लघुकथा के सामाजिक सरोकार / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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लघुकथा में लघुता उसका प्राणतत्त्व है; लेकिन लघुता का तात्पर्य किसी बात को सार रूप में प्रस्तुत करना नहीं। फुलचुही/ फुलसुँघी किसी बड़ी चिड़िया का मिनिएचर नहीं। वह अपने आप में पूर्ण है। यही तथ्य लघुकथा पर भी फलित होता है। दैनन्दिन की घटना, टी वी की बहस की बेसिर- पैर की अज्ञानता पर केन्द्रित, संकीर्णता से ग्रस्त हुआँ-हुआँ या समाचार की रिपोर्टिंग लघुकथा नहीं। जीवन के किसी महत्त्वपूर्ण बिन्दु पर केन्द्रित, संवेदना सिंचित गहन अनूभूत क्षण को जीवन्त और संघनित करती कथा- रचना ही लघुकथा है। इस छोटी रचना का सृजन, सरल कार्य नहीं है। यह एकाग्र मन से ही रची जा सकती है। साहित्य की हर सृजनशील विधा की तरह लघुकथा भी अपने अपने सामाजिक दायित्व से बँधी है। यह विधा किसी की पसन्द, नापसन्द या दया पर जीवित नहीं है। यह निरन्तर संघर्ष करके, अनेक उपेक्षाओं और अवरोधों को पार करके आगे बढ़ी है। यही कारण है कि इसने अपनी रचनाधर्मिता और व्यापक दृष्टिकोण के द्वारा ही अपना स्थान बनाया है। मेरा अपना मानना है कि रचना की जीवनी शक्ति और सौन्दर्य ही किसी विधा को स्थापित करते हैं। प्रत्येक विधा को यह शक्ति और स्वीकृति समाज से ही मिलती है।

अरस्तु का यह कहना था कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मनुष्य को समाज के प्यार और साथ की जरूरत है। समाज के साथ और प्यार दो कारक ऐसे हैं , जो उसकी मानसिक क्षुधा को शान्त करते हैं। शरीर के लिए भोजन और आवास भी ज़रूरी है। पारिवारिक सम्बन्धों का सही से निर्वाह हो, तो जीवन सहजता से बीत जाता है। माँ -बाप, सन्तान के लिए अपनी खुशियों को तिलांजलि दे देते हैं; लेकिन जब सन्तान पूर्णतया स्वावलम्बी हो जाती है, तब वही माता-पिता भार क्यों हो जाते हैं? इसके कारणों की पड़ताल ज़रूरी है।

प्यार और साथ मनुष्य को अधिक सामाजिक बनाते हैं। प्यार अपने आप में व्यापक शब्द है। सतही अर्थ पर प्यार क्या होता है, इसे रोज़मर्रा के किस्सों में सुना और जाना जा सकता है। आजकल की एक पूरी पीढ़ी बनावटी प्रेम यानी क्षणिक प्रेम को सर्वस्व मान बैठी है। सात्त्विक रूप से सोचें , तो प्रेम बहुत व्यापक है, प्रकृति में- नदी -झरनों और पर्वतों की गगनचुम्बी ऊँचाई हो, पशु-पक्षी हों या व्यक्ति का बाह्य और आन्तरिक वह सौन्दर्य हो, जो हमें बाँध लेता है। संसार में यदि प्रेम न हो, तो जीना दूभर हो जाए। जो उपलब्ध है , समीप है उससे प्यार हो , तो बड़ी बात है; लेकिन ऐसा होता नहीं। जो हमें मिल नहीं रहा, जिसका इस जन्म में मिलना भी मुश्किल है, हम उसी के लिए आतुर होते हैं। उसी अभाव को भाव मानकर पूरा जीवन बिता देते हैं। इसे वर्गों में बाँटना उचित नहीं, फिर भी अध्ययन की सुविधा के लिए इसके स्तर निर्धारित कर सकते हैं- गहन मानवीय अनुभूति से सिंचित उदात्त प्रेम, अहंकार-ग्रस्त प्रेम, दैहिक या विकृतिजन्य वासना।

सर्व प्रथम उदात्त प्रेम की बात करते हैं। इसके उदाहरण मिल जाएँगे, लेकिन बहुत कम। प्रेम पर लघुकथाएँ बहुत कम लिखी गई हैं। मानवीय अनुभूति और प्रेम की कथाओं में से मैं डॉ. सुषमा गुप्ता(अतीत में खोई हुई वर्तमान की चिट्ठियाँ, खूबसूरत ), रश्मि शर्मा( सम्मोहन) , श्याम सुन्दर अग्रवाल (गुलाब वाला कप ) और दीपाली ठाकुर (प्रेम ) की लघुकथाओं का सन्दर्भ देना चाहूँगा।

‘अतीत में खोई हुई वर्तमान की चिट्ठियाँ’ में चार वर्षीय लड़की और दो वर्षीय नन्हे बण्टी के बीच मासूम प्यार की भावात्मक कथा है। लड़की ने जो अक्षर सीखे थे वे लिखकर बन्टी के आँगन में फेंक दिया। चिट्ठी उड़कर शहतूत के पेड़ के नीचे जा गिरी थी। पके शहतूतों के बीच चिट्ठी पर लिखे अक्षर शहतूतों के रंग में घुल- मिल गए। वह बण्टी को सुनाए भी तो क्या! शब्द गुम हो चुके थे। इसके बाद दिल टूटने की यह उसकी ज़िंदगी की पहली घटना थी।’ इस लघुकथा की गहनता और मासूमियत भीतर तक द्रवित कर जाती है। डॉ. सुषमा गुप्ता की दूसरी लघुकथा है -‘खूबसूरत’। देर रात समन्दर के किनारे बैठा एक प्रेमी जोड़ा। सारी दुनिया से बेखबर, कुछ भी करने को स्वतन्त्र, लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि लेखिका ने कथ्य को इस प्रकार सँजोया है कि प्रेम की खुशबू चारों तरफ़ बिखरी हुई महसूस होती है-

‘उसके स्लीपर और मेरे सैंडल साथ रखे थे, रेत पर कुछ इस तरह कि लहर बार-बार आती और उन्हें चूमकर वापस चली जाती।’ स्लीपर और सैंडल का साथ रखे होना, लहर का बार-बार आकर उनको चूम जाना जैसे कि इस व्याज से स्लीपर और सैंडल एक दूसरे को चूम रहे हों। इतना ही नहीं वे लहरें-‘यही खेल, लहर कभी-कभी हमारी देह के साथ भी करती थी’। बिना एक दूसरे की देह को स्पर्श किए लहरों के माध्यम से स्पर्श करना,अद्वितीय सात्त्विक प्रयोग। सुषमा गुप्ता की अन्तर्दृष्टि और अतल स्पर्शी भावमुद्रा रसोद्रेक से सहृदय पाठक को सह-अनुभूति तक की यात्रा करा देती है। एक और संवाद देखिए-

उसकी बात के जवाब में मैंने कहा, “चाँद नजर आ रहा है?”

वह मेरी तरफ देखकर मुस्कुरा दिया।

युवक का उसकी तरफ़ देखकर मुस्कुराने का तात्पर्य है कि वह चाँद तो तुम ही हो, केवल तुम।

युवती का टूटी सीप उठाकर उस पर फेंकते हुए कहना-“इतना फिल्मी होने की ज़रूरत नहीं है। मुझे नहीं, आसमान में देखो।”

यह प्रेम के गहन भावबोध की लघुकथा है। पहली लघुकथा से और आगे की ओर बढ़ती हुई। ‘मेरे साथ चलोगी?” कहने पर लड़की का हँसते हुए कहना-“डूब मरने के अलावा मेरे पास और भी बेहतर बिगाड़ हैं ज़िंदगी के।” उसके साथ चलने का सीधा -सा आशय ध्वनित होता है-पूरी तरह ड़ूब जाना। अपना अस्तित्व विलीन कर देना। विलीनता से बचने के कारण –‘पूरे चाँदनी -भरे वातावरण में घुँघरू की तरह हँसी खनकती रही।’ हँसी की यह खनक कितनी निष्कलुष है !!

रश्मि शर्मा ने लघुकथाएँ न के बराबर लिखी हैं। कविता, कहानी और यात्रा-संस्मरण के क्षेत्र में आपका बहुत नाम है। इनकी लघुकथा ‘सम्मोहन’ अलग टोन की लघुकथा है। आलीशान महल की छत के कँगूरे पर ओट लेकर बैठा प्रेमी युगल। उदास लड़की की मन:स्थिति के साथ कथा आगे बढ़ती है। लड़की के कहने पर अन्दर घूमने के लिए चुपचाप चल पड़ते हैं, थक भी जते हैं। सबसे ऊपरी मंजिल की सीढ़ियों पर लड़की ने अजीब से भाव से लड़के को देखना इंगित करता है कि उसे कुछ चाहिए; मगर क्या, वह शायद लड़की को भी नहीं पता। क्या है यह अजीब-सा भाव! या जीवन का अभाव , जो भाव-सम्पृक्त होकर दिख रहा है! लड़की के कानों के पास आकर ‘आई लव यू… आई लव यू… कहकर लड़के के लगातार फुसफुसाने से लगा जैसे शब्‍दों में आत्‍मा उतार दी हो। शब्‍द लड़की के कान से उतरकर उसके जिस्म में फैलने लगे।

अव्यक्त और अनिश्चितता का कोहरा छँट गया। लड़की का यह कथन ध्यान देने योग्य है- ‘तुम जब यूँ बोलते हो, तो मैं ध्‍यान में चली जाती हूँ। तन से लेकर आत्मा का हर बंद खुलता है। मुझे लगता है मैं मरती रहूँ और तुम इस तरह कान में आकर फुसफुसाओगे, तो यमराज के पाश खोलकर मैं वापस आ जाऊँगी।’ —–।

अब दोनों हँस रहे थे। नीले आसमान तले, प्रेम में सम्मोहन होता है। पहली दोनों कथाओं में भी यही सम्मोहन है, लेकिन प्रकारान्तर से। इनमें से किसी भी प्रेम-कथा में आधुनिक क्षरित होते हुए समाज की प्रणय-लीला दृष्टिगत नहीं होती। इस तरह के कथ्य को सँभालने और सँवारने में कृत्रिमता आ जाए , तो सब कुछ धड़ाम से गिर जाएगा। भाव में निर्बन्धता होते हुए भी लवलीनता है; लेकिन उच्छृंखलता का लव लेश भी नहीं है।

इसी तरह के सम्मोहन से आप्लावित है श्याम सुन्दर अग्रवाल की लघुकथा –‘गुलाब वाला कप’। बुजुर्ग हीरा लाल का पत्नी के प्रति गहन प्रेम का सूत्र जुड़ा है इस विशेष कप से। ये छह कप शादी की पच्चीसवीं वर्षगाँठ पर मित्र ने दिए था और कहा था-गुलाबी कपों में चाय पीने से प्यार गहरा होता है। तब से वे उन्हीं गुलाबी कपों में ही चाय पीते आ रहे थे। दो कप बेटे की शादी में तथा दो बेटी की शादी में टूट गए। दो ही बचे। पत्नी के साथ छोड़ जाने से पहले एक कप और टूट गया, शेष एक ही बचा। कई बार दोनों इसी कप में बारी-बारी से घूँट भरकर चाय पीते थे। पत्नी नहीं रही। हीरा लाल उस कप को बहुत सहेजकर रखता। अन्तत: एक दिन बेटे ने वह कप भी फेंक दिया। इस प्रकरण ने हीरालाल को बहुत आहत किया। कप का प्रसंग जितना साधारण लगता है , उतना है नहीं। कप भले ही महत्त्वपूर्ण न हो , उस कप के साथ जुड़ी अनुभूति की सघनता प्रेम को उच्चतम सोपान पर स्थापित करती है। यद्यपि यह उन्मुक्त प्रेम न होकर दाम्पत्य जीवन से जुड़ा प्रेम है।

दीपाली ठाकुर की लघुकथा ‘प्रेम’ में माँ -बेटी के संवाद (“मॉम , क्या आपको किसी से प्यार हुआ था ?” ) से लघुकथा आगे बढ़ती है। माँ ने हाँ में सिर हिलाया , तो बेटी अपूर्वा उछल पड़ी। वह था कौन-क्लास मेट ?

पड़ोसी ? सीनियर ? दोनों में से किसी ने भी किसीसे कुछ नही कहा । प्रपोज नहीं किया। माँ का यह कथन प्यार को और अधिक ऊँचाई प्रदान करता है-” प्यार में कोई जलन नहीं होती ,और न कोई शर्त, दूसरा हमें चाहे ही, यह भी नहीं।”

बेटी के कथन का समर्थन करते हुए माँ ने कहा-“प्यार तो अनकंडीशनल ही होता है” इसी लघुकथा में यह भाव अनुस्यूत है कि जिससे प्रेम किया जाए, वह परिणीता बन जाए, ज़रूरी नहीं। “मैं उनसे प्यार करती थी, करती हूँ और करती रहूँगी।”-माँ का यह कथन प्रेम को सांसारिक सम्बन्धों से परे, कहीं ऊपर प्रतिष्ठित करता है। जब प्यार किसी निश्श्चित सम्बन्ध में बँधता है, तो सीमाओं में घिरने के कारण वह अपनी सहजता खो देता है, ऊष्मा खो देता है, प्रेम के प्रकृत रूप से बाहर हो जाता है। दीपाली ठाकुर की लघुकथा में नारी केवल नारी ही नहीं, बल्कि किसी की पत्नी भी है, अठारह वर्षीया युवती की माँ भी है।

कहीं प्रेम केवल मन बहलाव है, रोज अलग-अलग खिलौने से खेलने की तरह,किसी मनोरंजन की तरह। अशोक भाटिया ने इस अस्थिर मन: स्थिति के प्यार को ‘सच्चा प्यार’ लघुकथा में अभिव्यक्त किया है। दोस्त कभी संगीता से तो कभी गीता से प्यार होने की बात कहता है। कुछ समय बीता था कि वह किसी तीसरी लड़की के साथ नज़र आया। दोस्तों ने समझाया, ‘‘यार, ऐसे मत बदलो। तुम किसी से सच्चा प्यार करो और उसे आखिर तक निभाओ।’’

वह तपाक से बोला, ‘‘सच्चा प्यार! वो भी एक लड़की से चल रहा है।’’

प्यार कोई वस्त्र नहीं , जिसको बदलने की कवायद की जाए। लेखक मनचलों के इस तरह के व्यवहार को प्रकारान्तर से खारिज कर देता है।

वास्तव में यह सच्चा प्रेम आखिर है क्या? क्या इसका आधार केवल यौवन और सौन्दर्य का आकर्षण है? क्या यह आत्मा के जुड़ाव की अनुभूति है, जो किसी उम्र की सीमा के दायरे में नहीं आती? इसका उत्तर अन्तरा करवड़े की लघुकथा (प्रेम) देती है, जिसमें पूरे प्रेमशास्त्र को परिभाषित किया गया है। वेलेण्टाइन डे पर प्रेमी देव की प्रतीक्षा करती मोनिका है, तो दूसरी ओर पकी उम्र की माँजी भी हैं । दो गुटों में झगड़ा होने के कारण आतंक का माहौल है। माँजी ने उसे देखते ही हठात्‌ कहा- “इतनी गड़बड़ में क्यों रात गए घर से निकली हो बेटी?” मोनिका ने उपेक्षापूर्ण दृष्टि से उन्हें देखा। उसे लगा कि इन माँजी को वह क्या समझाए कि आज प्रेम दिवस है। देव पुलिस के प्रतिरोध का प्रतिकार न करके उसकी पुकार सुने बिना लौट जाता है। मोनिका उस अफ़रा-तफ़री से नहीं निकल पाती। ठीक उसी समय घबराए हुए लगभग सत्तर साल के बुजुर्ग¸ काफी ऊँची रेलिंग को बड़ी मुश्किल से पार करते हुए माँजी तक पहुँचे। माँजी ने मोनिका को भी अपने साथ ले लिया और बाहर जाकर उसके भाई को सौंप दिया। एक दूसरे की चिन्ता करना, समय पर साथ देना ही प्रेम है। प्रेम में उम्र का कोई बन्धन न होकर केवल भाव और समर्पण का अटूट सूत्र होता है।

प्रेम गली अति साँकरी, जा में दो न समाय-कबीर ने कहा था। अहंकार और प्रेम दोनों एक साथ नहीं चल सकते। निर्देश निधि की ‘केवल मैं’ इसका प्रभावशाली उदाहरण है। शान बघारना प्रेम में बाधक बन जाता है। लड़के के अहंकार के कारण प्रेमी युगल दाम्पत्य सूत्र में न बँध सका। कॉलेज के शताब्दी वर्ष पर सभी पुराने छात्र-छात्राओं को बुलाया गया था वह तो आई ही थी, वह भी विदेश से आया था। बरसों बाद दोनों मिले। वह आज भी अपने पुरुष होने के कारण विशिष्टता के अहंकार से मुक्त नहीं हो सका। लड़की मान-सम्मान के क्षेत्र में उससे कहीं आगे बढ़ चुकी है। फिर भी व स्वयं को ही ऊपर रखता है। इस वाक्य में उसका अहंकार उसे और और भी छोटा सिद्ध कर देता है-मैं आश्वस्त हुआ कि मैंने किसी साधारण लड़की से प्रेम नहीं किया था…। प्रेम के मार्ग में मानसिक संकीर्णता का कोई काम नहीं है।

दाम्पत्य प्रेम में अहंकार सबसे बड़ी बाधा है। खण्डित प्रेम की परिणति प्राय: अलगाव में होती है। चन्द्रशेखर दुबे की लघुकथा-टुकड़े-टुकड़े इसका ज्वलन्त उदाहरण है। कोई स्वीकार करे या न करे, अवचेतन में प्रेम का स्पन्दन बना रहता है। अलगाव के बाद भी अतीत में किए गए प्रेम के मधुर क्षण विलीन नहीं हो जाते। इस लघुकथा में दर्शाया गया है कि सम्बन्ध-विच्छेद हो जाने पर पति ने अपनी भूतपूर्व पत्नी की स्मृति से जुड़ी कोई भी वस्तु घर में नहीं रहने दी। यहाँ तक कि जिन चित्रों में पत्नी थी, उनके भी टुकड़े-टुकड़े कर दिए। फिर भी सारी स्मृतियाँ या उनसे रहा जुड़ाव पूर्णतया विलीन नहीं होता। चोटी में गूँथा जाने वाला पत्नी का चुटीला पलंग के गद्दों को झटकने पर फर्श पर गिरा। उसने चिमटे से पकड़कर उसे घर से बाहर फेंक दिया। गली के कुत्ते उसे खींच-खींचकर टुकड़े-टुकड़े करने लगे। पति इस दुर्गति को नहीं देख पाए। वे कुत्तों को दुत्कार कर उनके मुँह में से उस चुटीले के टुकड़े छीनने लगे।

स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के बीच जहाँ प्रेम या अनुराग एक प्रकाश है या संजीवनी है, वहीं जब यह जुड़ाव दैहिक आकर्षण को ही सब कुछ मान लेता है , तो केवल शरीर तक सीमित रहकर एक विकृति बन जाता है। तितली पंखुड़ी पर बैठे और एक खरोंच तक न आए, यह प्रेम है। पंखुड़ी को नोचकर टुकड़े-टुकड़े कर दिया जाएँ, तो वह हिंसा या वासना ही है, जिसकी चीखें सामूहिक बलात्कार, प्रेमिका के टुकड़े-टुकड़े कर देने वाले पाशविक कर्म के समाचारों में आए दिन प्रकाशन में आ रहे हैं। हमारी बदलती जीवन -दृष्टि, कलुषित रुग्ण चिन्तन, हिंसा की प्रवृत्ति, धर्मान्धता और छल की क्रूरता इसके जनक हैं। घर-परिवार , पड़ोस और निकटतम रिश्तेदारों के द्वारा ऐसे अँधेरे निर्मित किए जाते रहे हैं, जिनमें विश्वासघात के कारण बहुत -सी पँखुड़ियाँ विदीर्ण कर दी जाती हैं। वासना का अन्धापन विश्वास के सारे द्वारों को तोड़ देता है। दीपाली ठाकुर की लघुकथा ‘अँधेरा’ हमारे समाज के उन कलंकित पृष्ठों की ओर संकेत करती है, जिन्हें हम घर-परिवार की मर्यादा भंग होने के डर से छुपाने का प्रयास करते हैं। बयालीस वर्षीया संजना का नींद में ‘मम्मी, मम्मी’ पुकारना उसके अन्तर्मन में बैठे हुए डर को रेखांकित करता है , जो वह बरसों पहले आठ साल की अवस्था में भोग चुकी है। दूर के राजू चाचा अपने कुकर्म से जीवन भर के लिए एक डर संजना के शरीर में बो चुके थे। छवि निगम की ‘लिहाफ़’ और प्रियंका गुप्ता की प्रतीक के माध्यम से प्रस्तुत लघुकथा ‘भेड़िया’ परिवार के लोगों द्वारा किए गए देह- शोषण की विकृति को अनावृत्त करती हैं। लिहाफ़ की रीना शादी के दस साल बाद भी किसी ख्याली दुनिया में अक्सर गुम हो जाती है। “चाचाजी का फोन आया था…कुछ दिनों में यहाँ आने की बात कर रहे थे…” वह इसी से परेशान हो उठती है। अतीत में किया वह देह -शोषण उसको विचलित करता है। अपनी नौकरानी राधा को जब रीना लिहाफ़ देती है, तो एक कड़ी हिदायत भी देती है, जिसके पीछे उसका खुद का घायल अतीत व्याकुल कर देता है- “ले राधा,ले जा इसे। ये सिर्फ तेरी बिटिया के लिए है। हमेशा वह इसी में सोएगी और अकेले। और तुम जो दिन भर मुन्ना -मुन्ना करती रहती हो,ध्यान इसका भी रखा करो। ये कुछ न भी कह पाए, तो भी इसके इशारे समझो। और खबरदार!!जो इसे कभी किसी मामा,दादा चाचा के साथ।”

‘ईश्वर की माफी’ ( भारती कुमारी) में वह साठ वर्षीय काका है ,जो कैंसर के अंतिम चरण में पहुँच चुका है, जो कभी चाकलेट का लालच, कभी बदनामी का भय दिखाकर उस दस साल की मासूम के साथ मुँह काला करता रहा है। आज तीस साल की अवस्था में भी वह सहम उठती है। जब भी वह कमरे में अकेली होती है, तो अश्रु-प्रवाह के साथ उनके मरणासन्न काका के दोनों हाथ जुड़े होते हैं। इस तरह की कथाएँ बहुत से घरों में छुपी ही रह जाती हैं। इस दिशा में जाग्रत होने की ज़रूरत है। निकटतम रिश्तों के मुखौटे में छिपे ये भेड़िए न जाने कितनों के जीवन बरबाद करते हैं।

इस तरह के शोषण का विरोध ज़रूरी है। यह शोषण घर से लेकर उन कार्य-स्थलों तक फैला है, जहाँ भी महिलाएँ कार्यरत हैं। भारती कुमारी की लघुकथा –‘ द्वंद्व’ सामूहिक बलात्कार से पीड़ित उस महिला की घनीभूत पीड़ा को व्यक्त करती है, जिसके अपने बच्चे भी बड़े हो चुके हैं। छोटी -सी लघुकथा में अत्यन्त संयमित शब्दावली में भारती कुमारी ने जिस प्रकार एक-एक शब्द को आँख-कान और वाणी बना दिया, वह केवल लघुकथा में ही सम्भव है। कोई लेखक बड़ा -छोटा नहीं होता। रचना ही उसका स्थान निर्धारित करती है।

घर से ससुराल तक नारी की उपेक्षा अनेक प्रकार से सामने आती है। अगर वह बेटी है, तो घर में भी उपेक्षित हो सकती है। ससुराल में उसकी प्रताड़ना के विविध रूप हैं, जो सुकेश साहनी की ‘बेटी का खत’ की रजनी के माध्यम से सामने आती है। ससुराल वाले उसकी लिखी कोई चिट्ठी बिना पढ़े पोस्ट नहीं होने देते। वह अपनी प्रताड़ना को चिट्ठी में-राजू भइया की बहुत याद आती है के बहाने से व्यक्त करती है। ‘गोश्त की गन्ध’ पर शोषण के उसी भय की काली परछाई नज़र आती है , जिसके कारण सामर्थ्य से अधिक बढ़कर दामाद की खातिरदारी की जाती है। दामाद राकेश स्वयं को इस तरह का शोषक का पात्र नहीं बनना चाहता। इसीलिए वह कहता है-“मुझे दिल से अपना बेटा समझिए और अपना मांस परोसना बन्द कीजिए. जो खुद खाते हैं, वही खिलाइए. मैं खुशी-खुशी खा लूँगा।” गोश्त की गंध’ नारी जाति के शोषण की करुण कथा है। पूरे समाज का शिवि-तन दहेज की तराजू में चढ़ जाता है । फिर भी, दहेज के बाज के बराबर नहीं हो पाता । प्रतीक के माध्यम से साहनी ने कथा को तीक्ष्णता प्रदान की है। सकारात्मक अंत होने के पश्चात भी गोश्त का प्रतीक शोषण की दरिंदगी को गहराई से उभारता है। खेद की बात है कि 1989 के बरेली के सम्मेलन में पढ़ी गई यह लघुकथा उन लेखकों/ पाठकों को आज भी समझ में नहीं आती , जो भाषायी दरिद्रता से ग्रस्त हैं। ‘स्कूटर’ में स्वप्नदृश्य के माध्यम से एक पिता की आर्थिक विवशता का करुण दृश्य उकेरा गया है। दहेज की विभीषका में इतना ही बचा है कि ‘बाप’ आदमी न रहकर स्वयं दहेज पूर्ति का साधन बन जाए। सरोज जैसी लड़कियों के भाग्य पर खतरे के गिद्ध मँडरा रहे हैं तो दूसरी ओर दिग्भ्रांत युवक सुनील का रूप धारण कर चुके हैं । ‘पितृत्व’ में भेदपूर्ण चिंतन का प्रहार किया गया है। लाल साहब को पिता के रूप में बेटी के सुखमय जीवन की चिंता है। बेटी एकछत्र राज करेगी, लेकिन जो बहू रात-दिन खटकर बेटी से भी ज्यादा सेवा करती है, परिवार की सुख-सुविधा का ध्यान रखती है,उसे लाल साहब संतुष्ट होने पर भी ‘बेटी’ का स्थान नहीं दे पाते । जड़ संस्कारों की यह गाँठ मन को जकड़े हुए है। इस गाँठ के खुलने से समाज एवं परिवार की घुटन कम हो सकती है।

लिंग-भेद समाज का सबसे बड़ा कोढ़ है। डॉ. कविता भट्ट की ‘सिसकी’ में एक ओर कमला है , जिसे पाँचवीं बार भी बेटी हुई है। सास की दृष्टि में वह केवल भूसे का डला है। दूसरी ओर कराहती हुई शान्ति है, जो माँ नहीं बन सकी। जिसका छठी बार गर्भपात हुआ है। वह सिसक उठती है- काश उसके ऐसी बच्ची होती!! समाज का बेटी के प्रति दकियानूसी रवैया आज भी बरकरार है। जिसके सन्तान नहीं, वह सोचती है काश! उसको तो बेटी भी हो जाए, तो शुभ है। देवियों की पूजा करने वाला समाज भी यदि नारी की उपेक्षा और शोषण ही करता है, तो ऐसे समाज से घोर निराशा होती है। सुकेश साहनी की ‘तृष्णा’ में रोहित की तृष्णा केवल संतान तक सीमित है। वृद्धा की गोद में लेटे शिशु के प्रति ममत्व जाग उठता है, परंतु वृद्धा की खिन्नता का कारण है , उसकी बहू द्वारा जनी यह तीसरी बेटी।

माता-पिता और सन्तान के सम्बन्ध बहुत नाज़ुक डोर से बँधे होते हैं। भारतीय समाज में माता -पिता तमाम अभाव झेलकर भी सन्तान के उज्ज्वल भविष्य के लिए अपने वर्त्तमान को भी होम कर देते हैं। जीवन की असहाय सन्ध्या में उन्हें मिलती है केवल उपेक्षा। गृहस्थी का बोझ उठाते-उठाते जिसकी कमर झुक गई, कन्धे अशक्त हो गए, उसे सन्तान से तनिक भी सहारा नहीं मिलता। उसे सारी इच्छाएँ मारनी पड़ती हैं। घर में उसकी जगह सिकुड़कर किसी अवसादग्रस्त कोने में बदल जाती है। वह अपने ही बनाए घर में खुलकर बात करने का अधिकार भी खो देता है। उसके किए किसी के पास समय नहीं। सन्तान की झिड़कियों का डर उसे जीते जी मार देता है। सुभाष नीरव की ‘कमरा’ में हरिबाबू बच्चों की पढ़ाई के बहाने पिताजी को ऊपर की बरसाती के एकान्त में धकेलते हैं और फिर पिताजी वाला वह नीचे वाला कमरा किराए पर दे देते हैं। खाना भी ऊपर पहुँचा देने की बात करते हैं यानी बुजुर्ग पिताजी को पूरे परिवार से काट देते हैं। ‘तिड़के घड़े’ में भी वृद्ध दम्पती की उसी घुटन और उपेक्षा के द्रवित करने वाले चित्र हैं। इस लघुकथा में गुड़ुप! की ध्वनि बुजुर्गों की चुप्पी और घुटन को व्यक्त करती पीड़ा और विवशता की अनुगूँज का ही एक हिस्सा है। इस एक शब्द का प्रयोग बहुत कुछ वह भी कह जाता है, जो प्रथम दृष्टया सामान्य पाठक की पकड़ में नहीं आता। इसे लघुकथा के मर्म का केन्द्र बिन्दु कह सकते हैं। छवि निगम की लघुकथा ‘फाँक’ कमला के असहाय जीiवन की नहीं, बल्कि न जाने कितनी कमलाओं की उपेक्षा को समेटे है। घर में चाहे हलुआ बने चाहे खीर, चाहे दशहरी आए, बहू और बेटा उस तक कुछ नहीं पहुँचने देते। कमला की यादों में एक धीमी घिघियाती आवाज़- “ज़रा-सा दे दो बहूरानी…बस एक फाँक..” भीतर तक चीरती चली जाती है। यह दारुण पीड़ा बहुत से घरों की है। प्रेमचन्द की बूढ़ी काकी पढ़कर जो करुणा जागती है, उसी करुणा को ‘फाँक’ जगाकर हृदय को ‘फाँक-फाँक’ कर देती है। इस कथा के सन्दर्भ में ‘फाँक’ शीर्षक के व्यंजक अर्थ को भी समझना होगा। सरोज परमार की लघुकथा ‘मानुष गन्ध’ की उस वृद्धा की मन: स्थिति क्या होगी , जिसे महीने में एकाध बार जब कोई राशन पहुँचाने आता है , तभी किसी मानुष के दर्शन होते हैं। जो इंसान की गन्ध तक के लिए तरस जाता है , एक लुटेरे को देखकर ( बिना यह जाने कि यह कौन है और क्यों आया है) उनके चेहरे पर कर्णचुम्बी मुस्कुराहट फैल गई। लुटेरा उस मुस्कान को देखकर हतप्रभ रह गया। वह ‘कभी अपने हाथ के हथियार को और कभी उस अजनबी चेहरे की स्वागतपूर्ण हार्दिक मुस्कुराहट को। घोर एकान्त जीने की यह स्थिति करुणा जगा जाती है। यह घोर अकेलापन वृद्धों के जीवन को और अधिक असहाय बना देता है। यह वह अवस्था है, जब जीवन की थकान से जर्जर मन को रोटी से भी बढ़कर किसी की आत्मीयता की ऊष्मा से पगी दो बात का आहार ज़रूरी है।

इसके ठीक विपरीत श्याम सुन्दर अग्रवाल की चर्चित लघुकथा -माँ का कमरा है, जिसमें माँ की मर्यादा का पूरा निर्वाह किया गया है। माँ को विश्वास ही नहीं होता कि बेटे ने उसको इतनी सुख-सुविधा दी है। यह आदर्श स्थिति है, सुखमय समाज के लिए ऐसा ही होना चाहिए; लेकिन ऐसा सामान्यत: विरल ही होता है।

सन्तान द्वार माता -पिता को बोझ समझना बहुत बड़ी विडम्बना है। ‘मृत्युबोध’ ( सुकेश साहनी) की सुमित्रा जीवन की अन्तिम साँसें गिन रही है। बेटे और बहुएँ भी उनकी मृत्यु का इन्तज़ार कर रहे हैं। सबके मन में एक झुँझलाहट है कि वह अभी तक जीवित है। ज़मीन पर लिटाने और मुँह में गंगाजल डालने की पूरी तैयारी है। लेकिन सुमित्रा के प्राण नहीं निकलते। इस कथा का यह अंश देखिए-‘उनकी तबीयत के एकाएक फिर सुधर जाने की वजह से बेटों की घोर निराशा और बहुओं की खीझ उनसे और अधिक नहीं देखी जाती और वे फिर आँखें बन्द कर लेती हैं। दोनों आँखों की कोरों से आँसू ढुलक कर झुर्रियों की गलियों में बहने लगते हैं।’ इसके ठीक विपरीत साहनी जी की ‘संस्कार’ लघुकथा है, जिसमें बेटा और पौत्र दोनों सेवा-भाव से जुड़े हैं। झुँझलाने वाली पत्नी का दृष्टिकोण भी बदल जाता है। एक तीसरी स्थिति है ‘विजेता’ के नब्बे साल के बुज़ुर्ग की , जो मोतियाबिन्द के कारण एक आँख की रोशनी खो चुका है। वह आने वाली परिस्थितियों को नहीं बदल सकता, लेकिन खुद को आने वाली परिस्थितियों के अनुकुल ढालने के लिए प्रयासरत है।

घर-परिवार से बाहर निकलकर नारी कहाँ और कितनी सुरक्षित है, इस यक्ष-प्रश्न का उत्तर मिल पाना कठिन है। घर की चार दीवारी से बाहर नारी की स्थिति बहुत विषम है। डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति की लघुकथा ‘स्वागत’ में अधिकारी की वासनजन्य चेष्टा का प्रतिकार अधीनस्थ स्वाभिमानी कल्पना जिस प्रकार बैरे के सामने ही अधिकारी को थप्पड़ मारती है, वैसा प्रतिरोध बहुत कम महिलाएँ कर पाती हैं। वह बड़े अधिकारी से शिकायत भी करेगी, तो वह भी वैसा ही करना चाहेगा , जैसा यह छोटा अधिकारी। अधिकतर तो बदनामी के डर से चुपचाप रह जाती हैं और शोषित होने का दंश झेलती रहती हैं। धर्म गुरुओं, राजनेताओं एवं अफ़सरों की काली करतूतों से न जाने कितने पन्ने भरे पड़े हैं!

आजकल बाज़ारवाद मध्यमवर्गीय समाज को अपने धृतराष्ट्री बाहुपाश में जकड़कर निष्प्प्राण कर रहा है। क्रेडिट कार्ड, सुन्दर सेल्स गर्ल, लुभावना सामान पारिवार की भावनाओं को उद्दीप्त करके क्रय के इन्द्रजाल में इस तरह फाँसना कि ग्राहक उससे मुक्त न हो पाए। छूट और ऑफ़र की मृगमरीचिका में उलझाकर ग्राहक का दोहन करना और उसे जेब खाली करने के लिए बाध्य करना आज का बाज़ारवाद है। घर की व्यवस्था में बाज़ार की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। प्रदर्शन प्रियता के कारण बाज़ार के मर्म को नहीं समझ पाते। जैनेन्द्र जी ने अपने एक निबन्ध बाज़ार दर्शन में कहा था– बाजार को सार्थकता भी वही मनुष्य देता है, को जानता है कि वह क्या चाहता है।XX एक की हानि में दूसरे को अपना लाभ दिखता है और यह बाजार का, बल्कि इतिहास का सत्य माना जाता है।XX तब कपट सफल और निष्कपट शिकार। होता है। ऐसे बाजार मानवता के लिए विडंबना है।

यह कथन आज चरितार्थ हो रहा है। अपनी आवश्यकता को जाने बिना केवल क्रय-शक्ति के प्रदर्शन के लिए कुछ भी खरीदना नासमझी है। हनी ट्रैप( डॉ. उपमा शर्मा) और मकड़ी ( सुभाष नीरव) की लघुकथाओं से बाज़ार-दर्शन क दुष्प्रभाव को समझ सकते हैं। हनीट्रैप’ लघुकथा में उपमा शर्मा ने बड़ी सूक्ष्मता से कथा का ताना -बाना तैयार किया है। मॉल में अंजू का एक पर एक फ़्री के मायाजाल में उलझते जाना पाठक को अपने साथ अनुस्यूत कर लेता है। पति की विवशता और अन्तर्द्वन्द्व भी बहुत बारीकी से उकेरे गए हैं। इस लघुकथा का शीर्षक सार्थक होने के साथ -साथ विषयवस्तु की व्यंजना प्रभावी रूप से करने में सहायक है। मकड़ी (सुभाष नीरव) क्रेडिट कार्ड के आकर्षण ने ऐसा बाँधा की कम वेतन पाने वाले बाबू का चैन हराम हो गया। मकड़ी के जाले में जैसे कोई कीट फँस जाता है, वैसे ही वह अनावश्यक खर्च करने के कारण इस जाल में फँसने लगा। घर की व्यवस्था बिगड़ने लगी। बकाया रकम और उस पर लगने वाला ब्याज उसकी चिन्ता बढ़ाने लगे। एक सुन्दर सेल्स गर्ल के घण्टी बजाने वह पर वह दरवाजा खोल देता है, लेकिन साथ ही घबराकर पसीने -पसीने हो उठता है। आज ऐसी स्थित आम हो गई है। बरसों पहले जब नीरव जी ने यह लघुकथा लिखी थी, कुछ पाठक इसे तब सही सन्दर्भ में नहीं समझ पाए थे। आज के उपभोक्तावादी युग में सामान्य आर्थिक पृष्ठभूमि का व्यक्ति बाज़ार से परेशानी ही खरीदता है। इस तरह के विषयों पर लिखी लघुकथाएँ समाज में आर्थिक दबाव के कारण आए बदलाव के दुष्परिणाम की ओर भी संकेत करती हैं।

शिक्षा-संस्थान नई पीढ़ी को सँवारने का महत्त्वपूर्ण केन्द्र हैं। जहाँ आदर्श की स्थापना होनी चाहिए, वहाँ अगर कुदृष्टि की पौध लगेगी , तो क्या होगा? डॉ. कविता भट्ट की लघुकथा ‘गाइड’ उनकी तुरपन खोलती है, जो मंच पर जाकर ‘महिला स्वतंत्रता एवं सशक्तीकरण’ पर लम्बी बाते करते हैं, लेकिन डायनिंग टेबल पर बैठी गौरवर्णा शालिनी को अर्थपूर्ण दृष्टि से देखने में मग्न हो जाते हैं। प्रो शेखर उसको कहाँ-कहाँ और किस तरह देख रहा था,यह वही जानती है, साथ यह कहना- आप तो बहुत ही स्मार्ट हो, आपकी रिसर्च तो चुटकियों में पूरी हो जाएगी, सबसे बड़ी निर्लज्जता है। शोषण की इस शृंखला में चयन समिति से लेकर राजनेता तक लिप्त हैं, जो धन- पिपासु पशु से लेकर रक्त पिपासु भेड़ियों तक यह जाल पूरे देश में फैला है, जिसके सामने आम आदमी और सारा तन्त्र असहाय है।

डॉ. कविता भट्ट की ‘गुलाबी सपने’ और ‘फिर से तैयारी’ में शिक्षा-जगत/ प्रशासन में होने वाले पक्षपातपूर्ण चयन को कठघरे में खड़ा किया गया है। शासन- प्रशासन में कोई भी सत्ताधारी हो,अवसरवादी लोग अपनी तिकड़मों से सब जगह काबिज हो जाते हैं। अयोग्य व्यक्ति अपनी ऊँची पहुँच, धनबल, बाहुबल से योग्य व्यक्ति को आगे बढ़ने से रोक देता है।

नैतिक मूल्य स्वस्थ समाज की रीढ़ हैं। सामाजिक व्यवस्था में परिवार, शिक्षा, राजनीति, धर्म और न्याय -व्यवस्था तभी सशक्त हो सकती है, जब उसमें नैतिकता और शुचिता का समावेश हो। नारी की बात करें, तो परिवार , शिक्षा-जगत्, राजनीति से लेकर धर्म के ध्वजाधारियों तक, राजनीति और प्रशासन के पुरोधा से लेकर न्याय के देवताओं तक ऐसी कलंक -कथाएँ मिलेंगी, जिनके सामने समाज के सारे शोषण पीछे छूट जाएँगे।

अर्थतन्त्र की चर्चा करना तो व्यर्थ है। नित्य प्रति के घोटाले और लूट पूरे देश और समाज को दीमक की तरह चाट रहे हैं। जो भ्रष्ट नहीं होता , उसे भ्रष्ट होने के लिए बाध्य कर दिया जाता है। ‘पूरी तरह तैयार’ डॉ. सुषमा गुप्ता गुप्ता की ऐसी ही लघुकथा है, जिसमें पूरे क्षरित होते हुए समाज के दर्शन होते हैं। यदि किसी को ‘ऊपर जाना है’ तो उसे कहीं न कहीं नीचे गिरना पड़ेगा। अच्छी डिग्रियाँ होना काफ़ी नहीं। बाबू को फ़ाइल सरकाने के लिए पैसा चाहिए। बड़े साहब किसी आधी उम्र की युवती के साथ अश्लील हरकतें कर रहे हैं। चारों तरफ़ लिजलिजी अनैतिकता है। अगर किसी को भ्रष्ट परिवेश में रहना है, तो न सही देखो, न सुनो, न आचरण करो। अपने सारे ऐन्द्रिक अभिज्ञान को निष्प्राण करना पड़ेगा। सांकेतिक रूप से लेखिका ने पूरी व्यवस्था की घुटन का सटीक चित्रण किया है।

सत्ता बदलने से कोई परिवर्तन नहीं होता, क्योंकि भ्रष्ट मशीनरी तो वही है, जो हमें अंग्रेज संस्कार- रूप में दे गए। सुधार के लिए उस नाग कुण्डली की गिरफ़्त से निकलना पड़ेगा। इसके लिए क्रांति के बाद(पारस दासोत) लघुकथा द्रष्टव्य है। पारस दासोत के विचार इस लघुकथा पर-‘एक आन्दोलन / एक क्रांति का रूप देकर सत्तासीन को हटने के लिए मजबूर कर देता हैं। इसके बाद दूसरा सत्तासीन होता है, किन्तु कालान्तर में, उसके लिए (आम आदमी के लिए) ये दोनों प्रवंचना ही सिद्ध होते हैं, क्योंकि परिवर्तन के बाद सत्ताधारी से भी ज्यादा शोषक व्यक्ति के रूप में मिलता है।’ इस लघुकथा का एक -एक शब्द केवल शब्दार्थ( अभिधेय अर्थ) नहीं है। अच्छी लघुकथा के शब्दों की सिद्धि शब्दकोश से नहीं होती। लाक्षणिक और व्यंजित अर्थ को न समझने वाले पाठक / लेखक लघुकथा की शक्ति को नहीं पहचान सकते। यही कारण है कि कुछ भी लिख देना को ‘लघुकथा’ समझना बहुत बड़ी भूल है। उचित और उपयुक्त शब्द-संधान के बिना इस विधा की गहराई को नहीं समझा जा सकता।

( भाग-1)

-0-सन्दर्भ सूची- ( लघुकथा डॉट कॉम के फ़रवरी-2023 अंक में दिए गए इस लेख के लिन्क क्लिक करके उपर्युक्त लेखकों की रचनाएँ पढ़ी जा सकती हैं। [[1]]