लघुकथा में प्रेम की अभिव्यक्ति-2 / उपमा शर्मा
गतांक से आगे…
व्यक्तित्व के समायोजन के लिए मनोवैज्ञानिकों ने अभिव्यक्ति को मुख्य साधन माना है। अभिव्यक्ति ही वह माध्यम है जिसके द्वारा मनुष्य अपने मनोभावों को प्रकाशित करता तथा अपनी भावनाओं को रूप देता है। जीवन की यात्रा में विभिन्न अनुभवों में प्रेम एक ऐसा अनुभव है, जिसका अनुभव हम सभी बचपन से किसी न किसी रूप में करते हैं । यह प्रेम की ही भावना है, जो हमें व्यक्ति, पशु-पक्षी या किसी भी प्राणी से जोड़ती है।
प्रत्येक भावना की तरह प्रेम का भी कारक होता है, वह चाहे सकारात्मक हो या नकारात्मक। अथाह नफ़रत भी अथाह प्रेम की ही परिणति होती है। आजकल की पीढ़ी बहुत व्यावहारिक हो गई है। अब प्रेम का उत्कृष्ट रूप राधा -कृष्ण की मूर्तियों में और कहानियों के पन्नों में दर्ज होकर रह गया है। नवयुवक-युवतियाँ प्रेम करते हैं; लेकिन कुछ दिनों के साथ में जब समझ जाते हैं कि विवाह के परिमाण सुखद नहीं होंगे, तब वेअलग होने को ही श्रेयस्कर मानते हैं। और सही भी है, प्रेम में ‘मैं’ कब होता है। “प्रेम गली अति साँकरी जामे दो न समाय।” व्यक्ति अपने अहं के चलते अपने जीवन की सबसे ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति, प्रेम को खो देता है। हर सार्थक रचना एक संदेश देती है। निर्देश निधि की लघुकथा ‘केवल मैं’ में प्रेम में अहम को दूर रख रिश्तों को निभाया जाता है का खूबसूरत संदेश है। लघुकथा का नायक सदैव अपने आपको उच्च साबित करने की कोशिश करता है। उसे अपने चुने हुए विषय, अपनी पढ़ाई अपनी नौकरी सब उत्कृष्ट लगते हैं और प्रेमिका की रुचि,अभिरुचि सब दोयम दर्जे का। साहित्य, आर्ट्स जैसे विषय वालों के मन में क्या कोमल भावनाएँ होती हैं और इन विषयों में भी अच्छे भविष्य की संभावनाएँ हैं, उसने कभी सोचा ही नहीं। उसकी ‘मैं- मैं’ से जब नायिका का दम घुटने लगता है, तब वह पिता से प्रेम विवाह की जिद त्याग देती है। सालों बाद एक कार्यक्रम में मिलने पर भी नायक को साथ बीते लम्हों की कोई याद और साथ न रह पाने की कोई कसक नहीं; अपितु वह अब भी अपनी शान बघार नायिका पर तंज कसने से बाज़ नहीं आता। “तुम कहो अपनी, किसकी गृहस्थी सँभाल रही हो, किसके बच्चे पाल रही हो?”-साथ खड़े सहपाठी का उसका वर्तमान परिचय (जानी-मानी लेखक,शिक्षाविद् और भारत सरकार की सलाहकार) बताने पर नायक अब भी अपने अहं की संतुष्टि कुछ यों कहकर करता है- “मैं आश्वस्त हुआ कि मैंने किसी साधारण लड़की से प्रेम नहीं किया था…”
प्यार में त्याग की भावना, जहाँ एक ओर प्रेम को उत्कृष्ट ऊँचाई पर ले जाती है, वहीं दूसरी ओर प्रेम में पाने की इच्छा के लिए हद से गुजर जाना, व्यक्ति को पतन के रास्ते पर भी ले जाता है। प्रेम सिर्फ देना जानता है। जो किसी की जान ले ले, उसके दिल में प्रेम का कोई भाव, किसी के लिए हो ही नहीं सकता। प्रेम उदार बनाता है। प्रेम में कठोरता का भला क्या स्थान? सुकेश साहनी की लघुकथा ‘गूँज’ में लता और उसका प्रेमी लता के पति रवि को कुएँ में धकेलकर मार देते हैं।
जब व्यक्ति का कोई नितांत अपना विश्वासघात करता है, तब व्यक्ति के लिए वह इतना अविश्वसनीय, अकल्पनीय हो जाता है कि परछाईं में लता और अपने दोस्त को मारने के लिए कुएँ में धक्का देते देखकर भी, रवि ख़ुद को बचाने की कोशिश तक नहीं करता। उसको मौत से पहले लता की वेवफाई मार देती है। व्यक्ति भावावेश में ग़लत कदम उठा तो लेता है; लेकिन फिर उसको अपराध जिंदगी भर कचोटता है। अपने दोस्त के साथ विश्वासघात कर लता का प्रेमी भी चैन से नहीं रह पाता। रवि की आँखें हर वक़्त उसे अपनी पीठ पर चुभती दिखाई देती हैं और वह ख़ुद की नज़रों में भी गिर जाता है।
“इसे यहाँ से हटा दो।”-उसने रवि के फोटो को घूरते हुए लता से कहा।
विक्की पढ़ रहा था… ‘क’ से कबूतर… ‘ग’ से गमला। बिच्छू के डंक- सी दो आँखें उस पर गड़ी हुईं थीं। उसे लगा– अब विक्की ज़ोर-ज़ोर से कह रहा है… ‘क’ से कमीना… ‘क’ से कातिल!
महेश शर्मा ने ‘निशानी’ में टैटू के नाम से प्रचलित, पुराने समय के गोदना के रूपक को लेकर आज की पीढ़ी की बदलती संवेदनाओं को बखूबी दिखाया है। आज की पीढ़ी कुछ ज्यादा ही व्यावहारिक है। वह रिलेशनशिप को भी प्रैक्टिकली ही हैंडिल करती है। लघुकथा की पात्र पिंकी, कुछ दिन पहले बनवाए टैटू को हटा देती है। उसे इस ब्रेकअप का कोई दर्द भी नहीं होता। दूसरी तरफ उसकी नौकरानी कम्मो आंटी, आज तक उस प्यार के निशान को यादों में सहेजकर रख उस दर्द से गुजर रही है।
प्रेम बहुत कोमल एहसास है। एक दूसरे की अटमोस्ट केयर ही प्यार का सबसे ख़ूबसूरत रूप है। प्रेम की यह भावना अंतरा करवड़े की लघुकथा ‘प्रेम’ में सहज ही परिलक्षित हुई है। जहाँ एक ओर आजकल के युवा जोड़े वैलेंटाइन डे पर प्रेम को एक ख़ास दिवस मानकर एक-दूसरे को गुलाब, गिफ्ट देकर सच्चा प्यार समझते हैं, जबकि प्यार किसी गिफ्ट, गुलाब का मोहताज़ नहीं। इस कहानी की नायिका भी देव के प्रेम में आकंठ डूबी हुई है। वैलेंटाइन डे के अवसर पर अपने प्रेमी के इंतज़ार में बार- बार बाहर देखती है। देव आता है; लेकिन वहाँ अचानक हुए दगे में दंगाइयों की भीड़ देख अपनी प्रेमिका के भाई को फ़ोन पर स्थिति समझाकर लौट जाता है। निराश नायिका वहीं इंतज़ार में खड़ी देखती है कि एक उम्रदराज बुजुर्ग खबर सुन वहाँ फँसी अपनी पत्नी को सुरक्षित साथ ले जाने के लिए पुलिस वाले से झगड़, रेलिंग कूदकर भी आ जाते हैं। एक दूसरे के लिए फिक्र, परवाह, और साथी की हर परेशानी में साथ खड़े होना, यही तो है सच्चा प्रेम।
‘मोनिका जहाँ देव का इंतजार कर रही थी, वहीं एक पकी उम्र की माँजी भी खड़ी थीं। उसे देखते ही हठात् बोल पड़ीं- “इतनी गड़बड़ में क्यों रात गए घर से निकली हो बेटी?” मोनिका ने उपेक्षापूर्ण दृष्टि से उन्हें देखा। उसे लगा कि इन माँजी को वह क्या समझाए कि आज प्रेम- दिवस है। आज नहीं तो कब बाहर निकलना चाहिए। आपके जमाने में नहीं थे ये वैलेंटाइन डे वगैरह। आप तो अपने पति की चाकरी करते हुए ही जिंदगी गुजारिए।
तभी पास खड़ी माँजी खुशी से बोल पड़ीं- “आ गए आप!” एक बूढ़े- से सत्तरके बुजुर्ग काफी ऊँची रेलिंग को बड़ी मुश्किल से पार करते हुए माँजी तक पहुँचे।
“चलो अब जल्दी से निकलते हैं।”- उनकी साँस फूलने लगी थी।
वह सोचती रही। उन दोनों का वैलेंटाइन डे के बगैर का, पका हुआ प्रेम विश्वास और आपसी समझ। ये सब उन थके चेहरों की आँखों में चमक रहा था, जिसके आगे सारे युवा जोड़े फीके नजर आ रहे थे।
उसे समझ आ गया था- यही सच्चा प्रेम था।
आजकल के सोशल मीडिया के युग में व्हाट्सएप , फेसबुक और इंस्टाग्राम के तथाकथित प्रेम ने मानो प्रेम की परिभाषा ही बदल दी है। दो अनजान सोशल प्लेटफार्म पर मिलते हैं और कुछ ही दिनों में चैट पर यह तथाकथित प्रेम शुरू हो जाता है। इसी प्रेम का बुखार मीनू खरे की लघुकथा ‘चिप’ में दिखाई पड़ता है, जो प्रेमी की पत्नी के पता लगने की बात पर समाप्त हो जाता है। एक पुरुष जो प्रेमी हो दोस्त हो, पति हो, पता नहीं क्यों रिलेशनशिप में आते ही स्त्री पर अधिकार रखने लगता है। वह स्त्री उसी के कहने से सारे काम करे, उसकी हर बात में हाँ में हाँ मिलाए। लघुकथा के दोनों पात्र चैटिंग करते हैं। स्त्री उसमें प्लूटोनिक लव खोजती है और पुरुष उस पर पूरा अधिकार चाहता है। जब स्त्री पूछती है- आपकी पत्नी नहीं पूछती, किससे चैट कर रहे हो, तब वो जबाब देता है कि हमारे बीच कुछ है ही नहीं और प्रेम की चिप करप्ट हो जाती है।
सोशलमीडिया के इस युग में आपसी रिश्तों में संवेदनहीनता आती जा रही है। एक कमरे में चार व्यक्ति बैठें हो, तब उनमें आपस में वार्तालाप न होकर, इस आभासी दुनिया के मित्रों की पोस्ट पर लाइक कमेंट चल रहा होगा। आजकल हर किसी के हाथ में मोबाइल होगा और प्रत्येक व्यक्ति सिर नीचा किए,मोबाइल स्क्रीन पर आँखें गड़ाए ही मिलेगा। मोबाइल की इस लत ने एक ही छत के नीचे रहते हुए सबसे आत्मिक रिश्ते पति-पत्नी को भी आपस में बहुत दूर कर दिया है। दोनों का ही मोबाइल पर अत्यधिक समय बिताना, दांपत्य जीवन में कड़वाहट घोलने का मुख्य कारण बनता जा रहा है। परिणति- शक से संबंधों में कड़वाहट या विघटन। आज के दौर में सोशलमीडिया से आपसी रिश्तों पर आती दरार पर सुकेश साहनी की लघुकथा ‘फे़सटाइम’ शानदार लघुकथा है।
पति के फेसबुक पर अधिक समय बिताने पर, अपनी जिंदगी में पसर आए अकेलेपन को दूर करने के लिए पति के व्यवहार से आहत पत्नी भी, जब फेसबुक पर अपने मित्रों से जुड़ जीवन में कुछ पल ख़ुशी के तलाशने की कोशिश करती है, तब वाह री पुरुष मानसिकता,पति पत्नी पर शक करने लगता है, भले ही पत्नी अपनी अच्छी सहेलियों से चैट कर रही हो; लेकिन पुरुष के मन का शक्की कीड़ा अच्छे-खा़से दाम्पत्य जीवन में दरार डाल देता है
“स्क्रीन की लाइट में पत्नी का चेहरा चमक रहा था। उसके चेहरे पर बहुत मोहक मुस्कान थी। उसे याद आया ऐसी मुस्कान तो पत्नी के होंठों पर तब होती थी, जब लव मैरिज से पहले वे डेटिंग पर जाते थे। तो क्या… … ? इसका मतलब… जरूर उसका चक्कर किसी से चल रहा है… . वह अंगारों पर लोटने लगा।
स्त्री का दिल बहुत बड़ा होता है। वह अपने दिल में पूरे परिवार के लिए प्रेम, स्नेह, ममता के अलावा पति की पूर्व में रही घनिष्ठ मित्र, प्रेमिका की बातें, यादें भी अपने दिल में दफ़न कर देती है लेकिन पुरुष अपनी पत्नी के किसी पुरुष से सहज मित्रता भी बर्दाश्त नहीं कर पाता। पत्नी के बारे में थोड़ी सी भी भनक लगने पर पुरुष न जाने क्यों जासूस बन जाते हैं। जहाँ स्त्री मन सागर होता है वहीं पुरुष मन पत्नी के मामले में बहुत ही संकीर्ण होता है। कस्तूर लाल तागरा की लघुकथा ‘पुरुष मन’ में पुरुष पात्र अपनी विवाह पूर्व प्रेमिका के बारे में चटकारे ले कर विस्तार से सब बताता है। पत्नी कुछ दिनों की नाराज़गी के बाद नॉर्मल व्यवहार करने लगती है। एक दिन पत्नी के यह कहने पर कि आपने कभी नहीं पूछा कि मेरी जिंदगी में कोई था या नहीं। पति तुरंत पत्नी को मना कर देता है कि कोई हो भी तो मुझे मत बताना, हम पुरुषों का दिल इतना बड़ा नहीं होता, लेकिन वह पत्नी की जासूसी शुरू कर देता है।
किसी भी सुंदर लड़की को देख लड़कों का तथाकथित प्रेम अक्सर ही जाग पड़ता है। भले ही वो लड़की शादीशुदा हो, लेकिन लड़के यह दिखाने को बड़े तत्पर रहते हैं कि कॉलेज की सबसे सुंदर लड़की उनकी बड़ी ख़ास है।
डॉ. सुषमा गुप्ता की लघुकथा ‘हीरोइन’ की नायिका सुम्मी के आगे-पीछे घूमने वाला सिद्धार्थ, जब तीन महीने बाद उसको गर्भावस्था में देखता है, तब उसको रास्ते में छोड़ आगे बढ़ जाता है। और सुम्मी उसकी असलियत देख हँसती हुई अपनी सहेली का हाथ पकड़ आगे बढ़ जाती है।
प्रेम जो दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत शय है। बिन प्रेम, स्नेह दुनिया में क्या है? कुछ भी तो नहीं। पशु-पक्षी से लेकर प्रकृति तक प्यार-दुलार समझते हैं। प्रेम-पगे स्पर्श से सौ चिंताओं से राहत मिल सुकून के पल हासिल हो जाते हैं। यह प्रेम की ही ताकत है, जो दर्द से बिलखता छोटा बच्चा माँ की गोद का असीम सुख पा पल भर में चुप हो जाता है। प्रेम के इसी ख़ूबसूरत एहसास को कुछ लोगों ने अपनी स्वार्थसिद्धि का ज़रिया बना लिया है। कोमल हृदय अक्सर ही प्रेम में छले जाते हैं। कवियों, शायरों ने इस पर ख़ूब कलम चलाई है। हालाँकि लघुकथा में प्रेम पर कम लिखा गया है; लेकिन जब लिखा गया है, तब वह मन को अंदर तक छूता हुआ ही लिखा गया है। लघुकथाकारों ने प्रेम के उत्कृष्ट रूप त्याग, बलिदान तो प्रेम में छलावे पर भी सटीक कलम चलाई है।
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संदर्भित लघुकथाएँ:
1- निर्देश निधि-केवल मैं
वह उसे बरसों के बाद मिला था। हमेशा की तरह आज भी वह अपनी शान बघारने से चूका नहीं था। अगर यही शान उसने न बघारी होती तो आज वह उसकी पत्नी होती। हालाँकि उनका बरसों प्रेम चला था फिर भी उसकी इस लत ने उस प्रेम को दाम्पत्य में बदलने से जबरन रोक दिया था।
उसने आर्ट्स में पी-एच डी किया था, जबकि वह एक अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज से इंजीनियर बनकर निकला था। वह विज्ञान विषय को ही संसार का सत्य समझता था जैसे मानवीय संवेदना और अन्य भावनाओं का उसके मस्तिष्क में कोई स्थान ही न था। हर बात पर एक ताना था, हाँ तुम करोगी ही इस तरह की तर्कहीन बात; क्योंकि तुमने साइंस तो पढ़ी ही नहीं। आखिर तुम रहीं पढ़-लिखकर भी अनपढ़ ही। प्रेम में साइंस या साहित्य का विचार होता ही कहाँ है, जो वह उसे गंभीरता से लेती। आरंभ में तो वह मज़ाक समझती रही थी। प्रेम के आधिक्य में ध्यान ही नहीं गया कि वह इस कदर बड़बोला है, परंतु धीरे–धीरे सब समझ में आने लगा। पहले पिता से ज़िद कर रही थी वह उसके साथ ही घर बसाने की फिर खुद उसने ही मना कर दिया।
बरस अपनी बीतने की पुरानी लत लिये न जाने कितनी बार बीते। उन दोनों के रास्ते कहाँ से मुड़कर कहाँ पहुँचे, दोनों में से किसी ने मुड़कर नहीं देखा। वह अपनी शान बघारने के लिए विदेश चला गया था, देश में उसके स्तर का कोई संस्थान था ही नहीं। इस बीच वह भी जानी–मानी लेखक, शिक्षाविद् और भारत सरकार की शिक्षा सलाहकार बन गई थी। इज्जत सम्मान उसके इर्द–गिर्द घूमते थे।
इस बरस कॉलेज के शताब्दी वर्ष पर सभी पुराने छात्र-छात्राओं को बुलाया गया था वह तो आई ही थी, वह भी विदेश से आया था। इस बार एक–दूसरे से बिलकुल नया परिचय हो रहा था। वह अपनी वही शान बघार रहा था। वह चुपचाप सुन रही थी कि विदेश में उसने क्या–क्या असेट बनाए, वह कहाँ–कहाँ पूजा गया किस–किस ने कब–कब उसका लोहा माना। वह यह सब बता रहा था, यही सोचकर कि वह तो अभी भी उसी कुएँ में घूम रही होगी मेंढकी की तरह गोल–गोल या इस दीवार से उस दीवार तक। जो वह सोच रहा था वही शब्दों में कहने के लिए उतावला हुआ जा रहा था। इसी धुन में उसने थोड़ा ज़्यादा ही हिल–डुल कर पूछा था कि और तुम कहो अपनी, किसकी गृहस्थी सँभाल रही हो, किसके बच्चे पाल रही हो? इस बेहूदे प्रश्न का उत्तर देने का मन नहीं हुआ था उसका। साथ खड़े सहपाठी ने बताया था उसका वर्तमान परिचय। एक पल को वह खिसियाया हुआ चुप ही रह गया था। पर वह तो जैसे चुप रह जाने के लिए बना नहीं था, बहुत शान से बोला था कि मैं आश्वस्त हुआ कि मैंने किसी साधारण लड़की से प्रेम नहीं किया था…
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2- सुकेश साहनी– गूँज
‘‘डार्लिंग ! दिल अभी भरा नहीं…।” उसने दोबारा लता को बाहों में समेटे हुए शरारत से कहा।
“पागल हुए हो क्या! अब विक्की किसी भी समय दरवाज़ा खुलवाने की ज़िद कर सकता है…।” अपने कपड़े ठीक करते हुए लता ने बहुत प्यार से कहा, ‘‘मैं तुम्हारे लिए गर्म-गर्म कॉफी बनाकर लाती हूँ।”
बरामदे में विक्की पढ़ रहा था, ‘क’ से कबूतर ‘ख’… से खरगोश ‘ग’…से। तभी उसे लगा रवि की माला चढ़ी फोटो में कहीं कोई हरकत हुई है।
उसने ध्यान से देखा- कहीं कुछ भी नहीं था। फिर भी उसके मुँह का ज़ायका बिगड़ गया।
“कॉफी।”
उसने अपनी प्रेमिका के हाथ से कप ले लिया। कप से उठती हुई भाप को एकटक देखते हुए, वह दिन उसकी आँखों के आगे घूम गया… कुएँ की जगत पर रवि और लता बैठे हैं, वह रवि के पीछे बिल्कुल तैयार खड़ा है। लता रवि को बातों में उलझाने की कोशिश कर रही है। रवि को कुएँ में धकेलते ही, उसका और लता का ध्यान एक साथ अपनी परछाइयों की ओर चला गया था और लता के मुँह से तो आश्चर्यभरी चीख निकल गई थी। डूबते हुए सूरज की ओर इन तीनों की पीठ थी। इन तीनों की लंबी-लंबी परछाइयाँ उनके सामने फैली हुई थीं। धक्का दिए जाते समय, रवि एकटक उन परछाइयों को देख रहा था। उसने साफ देख लिया था कि वह उसे कुएँ में धकेलने ही वाला है, फिर भी उसने अपने बचाव की कोई कोशिश नहीं की थी। बिना चीखे-चिल्लाए किसी बेजान वस्तु की तरह वह कुएँ में जा गिरा था… छपाक्, फिर पानी में हल्की बुदबुदाहट और फिर गहरे कुएँ से उठती छपाक् की प्रतिध्वनि…।
‘‘छपाक्”- उसे लगा कप में कुछ गिरा है।
“तुमने कुछ सुना ?’’ उसने लता से पूछा।
वह जल्दी से उसके नज़दीक आई।
“नहीं तो…।”
“अभी-अभी मेरी कॉफी में कुछ गिरा है, छपाक् की आवाज़ हुई है…-“कमाल है। ज़रूर कुछ गिरा है।”
उसके माथे पर पसीने की नन्ही-नन्ही बूँदें चमकने लगी थीं ।
‘‘ क्या हुआ है तुम्हें ? कहीं कुछ नहीं गिरा है।” लता भी घबरा गई। उससे कॉफी पी नहीं गई ।
‘‘इसे यहाँ से हटा दो।” उसने रवि के फोटो को घूरते हुए लता से कहा।
दस्वाज़ा खोलकर बैडरूम से बाहर आते ही उसकी नज़रें विक्की से मिलीं। पहली बार उसे लगा बच्चे की आँखें बिल्कुल अपने पिता जैसी हैं।
विक्की पढ़ रहा था… ‘क’ से कबूतर… ‘ग’ से गमला। बिच्छू के डंक- सी दो आँखें उस पर गड़ी हुई थीं। वह उससे नज़रें मिलाए बगैर तेजी से बाहर के दरवाज़े की ओर लपका । उसे लगा अब विक्की ज़ोर-ज़ोर से कह रहा है… ‘क’
से कमीना… ‘क’ से… कातिल!
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3.महेश शर्मा-निशानी
कोई दस दिन पहले की ही तो बात थी, जब कम्मो ने पोंछा लगाते हुए देखा था कि कैसे, आईने के सामने खड़ी पिंकी बेबी ने, अपनी बाँह पर गुदे उस नाम को अलग-अलग कोण से निहारा था। फिर कैसे उसे सहलाया था–और फिर कैसे एकाएक बाँह उठाकर चूम लिया था उसे।
“हाय, कितना प्यारा गोदना था! कितनी सुंदर लिखावट थी!” कम्मों अपलक देखती रह गई थी। उसे लगा था कि कोई उसकी कलाई गुदगुदा रहा है।
लेकिन आज! पिंकी की बाँह से वह नाम ऐसे नदारद है, मानो वहाँ कभी था ही नहीं। कम्मो हैरान है कि ऐसी गाढ़ी पक्की स्याही से बनी निशानी, यूँ गायब कैसे हो गई भला?
“आपका वह टट्टू कहाँ गया बेबी?” उससे रहा नहीं गया तो पूछ बैठी।
टट्टू नहीं टैटू” पिंकी खिलखिलाकर हँस पड़ी- “अरे कम्मो आंटी, वह क्या है न कि हमारा ब्रेकअप हो गया है–तो मैंने वह टैटू रिमूव करवा लिया–आई मीन हटवा दिया।”
“हाय राम!-” कम्मों के मुँह से सिसकी निकल गई– “उसमें तो बड़ा दर्द हुआ होगा?”
“अरे आजकल कोई दर्द-वर्द नहीं होता आंटी”-पिंकी ने लापरवाही से कंधे उचकाए- “लेज़र बीम से आसानी से मिट जाता है, बस थोड़ा-सा हर्ट होता है; लेकिन देखो, निशान तक नहीं बचता।”
कम्मो चुपचाप पोंछा लगाने लगी। उसे ऐसा महसूस हुआ, मानों सैकड़ों चींटियाँ उसकी कलाई में रेंग रही हों।
“अरे आंटी मैं कई दिनों से पूछना चाह रही थी कि आपकी रिस्ट पर यह स्कार–आई मीन–यह दाग़ कैसा है?
पिंकी के इस सवाल पर कम्मों पहले तो सकपका गई, फिर एकाएक हँस पड़ी – “वह क्या है न बेबी कि हमारा भी हो गया था बरेकअप! तो हमने भी उसका नाम मिटा दिया था। बरसों पहले गाँव के मेले में गुदवाया था उसे। लेकिन कमबख्त धोखेबाज़ निकला, तो उसी रात चूल्हे से जलती लकड़ी निकालकर अपनी कलाई पर रख ली थी-हाय! पूछो मत बेबी-कित्ता दर्द हुआ था!”
सहसा उसकी हँसी फीकी पड़ने लगी- “काश, हमारे ज़माने में भी यह मुई लेज़र-फेज़र होती। देखो, नाम तो मिट गया, पर निशान रह गया। कभी-कभी यह कमबखत बहुत टीसता है बेबी
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4-अन्तरा करवड़े-प्रेम
वह प्रेम दिवस का आयोजन था। लाल रंग के गुलाबों¸ दिल के आकारों की विभिन्न वस्तुएँ। रंग बिरंगे और अपेक्षाकृत स्मार्ट परिधानों में युवक युवतियाँ अपने तईं इकरार – इजहार आदि कर रहे थे। कोई झगड़ रहा था तो किसी का दिल टूट रहा था। कोई बदले की भावना से गुस्सा हुआ जा रहा था, तो किसी के कदम जमीन पर नहीं पड़ रहे थे।
मोनिका भी एक प्लांड़ इवेंट प्लेस पर अपने परफॉर्मंस की बारी का इंतजार कर रही थी। उन्हीं के फ्रेंड्स क्लब ने ये आयोजन किया था। इसमें थी मौज मस्ती और नाच गाना। फूल¸ कार्ड¸ गिफ्ट्स¸ चॉकलेट सभी कुछ उपलब्ध थे। उसे इंतजार था देव का। जिसने पिछले वैलेंटाइन पर ही उससे अपने प्रेम का इजहार किया था। उसके बाद से साल भर दोनों यूँ ही मिलते आ रहे थे। उसे विश्वास था कि उसकी परफॉर्मंस तक देव जरूर आ जाएगा।
अचानक बाहर कुछ शोर सुनाई दिया। सभी ने बाहर जाकर देखा। दो गुटों में झगड़ा हो रहा था। कारण जो भी कुछ रहा हो लेकिन पुलिस पहुँच चुकी थी। आतंक और तनाव का माहौल था। समझदार लड़कियों ने घर की राह पकड़ने में ही खैर समझी। लेकिन मोनिका वहाँ पहुँचती, तब तक देर हो चुकी थी। वह रास्ता बंद कर दिया गया था। सारा यातायात दूसरी ओर मोड़ दिया गया था।
मोनिका जहाँ देव का इंतजार कर रही थी, वहीं एक पकी उम्र की माँजी भी खड़ी थी। उसे देखते ही हठात् बोल पड़ी- “इतनी गड़बड़ में क्यों रात गए घर से निकली हो बेटी?” मोनिका ने उपेक्षापूर्ण दृष्टि से उन्हें देखा। उसे लगा कि इन माँजी को वह क्या समझाए कि आज प्रेम दिवस है। आज नहीं तो कब बाहर निकलना चाहिए। आपके जमाने में नहीं थे ये वैलेंटाइन डे वगैरह। आप तो अपने पति की चाकरी करते हुए ही जिंदगी गुजारिए। उसे वैसे भी इस दादी टाइप की औरत की बातों में कोई रुचि नहीं थी।
लेकिन वह स्वयं इस हादसे के कारण घबराई हुई -सी सब दूर बस देव को ही ढूँढ रही थी। उसे विश्वास था कि वह उसे इस मुसीबत से निकालने के लिये जरूर आएगा। सारे वाहन वहाँ से हटवा दिए गए थे। काफी देर तक जोर- जोर से आवाजें आती रही। लाठी चार्ज होने लगा था।
पुलिस किसी को भी उस घेरे के अंदर से जाने देने को तैयार नहीं थी। तभी मोनिका ने देखा¸ देव किसी पुलिसकर्मी से उलझ पड़ा था। वह उसे अंदर नहीं आने दे रहा था। “ओह देव प्लीज मुझे निकालो यहाँ से।” मोनिका चीख पड़ी थी, लेकिन देव कुछ भी नहीं कर पा रहा था। बार- बार अपने मोबाइल से किसी को फोन करता जा रहा था। शायद उसने मोनिका के भाई को फोन कर सारी स्थिति बता दी थी और स्वयं वहाँ से निकल गया था। मोनिका अविश्वास से उसे जाते हुए देखती रही। क्या यही उसका विश्वास था?
तभी पास खड़ी माँजी खुशी से बोल पड़ी¸ “आ गए आप!” मोनिका ने उनकी दृष्टि का पीछा किया। एक बूढ़े से सत्तर के लगभग के बुजुर्ग¸ काफी ऊँची रेलिंग को बड़ी मुश्किल से पार करते हुए माँजी तक पहुँचे।
दोनों घबराए हुए- से पहले तो एक दूसरे का हाथ पकड़े हाल चाल पूछते रहे।
“मुझे तो सामने के वर्माजी ने खबर की। उन्होंने कहा कि जल्दी से तुम्हें घर ले आऊँ। यहाँ कोई फसाद हो गया है। तुम्हें अकेले नहीं आने देंगे।” वे काफी घबराए हुए थे।
“लेकिन अब घबराने की जरूरत नहीं है। मैं आ गया हूँ ना। वो पुलिसवाले को देखा¸ किसी को भी अंदर आने नहीं दे रहा था। सबसे झगड़ने पर ही तुला हुआ है। इसीलिए मैं उस रेलिंग को पार कर आ गया। यहाँ से बाहर जाने के लिए कोई पाबंदी नहीं है। चलो अब जल्दी से निकालते है।” उनकी साँस फूलने लगी थी।
मोनिका कुछ कहती इससे पहले ही माँजी ने उसे भी अपने साथ लिया और बाहर निकलकर उसके भाई के हाथों में सुरक्षित सौंप दिया। मोनिका को लगा कि देव खुद भी तो यही कर सकता था!
वह सोचती रही। उन दोनों का वैलेंटाइन डे के बगैर का¸ पका हुआ प्रेम विश्वास और आपसी समझ। ये सब उन थके चेहरों की आँखों में चमक रहा थी जिसके आगे सारे युवा जोड़े फीके नजर आ रहे थे।
उसे समझ आ गया था। यही सच्चा प्रेम था।
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5.मीनू खरे -चिप
“दो घण्टे हो गये हैं चैटिंग करते!”
“तुमसे बात करता हूँ, तो किसी दूसरी ही दुनिया में चला जाता हूँ! मन करता है तुम्हें चिप बनाकर फ़िट कर लूँ अपने आप में..जब चाहूँ चिप ऑन,चैट शुरू …”
“चिप बेशक बना लो; लेकिन जैसे आज स्टाफ़ रूम में मुझे देख रहे थे, सबके सामने वैसी गहरी निगाहों से मत देखा करो प्लीज़! मेरा दिल धड़कने लगता है!”
“इतनी मुश्किल ज़िन्दगी में भी इतने कोमल एहसास ! इसीलिए तुम सबसे अलग हो!”
“अब फ़ोन रखो।”
“ नहीं तुम रख॥”
“क्यों?”
“तुमसे दूर होता हूँ, तो लगता है जान निकल जाएगी! टुकड़ों में नहीं अब तुम्हें पाना चाहता हूँ पूरा!”
“नही ! इट हैज़ टू बी अ प्लेटोनिक लव ओनली! पवित्र…पॉयस.. दोस्तीनुमा प्रेम !”
“इतनी इंटिमेसी में यह दूरी ठीक है?”
“ यही तो ठीक है ! तुम मैरिड हो!”
“नही! देखना एक दिन मेरा चाहा ही होगा!”
“नहीं!तुम मैरिड हो!”
“तो क्या हुआ! तुम सिर्फ़ मेरे लिए बनी हो!”
“और तुम?”
“…”
“बोलो!”
“क्या बोलूँ? तुम सब जानती हो।”
“तुम इतनी देर चैट करते हो, तो मिसेज़ कुछ कहती नही?”
“वो सो गई हैं।”
“क्या उन्हें हमारे बारे में सब बता दिया है?”
“नहीं तो! क्या है ही हमारे बीच, जो किसी को बताऊँ!”
आगे कभी चैट नही हो सकी। चिप करप्ट हो गई थी।
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6. सुकेश साहनी/फ़ेस टाइम
फेसबुक खोलते ही वह धक से रह गया, उसके प्रिय युवा रंगकर्मी मित्र की ‘हार्ट अटैक’ से मृत्यु हो गई थी। पोस्ट को पढ़ते हुए उसकी आँखें डबडबा आईं। उसने कमेंट लिखा, ‘‘बहुत ही दुःखद, नमन!’’
अगली ही पोस्ट पर उसके बाल सखा ने एक फोटो शेयर की थी, जिसमें वे तीनों जिगरी दोस्त एक नुमाइश मैदान में एक दूसरे के गले में बाहें डाले खड़े थे। अपने लड़कपन की फोटो को वह मंत्रमुग्ध-सा देखता रह गया, होठों पर बारीक मुस्कान तैर गई, उसने ‘लाइक’ करते हुए लिखा, ‘‘तीन तिलंगे’’ जवाब में मित्र ने अट्टहास करता ‘ईमोजी’ भेजी, जिसे देखकर उसे हँसी आ गई।
आगे बढ़ा तो उसकी नजरें अपनी महिला मित्र की बहुत ही उत्तेजक प्रोफाइल पिक्चर पर पड़ीं। वह बड़ी देर तक उसे बड़ा करके देखता रहा, बहुत सोचने विचारने के बाद उसने कमेंट में ‘धाँसू’ का संकेत करता ‘ईमोजी’ पोस्ट कर दी।
फोन ‘लो-बैट्री’ का संकेत करने लगा, तो वह बैठक से बैडरूम में आ गया। यहाँ पत्नी भी अपने फोन पर व्यस्त थी।
‘‘अब बस भी करो,’’ फोन को चार्जिंग में लगाते हुए उसने कहा, ‘‘दिन-रात इसी में लगी रहती हो।’’
पत्नी ने उसकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया, मुस्कराते हुए कुछ टाइप करने लगी। यह देखकर उसका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया।
‘‘मैंने तुमसे कुछ कहा? सुनाई नहीं देता!’’ वह चिल्लाया, ‘‘फोन रखो। मुझे सोना है।’’
‘‘तुम्हें मना किसने किया है, सो जाओ। मुझे अभी देर लगेगी, ‘‘पत्नी ने रुखाई से कहा, ‘‘तुम खुद दिन रात फोन से चिपके रहते हो, मैंने कभी कुछ कहा?!’’
‘‘मेरी बराबरी मत करो, मेरा तो ऑफिस का सर्किल है, दूसरे सौ झमेले हैं। तुम्हारी तरह खाली बैठे पलंग नहीं तोड़ता। नारी मुक्ति के नाम पर न जाने कैसे- कैसे ग्रुपों में घुसी रहती हो। बिगाड़ कर रख दिया है इस लत ने तुम्हें। बोलने की तमी़ज तक तो रही नहीं।’’
इस बार पत्नी ने कोई जवाब नहीं दिया और मैसेंजर पर कुछ टाइप करने लगी।
गुस्से में तमतमाते हुए उसने कमरे की लाइट बंद कर दी और पत्नी की ओर पीठ कर लेट गया। मैसेंजर पर चल रही चैटिंग की हल्की आवाज उसके कान में पिघले सीसे-सी पड़ रही थी। बहुत देर तक पत्नी ने फोन नहीं रखा ,तो उसने करवट बदलकर देखा, पत्नी ‘फेसटाइम’ वीडियो पर थी। स्क्रीन की लाइट में पत्नी का चेहरा चमक रहा था। उसके चेहरे पर बहुत ही मोहक मुस्कान थी। उसे याद आया ऐसी मुस्कान तो पत्नी के होंठों पर तब होती थी, जब लवमैरिज से पहले वे डेटिंग पर जाते थे। तो क्या……? इसका मतलब…..। जरूर उसका चक्कर किसी से चल रहा है…..
वह अंगारों पर लोटने लगा।
7- कस्तूर लाल तागरा-पुरुष-मन
उनका विवाह हुए अभी कुछ ही सप्ताह बीते थे कि एक दिन पति ने पत्नी को अंतरंग क्षणों में अपनी पूर्व गर्लफ्रैंड के बारे में चटकारे लेते हुए विस्तार से बताया।
पत्नी कुछ दिन आक्रोश से भरी रही। लंबा अबोला चला। और उसके बाद मान मनौवल का दौर शुरू हुआ। अन्ततः इस शर्त के साथ समझौता हो गया कि पति आइंदा ऐसी गलती नहीं दोहराएगा। पत्नी के प्रति सदैव वफादार रहेगा।
दोनों की जिन्दगी एक बार फिर ठीक से चलने लगी थी कि एक दिन पत्नी ने यूँ ही लाड़ जताते हुए पति से कहा-‘‘आपने मुझसे तो कभी पूछा ही नहीं कि मेरा भी कभी किसी से प्रेम-प्रसंग रहा है कि नहीं।’’
पति ने तुरंत पत्नी के मुँह पर अँगुली रख दी-‘‘हो भी तो कभी मुझे बताना नहीं। हम मर्दों के पास तुम औरतों जितना बड़ा दिल नहीं होता।’’
पति के ऐसे बड़प्पन भरे व्यवहार से पत्नी के मन में पति के प्रति आदर बढ़ गया। लेकिन उस दिन के बाद से पति एक जासूस में तब्दील हो गया।
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8.सुषमा गुप्ता-हीरोइन
“अरे सुम्मी! ओ हीरोइन! रुको तो यार।” सिद्धार्थ ने पीछे से पुकारा, पर सुम्मी के पलटते ही सिद्धार्थ के तेज कदमों में ब्रेक लग गया। सुम्मी गर्भवती थी और ये उसकी काया से साफ जाहिर था।
“कैसे हो सिद्धार्थ?”
“मै तो ठीक हूँ पर तुम तीन महीनों से कॉलेज नहीं आई, तो फिक्र हो रही थी। अब तुम्हारे ससुराल वाले इतने रूढ़िवादी हैं कि फोन करते भी डर लगता है।”
“हा हा !! अरे ऐसा भी कुछ नहीं है। हाँ, थोड़े पुराने विचारों के हैं पर अच्छे हैं।” सुम्मी ने परीक्षा भवन की तरफ बढ़ते हुए कहा ।
“वैसे शीना से पूछा था तुम्हारे बारे में।” उसने बोला था तुम्हारी तबीयत कुछ खराब है, पर वजह नहीं बताई। वह तो अब तुम्हें देखकर समझ आ रहा है। ”
“और सुनाओ? तुम ठीक हो?”
“हम्म। ठीक हूँ।” सिद्धार्थ कुछ असहज- सा हो रहा था। सुम्मी के साथ चलते। सिद्धार्थ और सुम्मी वकालत की पढ़ाई कर रहे थे। आखिरी साल था। सरकारी स्कूल में परीक्षा सेंटर पड़ा था। बहुत ही ऊबड़-खाबड़ मैदान था। सुम्मी बहुत सँभल-सँभलकर चल रही थी। आगे बड़ा-सा गड्ढा देख जैसे ही सुम्मी ने सिद्धार्थ की तरफ हाथ बढ़ाया-“हाँ रोहित आ रहा हूँ। सुम्मी रोहित बुला रहा है, चलता हूँ यार।”-कहकर सिद्धार्थ तेजी से चला गया।
सुम्मी उसके बर्ताव से एक पल ठगी-सी रह गई। पर अगले ही पल मुस्कुरा दी।
सुम्मी की स्मृति में कॉलेज का पहला साल कौंध गया, जब सिद्धार्थ उसके साथ चलने के बहाने ढूँढ़ता था। सुम्मी शादीशुदा थी, फिर भी। शुरू में सुम्मी को वजह नहीं समझ आई थी। पर बाद में वह समझ गई थी सिद्धार्थ की मानसिकता। वह इतनी सुंदर थी कि सिद्धार्थ उसके साथ चलकर लोगों को यह जताता था, जैसे सुम्मी उसी की हो। जरूरत हो न हो, सीढ़ियों पर भी ऐसे हाथ देता था, जैसे उसका परम धर्म हो सुम्मी का ख्याल रखना; पर सुम्मी हमेशा उसका हाथ अनदेखा कर देती थी। और आज जब सुम्मी का हाथ गड्ढे से बचने के लिए अचानक उसकी तरफ बढ़ गया, तो वह नजर चुराकर चल दिया।
सुम्मी के चेहरे पर एक व्यंग्य-भरी मुस्कान तैर रही थी। उसने प्यार से अपने पेट पर हाथ लगाया और धीरे से कदम बढ़ाने लगी।
“ओ…. हीरोइन गड़्ढा है आगे।” कहते हुए शीना ने सुम्मी का हाथ थाम लिया ओर दोनों सहेलियाँ खिलखिलाती हुई आगे बढ़ गईं।
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