएँ हाथ का ठण्डापन करुणा के अभाव का प्रतीक है। साहनी जी ने इस बात को गहन प्रतीक के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। इसी तथ्य को मुरलीधर वैष्णव जी ने मानवीय ऊष्मा के आगे मृत्यु को लौटने पर बाध्य कर दिया है।

राजनीति का खेल संसार का सबसे क्रूर खेल है। इसमें जो प्रत्यक्ष प्रतीत होता है, वही सब कुछ नहीं होता, जो आवरण में छिपा होता है, वही प्रमुख होता है। भारतीय राजनीति पर दृष्टिपात करें, तो अयोग्य, विवेकहीन और तिकड़मी लोग सत्ता पर कब्जा करके बैठे हैं। आज़ादी के पहले से ही सत्ता पर कब्जा करने का घृणित खेल शुरू हो चुका था। सुभाष चन्द्र बोस इसका प्रथम शिकार हुए। आज़ाद हिन्द फ़ौज के 26 हजार शहीद सेनानी भुला दिए गए। आज़ादी मिलते ही सत्ता लोलुप राजनेता लोकतन्त्र के नाम पर सामान्य जन को दिग्भ्रमित करने में लगे थे। घृणित तिकड़मों से शिशु लोकतन्त्र को अजगरी कुण्डली में कठोरता से जकड़ लिया और आत्म प्रचार से दूर समर्पित राजनेताओं को हाशिए पर धकेलने का षड़यन्त्र शुरू हो गया था। लोक के लिए तन्त्र न होकर। 'तन्त्र' लोक की कमज़ोर पीठ पर सवार हो गया। अंगेज़ों की धूर्त्तता तथा समाज को विभाजित करने की प्रवृत्ति सत्ता में बने रहने का मूल मन्त्र हो गई। भोला-भाला जनमानस झूठे आश्वासनों और थोथे नारों का शिकार बन गया। जनहित की बातें भाषणों और नारों का भोज्य बन गईं। राष्ट्र और राष्ट्रहित भी पीछे छूट गया। लूट को लोकतान्त्रिक अधिकार मानने वालों ने अपने घर-परिवार को ही देश मान लिया। कराहते लोकतन्त्र की चिन्ता न करके, स्वयं को खुशहाल बनाने के लिए लूट को अपना मूल अधिकार मान लिया। इस सबका कारण है, प्रजानीति को तन्त्र की घुमावदार गलियों में छोड़कर धूर्त्त राजनेता घर-परिवार और अपनी सन्तति को स्थापित करने में जुट गए। चना-चबैना पर गुज़र करने वाले अरबों की सम्पत्ति के मालिक बन गए। इनके धन का स्रोत पूछा जाए, तो ये उसे लोकतन्त्र की हत्या का नाम देकर चिल्लाने लगे। 'लोकतन्त्र' का इनके लिए अर्थ है-हमें अपना घर भरने दो। हमसे यह न पूछो कि अकूत सम्पत्ति कहाँ से आई! जो इन लुटेरों और लोकतन्त्र के फ़र्जी नेताओं से सवाल करे, इन पर लगाम कसे, उसे लोकतन्त्र का हत्यारा कहकर ये जनता को गुमराह करते आए हैं।

जनबल, बाहुबल (जिसे पैसे से खरीदा जा सकता है) और धनबल से जन सामान्य और वञ्चित समाज को जन-कल्याण के मीठे सपनों में उलझाकर राजनेता अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं। जो प्रतिरोधी स्वर को हवा दे सकता है, उसे किसी निष्क्रिय और गरिमामय पद पर बैठा दिया जाता है, जिससे वह सक्रिय राजनीति से दूर हो जाए और कुछ समय में जनमानस से विलुप्त हो जाए। यानी उसे प्रतिमा बनाकर समाप्त कर दिया जाए। आज़ादी के बाद से लेकर अब तक इसके बहुत से उदाहरण हैं। न जाने कितने सुयोग्य और सक्षम नेताओं को प्रतिमा बनाकर उनको जनमानस से दूर कर दिया। प्रतिमाएँ (सुकेश साहनी) में जो युवक भीड़ का नेतृत्व करके, "मुख्यमंत्री...मुर्दाबाद" के नारे लगा रहा था, उसकी विशाल प्रतिमा चौराहे के बीचोंबीच लगा दी गई थी। प्रतिमा की आँखें बंद थीं, होंठ भिंचे हुए थे और कान असामान्य रूप से छोटे थे। अपनी मूर्ति के नीचे वह लगभग उसी मुद्रा में खड़ा हुआ था। नंग–धड़ंग लोगों की भीड़ उस प्रतिमा के पीछे एक कतार के रूप में इस तरह खड़ी हुई थी मानो अपनी बारी की प्रतीक्षा में हो। उनके रुग्ण चेहरों पर अभी भी असमंजस के भाव थे।

'प्रतिमा की आँखें बंद थीं, होंठ भिंचे हुए थे और कान असामान्य रूप से छोटे थे;' इस वाक्य में बन्द आँखें, भिंचे हुए होंठ और असामान्य रूप से छोटे कान का गहन प्रतीकों के रूप में प्रयोग किया गया है-बन्द आँखें दृष्टि-शून्यता, भिंचे हुए होंठ अभिव्यक्ति के स्थान पर मौन तथा छोटे कान जन सामान्य की पीड़ा को अनसुनी कर देने या कम सुनने के रूप में प्रयोग किया गया है।

प्रधानमंत्री भी जगह–जगह स्थानीय नेताओं की आदमकद प्रतिमाएँ देखकर हैरान थे। सभी प्रतिमाओं की स्थापना एवं अनावरण मुख्यमंत्री के कर कमलों से किए जाने की बात मोटे–मोटे अक्षरों में शिलालेखों पर खुदी हुई थी। दो घंटे बाद ही मुख्यमंत्री को देश की राजधानी से सूचित किया गया–

"आपको जानकर हर्ष होगा कि पार्टी ने देश के सबसे महत्त्वपूर्ण एवं विशाल प्रदेश की राजधानी में आपकी भव्य, विशालकाय प्रतिमा स्थापित करने का निर्णय लिया है। प्रतिमा का अनावरण पार्टी–अध्यक्ष एवं देश के प्रधानमंत्री के कर–कमलों से किया जाएगा। बधाई!" अर्थात् एक सक्रिय मुख्यमन्त्री की सक्रिय राजनीति से सदा के लिए बिदाई!

सत्ता पर काबिज होने पर त्याग करने वालों को किनारे कर दिया जाता है। इसे विजय–जुलूस (रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' ) में देखा जा सकता है। संघर्षचेता जोद्धा की दुर्गति बहुत से आज़ादी के सिपाहियों को झेलनी पड़ी-

"आज़ादी की लड़ाई में गोलियाँ खाई थीं इसने साहब। हाथ–पैर छलनी हो गए थे। न किसी ने रोटी दी, न काम दिया। भीख माँगकर पेट भरता था..." भिखारी बोला।

राजनेताओं के लिए जनता एक खिलौने की तरह है। जो सब कुछ त्यागकर असहाय और वंचित हो गया है, उसी पर चोट करती मरुस्थल के वासी (श्याम सुन्दर अग्रवाल) लघुकथा बहुत कुछ कह जाती है। नेताजी के आह्वान पर निरीह ग्रामवासी एक दिन क्या, दो दिन का भी उपवास करने को तैयार हो जाते हैं। चलते समय मन्त्री जी के पूछने पर कि अगर आपको कोई शंका हो तो दूर कर लो।

थोड़ी झिझक के साथ एक बुजुर्ग बोला, "साब! हमें बाकी पाँच दिन का राशन कहाँ से मिलेगा?" इस लघुकथा में बुजुर्ग द्वारा किया गया यह प्रश्न लोकतन्त्र और जनहित की स्थिति का डरावना चित्र उपस्थित करता है।

जब त्याग करने की बात आती है, उसी समय सामान्य जन की खोज होती है। उसे गौरव और गरिमा के जीवन-मूल्यों का पाठ पढ़ाया जाता है। आम आदमी (शंकर पुणतांबेकर) लघुकथा इसका जीता जागता उदाहरण है।

मझधार में नाविक ने कहा, "नाव में बोझ ज्यादा है, कोई एक आदमी कम हो जाए तो अच्छा, नहीं तो नाव डूब जाएगी।"

डॉक्टर, अफसर, वकील, व्यापारी, उद्योगपति, पुजारी, नेता के अलावा आम आदमी भी नाव में सवार था। सब चाहते थे कि आम आदमी पानी में कूद जाए। आम आदमी तैयार नहीं हुआ, तो लोग उसको पानी में फेकने को उद्यत थे। नेता ने लोगों को ऐसा करने से मना किया। नेता ने जोशीला भाषण आरम्भ किया, सुनकर आम आदमी इतना जोश में आया कि वह नदी में कूद पड़ा। आज भी यही हो रहा है। सीमा पर किसी पूँजीपति या नेता का पुत्र शहीद नहीं होता। विपरीत परिस्थियों में सियाचिन से लेकर गोली और गोलियों की बौछार में अडिग खड़े रहने की हिम्मत आम आदमी ही जुटा सकता है। तथा कथित भ्रष्ट नेता तो आम जन की सारी सुविधाओं को चरने के द्वार खोजने और उनमें घुसकर संसाधनों की हल्ला बोल लूट की दौड़ में सम्मिलित होने में ही सारी ताकत झोंक देते हैं।

सरकारी घोषणाएँ और योजनाएँ कैसे फ़ाइलों में दम तोड़ देती हैं, खेती (हरिशंकर परसाई) लघुकथा इसका सटीक उदाहरण है। 'सरकार ने घोषणा की कि हम अधिक अन्न पैदा करेंगे और एक साल में खाद्य में आत्मनिर्भर हो जाएँगे।' इसे क्रियान्वित करने के लिए-दूसरे दिन कागज के कारखानों को दस लाख एकड़ कागज का ऑर्डर दे दिया गया। जब कागज आ गया, तो उसकी फाइलें बना दी गईं। प्रधानमंत्री के सचिवालय से फाइल खाद्य विभाग को भेजी गई। खाद्य विभाग ने अर्थ विभाग को,

अर्थ विभाग कृषि विभाग भेज दिया। कृषि विभाग से बिजली विभाग को, फिर सिंचाई विभाग को, वहाँ से गृह विभाग को गृह विभाग ने उसे एक सिपाही को सौंपा और पुलिस की निगरानी में वह फाइल राजधानी से लेकर तहसील तक के दफ्तरों में ले जाई गई। हर दफ्तर में फाइल की आरती करके उसे दूसरे दफ्तर में भेज दिया जाता।

एक दिन एक किसान सरकार से मिला और उसने कहा-"हुजूर हम किसानों को आप जमीन, पानी और बीज दिला दीजिए और अपने अफसरों से हमारी रक्षा कीजिए, तो हम देश के लिए पूरा अनाज पैदा कर देंगे।"

सरकारी प्रवक्ता ने जवाब दिया-"अन्न की पैदावार के लिए किसान की अब जरूरत नहीं है। हम दस लाख एकड़ कागज पर अन्न पैदा कर रहे हैं।"

सारी योजना को सरकारी कागज़ निगल गए। यह इस लघुकथा का अभिप्रेत है।

इसी तरह की अशोक भाटिया की लघुकथा है-लोक और तन्‍त्र। ये संवाद देखिए-

सोया हुआ तंत्र जाग उठा। लोक के पास आकर पूछा-"क्या चाहिए?"

लोक बोला-"रोज़गार, नौकरी।"

दरअसल गाँवों में चुनाव थे। तन्त्र गाँव-गाँव गया। इस गाँव भी आया। गणित का मन्त्र लगाया। गाँव में दलित ज्यादा थे। तन्त्र मुस्कराया। गाँव के मुखिया को जीत का मन्त्र बताया। पिछड़े वर्ग के मुखिया ने यन्त्र की तरह घोषणा की। दलित बारूराम की बीवी को स्कूल में लगाएँगे। मुखिया की सरपंची पक्की।

हित की सारी योजना चुनावी तन्त्र के पाश में इस तरह जकड़ गई कि वह सामाजिक सौहार्द के स्थान पर गाँव में वैमनस्य का कारण बन गई। जाति-पाँति, ऊँच-नीच के कुत्सित विचार तन्त्र की तिकड़म से जनहित की कमज़ोर गर्दन पर सवार हो गए। गाँव में बवाल के साथ ही लोगों का जीना मुहाल हुआ। जेबें गर्म हुईं, तो जो पास में था, वह भी गँवाना पड़ा। तन्त्र जब संवेदना शून्य हो जाता है, तब लोक को रोना ही पड़ता है। तन्त्र लोक के लिए था; लेकिन विपरीत हो गया। तन्त्र की जटिलता लोक की गर्दन के लिए पाश बन गई।

तन्त्र हँस रहा है। लोक रो रहा है।

इसी परिप्रेक्ष्य में दूसरा सरोवर (रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' ) भी देखी जा सकती है। डॉ. शिवजी श्रीवास्तव के अनुसार-

'किसी भी रचना का अभिप्रेत सदा वही नहीं होता, जो लेखक अभिव्यक्त करना चाहता है, रचना के कुछ अर्थ समीक्षक या पाठक अपने अनुभव संसार से भी ग्रहण करते हैं; जो लेखक के सत्य से भिन्न भी हो सकते हैं। इस कथा का यही वैशिष्ट्य है कि इसके प्रतीकों से कई अर्थ निकलने लगते हैं। कथा में व्यक्त गाँव आज के गाँवों की तरह राजनीतिक प्रपंचों का गाँव नहीं है, ये उस दौर का गाँव है जब सरकारी पैसों का प्रवेश गाँवों में नहीं हुआ था। अब प्रधानों के चुनाव में लोकतंत्र के सारे दुर्गुण प्रवेश कर चुके हैं इस दृष्टि से अर्थ निकालने पर मगरमच्छ निर्लज्ज पूँजी के अर्थ में सामने आता है। राजनीतिज्ञ ग्राम विकास के नाम पर तमाम पूँजी गाँवों में ले आए, पर इसने गाँव की सहृदयता और शान्ति को उनसे दूर कर दिया। इतिहास के विकास-क्रम में कमोबेश यही कार्य बाजारवाद के विस्तार के साथ भी हो रहा है। बाज़ार मोहक और प्रवंचक रूप धारण करके हमारे मध्य आया और उसने निर्लज्ज होकर अपसंस्कृति का विस्तार किया तथा हमारी आत्मिक शांति को हमसे दूर कर दिया। कथा के प्रतीकों को हम बाज़ारवाद की इस विकृति पर भी घटित कर सकते है।' (मेरी पसन्द का अंश)

धर्म, पंथ और सम्प्रदाय से अलग है। धर्म में जीवन के सार्वकालिक और सर्वग्राह्य आचरण का समावेश होता है। कोई भी व्यक्ति तभी धार्मिक हो सकता है, जब वह मानव मात्र के लिए अनिवार्य लक्षणों से युक्त हो। 'धर्म निरपेक्ष' अपने आप में विवादास्पद शब्द है। इसे समझने के लिए मनुस्मृति में वर्णित धर्म के इन दस लक्षण को समझना होगा-

धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।

धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌॥ (मनुस्‍मृति 6.92)

अर्थात् धृति (धैर्य) , क्षमा (अपना अपकार करने वाले का भी उपकार करना) , दम (हमेशा संयम से धर्म में लगे रहना) , अस्तेय (चोरी न करना) , शौच (भीतर और बाहर की पवित्रता) , इन्द्रिय-निग्रह (इन्द्रियों को हमेशा धर्माचरण में लगाना) , धी (सत्कर्मों से बुद्धि को बढ़ाना) , विद्या (यथार्थ ज्ञान लेना) । सत्यम् (हमेशा सत्य का आचरण करना) और अक्रोध (क्रोध को छोड़कर हमेशा शांत रहना) । यही धर्म के दस लक्षण है।

छल-प्रपंच करके किसी को आहत करना, प्रेम न करके असत्य आचरण करना, क्रुद्ध होकर किसी के टुकड़े-टुकड़े करना क्या प्रेम है? महिलाओं के साथ दुराचार करना क्या धर्म का अनुसरण है? कदापि नहीं। ऊपर बताए गए लक्षण विश्व भर के लिए हैं। बाहरी वेशभूषा या कोई चिह्न धारण करना किसी वर्ग विशेष की पहचान हो सकती। यह पहचान शुद्ध आचरण के बिना धर्म नहीं कही जा सकती। अज्ञानता के कारण व्यक्ति धार्मिक न होकर धर्मान्ध बनता जा रहा है। इसी से उपजी धर्मान्धता हमारे समाज का बहुत बड़ा नासूर है। जो सचमुच मानव मूल्यों का सम्मान करते हैं, वे ही धार्मिक हैं।

मानव मूल्यों से इतर जो विवेकशून्य और कालातीत, अवैज्ञानिक सोच पर चिपके हुए हैं, उन्हें धार्मिक कहना हास्यास्प्पद है। साम्प्रदायिक और संकीर्ण सोच ही विभाजन और घृणा को जन्म देती है। भारत का बँटवारा उसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम है। आज यह संकीर्णता असहिष्णुता की सीमा तक बढ़ गई है, जिसके कारण किसी की गर्दन काट लेना, प्रेम का झाँसा देकर टुकड़े-टुकड़े कर देना, राष्ट्र और न्याय प्रणाली को धता बता देना आम बात हो गई है। समाज के सौहार्द को नष्ट करना ही कुछ का पेशा बन गया है। देश को खण्डित करने के षड़यन्त्र रचना, किसी धर्म का हिस्सा नहीं हो सकता। एक सूअर के किसी पूजा स्थल में घुस जाने से ही दंगा हो जाता है, जिसमें निरीह लोग मारे जाते हैं। इसे भारत में हुए दंगों की रिपोर्ट में देखा जा सकता है। रमेश बतरा की लघुकथा 'सूअर' इस सोच पर करारा कटाक्ष है। दंगा करने वाले लोग अचानक एक साधारण से घर में घुसते हैं, जहाँ कमरे में एक ट्रांजिस्टर होले–होले बज रहा था और एक आदमी खाट पर सोया हुआ था। उसे उनमें से कोई नहीं जानता। कुछ अंश देखिए-

पहला ट्रांजिस्टर समेटता हुआ बोला, "टीप दो गला!"

"अबे, कहीं अपनी जाति का न हो?"

"पूछ लेते हैं इसी से।" कहते–कहते उसने उसे जगा दिया।

"कौन हो तुम?"

वह आँखें मलता नींद में ही बोला, "तुम कौन हो?"

"सवाल–जवाब मत करो। जल्दी बताओ, वरना मारे जाओगे।"

"क्यों मारा जाऊँगा?"

"शहर में दंगा हो गया है।"

"क्यों... कैसे?"

"मस्जिद में सूअर घुस आया।"

अन्तिम वाक्य में-"तो नींद क्यों खराब करते हो भाई! रात की पाली में कारखाने जाना है।" वह करवट लेकर फिर से सोता हुआ बोला, " यहाँ क्या कर रहे हो? ...जाकर सूअर को मारो।

सूअर मस्ज़िद में नहीं, बल्कि हमारे ज़ेहन में घुस गया है। एक पशु के आगे इंसान की जान दो कौड़ी की बनकर रह गई। यह सोच कभी धर्म नहीं हो सकती।

इसी सन्दर्भ में धर्म निरपेक्ष (रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' ) का अवलोकन किया जा सकता है। इस लघुकथा पर डॉ. कविता भट्ट के विचार देखे जा सकते हैं-

' यह लघुकथा कुतूहल एवं रोमांच से प्रारंभ होकर एक ज्वलंत एवं चिंतनीय समकालीन मुद्दे पर जाकर समाप्त होती है। मुद्दा ऐसा की जिस पर अनेकानेक ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं। यह लघुकथा मन और मष्तिष्क दोनों को छूने के साथ ही गहरे से पैठ भी बना गई। तटस्थ दृष्टिकोण अपनाते हुए; कथा की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम ही है।

प्राचीन समय से धर्म मानव समाज हेतु दिग्दर्शन का हेतु एवं जीवन पद्धति के रूप में प्रतिष्ठित था; आधुनिक युग में वही मानव समाज की सबसे बड़ी त्रासदी का हेतु बन गया है। भारतवर्ष की स्थिति इस पक्ष पर चिंताजनक इसलिए है; क्योंकि धर्म, जाति एवं संप्रदाय के नाम पर बनता हुआ यहाँ का समाज धर्मनिरपेक्षता की बात सिद्धांतत: मानते हुए भी व्यावहारिक धरातल पर अभी भी व्यर्थ के रक्तपात एवं राजनीतिक संघर्ष में ही उलझा हुआ है। इस कारण यहाँ का समाज वास्तविक उत्थान पर केन्द्रित नहीं हो पाता। इसी धार्मिक एवं सम्प्रदायगत रक्तपात को आधार बनाकर श्री काम्बोज की यह मार्मिक एवं सारगर्भित लघुकथा मानव समाज का धर्मान्धता वाला पक्ष प्रस्तुत करने के साथ ही अंतत: एक गहन शिक्षा भी प्रस्तुत करती है। कथाकार अपनी बात को कहने में पूर्ण से भी आगे निकल आए; क्योकि धर्म कौतूहल अंत में मानव के धार्मिक रक्तपात वाले कृत्य पर घृणा में परिवर्तित हो जाता है। जब धर्म के नाम पर लड़ते हुए दो आक्रामक व्यक्तियों के चाकू से हुए संघर्ष में दोनों सड़क पर लुढ़क जाते हैं तथा एक कुत्ता, जो हड्डी को चबा रहा है; हड्डी छोड़कर जब मांस की लालसा में उन व्यक्तियों को नोंचने के लिए आगे बढ़ता है; उन्हें गोश्त के रूप में नोंचने के स्थान पर वह कुत्ता उनके ऊपर मूत्र विसर्जन कर देता है। इस प्रकार लेखक बहुत कम शब्दों में बड़ी पटुता के साथ पाठक को यथोचित सन्देश देने में शत-प्रतिशत सफल रहे हैं। साथ ही निश्चित रूप से ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक मात्र सिद्धांत में ही नहीं, व्यवहार में भी मानवतावादी संवेदनशील हृदय रखते हैं; क्योंकि व्यक्ति साहित्यकार होने के साथ ही जब एक अच्छा दृष्टिकोण रखता हो और एक अच्छा व्यक्ति हो तभी वह ऐसी रचना को लिपिबद्ध कर सकता है अन्यथा नहीं।

धर्म में नाम पर लड़ने वाले लोग पशु से भी तुच्छ हैं; ऐसा सन्देश देने में लेखक पूर्णत: सफल रहे हैं। अंत में लेखक की इस कथा के सम्बन्ध में जो सन्देश प्रस्तुत होता है वह उपनिषद दर्शन के उस श्लोक से सम्बन्ध रखता है जिसमें कहा गया-

अयं निज: परोवेति गणना लघुचेतसाम्।

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥

अर्थात् ये तेरा है, ये मेरा है; ऐसी गणना संकुचित मानसिकता के लोग करते है; उदार चरित (आचरण) वाले लोग तो सम्पूर्ण विश्व को कुटुंब के समान समझते है। यद्यपि इस प्रकार के विचारों से प्राचीन भारतीय वांग्मय संपन्न है; तथापि वर्तमान परिस्थितियों में यह विचार थोड़ा कमजोर पड़ गया है। इस दृष्टि से 'धर्म निरपेक्ष' शीर्षक से यह लघुकथा अत्यंत प्रभावी एवं समकालीन परिदृश्य में प्रासंगिक भी है; क्योंकि धर्म के नाम पर होने वाले रक्तपात को जब तक नहीं रोका जाएगा; मानव समाज का वास्तविक उत्थान संभव नहीं है। ' (मेरी पसन्द का अंश)

कूप मण्डूकता, संकीर्णता और साम्प्रदायिकता की जननी है। सुकेश साहनी ने साम्प्रदायिकता पर कई लघुकथाएँ रची हैं। सपाटबयानी से दूर ये लघुकथाएँ गहन अनुभूति और व्यंजना पर आधृत हैं। इनमें से 'चादर' प्रतीक-विधान के माध्यम से पवित्र नगर, तमतमा हुए चेहरे, पताकाओं, जुलूस, पवित्र नगर के चक्कर काटना जैसे प्रयोगों से भीड़तन्त्र की मानसिकता का चित्र करती है। चादर वह ओढ़ी गई क्रूर विचार धारा है, जो जन सामान्य को विवेकहीन भीड़ का हिस्सा बनाती है। मुफ़्त में मिलने वाली चादर को कोई भी लेकर रख लेगा। जन सामान्य को नहीं पता कि वह कब गूँजते हुए नारों के नशे में डूब जाएगा। लेखक का यह कथन-'चलते हुए कई दिन बीत गए पर हम कहीं नहीं पहुँचे। दरअसल हम वहाँ स्थित पवित्र पर्वत के चक्कर ही काट रहे थे।' एक ही दायरे में घूमते रहना ही कूपमण्डूकता है। क्रूरता साम्प्रदायिकता का ईंधन है। 'देखने की बात ये थी कि जिसकी चादर जितनी ज्यादा खून से सनी हुई थी, वह इसके प्रति उतना ही बेपरवाह हो मूँछें ऐंठ रहा था।' खून सनी चादर को ओढ़कर पर भी मूँछों को ऐंठना अंहकार और क्रूरता का प्रतीक है। साम्प्रदायिक विद्वेष की यह चादर कब और किसको वैचारिक चप्पेट में लेकर विध्वंस का नरमेध रच देगी, नहीं कह सकते।

हम समाज को प्यार का सन्देश देते हैं। प्रेम दीवानी मीरा के गीत गाकर भावुक हो जाते हैं। राधा-कृष्ण के प्रेम में अभिभूत हो जाते हैं; लेकिन जब प्रेम करने का अवसर आता है, हम सिर्फ़ घृणा का ही व्यापार करते हैं। चिन्तन का यह दोगलापन अपराधी (रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' ) लघुकथा में व्यंजित होता है, जिसमें एक निर्मलमना व्यक्ति लोगों के दोगले व्यवहार का शिकार होता है। लोग उसे गर्हित व्यक्ति बताने में पीछे नहीं रहते। इस प्रतीकात्मक कथा पर कुछ लेखकों के विचार द्रष्टव्य हैं-

डॉ. कुँवर दिनेशसिंह-समाज के यथार्थ का प्रभावपूर्ण चित्र प्रस्तुत करती बहुत सुन्दर एवं मर्मस्पर्शी लघुकथा!

'डॉ.सुषमा गुप्ता-अतंस् को झकझोरती, बेहद मार्मिक लघुकथा

डॉ. सुरंगमा यादव-हृदयस्पर्शी लघुकथा, यह दुनिया सचमुच ऐसी ही है सदैव उँगली उठाने को तत्पर।

डॉ.शिवजी श्रीवास्तव-बहुत मार्मिक, प्र तीकात्मक लघुकथा। कोई भी समाज को संतुष्ट नहीं कर सकता। छिद्रान्वेषी लोग शुभ और पवित्र कार्यो पर सदा उंगलियाँ उठाते रहते हैं।

डॉ. जेन्नी शबनम-ओह! बहुत मार्मिक कथा। पर जीवन का सत्य यही है। कितना भी सही हो कोई, लोग हर बात में कुछ न कुछ ग़लत निकाल ही लेते हैं। समाज का सही चित्रण।

डॉ.कविता भट्ट: बहुत बढ़िया! समाज के यथार्थ का प्रभावपूर्ण चित्र प्रस्तुत करती बहुत सुन्दर एवं मर्मस्पर्शी लघुकथा!

अनिमा दास: वाह्ह! यही तो है समाज का वास्तविक रूप सदैव एक निष्ठावान व्यक्ति ऐसे ही अपराधी बन जाता है...

प्रियंका गुप्ता: सच है, ये दुनिया भले इंसान को चैन से जीने नहीं देती। मन भर आया इस हृदयस्पर्शी लघुकथा को पढ़ते हुए।

(सन्दर्भ: सहज साहित्य-अंक 1333)

साम्प्रदायिक दंगों और राजनेताओं पर विगत वर्षों में बहुत-सी लघुकथाएँ लिखी गई हैं। देखने में यह आया है कि अधिकतम में बयानबाजी और सपाटबयानी अधिक रही, शैल्पिक सौन्दर्य का भी अभाव रहा है, फिर भी लघुकथाकारों ने समाज की इस विकृति पर प्रहार किया है। इसे नकारा नहीं जा सकता।

सन्दर्भः

1-मास्टर, दाहिना हाथ , 'प्रतिमाएँ, चादर (सुकेश साहनी-गद्यकोश)

2-विजय–जुलूस, धर्म निरपेक्ष, अपराधी, दूसरा सरोवर (रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ -गद्यकोश)

3-फिर कभी-मुरलीधर वैष्णव (लघुकथा डॉट कॉम)

4-मरुस्थल के वासी (श्याम सुन्दर अग्रवाल- गद्यकोश)

5-आम आदमी (डॉ. शंकर पुणतांबेकर-गद्यकोश)

6-खेती (हरिशंकर परसाई-गद्यकोश)

7-लोक ओर तन्‍त्र (डॉ.अशोक भाटिया-गद्यकोश)

8-सूअर– (रमेश बतरा-लघुकथा डॉट कॉम)

9-डॉ. कविता भट्ट (मेरी पसन्द-का अंश)

10-डॉ .शिवजी श्रीवास्तव (मेरी पसन्द-का अंश)