लघुकथा में प्रेम की अभिव्यक्ति / उपमा शर्मा
जीवन के सबसे जटिल अनुभवों में से एक अभिव्यक्ति, प्रेम जिसे ठीक से परिभाषित अवश्य ही नहीं किया जा सकता है; लेकिन समझा अवश्य जा सकता है। प्रेम के बिना जीव पूर्ण भी नहीं है। प्यार एक बहुत ही गहरा, भावुक सम्बंध है, जो किन्हीं दो व्यक्तियों की अन्तरंग आत्मीयता और भाव-समर्पण को दर्शाता है। साहित्य कि किसी भी विधा में प्रेम का विषय हमेशा प्रासंगिक रहा है। आखिरकार प्रेम इस संपूर्ण संसार का सबसे शुद्ध और खूबसूरत एहसास है और इसीलिए लेखकों ने हमेशा मानव जीवन में अपने वास्तविक स्थान, लोगों के बीच सम्बंधों, उनमें निहित अपने तरीकों को खोजने और अपने कार्यों में मानव अस्तित्व की इस अनोखी भावना पर अपने विचार प्रकट करने की कोशिश की है। हालाँकि कथा कुल की सबसे छोटी विधा ‘लघुकथा’ में प्रेम पर कम ही लिखा गया है। इसका कारण मेरे विचार से संभवतया यह रहा है कि लघुकथाकार अधिकतर विसंगतियों पर क़लम चलाते हैं। इस विधा के तीखे और वामन कलेवर के कारण अधिकतर लघुकथाकारों की क़लम समाज में फैली विद्रूपताओं और कुरीतियों पर ही चलती है। लेकिन प्रेम, प्रेम तो एक अलौकिक एहसास है। धरती पर ईश्वर की धरोहर है, जिसे पुरा-पुरातन काल से ही सबने महसूस किया है; इसीलिए इस विधा में बेशक प्रेम पर कम लिखा गया हो; लेकिन जब लिखा गया है, तो उन लघुकथाओं में प्रेम की सौंधी महक से पाठक का मन पूरी तरह भीग जाता है। प्रेम जब लौकिक को पार कर अलौकिक को छूता है, तब वह प्रेम का उत्कृष्ट रूप है। प्रेम का जब भी ज़िक्र आता है, अनायास ही राधा-कृष्ण का चेहरा आँखों में उतर आता है। राधा ने कन्हैया के नाम पर अपना सारा जीवन वार दिया तो कृष्ण ने भी राधा के अनमोल प्रेम की जगह किसी और को नहीं दी। दूर रहकर भी एक-दूसरे के प्रति ऐसी चाह, ऐसा समर्पण, यही तो राधा-कृष्ण का पावन प्रेम है।
प्रेम स्वयं सर्जन है। कहते हैं जहाँ प्रेम उत्पन्न होता है वहाँ देवत्व उत्पन्न होता है। प्रेम में डूबा व्यक्ति सिर्फ़ यह चाहता है कि उसका साथी खुश रहे। उसके कारण किसी परेशानी में न फँसे। प्यार का सबसे सुंदर रूप ही समर्पण है। प्रेम सिर्फ़ पा लेने का नाम नहीं है। प्रेम का उदात्त रूप है त्याग। साथी की ख़ुशी में अपनी ख़ुशी तलाशना ही प्रेम है। प्रेम जैसी कोमल भावना इंसान को बहुत अच्छा बना देती है। सच्चे प्रेम में डूब व्यक्ति दीन-दुनिया सब भूल जाता है। प्रेम में कोई शर्त नहीं होती। प्रेम उम्र, जाति के बंधन से परे होता है। ऐसा न होता, तो गोपियाँ कान्हा के बालरूप की दीवानी कैसे होतीं। मीरा कृष्ण के नाम पर ज़हर क्यों पी लेती?
“एक प्रेम अपनी आत्मा की सीमा तक का सफ़र है।”- (हेलेन ओवरार्ड) की यह पंक्ति दीपाली ठाकुर की लघुकथा ‘प्रेम’ पर सटीक बैठती है। ‘प्रेम’ लघुकथा की नायिका अपने कॉलेज टाइम के सीनियर के लिए मन में बहुत सम्मान रखती है। सीनियर भी नेह का नाता रखता है; लेकिन उस दशक में इतनी बेबाकी नहीं थी। न परिवार और समाज के बंधनों को तोड़ने की हिम्मत। प्रेम में कुछ कहने की ज़रूरत नहीं होती। सच्चा प्रेम अपनी भावनाओं को बिन कहे ही व्यक्त कर देता है। फिर प्रेम में पाने की चाह ऐसी भी नहीं होती कि घर-परिवार सबसे किनारा कर लो। प्रेम में साथी का मान-सम्मान रखना भी प्रेम का ही रूप है। इस लघुकथा के दोनों पात्रों ने भी अपना प्रेम अपने दिलों में सँभाल कर रखा। प्रेम का अर्थ सिर्फ़ पा लेना ही होता तो राधा, मीरा कृष्ण का नाम न रटती रहतीं।
‘प्रेम’ लघुकथा की नायिका अपनी बेटी के यह पूछने पर कि आपको जेलेसी नहीं हुई, यह कहती है-”प्यार में कोई जलन नहीं होती और न ही कोई शर्त, दूसरा हमें चाहे ही, यह भी नहीं।”
सच ही तो है प्यार में जिसे हम चाहें वह मिल ही जाए, यह कोई ज़रूरी तो नहीं। प्यार में साथी की ख़ुशी ही सर्वोपरि होती है।
“मैं जानती हूँ वे मुझको प्यार करते थे और अब भी करते हैं; तभी तो दो साल पहले अभी एक परिचित की शादी में मिले, तो मैंने उनकी आँखों में देखा था।”
“ओSSSS, अनकंडीशनल लव”-उसने मुझ पर हँसते हुए कहा।
“प्यार तो अनकंडीशनल ही होता है”-मैंने यक़ीन से कहा।
माँ का यह कथन प्रेम को सांसारिक बंधनों से परे ले जाता है और पाठक देर तक प्रेम के सम्मोहन में बँधा रहता है।
कबीरदास जी ने उसे विद्वान और ज्ञानी की संज्ञा नहीं दी, जो जीवनभर पुस्तकों के पठन-पाठन में उलझा रहे। उन्होंने ज्ञानी उसे कहा जो प्रेम के ढाई अक्षर को पढ़कर उसे जाने और समझे। प्रेम में बड़ी ताकत होती है। बस भाव शुद्ध हो और लक्ष्य उत्तम हो। आप कितने ही विद्वान क्यों न हो जाएँ, यदि जीवन में प्रेम नहीं उतरा, तो सब बेकार है। बड़े-बड़े भाषण देने का कोई लाभ नहीं। यदि ज्ञान के दो शब्द भी प्यार से किसी को बोले या समझाए जाएँ, तो नि: संदेह उस बात का दीर्घकालिक और गहरा प्रभाव पड़ता है। प्रेम के वश में तो स्वयं भगवान भी हैं। प्रेम भरा भाव कई बार मनुष्य के दुखों को दूर करने में अचूक दवा का कार्य करता है। प्रेम की भाषा बोलने पर लगता है कि फूल बरस रहे हैं। चिंतित और निराश व्यक्ति का मन खिलखिला उठता है। प्रेम जीवन का आधार है। जो प्रेम वाले होते हैं, उनका सम्मान समाज के हर वर्ग के लोग करते हैं। ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जो जीवन में प्रेम की सच्ची सार्थकता को दर्शाते हैं।
प्रेम के ऐसे ही उत्कृष्ट रूप को दर्शाती रामेश्वर कांबोज की लघुकथाएँ ‘इन्तज़ार’ एवं ‘सुबह हो गई’ हैं। ‘इंतज़ार’ लघुकथा का नायक अपनी और अपनी नायिका की प्रेम-स्मृतियों को मन में सँजोकर रखता है। जब नायिका अपनी माँ के साथ नायक के घर आती है, तब नायक उससे मिलने के लिए ऑफिस से जल्दी निकल अपने घर पहुँचने की कोशिश करता है, लेकिन तब तक नायिका इंतज़ार कर चली जाती है। नायक, नायिका को रोकने की लिए आवाज़ देने की सोचता है; लेकिन फिर यह सोच चुप हो जाता है कि कुछ स्मृति मन में सँजोना ही अच्छा है। कुछ चाहतें मन की परतों में ही रहनी चाहिए। लघुकथा के ये शब्द बरबस ही मन को छू जाते हैं
“मैं बाहर निकल आया और उसे आवाज़ लगाने को हुआ; परन्तु तब तक वह बहुत दूर जा चुकी थी।”
रामेश्वर कांबोज की ही दूसरी लघुकथा ‘सुबह हो गई’ की नायिका शालू अपनी दीदी के साथ लालसिंह के व्यवहार से परेशान थी। अब लालसिंह शालू के जीवन में भी हस्तक्षेप कर उसे परेशान करने की नियत रखने लगा था। शालू लालसिंह के साथ एक कमरे में किसी तरह रात काटती है। परेश के क्वार्टर में रहने के बावजूद परेश कभी उसे ग़लत निगाहों से नहीं देखता। वह लालसिंह की नियत ताड़ जाता है। रात भर शालू की परेशानी में वह भी जागते हुए रात काटता है और सुबह होते ही चाय बनाने के लिए शालू को रसोई में आता देख बगैर रात के बारे में उससे एक शब्द बोले शादी के लिए कहता है। एक सच्चा साथी अपने साथी की हर हाल में छाँव बना रहता है। यही प्रेम की उत्कृष्टता है। लघुकथा से उद्धृत अंश
“आप मुझसे नाराज़ हैं?”
“नहीं शालू, मैं नाराज़ नहीं हूँ। मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ”-परेश के स्वर में दृढ़ता थी।
शालू डर-सी गई। यह स्वर उसने पहली बार सुना था। परेश ने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया।
“कहिए!”
“मैं तुमसे शादी करूँगा, सिर्फ़ तुमसे और किसी से नहीं”-वह और भी दृढ़ता से बोला।
यह वाणी की दृढ़ता परेश के प्रेम को ऊँचाइयों पर ले जाती है।
मुंशी प्रेमचंद लिखते हैं-”प्रेम सीधी-सादी गऊ नहीं, खूंखार शेर है, जो अपने शिकार पर किसी की दृष्टि नहीं पड़ने देता।” परेश भी शालू को लालसिंह से बचाने के लिए पूरी तरह तत्पर है।
प्रेम के अनेक रूप हैं। राधा के लिए कृष्ण की बाँसुरी ही प्रेम है तो मीरा-रसखान की कृष्ण के लिए भक्ति अनन्य प्रेम है।
बिना प्रेम प्राणी एक पग भी नहीं चल सकता। वह जब से इस संसार में आँखें खोलता है प्रेम के विभिन्न स्वरूपों से गुजरता है। बचपन में माता-पिता, भाई-बहनों का प्यार, कॉलेज में दोस्तों का प्यार, दाम्पत्य जीवन में पति-पत्नी का प्यार और फिर अपनी गृहस्थी में अपने बच्चों से प्यार। मानव दिन-रात इसी सतत प्रक्रिया से गुजरता है। प्रेम ही हमारे जीवन की आधारशिला है। तभी तो मानव जीवन के आरंभ से ही धरती पर प्रेम की पवित्र निर्मल गंगा हमारे हर क़दम के साथ प्रवाहित हो रही है। एक स्त्री और पुरुष के बीच प्रेमी-प्रेमिका से इतर भी रिश्ते होते हैं जिसे हमारा समाज प्रायः ही अनदेखी करता है। खून के रिश्तों से इतर यदि किसी स्त्री-पुरुष का रिश्ता है तो समाज उसे एक ही नज़रिया से देखता है। यहाँ तक कि यदि लड़की या स्त्री किसी पुरुष से आत्मीयता से बात कर ले, तब वह पुरुष भी यही सोचने लगता है कि स्त्री के मन में उसे लेकर प्रेमी जैसी कुछ कोमल भावनाएँ चल रही हैं। सुकेश साहनी की लघुकथा ‘पाठ’ कुछ ऐसी ही मानसिकता को उजागर करती है। लघुकथा की स्त्री पात्र ‘पाखी’ एक 15 / 16 वर्ष की मासूम बच्ची है, जिसने बचपन में ही अपने पिता को खो दिया है। पाखी की मम्मी का ध्येय अपनी बेटी को पढ़ा-लिखाकर काबिल बनाना है।
पाखी भी उनके सपने को पूरा करने के लिए जी-जान से लगी है। अचानक कुछ दिनों से पाखी अपने फिजिक्स ट्यूटर में दिलचस्पी लेने लगी और पढ़ाई के इतर बात करने लगी जिसमें सर की ज़िन्दगी से जुड़े सवाल थे कि उनकी शादी हुई कि नहीं हुई। ‘आप मुझे बहुत अच्छे लगते हैं।’ ट्यूटर’ ने भी बाबजूद इसके कि पाखी उससे आधी उम्र की है, इसी दिशा में सोचना शुरू कर दिया कि पाखी के दिल में उसके लिए प्रेमी वाली कोमल भावनाएँ जन्म ले चुकी हैं। कहते हैं एक अच्छी लघुकथा या रचना का यह गुण होता है कि पाठक उसके अंत को न समझ पाये। लघुकथा बहुत खूबसूरत मोड़ लेती है जब पाखी ट्यूटर को आईने के आगे ले जाकर यह बताती है कि वह उसमें अपने डैड को देखती है। लघुकथा अपने चरमोत्कर्ष को छूती है जब पाखी यह कह बाहर निकल जाती है और वह ट्यूटर आईने में अपने आप से नज़र नहीं मिला पाता।
‘उसके हाथ में मेरा हाथ थरथरा गया।’
उसकी बात अभी पूरी नहीं हुई थी, बोली “इस जन्म में मुझे डैडी का प्यार नहीं मिला। मैं चाहती हूँ अगले जन्म में मुझे आप जैसे डैड मिलें!” डब-डब करती आँखों से आँसू बह निकले। कहकर वह आईने के फ्रेम से बाहर हो गई। कमरे में मैं अकेला खड़ा था, पर अब आइना मुझे देखे जा रहा था। ‘
सच्चा प्रेम केवल देते रहने में ही विश्वास करता है। जहाँ प्रेम है वहाँ समर्पण है। जहाँ समर्पण है, वहाँ अपनेपन की भावना है और जहाँ यह भावना रूपी उपजाऊ ज़मीन है, वहीं प्रेम का बीज अंकुरित होने की संभावना है। जीवन में साँसों, धड़कन के साथ ही प्रेम भी आवश्यक है। यदि व्यक्ति का प्रेम और स्नेहकोष रिक्त हो जाए, तो उसको जीवन जीना मुश्किल हो जाएगा।
सच्चा और परिपक्व प्रेम वह होता है, जो अपने प्रिय के साथ हर दु: ख-सुख, धूप-छाँव, पीड़ा आदि में हर क़दम साथ रहता है और एहसास कराता है कि मैं हर हाल में तुम्हारे साथ हूँ, तुम्हारे लिए हूँ। प्रेम को देखने-परखने के सबके नजरिए अलग हो सकते हैं, किंतु प्रेम केवल प्रेम ही है और प्रेम ही रहेगा क्योकि अभिव्यक्ति का संपूर्ण कोष रिक्त हो जाने के बाद और एहसासों की पूर्णता पर पहुँचने के बाद भी प्रेम केवल प्रेम रहता है।
“प्रेम एक बुद्धिमान अवस्था है; दिल भरता है जबकि दिमाग़ खाली होता है।” (फिलिप जैलक) , सच ही है प्रेम में दिल भर जाता है लेकिन दिमाग़ खाली रहता है। जहाँ दिमाग़ लगे वहाँ प्रेम कैसा? यह जानते हुए भी हम उसे पा नहीं सकते या वह हमें छोड़ कर चला गया फिर भी दिल उसी के बारे में सोचता है। प्रेम में उदात्त व्यक्ति कभी अपनी प्रेम / प्रेमिका को खरोंच भी नहीं आने देता। उसके लिए अपना सर्वस्व लुटाने को तैयार रहता है। इसी अनुभूतियों को छूती हुईं रचना श्रीवास्तव की ‘चकोर’ सविता पांडेय की ‘कैमीकल लोचा’ , चन्द्र शेखर दुबे की ‘टुकड़े-टुकड़े’ , रश्मि शर्मा की ‘सम्मोहन’ लघुकथाएँ हैं।
लघुकथा ‘चकोर’ में जब तक नायक को पता नहीं होता कि नायिका अंधी है, वह अपने दोस्तों के कहने पर नायिका को अपनी ओर आकृष्ट करने की शालीन कोशिश करता रहा; लेकिन एक दिन जब बात करने के लिए गया और देखा की नायिका की आँखों में ज्योति नहीं है, उसने दोस्तों को आकर कहा कि पास से देखने पर मुझे लड़की बिलकुल नहीं जमी।
हमारे समाज में बड़ी प्रचलित किंवदंती है कि चकोर चाँद को चुपके-चुपके तकता है। लघुकथा का नायक भी नायिका को चुपक-चुपके अकेले आकर रोज़ देखने लगा।
ऐसे ही लघुकथा ‘टुकड़े-टुकड़े’ में दाम्पत्य जीवन में दरार आने पर पत्नी के सदा के लिए अलग होने के बाद नायक उसकी याद मिटाने को उसका हर सामान घर से फेंक देता है; लेकिन बालों में लगाने वाला एक चुटीला कहीं दबा-छुपा रह जाता है जिसे नायक मिलने पर फेंक देता है। लेकिन सच्चे प्रेम को मन से कोई कैसे निकाल सकता है? नायक कुत्तों के वही चुटीला फाड़ने पर कुत्तों को मार पत्नी का चुटीला वापस ले आता है।
सविता पांडेय की ‘केमिकल लोचा’ प्रेम के सर्वोच्च शिखर छूने की बहुत प्यारी लघुकथा है। यह एक प्रेम को समर्पित व्यक्ति ही कर सकता है कि अपनी ब्याहता पत्नी को किसी और के साथ चले जाने के बाद भी भोलाराम उसे परेशानी में देख उसकी बिना कहे चुपचाप छुपकर मदद करता है। प्रेम का यही कैमीकल लोचा तो समझ नहीं आता।
प्रेम की संवेदनाएँ बड़ी अनोखी होती हैं। यह प्रेम की ही ताकत है जो प्रेम करने वाला बिन कहे ही अपने साथी की मन की बात समझ जाता है। ‘सम्मोहन’ लघुकथा की नायिका बेहद उदास है। कितनी ही बार ऐसा होता है कि हम जान ही नहीं पाते कि एक अजीब-सी मायूसी क्यों हमें घेर लेती है? कुछ पुरानी परेशानी, कुछ बातें मन में अवसाद बनकर अनचाहे ही डेरा जमा लेती हैं।
लड़की ऐसी ही उदासियों के घेरे में है। लड़का जानता है कि प्रेम की ताकत ही वह ताकत है जो अवसाद से निकाल सकती है। वह लड़की के कान के पास आकर प्यार के जादुई शब्द बोलने लगता है और लड़की सब भूल प्रेम के माधुर्य में खो उदासी भूल जाती है।
आजकल की भागदौड़ और मेट्रो सिटी के रहन-सहन में पुत्रवधू ka kamanना भी अति आवश्यक हो गया है। फिर पढ़-लिख कर लड़की की भी नौकरी करने की इच्छा रहती है। ऐसे में बच्चों को सँभालने के लिए माता-पिता का योगदान अति आवश्यक हो जाता है। दो पुत्र हों और दोनों पुत्रवधुएँ ही जॉब ओरिएन्टिड हों, तब एक के पास माता और एक के पास पिता रहें, ऐसी व्यवस्था भी कर ली जाती है। या दो पुत्र माता-पिता का बँटवारा भी कर लेते हैं।
डॉ.मधु सन्धु की लघुकथा ‘अभिसारिका’ के बुज़ुर्ग दंपत्ति दोनों पुत्रों की ऐसी व्यवस्था में पंद्रह दिन या महीने में एक बार पार्क में मिल आपस में बात कर पुराने दिनों को जी लेते हैं। महानगरीय जीवन की यह विडम्बना इस लघुकथा में पाठक को अंदर तक झकझोर देती है।
‘एक प्लेट फ्रूट-चाट पैक करवा कर वह चल दिए। बेंच पर छोटे-छोटे फूलों का दुपट्टा सूट पहने वह बैठी थी। दुपट्टे के नीचे हाथ में छोटा-सा बॉक्स था। पोते चिंटू का होगा। प्लास्टिक के डिस्पोजेबल चम्मच से दोनों ने गाजर का हलवा खाया। टखनों-घुटनों, वात-पित्त-कफ एवं दाँतों-मसूड़ों पर चर्चा की। गुनगुनी धूप में चाट का मज़ा लिया, घड़ी देखी और फिर अलग-अलग रास्तों पर चल दिए।’
आपाधापी के इस जीवन में प्रेम और उत्साह वर्धन के दो बोल जैसे संजीवनी का काम करते हैं। कभी किसी की मुस्कुराहट चाय के जैसे स्फूर्तिदायक हो जाती है और कभी कहीं किसी से अपने मन की दो बात बोल अपने मन को हल्का करना जीवन में ताज़गी भर जाता है। आज के समय में जब किसी के पास किसी के लिए समय नहीं है ऐसे में घुटन भरी इस ज़िन्दगी में किसी के स्नेह भरे शब्द ठंडी बयार के झोंके से मन को छू जाते हैं। महानगरों की यह भागदौड़ की ज़िन्दगी में अकेलापन कब आकर पैठ जाता है, पता ही नहीं चलता और इस अकेलेपन में किसी की पल भर की उपस्थिति भी सावन के बरसात-सी मन ही धरती को हरा-भरा कर देती है। हर व्यक्ति को अपने पर्सनल स्पेस की दरकार होती है। रिश्तों में यह स्पेस बहुत आवश्यक है।
नहीं तो रिश्ते बोझ लगने लगते हैं। सारिका भूषण की लघुकथा ‘एक स्पेस’ इसी कथ्य के ताने-बाने पर बुनी गई लाजवाब लघुकथा है।
पति के समय न देने पर रोज़ अकेले पार्क के चक्कर लगाती नायिका को मिस्टर भूषण का “हैलो” शब्द ही किसी के पास होने का एहसास कराता है और एक दिन जब वह “हैलो मिसेज फ्रेश” यह तीन शब्द कहते हैं तो उनके तारीफ के यह बोल नायिका का पूरा दिन फ्रेश रखते हैं। लेकिन पति के एक दिन साथ जाने पर यह उनके निजीपन के कुछ क्षणों में सेंध लगाने जैसा लगता है। लघुकथा में नायिका की यह सोच शायद सबको निजी सोच लगे। शायद हर किसी को चाहे स्त्री हो या पुरुष अपने रिश्तों के बीच एक स्पेस चाहिए। रिश्ते बोझ न बनें, उनके दायरों में घुटन न लगे, इसके लिए शायद एक मर्यादित स्पेस चाहिए। ‘
सीमा पर शहीद होने वाले जवानों की कुर्बानी सर्वविदित है लेकिन सीमा से और उनसे दूर उनकी जीवन साथी का त्याग
किसी बलिदान से कम नहीं। पितृसत्तात्मक इस समाज में जहाँ विधवा शब्द ही एक गाली से कम नहीं, यह जानते हुए भी कि सीमा पर कब क्या हो जाए, सैनिक की पत्नी दिल पर पत्थर रखकर अपने पति को सीमा पर भेजती है। रमेश बतरा की लघुकथा ‘लड़ाई’ में बहू ससुर के नाम आए तार को पढ़ यह जान जाती है कि उसका फ़ौजी बहादुरी से लड़ते हुए सीमा पर शहीद हो गया। वह सास-ससुर को सच न बताते हुए चुपचाप कमरे में जाती है। अपना वह जोड़ा पहनती है जिसमें फ़ौजी ने पहली बार उसे देखा था। पाठक की आँखें पत्नी के इस प्रेम पर बरबस ही बरस पड़ती हैं जब वह पति की बन्दूक को चूमते-चूमते सो जाती है।
प्रेम के बीज मन की धरती पर कब अनायास ही उग आयें पता ही नहीं पड़ता। यह तो वह मधुर, मोहक भावना है जो मन पर कब्जा कर लेती है। प्रेम उम्र का मोहताज नहीं। प्रेम आत्मिक रिश्ता है। प्रेम दो दिलों का बंधन है। सुषमा गुप्ता की लघुकथा “अतीत में खोई हुई वर्तमान की चिट्ठियाँ” , में चार साल की लड़की अपनी पड़ोस की दीदी को देख दो साल के बंटी को अपने टूटे-फूटे अक्षर ज्ञान से तब चिट्ठी लिखती है जब वह पढ़ना भी नहीं जानता। बच्चे बडो़ का अनुसरण करते हैं। वह पड़ोस वाली दीदी के जैसे बंटी के आँगन में चिट्ठी फेंकती है और बहुत खुश होकर दौड़कर उसे पढ़कर सुनाने के लिए वहाँ पहुँचती है; क्योंकि बंटी तो पढ़ना ही नहीं जानता। आँगन में लगे शहतूत के पेड़ से टपके शहतूत चिट्ठी की लिखावट को अपने रंग से मिटा देते हैं। काग़ज़ पर आधे-अधूरे अक्षर रह जाते हैं। अब वह बंटी को सुनाए तो क्या? दिल टूटने की यह उस लड़की की पहली घटना थी और इस घटना की मासूमियत लघुकथा के द्वारा पाठक को द्रवित कर देती है।
यद्यपि लघुकथा में प्रेम पर कम ही लिखा गया है परन्तु प्रेम की अभिव्यक्ति संवेदना से ही जन्म लेती है और जहाँ गहन संवेदना है वहाँ लेखक है। यदि कोई लेखक होगा तब उसके भीतर प्रेम अवश्य होगा। जब दुनिया नफ़रत बाँटती है तब लेखक ही है जो प्रेम बाँटता है। सदियों से प्रेम का प्रबल चेहरा प्लेटोनिक क़िस्म का ही रहा है। यहाँ संदर्भित अधिकतर लघुकथाएँ भी प्रेम का प्लेटॉनिक रूप ही बताती हैं। यह साहित्य मानव समाज का प्रतिबिंब है। यहाँ प्रेम केवल लोक स्मृति में ही नहीं है अपितु लिखित साहित्य में भी आदर के साथ सम्मान पाता है। लघुकथाकारों ने इसका प्रतिबिंबिन बहुत सहज एवं शिष्ट-सरल कला के रूप में किया है।
संदर्भित लघुकथाएँ
दीपाली ठाकुर
1- दीपाली ठाकुर/ प्रेम
“मॉम, क्या आपको किसी से प्यार हुआ था?”
अठारह साल की अपूर्वा का सवाल सुन मैं चौंक-सी गई।
“बताओ ना!” उसने बड़े प्यार से फिर पूछा।
मैंने हाँ में सर हिलाया।
“सच! कब? किससे?” अपूर्वा उछल पड़ी।
“बताओ न प्लीज़!” उसने मेरी दोनों हथेलियाँ अपने हाथों में लेकर मेरी आँखों में झाँकते हुए कहा।
“था कोई” मैंने लजाते हुए कहा।
“क्लासमेट?”
मेरा सर ‘ना’ में देख-”पड़ोसी?” उसने फिर अंदाज़ लगाया।
मैंने फिर से वही दोहराया।
“अब इतना सस्पेंस भी मत क्रिएट करो”-अबकी वह खीझती हुई बोली।
“वे सीनियर थे।”-मैंने सस्पेंस ख़त्म किया
“फिर” -उसने अपनी आँखें उत्सुकता और जिज्ञासा से बड़ी करते हुए कहा
“फिर क्या”-मैंने कंधे उचकाते हुए कहा।
“अच्छा आप लोग कब मिले?” अब वह आलथी पालथी मार दीवान पर मेरे सामने बैठ गई, जैसे कोई श्रोता कथा श्रवण के लिए तैयार हो।
“मुझे प्रेमचंद की कर्मभूमि नहीं मिल पाई थी, तब उन्होंने ही तो अपनी किताब मुझे दी थी और कहा था मुन्नी और सकीना का चरित्र चित्रण ज़रूर देख लेना।”
मैंने अपनी आवाज़ ज़रा भारी कर उसी गंभीरता से कहा।
“जाने कैसे पता चल गया था।” मुझे फिर वही आश्चर्य हुआ।
“अच्छा तो ऐसे मिले पहली बार”-वह खीखियाई।
“अच्छा प्रपोज़ किसने किया, उसने न!” उसने फिर अटकल लगाई।
उसका “उसने” मुझे चुभ—सा गया।
“प्रपोज़-व्रपोज़ हमारे टाइम में कोई नहीं करता था”-मैं अतीत में खोती हुई बोली।
“अरे! तो किसी को पता कैसे चलता था कि फलाँ, फलाँ से प्यार करता है” उसने बड़ी हैरानी जताई।
“वह तो आँखें कह जाती हैं”-मैंने मन में कहा।
“सच आप दोनों में से किसी ने भी किसी से कुछ नहीं कहा?”-जैसे उसे विश्वास ही न हो रहा हो।
“हाँ बाबा, किसी ने ऐसा कुछ किसी से नहीं कहा”-मैंने उसे यक़ीन दिलाते हुए कहा।
“फिर?” उसने मन की गीली मिट्टी को कुछ और कुरेदते हुए कहा।
“फिर तीन साल बाद उनकी शादी हो गई, उनकी ही जात वाली लड़की से”-मैंने बात पूरी की।
“और सब खतम, है न!”-उसने भी बात खतम करते हुए कहा।
“क्यों सब ख़त्म”-मैं छटपटाहट से भरकर बोली।
“पता है जब उन्हें अपनी बीवी की पहली सालगिरह पर कुछ देना था और उन्हें सूझ नहीं रहा था, तब उन्होंने मुझे रुपये देते हुए कहा था कि अपनी पसंद से कोई चीज़ खरीदकर दे दूँ।”
“और आपने खरीदी?”-अब उसके आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं था।
“हाँ, सोने की अँगूठी ली थी मैंने स्मिता जी के लिए”-मैंने आँखों में प्यार भरकर कहा।
“मम्मा, आपको जेलेसी नहीं हुई?”-वह अब भी हैरान थी।
“क्यों हो जलन?”-मैंने कहा।
“क्यों न हो?”-वह अड़ती हुई बोली।
“आप तो प्यार करती थी न उससे फिर आप…वह आपका प्यार वन साइडेड होगा”-उसने मुझे समझाइश देते हुए कहा।
“प्यार में कोई जलन नहीं होती, और न कोई शर्त, दूसरा हमें चाहे ही, यह भी नहीं”-मैंने झुँझलाहट में कहा।
“मैं जानती हूँ वे मुझसे प्यार करते थे और अब भी करते हैं; तभी तो अभी दो साल पहले एक परिचित की शादी में मिले, तो मैंने उनकी आँखों में देखा था।”
मैं आश्वस्त, मगर चुप।
“ओ ssss, अनकंडीशनल लव”-उसने मुझपर हँसते हुए कहा।
“प्यार तो अनकंडीशनल ही होता है”-मैंने यक़ीन से कहा।
“वैसे भी तूने पूछा था कि आपने किसी से प्यार किया था क्या, ये थोड़ी पूछा था कि किसी ने आपसे प्यार किया था या नहीं।”
मैंने उसके सर पर चपत-सी लगाई।
“मैं उनसे प्यार करती थी, करती हूँ और करती रहूँगी।”
मैंने मन ही मन में बाँहें फैला खुले आसमान तले ज़ोर से चिल्लाते हुए अपने प्यार का ऐलान किया
“कितने इनोसेन्ट हो आप मम्मा, इसे क्रश कहते हैं।”
उसने मुझे इस तरह से बाहों में भर लिया, जैसे मैं उसे भरा करती थी।
मन कह रहा था-”यही तो प्यार है पगली, कैसे समझाऊँ तुझे।”
मेरी आँखों में राधा, मीरा, , सुधा, ललिता जैसे अनगिनत चेहरे घूम रहे थे।
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2-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’/ इन्तज़ार
मुझे चुपके से आकर मुन्नी ने बताया कि वह आपसे मिलने आई है।
मेरा चेहरा भावशून्य हो गया। सब फ़ाइलें तुरन्त समेटी. सेफ़ को धड़ाक् से बन्द कर दिया। उँगलियों पर कुछ खरोंच आ गई. लहू चुहचुहा उठा। साहब ने ओवर टाइम में भी क्षण भर रोक लिया था। दिन भर की थकान को मिटाने के लिए मुँह धोया। रूमाल से पूरे चेहरे को रगड़ा। तेज़ी से वहाँ जा पहुँचा और उसको बुलाने के लिए मुन्नी को घर में भेजा। वह काफ़ी अर्से बाद आई थी।
पता चला कि वह मेर इन्तज़ार करके अपनी माँ के साथ चली गई. मैं बाहर निकल आया और उसे आवाज़ लगाने को हुआ; परन्तु तब तक वह बहुत दूर जा चुकी थी।
(रचना तिथि: 29 जून 1972)
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3.- रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’/ सुबह हो गई
खाना खाने के बाद शालू, परेश के कमरे में लालसिंह का बिस्तर लगाने लगी। न चाहकर भी उससे हँस–हँसकर बोलना पड़ रहा है। बड़ी बहन लतिका के ढलते हुए शरीर को देखकर वह भीतर तक दहल जाती है। पाँच साल में कितनी बेडोल हो गई है। शादी क्यों नहीं कर लेती दीदी? लालसिंह जैसी शादीशुदा जोंक से तो जान छूट जाती। लगता है इसके पास दीदी के कुछ आपत्तिजनक फोटो भी हैं। इसकी चुहलबाजी पर दीदी हमेशा चुप्पी साथ लेती हैं। बेशर्म होकर कुछ भी बक देता है।
दूसरे कमरे में बिस्तर लगाते देख लालसिंह ने टोका–”तुम्हारा कमरा कौन बुरा है? उसी में बिस्तरा लगा दो। मुझे लाइट जलाकर सोने की आदत है। परेश बाबू को लाइट जलती रहने से परेशानी होगी।”
शालू सहम गई। पता नहीं परेश उसके बारे में क्या राय बना ले। छह महीने से उसके क्वार्टर के एक कमरे में रह रही है। उसकी अच्छाई से वह आतंकित–सी रहती है। दफ्तर में उससे कभी बात ही नहीं होती।
“मुझे कोई परेशानी नहीं होगी।” परेश ने जैसे लालसिंह की चालाकी ताड़ ली थी।
“शालू के ही कमरे में ठीक रहेगा।” लालसिंह ने ढीठ होकर कहा।
“ठीक है”-कहकर परेश ने दोनों की तरफ़ विवशता से देखा।
लालसिंह शालू के कमरे में चला गया। कुछ दे ठिठककर शालू भी भारी कदमों से अपने कमरे में आ गई।
वह एक पल को भी नहीं सो पाई। उसका मन ग्लानि से भर गया। परेश के जगे रहने की आहट ने उसको और भी परेशान कर दिया। मुँह बाए सोता हुआ लालसिंह उसे राक्षस जैसा लग रहा था। वह रात–भर अपने दुर्भाग्य पर आँसू बहाती रही।
सुबह हो गई। परेश ने चाय बनाने के लिए रोज़ की तरह रसोई का दरवाज़ा खोला। शालू हड़बड़ाकर उठी और सिर झुकाए उसके पास जाकर खड़ी हो गई।
डबडबाई आँखों से सीधे परेश की आँखों में देखते हुए वह भर्राए स्वर में बोली–”आज चाय मैं बनाऊँगी।”
परेश चुप रहा।
“आप मुझसे नाराज़ हैं?”
“नहीं शालू, मैं नाराज़ नहीं हूँ। मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ”-परेश के स्वर में दृढ़ता थी।
शालू डर–सी गई। यह स्वर उसने पहली बार सुना था। परेश ने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया।
“कहिए!”
“मैं तुमसे शादी करूँगा, सिर्फ़ तुमसे और किसी से नहीं”-वह और भी दृढ़ता से बोला।
4-सुकेश साहनी/ पाठ
पाखी को उसके घर जाकर फिज़िक्स की ट्यूशन पढ़ाते मुझे एक साल और पाँच महीने हो गए थे। पंद्रह-सोलह वर्षीया खूबसूरत, मासूम-सी पाखी बहुत ही मेधावी थी। उसके पापा बचपन में ही एक हादसे में गुजर गए थे। तब से उसकी मम्मी का तो जैसे एक ही लक्ष्य था-अपनी बेटी को पढ़ा-लिखाकर काबिल बनाना। पाखी की माँ दूसरों से अलग थी, एक तो मेरा बहुत सम्मान करती थीं, दूसरे ट्यूशन के समय बेमतलब आस-पास मँडराती नहीं थीं।
पिछले कुछ दिनों से मैं पाखी में कुछ बदलाव महसूस कर रहा था, जब मेरा ध्यान किताब में होता, तो वह अपलक मेरी ओर देखने लगती।
“सर, आपकी शादी हो गई?”-एक दिन अचानक उसने पूछ लिया।
“क्यों?” मुझे हैरानी हुई, वह ट्यूशन के दौरान पर्सनल बातें नहीं किया करती थी।
“वैसे ही …जानना है”-उसने भोलेपन से जवाब दिया।
“नहीं,” मैंने बताया, “मेरी दो छोटी बहनें हैं, उनकी शादी हो जाएगी, तब मेरी होगी।”
“सर! आप मुझे बहुत अच्छे लगते हैं।” उसने शरारत से मुस्कराते हुए कई बार पलकें झपकाईं।
मुझसे उम्र में आधी पाखी की इस हरकत से मेरे होश उड़ गए, मुझे उससे ऐसी उम्मीद नहीं थी, ट्यूशन सर्किल में दूसरे कई ट्यूटर्स के किस्से याद आ गए, जो वे चटखारे ले लेकर एक दूसरे से शेयर किया करते थे।
“पाखी! पढाई में कंसन्ट्रेट करो” मैंने उसकी बात को नज़रअंदाज़ करते हुए कहा था।
घर लौटने पर भी पाखी का ‘आप मुझे बहुत अच्छे लगते हैं’ दिमाग़ से निकल ही नहीं रहा था। बहुत देर तक नींद नहीं आई, तो नेट पर ‘टीनेज लव’ के बारे में सर्च करने लगा, फ़िल्मी दुनिया और दूसरे सैकड़ों उदाहरण पलक झपकते ही सामने आ गए, जहाँ टीनेजर्स लड़कियाँ अपनी उम्र से दुगनी उम्र के पुरुषों से प्यार करती थीं। बेरोजगारी के बुरे दौर से गुजरते हुए पहली बार मैं ख़ुद को किसी फ़िल्मी हीरो जैसा महसूस कर रहा था।
मैं ट्यूशन देने पहुँचा, तो वह मुझे बहुत गंभीर लगी। उसने बताया कि ममा बाज़ार गईं हैं, उसे आज मुझसे अपने मन की बात करनी है, जो ममा के सामने नहीं कर पाएगी।
इस स्थिति की मैंने कल्पना भी नहीं की थी। मेरा दिल जोरों से धड़कने लगा। अभी मैं सोच-विचार में पड़ा ही था कि उसने मेरा दाहिना हाथ पकड़ लिया और मुझे अपने कमरे की ओर खींचकर ले जाने लगी।
अगले ही क्षण हम आदमकद आईने के सामने थे, वह आगे थी, उसके पीछे मैं था, मेरा दाहिना हाथ अभी भी उसके हाथ में था। अब वह एकटक मेरी आँखों में झाँक रही थी। मेरे देखते ही देखते उसकी आँखें डब-डब करने लगीं, वह रुँधी हुई आवाज़ में बोली, “सर, आइ लव यू!”
उसके हाथ में मेरा हाथ थरथरा गया।
उसकी बात अभी पूरी नहीं हुई थी, बोली, “इस जन्म में मुझे डैडी का प्यार नहीं मिला। मैं चाहती हूँ अगले जन्म में मुझे आप जैसे डैड मिलें!”-डब-डब करती आँखों से आँसू बह निकले।
कहकर वह आईने के फ्रेम से बाहर हो गई।
कमरे में मैं अकेला खड़ा था, पर अब आइना मुझे देखे जा रहा था।
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5-रचना श्रीवास्तव /चकोर
उस घर के सामने पार्क में एक लड़का रोज़ आता और पेड़ के नीचे खड़ा हो कर चार बजे का इंतज़ार करता। चार बजते ही उस घर की बालकनी में दूधिया से रंग की एक नाज़ुक-सी लड़की आती, कभी अपने बाल सुखाती, कभी वहाँ के गमलों में पानी देती और कभी अरगनी पर कपड़े फैलाती। लड़का प्रतिदिन नियम से आता। पेड़ के नीचे खड़ा होता और लड़की को देखता। यही सिलसिला कई हफ़्तों तक चला। अब उसके दोस्तों को भी इस लड़की के बारे में पता चल गया। अब अक्सर उसके दोस्त भी लड़के के साथ आते और सभी पेड़ के नीचे खड़े हो, चार बजे की प्रतीक्षा करते। अब वह चुपचाप लड़की को नहीं देखता, लड़कों के कहने पर उसका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने की शालीन कोशिश भी करने लगा, पर लड़की अपना काम करके चुपचाप चली जाती। यह सिलसिला भी बहुत दिनों तक चलता रहा।
अब दोस्त उसको बात करने के लिए उकसाने लगे। कहने लगे कि कब तक यूँ दूर-दूर से देखेगा, जा न, उससे बात कर ले। एक दिन लड़के ने बहुत हिम्मत की और सड़क पर कर उस इमारत के सामने पहुँचा और फाटक खोलके अन्दर आ गया। लड़की अपनी बालकनी में अरगनी पर कपड़े डालने की तैयारी कर रही थी। लड़के ने देखा कि वहाँ तो अरगनी है ही नहीं, डोरी टूटकर ज़मीन पर गिरी पड़ी थी, लड़की इससे अनभिज्ञ रोज़ के अभ्यास से कपड़े डालने के लिए टटोलकर डोरी की तलाश कर रही थी। लड़के को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था, उसकी इच्छा हुई कि ज़मीन पर गिरी डोरी को वापस बाँध दे, पर इस डर से कि उसकी मौजूदगी का एहसास होते ही लड़की डरकर चिल्ला ना पड़े, उसने यह विचार त्याग दिया। उसने आँख भरकर लड़की को देखा और उदास मन से वापस आ गया।
दोस्तों को बोला, “पास से देखने पर मुझे लड़की बिल्कुल नहीं जमी, बेमतल कदब समय ख़राब किया। अब कभी यहाँ नहीं आना है, चलो चलते हैं।” सभी वहाँ से चले गए।
यह कई दिन पहले घटा था।
ख़ास बात यह कि वह लड़की अभी भी रोज़ाना चार बजे बालकनी में आकर अपने रोज़ के काम करती है और वह लड़का भी प्रतिदिन पेड़ के नीचे खड़े होकर चुपचाप उसको निहारता रहता है।
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6-चन्द्रशेखर दुबे/टुकड़े-टुकड़े
विधिवत् सम्बन्ध-विच्छेद हो जाने पर उन्होंने अपनी भूतपूर्व पत्नी की कोई भी वस्तु घर में न रहने दी। उसके पुराने वस्त्र महरी को दे दिए। जिन चित्रों में वह थी, उन चित्रों के टुकड़े-टुकड़े कर डाले।
किन्तु इतनी सावधानी के बाद भी चोटी में गूँथा जाने वाला उनकी पत्नी का चुटीला पलंग के गद्दों के बीच में दबा रह गया।
एक रोज़ पलंग झटकते समय यह चुटीला फ़र्श पर गिरा। इसे वे हैरानी से कुछ देर देखते रहे। फिर किसी तिलचिट्टे की लाश की तरह उसे चिमटे में भर कर घर से बाहर फेंकने गए।
इस चुटीले को उन्होंने गली में फेंका, तो गली के कुत्तों ने उसे मुँह में भर लिया। वे इसे खींच-खींचकर टुकड़े-टुकड़े करने लगे।
पति महाशय यह दृश्य कुछ देर तक देखते रहे। फिर उन्हें जाने क्या सूझी, जो वे कुत्तों को दुत्कारते हुए उनके मुँह में से उस चुटीले के टुकड़े छीनने लगे।
7-रश्मि शर्मा/ सम्मोहन
लड़की उस दिन ज़रा उदास-सी थी। लड़का भाँप गया इस बात को। मगर वज़ह से अनजान था। वे दोनों छत पर बैठे थे। लड़की गाल पर हाथ टिकाए खाली आँखों से आकाश देख रही थी। लड़का कभी उसका चेहरा देखता, तो कभी आसपास के लोगों को।
वह साधारण छत नहीं थी। एक आलीशान महल की छत थी, जिसके कंगूरे पर ज़रा ओट लेकर दोनों बैठे थे। चुप-चुप। लड़का बोलता जाता, लड़की बस हाँ-हूँ। अचानक वह लड़की उठी और बोली, ‘चलो अंदर…जरा घूम आएँ।’ लड़का यंत्रवत् पीछे-पीछे। वे दोनों लोगों का चेहरा देखते, भीड़ देखते और महल की नक्काशी भी। चलते-चलते थक-से गए।
सबसे ऊपरी मंज़िल की सीढ़ियों पर लड़की ने अजीब से भाव से लड़के को देखा। अब शायद वह समझ गया। कोई चीज़ है, जो उसका ध्यान भटका रही है। उसे कुछ चाहिए; मगर क्या, वह शायद लड़की को भी नहीं पता। लड़के को ख़ूब पता था कि कैसे उसे उन सबसे बाहर लाना है। बाहर ख़ूब भीड़ थी। दोनों भीड़ में धक्के खाते हुए चल रहे थे।
अचानक लड़की के कानों के पास आकर वह दुहराने लगा…आई लव यू… आई लव यू… । वह लगातार फुसफुसाता रहा। शब्दों में जैसे आत्मा उतार दी हो। शब्द लड़की के कान से उतरकर उसके जिस्म में फैलने लगे। वह खो-सी गई। बस उसे सुनते हुए। जब लड़के के होंठ बंद हुए, तो उसने कहा, ‘तुम जब यूँ बोलते हो, तो मैं ध्यान में चली जाती हूँ। तन से लेकर आत्मा का हर बंद खुलता है। मुझे लगता है मैं मरती रहूँ और तुम इस तरह कान में आकर फुसफुसाओगे, तो यमराज के पाश खोलकर मैं वापस आ जाऊँगी।’ जो कोहरा था, छँट चुका था। अब दोनों हँस रहे थे। नीले आसमान तले, प्रेम में सम्मोहन होता है।
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8-सविता पाण्डे/ कैमिकल लोचा
जाने कौन—सा केमिकल लोचा घट रहा था चंपा के अंदर कि वह बसा बसाया घर और भोलेराम को छोड़कर ‘किसी और’ के साथ चली गई थी! और तो और बच्चों का भी नहीं सोचा! जाने क्यूँ तो अचानक ही घर छोड़ गई थी चंपाकली! ‘फलाँ की पत्नी फलाँ के साथ फरार!’ वाली खबरें तो बहुत पढ़ीं थीं भोलेराम ने; लेकिन चंपा के लिए इस तरह ‘फरार’ या ‘फुर्र’ होने जैसे शब्दों का प्रयोग करना बिल्कुल पसंद नहीं आता था उसे। आख़िर पत्नी रही थी उसकी। कैसे तो उसे क्रोध भी नहीं आया चंपा पर। भावहीन—सा हो गया था। हाँ! हर शाम चंपा की नई गृहस्थी ज़रूर देखता। शाम ढले भोलेराम हर रोज़ रिक्शा चला लेने के बाद चंपा की गृहस्थी को दूर से निहारता रहता। आख़िर कुछ दिनों पहले तक दोनों साथ ही तो रहते थे। वैसी ही ईंट और टाट की झोंपड़ी, वैसे ही नगर-निगम के नलके से पानी ढो-ढोकर लाना और उस जैसा ही रिक्शा चलानेवाला आदमी! भोले को कोई अंतर ही नहीं दिखता; लेकिन हर शाम चंपा के नए घर में ताक-झाँक की उसकी आदत ने उसे भी चंपा की गृहस्थी का एक हिस्सा बना दिया था। तभी तो लगातार कई दिनों से एक ही साड़ी पहने चंपा की कपड़ों की कमी पहचान गया वह। अपनी झोंपड़ी में आ चंपा के बक्से को खोला। एक ही कपड़े में चली गई थी पगली! भोला के चेहरे पर हल्की मुस्कुराहट फैल गई। चंपा के सारे कपड़े बाँध उसके नए घर पहुँच गया-”हर रोज़ एक ही साड़ी मत पहना करो।” चंपा ने भोलेराम को यूँ अचानक आया देखा, तो सकते में आ गई। उसे जल्दी वापस चले जाने को कहा। भोलेराम ने चंपा को उसकी साड़ियों की पोटली थमाई और यूँ छुपकर निकल भागा जैसे उसका कोई नया प्रेमी हो!
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9-डॉ. मधु सन्धु/ अभिसारिका
अख़बार पढ़ते-पढ़ते अनुपम ओबराय ने ऐनक से ही पलकें चढ़ाकर फ़ोन को देखा और सहलाते से हाथों से रिसीवर उठाया। उन्हें इसी की प्रतीक्षा थी।
“हैलो।”
“चार बजे, कंपनी गार्डन के फव्वारों वाले पार्क के तीसरे बेंच पर।”
“ठीक है।”-उनका मन बल्लियों उछलने लगा। पंद्रह दिनों की प्रतीक्षा के बाद समय आ ही गया।
एक प्लेट फ्रूट-चाट पैक करवा वे चल दिए। बेंच पर छोटे-छोटे फूलों का दुपट्टा सूट पहने वह बैठी थी। दुपट्टे के नीचे छिपे हाथ में छोटा-सा बॉक्स था। पोते चिंटू का होगा। प्लास्टिक के डिस्पोज़ेबल चम्मच से दोनों ने गाजर का हलवा खाया। टखनों-घुटनों, वात-पित्त-कफ एवं दाँतों-मसूड़ों पर चर्चा की। गुनगुनी धूप में चाट का मज़ा लिया, घड़ी देखी और फिर अलग-अलग रास्तों पर चल दिए।
साठ वर्षीय पत्नी छोटे के पास और उसका तिरसठ वर्षीय पति पिछले वर्षों से बड़े के पास रह रहे हैं। बड़े की पत्नी नौकरी में हैं, इसलिए घर में वे खाली बोर होते रहते हैं। छोटे की पत्नी महीने में एकाध बार किटी या अन्य कहीं निकलती है और दोनों उसी दिन को सार्थक करने में जुट जाते हैं।
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10-सारिका भूषण/ एक स्पेस
ठण्ड की दस्तक तेज थी। हवाएँ बदन सिहराने के लिए काफ़ी थीं। नवम्बर माह में सुबह पाँच बजे उठकर तैयार होकर पार्क जाना कोई मामूली बात नहीं थी। मैं बिना नहाए घर से बाहर नहीं निकल सकती और शायद इसलिए मुझे प्रतिदिन नहाते वक़्त नानी का ‘कार्तिक स्नान’ याद आता था, जो नानी की दिनचर्या में शामिल था गंगा नदी जाने के लिए।
अब यहाँ छोटा नागपुर में न ही गंगा नदी और न अब दिखता कोई नदी में कार्तिक-स्नान। हाँ! बिजली नहीं रहने पर बाथरूम में ठंडे पानी से स्नान करने में ज़रूर कार्तिक-स्नान की याद आ जाती है। पौने छह में मैं अपने ट्रैक-सूट में पार्क में पहुँच जाती। न चाहते हुए भी निगाहें मिस्टर वर्मा को ढूँढने लगती। जैसे ही मिस्टर वर्मा दिख जाते, तो मेरी नजरें दूसरी और देखने लगतीं, मानो मैंने किसी को न देखा।
“हैलो मिसेज फ्रेश!”
मिस्टर वर्मा के मुख से आज तीन शब्द सुनकर न जाने कौन-सी नजदीकियों का आभास होने लगा। आज थोड़ा और जोश से वाकिंग ट्रैक पर पाँव बढ़ने लगे। कुछ मीठी-मीठी-सी लगने लगी थी पार्क की हवा। पेड़ों से छनकर आती धूप भी गुदगुदाने लगी थी। एक घंटा टहलते हुए कैसे बीत गया पता ही न चला।
पिछले एक महीने से हमारे बीच सिर्फ़ ‘हैलो’ ही होता था।
पर ‘हैलो’ भी बहुत अच्छा लगता था और आज तो …दिल बहुत खुश था। आज नींद देर से खुली।
“चलो आज मैं भी वाक पर चलता हूँ। अब तो खुश हो!” घर से निकलते वक़्त पति की अचानक आवाज़ आई। पता नहीं क्यों थोड़ी आज़ादी छिनती हुई लगी।
मैंने मुस्कुराकर कहा, “हाँ! हाँ! चलो न!” पर शायद थोड़े ऊपरी मन से।
हम पार्क में पहुँच चुके थे। मेरी निगाहें आज किसी को नहीं ढूँढ रही थी। आज हवाएँ भारी लग रही थीं। धूप भी तीखी लग रही थी। पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा था मानो मेरी आँखें ख़ुद से आँखें चुरा रही हों।
शायद हर किसी को चाहे स्त्री हो या पुरुष अपने रिश्तों के बीच एक स्पेस चाहिए। रिश्ते बोझ न बनें, उनके दायरों में घुटन न लगे, इसके लिए शायद एक मर्यादित स्पेस चाहिए।
“देखो, देखो वह मिस्टर हैंडसम तुम्हें कैसे घूर रहा है।” पति ने चुहलबाजी करते हुए कहा।
“पता नहीं, मैं इधर-उधर नहीं देखती।” बड़ी सहजता से मैंने अपनी सफ़ाई दे दी और पार्क में अपने चक्कर गिनने लगी।
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11.रमेश बत्तरा / लड़ाई
ससुर के नाम आया तार बहू ने लेकर पढ़ लिया। तार बतलाता है कि उनका फ़ौजी बाँका बहादुरी से लड़ा और खेत रहा… देश के लिए शहीद हो गया।
“सुख तो है न बहू!” उसके अनपढ़ ससुर ने पूछा, “क्या लिखा है?”
“लिखा है, इस बार हमेशा की तरह इन दिनों नहीं आ पाऊँगा।”
“और कुछ नहीं लिखा?” सास भी आगे बढ़ आई।
“लिखा है, हम जीत रहे हैं। उम्मीद है लड़ाई जल्दी ख़त्म हो जाएगी…”
“तेरे वास्ते क्या लिखा है?” सास ने मज़ाक किया।
“कुछ नहीं।” कहती वह मानो लजाई हुई-सी अपने कमरे की तरफ़ भाग गई।
बहू ने कमरे का दरवाज़ा आज ठीक उसी तरह बन्द किया, जैसे हमेशा उसका ‘फौजी’ किया करता था। वह मुड़ी, तो उसकी आँखें भीगी हुई थीं। उसने एक भरपूर निगाह कमरे की हर चीज़ पर डाली, मानो सब कुछ पहली बार देख रही हो… अब कौन-कौन-सी चीज़ काम की नहीं रही… सोचते हुए उसकी निगाह पलंग के सामनेवाली दीवार पर टँगी बन्दूक पर अटक गई। कुछ क्षण खड़ी वह उसे ताकती रही। फिर उसने बन्दूक दीवार पर से उतार ली। उसे ख़ूब साफ़ करके अलमारी की तरफ़ बढ़ गई। अलमारी खोलकर उसने एक छोटी-सी अटैची निकाली और अपने पहने हुए वस्त्र उतारकर अटैची में रखे और वह जोड़ा पहन लिया, जिसमें फ़ौजी ने उसे पहली बार देखा था, प्यार किया था।
सज-सँवरकर उसने पलंग पर रखी बन्दूक उठाई। फिर लेट गई और बन्दूक को बगल में लिटाकर उसे चूमते-चूमते सो गई।
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12-डॉ. सुषमा गुप्ता/अतीत में खोई हुई वर्तमान की चिट्ठियाँ
चार साल की बच्ची का मन मासूम था। अपने घर की खिड़की से अक्सर वह सामने वाले घर की बालकनी में कुछ खेल होते देखती थी। एक रोज़ उसने सामने वाली दीदी से पूछा-”आपने सामने क्या फेंका?”
दीदी के चेहरे की हवाइयाँ उड़ गईं। कुछ सोचकर उन्होंने कहा-”वह सामने वाले घर में मेरा दोस्त रहता है। कभी मैं उसे कुछ कहना भूल जाती हूँ, तो इस तरह लिख कर संदेश दे देती हूँ। दोस्तों में ऐसे संदेश देना चलता रहता है।”
उस नन्ही बच्ची को यह बात बहुत सुंदर लगी। उसने नया-नया अक्षर-ज्ञान लेना शुरू किया था। उसका एक ही दोस्त था, साथ वाले घर में रहने वाला दो साल का नन्हा बंटी। वह सोचने लगी उसको संदेश भेजती हूँ, पर यह सोचकर उदास हो गई कि उसको अभी पढ़ना नहीं आएगा। अगले ही पल यह सोचकर मुस्कुरा दी कि तो क्या हुआ, मैं ही पढ़कर सुना दूँगी।
उसने एक कागज़ पर जितने अक्षर सीखे थे, सब लिख दिए और अपने आँगन से उसके आँगन में फेंक दिया, फिर अपने गेट से निकलकर तेज़ी से उसके घर की तरफ़ गई। उसके आँगन में पड़ी अपनी चिट्ठी को देख, ख़ुशी से चहकती हुई, उसके घर के अंदर गई।
वह टीवी के सामने बैठा कार्टून देख रहा था। लड़की ने उसका हाथ थामकर कहा-”तेरे लिए कुछ है।”
नन्हे बंटी ने बाल-सुलभ जिज्ञासा से तुतलाहट भरी आवाज़ में पूछा “त्या?”
लड़की हाथ पकड़के उसको बाहर की तरफ़ खींचने लगी, “आ दिखाती हूँ।”
छोटे-छोटे दो कंगारू फुदकते हुए बाहर आँगन की तरफ़ बढ़ गए। आँगन में शहतूत का पेड़ भी था, काले शहतूत का पेड़। चिट्ठी उड़कर उस पेड़ के नीचे जा गिरी थी।
हवा तेज़ थी। अनगिनत पके शहतूत, पेड़ के नीचे पड़े थे। काले धब्बों से ज़मीन पटी हुई थी। चिठ्ठी उड़कर उन काले शहतूतों से लिपट गई थी। लड़की ने आहिस्ता से उसको उठाकर देखा। शहतूत के धब्बों से कागज़ जामुनी हो गया था और बहुत से अक्षर उस रंग में घुलकर काले हो, लुप्त हो चुके थे। बच्ची का मन बुझ गया। इतने मन से उसने वह चिट्ठी लिखी थी; हालाँकि उसको याद था कि उसने उसमें क्या लिखा है पर… इतनी छोटी उम्र में भी उसको यह तो पता था कि नन्हा बंटी उस चिट्ठी को पढ़ नहीं पाएगा, चिट्ठी उसी को पढ़कर सुनानी थी। उसके बावजूद खो गए शब्द उसके लिए किसी खोई हुई अपनी सबसे सुंदर गुड़िया से कम नहीं थे, जिसका दु:ख बहुत बड़ा था।
लड़की की नन्ही-नन्ही हिरनी-जैसी आँखों में बड़े-बड़े आँसू तैर गए। छोटा लड़का तो कुछ भी नहीं समझ पा रहा था। वह टुकुर-टुकुर बस देख रहा था। जब छोटी लड़की रोने लगी, तो उस छोटे लड़के के दिल में भी कुछ हलचल हुई। उसने धीरे से उसको हिलाकर अपनी मीठी तोतली ज़ुबान में पूछा-”त्या हुआ!”
काले जामुनी धब्बों से भरी हुई चिट्ठी जो उस लड़की की नन्ही हथेली में रखी थी, उसने लड़के के आगे कर दी। लड़के को तब भी समझ ना आया कि हुआ क्या है। उसने फिर पूछा-”त्या हुआ?”
लड़की ने मुट्ठी बंद की और अपने घर की तरफ़ दौड़ गई। सीधे अपने कमरे में जाकर बिस्तर पर फूट-फूट कर रोने लगी।
शब्दों के गुम जाने के बाद दिल टूटने की यह उसकी ज़िंदगी की पहली घटना थी।