लघुकथा में समीक्षा : वर्तमान चुनौतियाँ /रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
आलोचना, समालोचना, समीक्षा तीनों शब्द किसी वस्तु , कार्य या कृति के प्रति सम्यक् दर्शन के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। सैद्धान्तिक आलोचना के क्षेत्र में भारत में पर्याप्त कार्य हुआ है , लेकिन व्यावहारिक समालोचना का क्षेत्र ज़्यादा पुराना नहीं है ।प्रतिभा की दो श्रेणियाँ मानी गई हैं –कारयित्री और भावयित्री। कारयित्री प्रतिभा रचनाकार का आधार है तो भावयित्री रचना का आस्वाद लेने वाला भावक है यानी वह व्यक्ति जो रचना का अवगाहन करके उसको सामान्य पाठक तक पहुँचाता है ।उत्तम आलोचना को भी रचना ही माना गया है ,क्योंकि वह रचना की पुनर्रचना ही है।
राजशेखर ने आलोचक ( भावक) की चार श्रेणियाँ मानी हैं-अरोचकी,सतृणभ्यवहारी, मत्सरी और तत्त्वाभिनिवेशी । अरोचकी को किसी की अच्छी रचना भी पसन्द नहीं आती , सतृणभ्यवहारी सभी रचनाओं( अच्छी या बुरी) की प्रशंसा करते हैं यानी सब धान बाइस पसेरी।मत्सरी ईर्ष्यावश रचना की केवल बुराई ही करते हैं । सही अर्थों में तत्त्वाभिनिवेशी आलोचक ही न्यायपूर्ण आलोचना कर सकते हैं ; क्योंकि वे रचना की तह तक पहुँचकर कथ्य और शिल्प की सही पड़ताल और परख करते हैं। रचना और रचनाकार के प्रति उनकी सम्यक् दृष्टि ही तात्त्विक विश्लेषण में सफल हो पाती है।
विषय-ज्ञान तो आलोचक के लिए अनिवार्य है ही साथ ही कुछ ऐसे गुण हैं जो जिनके बिना आलोचना या समीक्षा बेमानी है। पूर्वग्रहमुक्त, सहृदय , निर्भीक,सहिष्णु और निर्णयात्मक अन्तर्दृष्टि –युक्त व्यक्ति ही समालोचक हो सकता है । पक्षपात की मानसिकता से ग्रस्त अनुदार व्यक्ति कभी सही समीक्षा नहीं कर सकता है ।हिन्दी साहित्य में आलोचना का इतिहास बहुत पुराना नहीं है । पाश्चात्य समीक्षा के प्रभाव में ‘समीक्षा पद्धति ‘ में बहुत से परिवर्तन आते गए । सर्वांगीण रूप से कृति के मूल्यांकन की बात करें तो सहृदय,तटस्थ और ईमानदार समीक्षक ही सही मूल्यांकन कर सकता है । हिन्दी लघुकथा उत्थान से लेकर अब तक किसी स्वतन्त्रचेता समीक्षक को नहीं पनपने दिया, इसका कारण रहा आपसी मतभेद और मनभेद । जब लघुकथा लेखकों ने समीक्षा की बागडोर सँभाली तो उनके सामने भरा-पूरा मैदान था ।जिधर चाहे दौड़े, जैसे चाहें दौड़ें । यह दौड़ अगर पूर्णतया संयमित होती तो बहुत अच्छा होता ।जहाँ समालोचकों ने निष्पक्ष लेखन किया , वहाँ स्वीकार्यता के स्थान पर विरोध के स्वर अधिक मुखर हो उठे । अच्छे कार्य की सराहना तो दूर की बात , उसके जिक्र तक से गुरेज़ किया गया । शास्त्रीय पक्ष की बात करें तो विभिन्न सम्मेलनों में लघुकथा के विभिन्न मत वैभिन्य पर खुलकर चर्चा हुई , आम सहमति बनी । जो लोग लघुकथा –विषय इन चर्चाओं से दूर रहे ,जिन्होंने खुद को अपडेट नहीं किया , वे आज भी बीस –पच्चीस साल पुरानी उन बातों को दुहराते मिल जाएँगे जो आज के दिन अप्रासंगिक हो चुकी हैं। मिन्नी के और पटना के विभिन्न सम्मेलनों में जो लोग चर्चा-परिचर्चा का हिस्सा बने, वे लिखते समय उन सभी तथ्यों से अनभिज्ञ नज़र आए , जिनका वे समर्थन करते आए थे ।
लघुकथा के क्षेत्र में कुछ उल्लेखनीय भी कार्य हुए ।लघुकथा : बहस के चौराहे पर ( सम्पादक :सतीशराज पुष्करणा) लघुकथा की तत्कालीन मान्यताओं को देखते हुए एक ऐतिहासिक कार्य था ।उसमें दी गई मान्यताओं को समय-समय पर संशोधित कर दिया गया ; लेकिन उस तरह का शास्त्रीय और सुनियोजित कार्य दुबारा नहीं हुआ । बरेली सम्मेलन (11-12 फ़रवरी 1989) में लघुकथा पाठ के बाद त्वरित समीक्षा का प्रयोग किया गया। पूरी चर्चा को रिकार्ड करके ज्यों का त्यों प्रकाशित करा दिया गया । खरी-खरी बात बहुत से लघु मानसिकता के रचनाकारों को पसन्द नहीं आई । आज तक बहुत से सम्मेलनों में रचनाओं और शिल्प पर सार्थक चर्चा –परिचर्चा हो चुकी है; लेकिन प्रकाशन के अभाव में सारी बातें हवा में खो गई । कथादेश , तत्पश्चात् ,वर्त्तमान ,लघुकथा : सर्जना और समीक्षा , हिन्दी लघुकथा का सौन्दर्यशास्त्र ( सम्पादन डॉ सतीशराज पुष्करणा), में लघुकथाकारों पर की गई समीक्षात्मक टिप्पणियाँ सारगर्भित और महत्त्वपूर्ण हैं तो हिन्दी लघुकथा –समीक्षा और दृष्टि में डॉ सतीशराज पुष्करणा का लघुकथा विषयक चिन्तन है ।‘लघुकथा-विमर्श’ ( सम्पादक-डॉ रामकुमार घोटड़) के साक्षात्कार कुछ असहमति के साथ एक सार्थक प्रयास है। हरियाणा की लघुकथा( डॉ रूप देवगुण) ने बिना किसी भेदभाव के हरियाणा के 51 लघुकथाकारों को हरियाणा में लघुकथा की विकास यात्रा के साथ प्रस्तुत किया है।
लघुकथा के समीक्षा-पक्ष पर विचार करते समय सबसे बड़ी यह विडम्बना दृष्टिगत होती है कि अधिकतर लघुकथाकार अपने समकालीन या अपने से अच्छा लिखने वाले का जिक्र करने से बचते ही नहीं वरन् नियोजित ढंग से किनारा कर लेते हैं । यदि वे कहीं उद्धृत भी करते हैं ,तो खुद को निर्णायक और उत्कृष्ट समझकर करते हैं । इसके लिए वह अपने ही लेख में अपनी ही रचनाओं के गुण गिनवाते समय शर्मिन्दा नहीं होते । जब लेखकों को वर्गीकृत करते है ,तो खुद को प्रथम वर्ग में रखते हुए लज्जा का अनुभव नहीं करते और लघुकथा के अपने से सशक्त हस्ताक्षरों तक को दोयम दर्ज़े के लेखकों की सूची में रखने पर ग्लानि महसूस नहीं करते । हद तो तब हो जाती है, जब अपने से ज़्यादा वज़नी लघुकथाकारों को किनारे करने के लिए प्रथम वर्ग ( प्रतिनिधि रचनाकार)में ऐसे रचनाकारों को भी रख लेते है , जिनकी एक भी लघुकथा उनको चर्चा के योग्य नहीं मिलती है । हरियाणा ग्रन्थ अकादमी से प्रकाशित ‘समकालीन हिन्दी लघुकथा’ में रत्न कुमार साँभरिया और जसवीर चावला की एक भी लघुकथा को चर्चा के योग्य नहीं समझा गया । ।रमेश बतरा हिन्दी लघुकथा –जगत के निर्विवाद रूप से उत्कृष्ट रचनाकार हैं।रचनाकार ही नहीं वह सम्पादक भी रहे हैं, जिसने उनको और आज के बहुत से अच्छे रचनाकारों को मंच प्रदान किया है। लघुकथा के ऐसे लाइट हाउस माने जाने वाले रमेश बतरा को ‘अन्य प्रमुख लघुकथा लेखक’ में वर्गीकृत करने और अन्य कई इसी प्रकार की त्रुटियों के कारण पूरी पुस्तक विवादों के घेरे में आ गई है।श्याम सखा ‘श्याम’ की अनुपस्थिति तथा उनसे कमज़ोर लघुकथाकारों की उपस्थिति लेखक की नीयत पर भी सवाल खड़े करती है । इसी तरह से कई और लेखक सिरे से गायब हैं, जबकि वे महानुभाव मौज़ूद हैं जो साथियों की रचनाओं के कथ्य चुराकर अपना लेखकीय वजूद बचाने में लगे हैं ।इसी दिशा में ‘पड़ाव और पड़ताल’ खण्ड -2 के पड़ताल खण्ड को बेहतर माना जा सकता है,क्योंकि पड़ताल करने वाले कुछ समीक्षक लघुकथाकार न होकर सुलझे हुए ईमानदार समीक्षक की भूमिका में मज़बूती से खड़े नज़र आते हैं।दूसरी ओर रचना पक्ष और उसके मूल्यांकन पर बात करें तो ‘इरा वलेरिया शर्मा’ का शोध ग्रन्थ ’The laghukatha ( A Historical and Literary Analysis of a Modern Hindi Prose Genre) अधिक वस्तुनिष्ठ , विश्वसनीय , सन्तुलित एवं निष्पक्ष है।डॉ शकुन्तला किरण के शोध –ग्रन्थ के बाद यह दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य है ।इस तरह के शोध-ग्रन्थ को पढ़कर मत्सरी समीक्षक खुद को सुधार सकते हैं। पक्षपातपूर्ण लेखन करके विरोधियों से अपना पुराना हिसाब –किताब चुकता करने से किसी भी विधा / व्यक्ति का भला नहीं हो सकता ।
प्राध्यापकीय समालोचना ने साहित्य –जगत् ज़्यादा गुमराह किया है ।‘नीव के नायक’निश्चित कालखण्ड तक सिमट जाने के कारण और अधूरेपन के कारण समीक्षा-जगत का कोई भला नहीं कर सकी ।इनके द्वारा सम्पादित संग्रह भी भेद दृष्टि की भेंट चढ़ गए हैं। लेखक अपने समकालीन लेखकों से परहेज़ करता नज़र आता है ।कमल किशोर गोयनका तो और भी आगे निकल गए हैं। इनकी पुस्तक ‘लघुकथा का व्याकरण’ का नाम तो समीक्षा और लघुकथा के शिल्प की जानकारी प्राप्त करने वालों को केवल गुमराह ही कर सकता है।इस पुस्तक का लघुकथा की तकनीक आदि से कोई वास्ता नही है।
विमर्श पक्ष को लेकर कुछ और भी स्तरीय कार्य प्रकाश में आया , जिनमें ‘लघुकथा दिशा और स्वरूप(कृष्णानन्द कृष्ण ),लघुकथा सर्जना और समीक्षा, हिन्दी लघुकथा –समीक्षा एक दृष्टि, हिन्दी लघुकथा का सौन्दर्यशास्त्र ( डॉ सतीशराज पुष्करणा) उल्लेखनीय हैं ।मिनीयुग द्वारा विभिन्न अंकों में प्रस्तुत चर्चा ने समीक्षा का बीजारोपण किया । मिन्नी त्रैमासिक के विभिन्न अंकों में लघुकथा के स्वरूप पर जो भी चर्चा आई है , वह हर तरह के पूर्वग्रह से मुक्त और तथ्यपूर्ण नज़र आती है ।आजकल ,उत्तर प्रदेश मासिक ,शीराज़ा , हिन्दी चेतना, अविराम साहित्यिकी, अभिनव इमरोज़ में लघुकथाओं के साथ विभिन्न पक्षों पर सार्थक चर्चा हो चुकी है।
सम्पादित लघुकथा –संग्रहों की भूमिकाओं में लघुकथा के कथ्य-शिल्प और समीक्षा –पक्ष पर यत्र –तत्र विचार किया गया है , जिनमें सुकेश साहनी द्वारा सम्पादित विभिन्न विषय –केन्द्रित संग्रह( महानगर , स्त्री-पुरुष सम्बन्ध , देह-व्यापार ), बलराम द्वारा सम्पादित विभिन्न लघुकथाकोश ,विभिन्न पत्रिकाओं के लघुकथा के कई विशेषांक , प्रमुख हैं।लघुकथा डॉट कॉम के माध्यम से लघुकथाकार तथा साहित्य की अन्य विधाओं के जानकारों द्वारा ‘मेरी पसन्द’ कॉलम के लिए समीक्षात्मक आलेख माँगे गए । हमारे कुछ निकटवर्ती मित्र तीन-तीन बार नाम घोषित होने पर भी एक पंक्ति नहीं लिख पाए।इसका कारण उनकी अक्षमता नहीं वरन् प्रमाद है। कुछ ने लिखा तो वे अपने निकटवर्ती मित्रों के दायरे से बाहर नहीं निकले या इतना उथला लिखा कि उसका उपयोग नहीं किया जा सकता था । कुछ की हालत इतनी बदतर निकली कि वे खुद की रचना पर भी सन्तुलित समीक्षात्मक टिप्पणी नहीं लिख सके।इसका कारण यही समझ में आता है कि वे अपनी रचना में क्या कहना चाहते हैं , स्वयं भी निश्चित नहीं कर पाते । हैं।लघुकथा डॉट कॉम में अध्ययन –कक्ष और दस्तावेज के माध्यम से समीक्षा को निष्पक्ष रूप से प्रोत्साहित किया गया है ।
हिन्दी –लघुकथा के कुछ समीक्षक हरिशंकर परसाई , असगर वज़ाहत से शुरू होकर विष्णु नागर पर खत्म हो जाते हैं।कुछ कथाकारों का नाम जान बूझकर छोड़ा जाता है ताकि उनसे अपना पुराना हिसाब –किताब चुकता कर लिया जाए। इस नकारात्मक प्रवृत्ति से इस विधा का नुकसान ही हुआ है । आज आवश्यकता है संकीर्ण दायरे से हटकर सोचने वाले समीक्षकों की जो उदारतापूर्वक रचनाओं की गुणवत्ता को सामने लाएँ, न कि खेमेबन्दी की गिरफ़्त में आकर संकीर्णता के वाहक बनें।