लघुकथा में समालोचना का भविष्य /रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
साहित्य की सारी विधाएँ, सभी साहित्यकार निष्पक्ष चिन्तन और तटस्थ मूल्यांकन से ही परखे जा सकते हैं । जिस साहित्य में पक्षपात और संकीर्ण चिन्तन से ग्रस्त होकर साहित्यकार या कृति का मूल्यांकन किया जाएगा , उसका नुकसान सभी को उठाना पड़ा । सैंकड़ों वर्षों से जिस शोशेबाजी की शुरुआत हुई थी , वह कमोबेश आज तक सभी विधाओं में जारी है । किसी ने मूल्यांकन किया यह कहकर -
सूर सूर, तुलसी शशि , उड़गन केशव दास ।
अबके कवि खद्योत सम , जहँ- तहँ करत प्रकास ॥
कुछ इनसे भी आगे निकले कि सूरदास सूर्य कैसे हो सकते हैं ; सो बात पलट दी गई-
सूर शशि, तुलसी रवि, उड़गन केशव दास ।
इतना फ़तवा जारी हो गया तो अब अक़्ल से कुछ सोचने के लिए कुछ नहीं बचा । इस हल्लेबाजी में कबीर खो गए । रामचन्द्र शुक्ल ने सूर और तुलसी को आगे बढ़ाया तो खरी-खरी कहने वाले कबीर में मन नहीं रमा । डॉ हज़ारी प्रसाद जी ने कबीर को परखा तो डॉ रामविलास शर्मा जी ने निराला के काव्य की गहनता समझाई । निराला को जीवित रहते हुए उपेक्षा ही सहनी पड़ी थी ।
एक बात सभी विधाओं पर लागू होती है कि यदि समकालीन लेखक मूल्यांकन करें तो किसी भी रचनाकार का जो मूल्यांकन होगा , वह ज़्यादा वस्तुनिष्ठ होगा । प्रश्न है -मूल्यांकन करने वाले की नीयत क्या है ? उसका स्वभाव क्या है ;क्योंकि वह भी आदमी ही है -वैर विरोध से ग्रस्त या आँख मूँदकर केवल वाह ! वाह ! करने वाला । अन्य विधाओं में स्वतन्त्र समीक्षक है पर लघुकथा में स्वतन्त्र समीक्षकों का अभाव रहा है । इसके कई कारण हैं- 1-लघुकथा को महत्त्वहीन समझकर कुछ समीक्षक दूर रहे ,तो कुछ को बाहरी कहकर लघुकथा से खदेड़ने का काम किया गया ,जिससे अच्छे समीक्षकों ने किनारा किया । कुछ ने लघु कहानी आदि नाम देकर शिगूफ़ा छोड़ा ताकि लेखक और समीक्षक इसी में उलझे रहें । 2-यदि किसी समीक्षक ने सही बात कही तो उसको असहिष्णु लेखकों का विरोध भी झेलना पड़ा । तब कुछ लघुकथा लेखक ही समीक्षा के क्षेत्र में आगे आए ।कुछ की अपनी सीमाएँ थीं । कुछ के अपने चश्मे थे और मोतियाबिन्द आँखें। उन्हें बहुत दूर का नहीं सूझता था । कुछ चिन्तन की रतौन्धी से ग्रस्त थे ।वे अपने शहर , पड़ोस या घर से बाहर निकलना अपमान समझते रहे । इस संकीर्ण क्षेत्रीयता के कारण उनकी संकीर्ण दृष्टि उनके लेखन पर हावी रही । ‘अन्धा बाँटे रेवड़ी ,फिर-फिर अपनों को दे’ वाली कहावत यहाँ चरितार्थ होती है । जिन लेखकों के पास कुछ स्पष्ट चिन्तन था और वे अच्छा काम कर सकते थे ,उनकी समस्या थी किसी को अपने से बड़ा या अच्छा लेखक न समझना ।भला वे अपने समकालीन के बारे में क्यों लिखें , उसे सिर पर क्यों चढ़ाएँ, उसका महत्त्व क्यों बढ़ाएँ ? ये लेखक इस बात के लिए ज़रूर लालायित रहते थे कि तू मुझ पर लिख ,मैं उस पर लिखूँगा और वह तुम पर लिखेगा ।जीवन चक्र की तरह यह योजना सीधे तौर पर कुछ लेखकों को बाहर का रास्ता दिखाने की ही योजना ज़्यादा नज़र आई; क्योंकि वह नामक लेखक से अपने लिए लिखवाना है ,उस पर लिखकर उसका दिमाग़ खराब नहीं करना ।इस तरह की तिकड़में कभी स्वस्थ मूल्यांकन का आधार नहीं बन सकती । 3- बरेली के 1989 के लघुकथा सम्मेलन में ,मिन्नी द्वारा विभिन्न शहरों में आयोजित 19 सम्मेलनों में हिन्दी और पंजाबी की पढ़ी गई लघुकथाओं पर और अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच के विगत 24 सम्मेलनों में हिन्दी की पढ़ी गई लघुकथाओं पर एवं लघुकथा के विभिन्न पक्षों पर पढ़े गए आलेखों और उनके विभिन्न पक्षों पर पर्याप्त चर्चा हुई है । अन्य शहरों में भी बहुत से सम्मेलन हुए हैं। बरेली सम्मेलन के अतिरिक्त किसी भी आयोजन की बहुत सारी सार्थक चर्चा प्रकाशित रूप में सामने नहीं आ सकी ।इसका लाभ आने वाली पीढ़ी को दस्तावेज़ के रूप में नहीं मिल सकेगा । बहुत से ऐसे लेखक हैं ,जो इन दोनों सम्मेलनों में भागीदार रहे ; लेकिन जब लिखने की बारी आती है तो वे मिन्नी द्वारा किए गए हिन्दी -पंजाबी के ऐतिहासिक कार्यों का उल्लेख तक नहीं करते । यहाँ तक कि दोनों भाषाओं में समान अधिकार से लिखने वालों के नाम का ज़िक्र करने में में भी अपनी तौहीन समझते हैं , जिन लेखकों ने बिना किसी पक्षपात के हिन्दी ही नहीं विश्व भर के लेखकों को पंजाबी पाठकों तक और पंजाबी लेखकों को हिन्दी पाठकों तक पहुँचाने का काम पिछले 24 वर्षों से जारी रखा है । इन सम्मेलनों में जाने वाले कुछ ऐसे भी लेखक हैं , जिन्हें लघुकथा की चिन्ता नहीं है ।चिन्ता है सिर्फ़ इस बात की कि सम्मेलन में उनकी भूमिका क्या है ? यदि सम्मान मिल रहा है , अध्यक्ष बनाया जा रहा है या मुख्य वक्ता के बतौर आमन्त्रित किया गया है तो ज़रूर जाएँगे , सिर के बल चलकर जाएँगे ;अन्यथा नहीं ।ये लेखक भूलकर भी इन सम्मेलनों की रचनात्मक भूमिका पर कुछ नहीं लिखेंगे । दूरदर्शन और आकाशवाणी पर चर्चा के लिए बहुत पहले कुछ हिन्दी लेखक अपना नकारात्मक रवैया दिखा चुके हैं । इसके लिए हिन्दी के ही नहीं वरन् कुछ पंजाबी के लेखक भी हैं , जो विगत 24 वर्षों से प्रकाशित मिन्नी का या इन सम्मेलनों का दूरदर्शन पर दिए गए अपने साक्षात्कार में जिक्र करना भी उचित नहीं समझते । इन्हें यह डर सताता होगा कि कहीं हमारा महत्त्व न घट जाए । आजकल और हरिगन्धा मासिक के लघुकथा विशेषांक के समय भी इसी प्रकार की खींचतान हुई ।
जानबूझकर कूपमण्डूक बनने की यह प्रवृत्ति न किसी खुली सोच का उदाहरण है और न विधा के लिए हितकर है ।लघुकथा: बहस के चौराहे पर , हरियाणा का लघुकथा -संसार ,विभिन्न लेखकों की लघुकथा विषयक पुस्तकों में तथा बहुत से लेखकों ने अपने संग्रहों और सम्पादित संकलनों में भूमिका के माध्यम से लघुकथा को व्याख्यायित किया है । सुकेश साहनी ने सम्पादित संग्रहों-स्त्री -पुरुष सम्बन्धों की लघुकथाएँ ,महानगर की लघुकथाएँ, देह-व्यापार की लघुकथाएँ में अपनी विस्तृत भूमिकाओं में लघुकथाओं की शक्ति और वैविध्य अहसास कराया है ,तो अपने संग्रहों में लघुकथा की रचना-प्रक्रिया आदि पर सार्थक विचार प्रकट किए हैं। कथादेश के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर लघुकथा की आयोजित प्रतियोगिताओं में पुरस्कार देकर भी इस विधा को आगे बढ़ा रहे हैं । ।लघुकथा के उन्नयन के लिए वर्ष 2000 में लघुकथा डॉट कॉम वेबसाइट शुरू की गई थी। इस पर दी गई सामग्री में से-बाल मनोवैज्ञानिक लघुकथाएँ ,मानव-मूल्यों की लघुकथाएँ और ‘ लघुकथा : मेरी पसन्द’ तीन संकलन आ चुके हैं ।
अच्छा लेखन या संकलनों का प्रकाशन कौन महत्त्वपूर्ण है? रमेश बतरा का कोई लघुकथा -संकलन नहीं छपा ;लेकिन उनके रचनाकर्म का वैविध्य उन्हें हिन्दी के श्रेष्ठ रचनाकारों की श्रेणी में रखता है । दूसरी ओर सुभाष नीरव ने उत्कृष्ट लघुकथाएँ लिखने के साथ-साथ पंजाबी की लघुकथाओं का हिन्दी अनुवाद भी प्रस्तुत किया ।इन्होंने ‘प्रयास’ नाम की साइक्लोस्टाइल पत्रिका सन 1980 के आसपास प्रारम्भ की थी। एक लम्बे अर्से के बाद इस वर्ष 2012 में इनका संकलन आया है ।इनकी लघुकथाएँ अपने उल्लेखनीय कथ्य ,आम आदमी की ज़िन्दगी के सरोकार को बड़ी शिद्दत से पेश करती हैं ।इनको केवल अनुवादक तक सीमित करना अनुचित ही कहा जाएगा ।
जिनकी लघुकथा के तात्त्विक विवेचन पर गहरी पकड़ है , वे भी जान-बूझकर अपने समकालीन लेखकों का उल्लेख करने से बचते हैं ।वे अपने आलेख की शुरुआत विष्णु नागर या असगर वज़ाहत से करेंगे ।शायद समकालीन अन्य लेखकों से बचने का इससे बेहतर कोई संकटापन्न मार्ग नज़र न आता हो । नई दुनिया का सम्पादन करते समय लघुकथाएँ दी गई पर ‘लघुकथा’ शब्द से परहेज़ किया गया। यही नहीं , विष्णु प्रभाकर जैसे रचनाकार की लघुकथा से उनका नाम भी हटा दिया गया । फोन पर जब इसका कारण पूछा तो सम्पादक महोदय ने इसे अखबार का नीतिगत मामला बताया । किसी ज़माने में स्तरीय लघुकथा छापने वाला हिन्दुस्तान आज लघुकथा के नाम पर कुछ भी छाप देता है । इण्टरनेट ने तो और भी सुविधा जुटा दी है । गद्यकोश से किसी भी लेखक की लघुकथा उठाओ और छाप दो । न सम्पादन का झमेला , न टाइप कराना, न प्रति भेजना न मानदेय देना । कलकत्ता के सन्मार्ग में लघुकथा के कालम को देखने वाले सज्जन यही काम कर रहे हैं ।कभी-कभी तो हंस जैसे मासिक में भी ऐसी रचना लघुकथा के नाम पर छप जाती है, जो कहीं से भी लघुकथा छोड़िए,चुटकुला भी नहीं होती है ।
आज कमलेश्वर और रमेश बतरा जैसे सम्पादक नहीं हैं ; जिनके चयन और सम्पादन का लेखक लोहा मानते थे । आज कमज़ोर सम्पादकों के चलते अपनी किसी अखबार में छपी रचना को लेकर गलतफ़हमी पालने वाले बहुत से लेखक घटना -लेखन को ही लघुकथा -लेखन समझकर कुछ भी लिखे जा रहे हैं । कुछ तो दो वाक्य लिखकर और उसे सबसे छोटी लघुकथा समझकर खुद ही अपनी पीठ ठोंक रहे हैं , जबकि लघुकथा लेखन सन्तुलित दृष्टि , संयमित भाषा और गम्भीर चिन्तन के बिना सम्भव नहीं है । लघुकथा डॉट कॉम के ‘मेरी पसन्द’ कॉलम माध्यम से यह प्रयास किया गया था कि लेखक , समीक्षक या प्रबुद्ध पाठक अपनी पसन्द की दो लघुकथाओं की तात्त्विक विवेचना प्रस्तुत करें । कुछ लेखक ऐसे भी सामने आए जो अपने समकालीन लेखकों को न तो पढ़ते हैं और न समझते हैं और न दो वाक्य से ज़्यादा लिखने की स्थिति में खुद को पाते हैं । कुछ विगत चार साल से आग्रह करने पर भी दो पंक्तियाँ लिखने में असमर्थ हैं । कुछ अपने साथ उठने -बैठने वाले को छोड़कर किसी अच्छे लेखक की अच्छी रचना पर नहीं लिखना चाहते । यह लघुकथा के लिए शुभ नहीं है । आज इस दिशा में गम्भीरता से सोचना होगा कि लघुकथा में समालोचना का भविष्य कैसे सँवारा जाए । लघुकथा सम्मेलनों में जो सार्थक चर्चा हो , उसका प्रकाशन ज़रूर किया जाए । पटना के सम्मेलन में प्रो निशान्त केतु और प्रो रवीन्द्रनाथ ओझा की चर्चाएँ , महत्त्वपूर्ण हुआ करती थीं । उनका चर्चाओं का ( उनके पठित आलेख के अतिरिक्त) आज अभिलेख उपलब्ध नहीं है। इस दिशा में पंजाब के सम्मेलनों में डॉ अनूपसिंह की चर्चाएँ भी उपयोगी रहीं । इनके कुछ विचार प्रकाशित रूप में उपलब्ध हैं। मिन्नी त्रैमासिक की चर्चाएँ और लघुकथा विषयक चिन्तन आज भी महत्त्वपूर्ण है । आज आवश्यकता है स्वस्थ दृष्टिकोण को बढ़ावा देने की। अगर हमारे लेखक खुद ही आगे बढ़ना चाहते हैं ,तो आने वाली पीढ़ी को कौन प्रोत्साहित करेगा ? संकीर्ण विचार धारा के चलते समकालीन लेखकों के रचनाकर्म को अगर हम स्वीकार नहीं करेंगे तो , ऐसा करने से वे लेखक महत्त्वहीन नहीं हो जाएँगे , बल्कि हम ही सिरे से गायब हो जाएँगे ।आने वाला समय किसी का सही मूल्यांकन सही रचना के द्वारा ही करेगा । अत: आज की आवश्यकता है ,अच्छे रचनाकारों को पाठकों तक पहुँचाना । -0-