लघुकथा में ‘कथा' की अनुपस्थिति का बढ़ता संकट / सुकेश साहनी

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लेखकों/पाठकों के बीच निरंतर बढ़ती लोकप्रियता के बीच ‘कथादेश अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता -15 ‘ का आयोजन संपन्न हो गया और सोलहवें आयोजन (लघुकथा -प्रतियोगिता) की घोषणा हो गई है। उल्लेखनीय है कि साहित्य -जगत् में ‘कथादेश मासिक’ को बहुत सम्मान प्राप्त है, इसमें रचना प्रकाशित होने पर लेखक इस उपलब्धि को गर्व के साथ प्रस्तुत करता है। यही कारण है कि कथादेश द्वारा आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता में भाग लेने वालों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है।

कथादेश अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता की निरंतरता और संपादक कथादेश द्वारा पुरस्कृत लघुकथाओं को ससम्मान, विशिष्ट अंक के रूप में प्रकाशित किए जाने का प्रतिफल है कि लघुकथा से जुडी पत्रिकाओं, संस्थाओं के लिए कथादेश लघुकथा प्रतियोगिता ‘प्रकाश स्तम्भ'(लाइट हाउस ) का काम कर रही है, कथादेश की प्रतियोगिता से प्रेरित होकर कई पत्रिकाओं और संस्थाओं ने लघुकथा प्रतियोगिता के आयोजन की घोषणा की है। इस प्रकार के आयोजन लघुकथा के लिए हितकारी हैं बशर्ते पुरस्कृत रचनाओं के चयन में पारदर्शिता और ईमानदारी बरती जाए।

पावर विंडो (अरुण मिश्रा),दंश (दिनेश भट्ट),धरोहर,उतरन,शुभ अशुभ (आनंद),तकनीक का धमाका (जावेद आलम), बिन शीशों का चश्मा (रामकुमार आत्रेय),खंडन,तिल (हरि मृदुल), मुजरिम(कुमार शर्मा ‘अनिल’),प्रेमवती की चिठ्ठी (गजेंद्र रावत ),आदेश (युगल),मानुस-गंध(सरोज परमार),पहला संगीत (अखिल रायज़ादा),,फाँस (हरभगवान चावला),गेट मीटिंग,मुझमें मंटो(उर्मिल कुमार थपलियाल),दृष्टि(जय माला),गुलाब के लिए,पुरुष- मन (कस्तूर लाल तागरा ),छवियाँ ऐसे ही बनती हैं(सविता पांडेय ),अंतिम चारा(खेमकरण सोमन) आर्द्रता,हम बेटियाँ हैं न (संतोष सुपेकर ), गाली(अरुण कुमार), जरुरत, पिता (महेश शर्मा),कोशिश (मीना गुप्ता ),हार,बादल (राम करन),पति परमेश्वर (पल्ल्वी त्रिवेदी), स्त्रीवादी पुरुष (मानवी वहाणे),समाधान(सुरेश बाबू मिश्रा), सीक्रेट पार्टनर(मीनू खरे),अपना अपना चाँद (चाँदनी समर), संवेदनाओं का डिजिटल संस्करण (सुषमा गुप्ता ), ञ माने कुछ नहीं (सोनाली), जैसी लघुकथाओं को प्रकाश में लाने का श्रेय कथादेश को जाता है, जिन्हें आज विभिन्न शोध लेखों में उत्कृष्ट लघुकथाओं के रूप में उद्धृत किया जाता है। देश-विदेश से प्रकाशित हो रहे महत्त्वपूर्ण संकलनों में कथादेश की इन पुरस्कृत रचनाओं ने अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज़ कराई है।

सभी पुरस्कृत लघुकथाएँ ‘कथादेश- पुरस्कृत लघुकथाएँ ‘ के रूप में प्रकाशित हैं , जिसे नयी किताब प्रकाशन, 1 / 11829, ग्राउंड फ्लोर , पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा, दिल्ली -110032 से प्राप्त किया जा सकता है।

लघुकथा प्रतियोगिता-1 से 15 तक निर्णायक मंडल में मैनेजर पाण्डे, सुभाष पन्त, महेश कटारे, विभांशु दिव्याल, सुरेश उनियाल, हृषिकेश सुलभ, राजकुमार गौतम, सत्यनारायण, शिवमूर्ति, भालचंद्र जोशी, आनंद हर्षुल, योगेंद्र आहूजा, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, श्याम सुन्दर अग्रवाल, देवेंद्र, श्याम सुन्दर ‘दीप्ति’, जितेंद्र रघुवंशी, गौतम सान्याल, जय प्रकाश, प्रियम अंकित, वैभव सिंह, राकेश बिहारी, हरिनारायण एवं सुकेश साहनी शामिल रहे।

लघुकथा प्रतियोगिता -15 के लिए लगभग सात सौ लेखकों ने ई-मेल से रचनाएँ भेजीं, करीब पचास लेखकों द्वारा डाक से भेजी गईं। प्रत्येक रचनाकार से नियमानुसार अधिकतम तीन लघुकथाओं की अपेक्षा की गई थीं, उसी के अनुसार अधिकतर लघुकथाएँ प्राप्त हुईं। किसी एक रचनाकार की प्रथम तीन से अधिक रचनाओं पर विचार नहीं किया गया। इस प्रकार देखा जाए, तो सदैव की भाँति बहुत ही कम लघुकथाओं को निर्णायकों के पास भेजने के लिए उपयुक्त पाया गया। बड़ी संख्या में प्राप्त लघुकथाओं में से मात्र 25 का अंतिम चक्र तक पहुँचना इस विधा में उथले हो रहे लेखन को प्रमाणित करता है। पिछली प्रतियोगिताओं में इसके पीछे के विभिन्न कारणों की पड़ताल की जाती रही है। इस वर्ष प्राप्त लघुकथाओं के अवलोकन से विमर्श हेतु दो प्रमुख बिंदु सामने आए-

एक -लघुकथाओं में ‘कथा’ की अनुपस्थिति का बढ़ता संकट

दो -लघुकथाओं में मौलिकता का अभाव और कथ्य का दोहराव

एक – ऐसी लघुकथाएँ बहुतायत में देखने में आ रही हैं, जिनमें ‘कथा ‘ ही नहीं होती है। बिना कथा के लघुकथा मुकम्मल नहीं कही जा सकती। सिर्फ घटना या विचार की प्रस्तुति लघुकथा नहीं है। इस बिंदु को बार -बार स्पष्ट करने के बावजूद भ्रम की स्थिति बनी हुई है। रमेश बतरा ने भी इसे स्पष्ट किया है –‘लघुकथा घटना नहीं बल्कि उसकी घटनात्मकता में से प्रस्फुटित विचार है, जो यथागत पात्रों के माध्यम से उभरे।’ रामेश्वर कम्बोज ‘हिमांशु’ ‘ लघुकथा के विविध आयाम‘ में इसे और अधिक स्पष्ट करते हैं– ‘घटना को कागज़ों पर उतारकर, बिना किसी संवेदना के, उसे किसी प्रयोग का पुर्ज़ा बनाना, किसी निर्धारित साँचे में रखकर बिना किसी अनुभूति के लघुकथा बनाने का असम्पृक्त प्रयास करना ‘कथा नहीं है। ‘घटना/घटनाएँ ‘केवल सूत्र हैं, कथा नहीं। शिल्प के सायास ‘प्रयोग संवेदना के बिना निष्प्राण वाग्जाल हैं। कच्चे बर्तन में पानी भरने का जो परिणाम होता है, उसी प्रकार प्रयासपूर्वक कथ्यविहीन घटनाएँ लिखने का होता है। इस तरह का लेखन न पहले परिपक्व लघुकथा के दायरे में आता था और न आज।

कुछ लघुकथा लेखक संवाद शैली से सम्मोहित होकर सायास लिखते हैं, बिना यह समझे की कथ्य की माँग क्या हैं,इस शैली में उसे(कथ्य) विकसित कर सफल सम्प्रेषण संभव है भी कि नहीं। प्रतियोगिता हेतु प्राप्त लघुकथाओं में संवाद- शैली में लिखी गई रचनाओं कि संख्या अपेक्षाकृत अधिक है, इनमें रचनाकार खुद को अति आधुनिक मानकर नई मान्यताओं को प्रतिपादित करने का असफल प्रयास करता है, कई वरिष्ठ लघुकथाकार इस तरह की रचनाएँ लिखकर गलत उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। कृत्रिम संवाद और ‘कथा‘ की अनुपस्थिति के कारण ऐसा लेखन लघुकथा की श्रेणी में नहीं आता। इस संदर्भ में रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’’ की टिप्पणी महत्त्वपूर्ण है -‘संवाद यदि पूरी तरह अनुस्यूत न हों ,संवादों में संवेदना की ऊष्मा न हो ,तो वे कथा की निर्मिति में सहायक नहीं हो सकते।‘ इस बिंदु का समझने के लिये संवाद- शैली में लिखी गई रमेश बतरा की ‘हालात’, उर्मिल कुमार थपलियाल की ‘गेट मीटिंग’ जैसी लघुकथाओं का अवलोकन करना चाहिए।

कुछ लेखकों को बड़े रचनाकारों की दो -तीन पंक्तियों वाली रचनाएँ किसी चुंबक की तरह खींचती हैं, उन्हें लगता हैं इस प्रकार की रचनाएँ लिखकर, वे भी इस क्षेत्र में सफलता के कीर्तिमान स्थापित कर देंगे। यहाँ यह समझना चाहिए कि जिन रचनाओं का अनुकरण वे कर रहे हैं, उनका कथ्य ही इस प्रकार का है कि उसकी अभिव्यक्ति के लिए गिनती के शब्दों कि जरूरत होती है,यानी कथ्य ही रचना का कलेवर तय करता है, कुछ उदाहरण –

वह डर गया है।

क्योंकि जहाँ उसे जाना है, वहाँ उसके पैरों के निशाँ पहले से ही बने हुए हैं। (डर: उदय प्रकाश, शब्द– संख्या-20)

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ऐ रफीक भाई! सुनो …उत्पादन के सुख से भरपूर थकान की खुमारी लिये, रात मैं कारखाने से घर पहुँचा तो मेरी बेटी ने एक कहानी कही,”एक लाजा है, वो बोत गलीब है।” (कहूँ कहानी : रमेश बतरा,शब्द– संख्या-33)

-०-

एक शर्मीला -सा लौंडा झिझकते हुए कोठेवाली के करीब आकर बोला,”क्या आप स्टूडेंट कंसेशन भी देती हैं।”

कोठे वाली उस स्टूडेंट को बड़ी ममता भरी आँखों से देखकर मुस्कराने लगी और उसके मुँह से बेइख्तियार निकल गया,”हाँ बेटे, क्यों नहीं ?” (ताल :जोगिन्दर पाल,शब्द– संख्या-41)

-०-

एक बार राजनीति वेश्या के अड्डे पर पहुँची। दरवाज़े पर खड़े दलाल ने उसको सिर से पैर तक घूरा–”तुम कौन हो?”

“मैं राजनीति हूँ। बाई जी से मिलना है।”

दोनों की बातचीत सुनकर बाई जी दरवाजे़ की ओट में खड़ी हो गई और बोली–”यहाँ तुम्हारी ज़रूरत नहीं है। हमें अपना धंधा चौपट नहीं कराना। तुमसे अगर किसी को छूत की बीमारी लग गई, तो मरने से भी उसका इलाज नहीं होगा।” कहकर उसने खटाक् से दरवाज़ा बंद कर लिया। (प्रवेश निषेध :रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु ‘शब्द संख्या-78)

-०-

इन प्रसिद्ध लेखकों को अपने मस्तिष्क में दस्तक दे रहे कथ्य की अभिव्यक्ति के लिए इस कलेवर में लिखना पड़ा, ऐसा स्वतःस्फूर्त प्रक्रिया के तहत होता है। इसका यह मतलब भी नहीं लगाना चाहिए कि लघुता के कारण यही उनकी सर्वश्रेठ लघुकथाएँ हैं। इनकी अनेक कथा प्रधान लघुकथाएँ कहीं अधिक सराही और याद रखी जाती हैं।

लघुकथा के वर्तमान परिदृश्य पर निगाह डालें तो प्रयोगधर्मिता के नाम पर लघुकथा के आकार प्रकार के साथ जिस प्रकार कि छेड़छाड़ हो रही है, उससे लघुकथा से ‘कथा’ की अनुपस्थिति का संकट गहराता जा रहा है। सोशल मीडिया पर प्रस्तुत कुछ ऐसी रचनाएँ और उनपर की जा रही टिप्पणियाँ किसी संभावनाशील लेखक को भी भ्रमित कर सकती हैं। यहाँ उदाहरण के रूप में एक रचना और उस पर कमेंट देखें-

(रचना और उसपर टिप्पणियाँ पूर्णतया काल्पनिक हैं, किसी भी लेखक अथवा कमेंट करने वाले से सम्बंधित नहीं है, केवल ट्रेंड को दर्शाने हेतु गढ़ी गई हैं)

एक रचनाकार को लगता है की उसने कुछ ‘महत्त्वपूर्ण’ रच दिया है। चूँकि कथाकार आत्ममुग्ध नहीं है, इसलिए असमंजस में है कि प्रयोग के तौर पर लिखी गई रचना लघुकथा है कि नहीं। वह फेसबुक पर उसे पोस्ट कर मित्रों से बेबाक राय देने का अनुरोध करता है,रचना कुछ इस प्रकार की हो सकती है –

वादा

वह कहती थी,”आइ लव यू! मैं सदैव तुम्हारा साथ निभाऊँगी”

लेकिन आइ पी एस बनते ही वह हमेशा के लिए मुझे छोड़कर चली गई।”

इस पर कुछ कमेंट –

कमेंट एक -सफल प्रयोग हेतु बहुत बहुत बधाई! ऐसे प्रयोग करते रहिए। लघुकथा को आप जैसे प्रयोगधर्मी शिखर तक पहुँचाएँगे। आलोचनाओं से न घबराएँ।

कमेंट दो -इसे और अधिक स्पष्ट और संक्षिप्त किया जा सकता है।

कमेंट तीन -बहुत खूब!

कमेंट चार -मुझे सही लगी

कमेंट पाँच -किसी वक्तव्य को लघुकथा कहना बेकार की बात

कमेंट छह -यह लघुकथा नहीं है

कमेंट सात -बधाई! अभिनव प्रयोग रचना को भीड़ से अलग करते हैं, पाठकीय भूख को बढ़ाते हैं।

यहाँ लेखक से ज्यादा गैरजिम्मेदार वे टिप्पणी करनेवाले हैं, जो एक वक्तव्य को ‘अभिनव प्रयोग’ और प्रयोगधर्मी लेखक को ‘लघुकथा को शिखर पर पहुँचाने वाला’ बताकर विधा का सर्वाधिक अहित कर रहे हैं। प्रतियोगिता हेतु प्रयोग के नाम पर ऐसे वक्तव्य और सत्यकथाएँ भेजने वालों के कारण प्रतिभागियों की संख्या तो बढ़ जाती है, पर लघुकथा की श्रेणी में आने वाली रचनाएँ काफी कम मिल पाती हैं।

प्रयोग के घोड़े पर सवार लघुकथा लेखकों को ठहरकर अशोक भाटिया की यह टिप्पणी (लघुकथा में प्रयोग) पढ़नी चाहिए– ‘रचना में प्रयोग निरुद्देश्य नहीं किये जाते । उनका उद्देश्य बौद्धिक विलास करना भी नहीं होता, अपितु रचना की शक्ति को उभारना, ताकि पाठक उसे सही परिप्रेक्ष्य में तीव्रता के साथ महसूस कर सके। जैसे कला कला के लिए नहीं, बल्कि जीवन के लिए होती है, इसी प्रकार प्रयोग प्रयोग के लिए न होकर रचना की सामर्थ्य का संवर्धन करने के लिए होता है। प्रयोग रचना की आंतरिक जरूरत से निकलकर आएगा, तो रचना की संरचना में भी बदलाव आएगा। लेकिन यथार्थ का कोई नया पक्ष या कोण अपने में प्रयोग नहीं है। रचना की वस्तु को ग्लोरिफाई करना या बाहर से बिंदी-सुर्खी लगाकर सजाना भी प्रयोग नहीं है। किसी भी शैली में लिख देना भी स्वयं में प्रयोग नहीं है, बशर्ते उससे रचना को कुछ अतिरिक्त शक्ति प्राप्त होती हो या कि अर्थ अथवा संवेदना का अतिरिक्त विस्तार या गहराई मिलती हो। प्रयोगों की कोई सीमा नहीं होती। रचना की जरूरत नए प्रयोगों को जन्म देती है।’

पिछले दिनों प्रयोग के नाम पर ‘वैताल कथाओं’ की आँधी आई थी, जिसे देखकर यही लगा था कि इस पर लघुकथा लेखक सालों से कदम ताल कर रहे हैं। ऐसे लेखकों पर बरसों पहले रमेश बतरा ने कहा है -(सवाल-दर-सवाल,पृष्ठ 110 ) “किसी भी चुटकुले में मंत्री घुसा दो या किसी भी गप्प को -राजा विक्रमादित्य वैताल को लेकर चल पड़ा -से शुरू कर दो। इनके लिए वही कथा हो जाती है।”

दो –केवल लघुकथा तक सीमित रहने वाले अधिकतर रचनाकार लघुकथाओं के सिवा कुछ नहीं पढ़ते। कुछ की दुनिया तो सोशल मीडिआ में पोस्ट की जा रही लघुकथाओं तक ही सीमित है। पिछले चार दशकों में लघुकथा अपनी विकास-यात्रा में कहाँ तक आ पहुँची है, वरिष्ठ लेखकों की सशक्त और चर्चित लघुकथाएँ कौन- सी हैं, यह जानना उन्हें जरूरी नहीं लगता। देश-विदेश के साहित्य का अवगाहन तो दूर की कौड़ी है। अध्ययन की इस रिक्तता के कारण उनकी रचनाओं पर कथ्य के दोहराव और रचनाओं के मौलिक न होने की बात सामने आती है। इस बिंदु पर पिछली टिप्पणियों पर उदाहरण सहित लिखा जा चुका है। विषय वस्तु की नवीनता और कथ्य में दोहराव की दृष्टि से पुरस्कृत लघुकथाओं पर चर्चा करना दिलचस्प और विधा के हित में होगा।

प्रतियोगिता हेतु प्राप्त लघुकथाओं में से कुल 25 लघुकथाओं का चयन निर्णायकों के पास भेजने हेतु किया जा सका निर्णायकों (कथाकार सत्यनारायण ,आलोचक राकेश बिहारी और कथाकार सुकेश साहनी) द्वारा दिए गए अंकों के आधार पर प्रथम 11 लघुकथाओं का पुरस्कृत करने हेतु चयन किया गया –

(1)केमिकल लोचा (सविता पांडेय ), (2) चुभन (राम करन ), (3) डमी (अनूपमणि त्रिपाठी), (4) बच्चा (कुमारसम्भव जोशी), (5) चिनक (महावीर राज़ी ), (6) रंग -बदरंग (शिव चरण ), (7) दर्द का कुआँ (अनीता सैनी ), (8)मशीनीकरण (उपमा शर्मा), (9) दोष (सतीश सरदाना), (10) सरहद (हरभगवान चावला),(11)तनख्वाह (संध्या तिवारी)

कथादेश परिवार और निर्णायकों की ओर से पुरस्कृत सभी लघुकथा लेखकों को हार्दिक बधाई!

शेष चयनित लघुकथाओं का विवरण निम्नानुसार है –

दरका हुआ कप (वीना करमचंदानी ), छतरी (सोनाली ), परिचय (सुधाकर मिश्रा ), रंग (श्रवण कुमार सेठ ), स्तर( प्रमिला वर्मा ), गंतव्य (भुवनेश दशोत्तर ), उर्वरा (दीपाली ठाकुर ), स्टेटस (भगवान वैद्य ‘प्रखर’), अबोले की दीवार (गोविन्द शर्मा ), तनख्वाह (सुधीर देशपांडे ), भरोसे की भाषा (नरेश गुर्जर ), बाल्कनी का दरवाजा (गिरिमा घारेखान), भला आदमी (गोविन्द भारद्वाज), ग्रे (भारती कुमारी )।

अंतिम चक्र तक पहुँची लघुकथाओं को कथादेश के सामान्य अंक में प्रकाशित किया जाता रहा है। जाहिर सी बात है कि इसमें समय लगता है, धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। इस स्थिति में जो लेखक इसमें रुचि न रखते हों और अपनी रचना अन्यत्र छपवाना चाहते हों, वे कथादेश को सूचित करते हुए अपनी रचना अन्यत्र भेज सकते हैं, ताकि भविष्य में रचना के प्रकाशित/अप्रकाशित होने को लेकर भ्रम की स्थिति उत्पन्न न हो।

सविता पांडेय की लघुकथा ‘केमिकल लोचा ‘निर्णायकों के सम्मलित अंकों के आधार पर प्रथम स्थान के लिए पुरस्कृत हुई। नए विषय की तलाश और कथ्य की सशक्त और प्रभावी प्रस्तुति इस रचना में देखी जा सकती है। इन पंक्तियों को लिखते हुए मुझे लेखिका की कथादेश लघुकथा प्रतियोगिता -छह में दूसरे स्थान के लिए पुरस्कृत लघुकथा ‘छवियाँ ऐसे ही बनती है’ याद आ रही है।

‘केमिकल लोचा’ पढ़ते हुए मुझे स्मृति शेष चंद्र शेखर दुबे की लघुकथा ‘टुकड़े टुकड़े’ स्मरण हो आई-विधिवत् सम्बन्ध-विच्छेद हो जाने पर पति ने अपनी भूतपूर्व पत्नी की कोई भी वस्तु घर में न रहने दी। उसके पुराने वस्त्र महरी को दे दिए। जिन चित्रों में वह थी, उन चित्रों के टुकड़े-टुकड़े कर डाले।किन्तु इतनी सावधानी के बाद भी चोटी में गूँथा जाने वाला उनकी पत्नी का चुटीला पलंग के गद्दों के बीच में दबा रह गया।

एक रोज पलंग झटकते समय यह चुटीला फर्श पर गिरा। इसे वे हैरानी से कुछ देर देखते रहे। फिर किसी तिलचिट्टे की लाश की तरह उसे चिमटे में भर कर घर से बाहर फेंकने गए।इस चुटीले को उन्होंने गली में फेंका, तो गली के कुत्तों ने उसे मुँह में भर लिया। वे इसे खींच-खींचकर टुकड़े-टुकड़े करने लगे।

पति यह दृश्य कुछ देर तक देखता रहा। फिर उसे जाने क्‍या सूझी, जो वे कुत्तों को दुत्कारते हुए उनके मुँह में से उस चुटीले के टुकड़े छीनने लगा।

इस रचना का उल्लेख यहाँ इसलिए जरूरी लगा कि यदि रचना मौलिक नहीं है, कथ्य भी किसी पूर्व प्रकाशित प्रसिद्ध लघुकथा जैसा है, तो उसको दिए जाने वाले अंक प्रभावित होंगे ही। लेकिन केमिकल लोचा ‘टुकड़े टुकड़े’ से आगे की रचना है , एक – चंपा का पति,घर बार और बच्चों को छोड़कर दूसरे पुरुष के साथ रहने लगना लगना है। दो -चम्पावती के यूँ छोड़ जाने पर भी पति भोलेराम का पत्नी पर गुस्सा न आना। तीन -भोलेराम का घर के सामने ही रह रही पत्नी के घर में ताक -झाँक करते हुए उससे जुड़ा रहना। चार-चंपा को रोज एक साड़ी में देखकर उसको घर में पड़ी साड़ियाँ देने का निर्णय।

लघुकथा का समापन हृदय-स्पर्शी है और मानव मन की अबूझ पहेलियों से पाठक सकारात्मक रूप से जुड़ जाता है। समापन देखें -अपनी झोपड़ी में आ चंपा के बक्से को खोला। एक ही कपड़े में चली गयी थी पगली! भोला के चेहरे पर हल्की मुस्कुराहट फैल गई। चंपा के सारे कपड़े बाँध उसके नए घर पहुँच गया-“हर रोज एक ही साड़ी मत पहना करो।” चंपा ने भोलेराम को यूँ अचानक आया देखा, तो सकते में आ गई। उसे जल्दी वापस चले जाने को कहा। भोलेराम ने चंपा को उसकी साड़ियों की पोटली थमाई और यूँ छुपकर निकल भागा, जैसे उसका कोई नया प्रेमी हो! हम अपने आसपास इस तरह की घटनाएँ देखकर सोच में पड़ जाते हैं, लेखिका ने इस कथा में बहुत हृदयस्पर्शी अंदाज में लघुकथा के शीर्षक ‘केमिकल लोचा’ को सिद्ध किया है, ‘टुकड़े टुकड़े’ में भी केमिकल लोचा ही है, जिसके कारण पति कुत्तों से चुटीले छीनने लगता है।

दूसरे स्थान के लिए पुरस्कृत रामकरन की लघुकथा ‘चुभन‘ किस्सागोई के अंदाज़ लिखी गई सशक्त लघुकथा है। गत वर्ष इनकी लघुकथा ‘बादल’ तीसरे पुरस्कार के लिए चुनी गई थी। लघुकथा में लेखक दो परिवारों के माध्यम से बहुत ही से महत्त्वपूर्ण विषय को पाठक तक सम्प्रेषित करने में सफल रहा है। एक परिवार है, जो गाँव छोड़कर सड़क किनारे रहने लगा है, उनके पड़ोस में एक नया परिवार आके रहने लगा है। उस परिवार के बारे में ही यह कथा कही जाती है। निम्न जाति का परिवार हर मायने में जब ऊँचा उठ जाता है, तो ऊँची जाति वालों की निगाह में कैसे चुभता रहता है, इसका रोचक वर्णन देखने को मिलता है। यह देखना दिलचस्प है कि उस नए परिवार के बारे में नकारात्मक ब्योरे देते हुए वह परिवार खुद ही बेनकाब(नंगा) होता जाता है –

एक -माँ-बाप के साथ दो सुंदर-सुंदर चुलबुली लड़कियाँ थीं, जो बोलती थीं तो लगता था कि चिडियाँ चटर-चटर कर रहीं हों। हम ताक में थे कि वे हमसे भी कुछ मदद माँगे। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ।

दो -शाम को चारों प्राणी ट्रैक-सूट में निकलते और स्टेडियम चले जाते। फिर अँधेरा होने पर आते।

तीन -धीरे-धीरे उनकी उदासीनता हमें खलने लगी। हमारा माथा तब भन्ना जाता जब हमें लगता कि उन्होंने हमारी तरफ गौर ही नहीं किया।

चार -मन करता कि क्या ऐसा करें कि पड़ोसी जलभुन जाएँ, पर वे हमेशा शांत दिखाई पड़ते।

पाँच -माँ को सबसे बड़ी शिकायत यह थी कि हमारी जाति जानते हुए भी उसने उनका पैर नहीं छुआ था। इसलिए उनका मन भी खट्टा हो गया था।(यहीं पाठक को पता चलता ही की पड़ोसी उनसे निम्न जाति के हैं )

छह -अब हम दोस्तों के साथ वहीं बैठते और गम्मज करते। जितने पुकार-पुड़िया खाते सब पड़ोसी के सामने फेक देते

सात -हमें पूरा भरोसा था कि दो लड़कियों के बाप को हमारे जैसे उजड्ड लोगों का बैठना जरूर चुभेगा। लेकिन ऐसा न हुआ। एक दिन पड़ोसी ने मजदूर लाकर अपने द्वार के दोनों किनारों पर क्यारी बनाकर झाड़ रोप दिए। अब हम इस पार और वो उस पार हो गए थे। झाड़ बड़ा और घना हो गया और हमें चुभने लगा।

अनूपमणि त्रिपाठी की लघुकथा ‘डमी‘ तीसरे पुरस्कार के लिए चयनित हुई। बाजार में अण्डर गारमेंट की दुकान में सजी खड़ी डमी बगावत कर देती हैं। उनकी शिकायत हैं कि उनका स्टाफ उनके साथ बदतमीजी करता हैं, कभी उनके नितम्ब पर तो कभी …। मालिक कहता हैं कि उसे सब पता है, ये कोई बड़ी बात नहीं है। मालिक को स्टाफ का साथ देते देख दोनों डमी दुकान छोड़ने का निश्चय करती हैं; लेकिन रात में दुकान के बाहर सड़कों में उनके साथ जो होने लगता है ,उससे घबराकर वह वापस दुकान में लौट आती हैं।

यहाँ लेखक द्वारा लड़कियों कि जगह प्रतीक रूप में ‘डमी’ का उपयोग किया गया है, जिससे लघुकथा का प्रभाव काफी बढ़ गया है। यह लघुकथा के फॉर्मेट में स्वाभाविक प्रस्तुति के साथ अपने उद्देश्य में सफल हुई है। विभिन्न संस्थान ,कार्यालय,बाजार में लड़कियों के साथ जिस तरह की छेड़छाड़ या अश्लील हरकतें होती हैं और उनके संचालकों द्वारा इसे नज़रअंदाज़ किया जाता है,जैसा कि डमी का मालिक करता है। यहाँ डमी जैसे बेजान पुतलों के वक्ष और नितम्बों पर हाथ फेरने वाले स्टाफ की दरिंदगी का अंदाज़ लगाया जा सकता है। लेखक ने उन दोनों डमी के माध्यम से अपना आक्रोश प्रकट किया है -जब वे वापस आती है तो उनके चेहरे और छाती पर खरोंच के निशान देखकर मालिक वजह पूछता है, तो वे जवाब देती हैं कि रात को कुत्ते पीछे पड़ गए थे।

अंत में दोनों डमी का खड़े खड़े काँपना वर्तमान में उस परिदृश्य की ओरे संकेत करता है जहाँ इन शैतान, दरिंदो की वजह से महिलाएँ घर- बाहर खुद को असुरक्षित महसूस करती हैं।

कुमारसंभव जोशी की ‘बच्चा’ उन अति त्त्वामाता -पिता को सचेत करने का काम करती है, जो बच्चों से उनका बचपन ही छीने ले रहे हैं। चुस्त संवादों के माध्यम से रचना बनी है। कथा में बच्चा अपने बाल स्वाभाव के अनुरूप चॉकलेट, गुब्बारे, फ़्ल्युट और डमरू जैसी चीजों की माँग करता है। पिता द्वारा मना करने पर उसकी आँखों में उतरी चमक बुझ जाती है। पिता उसे ‘लेगो गेम ‘ खरीदवा देता है; क्योंकि वह ब्रेन डवलपमेंट के लिए अच्छा है। गेम लेने बावजूद उसके चेहरे पर कोई ख़ुशी नहीं दिखती।

“देखो जी! कितना सभ्य, संस्कारी और आज्ञाकारी बच्चा है। बिल्कुल जिद नहीं करता। हमारे बच्चे तो…।” मेरे साथ उस बच्चे की गतिविधियों को देख रही मेरी पत्नी ने कहा।

“हाँ! आज्ञाकारी या ‘सभ्य’ तो कह सकते हैं, मगर यह ‘बच्चा’ तो बिल्कुल नहीं लग रहा।”

मेरी बेटी ने आइसक्रीम से सने हाथ अपनी फ्रॉक से पोंछ लिए थे।

“अच्छे से नहीं खा सकती…” पत्नी ने डपटना चाहा, मगर मैंने उसे गोद में उठाकर चूम लिया।

महावीर राज़ी की ‘चिनक’ पाँचवें स्थान पर रही। महावीर राजी निरंतर लघुकथाएँ भी लिखते रहे हैं। कथादेश प्रतियोगिता में उनकी लघुकथा पूर्व में भी पुरस्कृत हुई है। लघुकथा पर उनकी पकड़ अच्छी है, यही कारण है कि ‘चिनक’ की बुनावट लघुकथा के गुण धर्म के अनुकूल है-भाषण देते हुए आरक्षण विरोधी शर्मा जी की कमर में चिनक आ जाती है, उन्हें सलाह मिलती है कि उलटे जन्मे बच्चे का पाँव छुआने से तुरंत लाभ मिलता है।

पड़ोस के सुगनचंद नेवगी (नाईं) का छोटका छोरा पाँव की ओर से जन्मा था तीनेक साल पहले।

एक बजे नेवगिन छोरे को लिये कोठी पर आती है। आक्रोश को जज्ब करते शर्माजी पलंग पर औंधे झुक जाते हैं। नेवगिन छोरे को पलंग पर खड़ा करके उनकी पीठ से पाँव छुआने लगती है।

लिजलिजी सवर्णी दम्भ से तिलमिला जाते हैं। दर्द अप्रत्याशित रूप से स्खलित !! पर दम्भ रोकते रोकते भी चींख बनकर गूगली- सा बाहर उछल आता है – ‘छोरा ने कपाल स उतारेगी भी इब..या न्यू ही खड़ा रखेगी, आँय!’

नेवगिन हड़बड़ाती बच्चे को नीचे खिंचना चाहती है की चींख से सहमे बच्चे को मूत रिस जाता है। पलंग पर नम बृत्त ! बृत्त को घूरते हुए शर्माजी का जेहन साँय-साँय करने लगता है।

बृत्त पलंग से उठकर घुमेरे घालता आँखों की राह फिर से कमर पर आ बैठता है।

‘रस्सी जल गई पर बल नहीं गए’ को चरितार्थ करती सशक्त लघुकथा।

छठे स्थान के लिए शिव चरण की ‘रंग-बदरंग’ पुरस्कृत हुई है। लघुकथा के फॉर्मेट में बहुत कुछ अनकहा भी छोड़ दिया जाता है। यह लघुकथा उसी का उदाहरण है। यहाँ यह संकट भी उत्पन्न हो जाता है कि कुछ लोग अनकहे तक पहुँच ही न पाएँ यानी सम्प्रेषण का संकट। प्रिया बहुत सुन्दर पेंटिंग बनाती थी, एकाएक उसकी पेंटिग्स को देखकर मम्मी पूछती है “ये क्या है प्रिया?…यह तू क्या बनाने लगी है? काला आकाश, बिना पत्तों वाला भूरा पेड़, मटमैली घरती…कहाँ गए तेरे गुलाबी फूल और सतरंगी तितलियाँ? ये क्या करने लगी है आजकल? पहले की तरह लाल, पीले, हरे, नीले चटक रंग क्यों नहीं लगाती अपनी पैंटिंग्स में?”

गुमसुम प्रिया ने उदास आँखों से मम्मी की ओर देखा, बोली कुछ नहीं। आँखों के कोने गीले हो उठे. मम्मी बिना उसकी ओर देखे बोली, “बेटा, चटक ख़ूब चटक रंग भर इसमें. तभी तो तेरी पेंटिंग खिलेगी। जा अपने अंकल को भी दिखा दे।”

“अंकल! नहीं-नहीं।” वह सकपका उठी।

यहाँ अंकल के नाम पर प्रिया का नहीं नहीं कहना और सकपकाना उस ‘अनकहे’ को उजागर करता है, जहाँ तथाकथित अंकल के साथ लिव इन में रह रही मम्मी हैं, अंकल के प्रिया के प्रति व्यवहार(?) से पूर्णतया अनभिज्ञ प्रिया की मम्मी है,प्रिया की पेंटिग्स से लगातार लुप्त होते रंग हैं।

अनीता सैनी की लघुकथा ‘दर्द का कुआँ‘ का चयन सातवें स्थान के लिए हुआ। लघुकथा में लेखिका द्वारा शब्दों का चयन और उसकी प्रस्तुति अलग से रेखंकित करने योग्य है, प्रारम्भ देखें –

वह साँझ ढलते ही कान चौखट पर टाँग देती और सीपी से समंदर का स्वर सुनने को व्याकुल धड़कनों को रोक लिया करती थी। बलुआ मिट्टी पर हाथ फेरती प्रेम के एहसास को धीरे-धीरे जीती थी। हवा के झोंके से हिली साँकल के हल्के स्वर पर उसकी आँखें बोल पड़तीं और वह झट से उठकर दूर तक ताकती सुनसान रास्तों को, जिन पर सिर्फ़ चाँद-सूरज का ही आना-जाना हुआ करता था।

फौजी जीवन की मार्मिक गाथा, पति कारगिल युद्ध में शहीद हो गया था। वह बच्चों को मायके लेकर गई थी, घरवालों ने पीछे से शहीद का दाह-संस्कार कर दिया। पति ने खेतों में कुआँ बनवाकर दिया था,मायके से लौटने के बाद वहीं रहती थी, उसकी सहजता ने ही गाँव भर में ढिंढ़ोरा पिटवा दिया था – “ग़रीब घर की लड़की थी। कुछ देखा-भाला था नहीं, पानी का कुआँ देखा; इसी से दिल लगा बैठी।”

साल-छह महीने बाद उसे पति के बारे में पता चला, तभी से वैताल बन घूमती रहती थी इसी चारदीवारी में, आने-जाने वालों से एक ही प्रश्न पूछती थी – “युद्ध कब ख़त्म होगा?”

उपमा शर्मा की लघुकथा ‘मशीनीकरण’ आठवें पुरस्कार के लिए चयनित हुई। मशीन होते जा रहे मानव जैसे विषय पर लेखिका ने ताने बने बुने हैं, गम,ख़ुशी,प्रेम जैसी संवेदनाओं को मांनव की तरक्की में अवरोध का कारण मानते हुए मनुष्य के ब्रेन की प्रोग्रामिंग की जाती है।अंततः लेखिका यही कहने का प्रयास करती है किचाहे जितने भी प्रयास कर लिए जाएँ रोबोट बनते इंसान में मानवीय संवेदनाएँ बची रहेंगी।नए विषय पर सकारात्मक सोच की अच्छी लघुकथा। इस लघुकथा को पढ़ते हुए मुझे रोहित शर्मा की ‘ऑटोमैन के आँसू’ की याद आ गई। इस प्रकार के नवीन विषयों पर लघुकथाएँ आनी चाहिए।

सतीश सरदाना की लघुकथा ‘दोष’ में आजकल के सन्दर्भों को लेकर पंडितों के बनावटी ज्ञान और उनकी कथनी करनी पर करारा व्यंग्य किया गया है-

शिव शिव! मन तो हुआ हवन बीच मे छोड़ कर खड़ा हो जाऊं।लेकिन यज्ञ-भंग का पाप पुरोहित के सिर पर भी तो लगता है।

लेकिन जजमान अच्छे थे। दक्षिणा भी पूरे दो हजार दी।

खाना भी शुद्ध घी में बना था।

मन प्रसन्न हो गया।

“आपने म्लेच्छ के घर का खाना खा लिया?”मैने आश्चर्य से पूछा।

“पके खाने में दोष नहीं लगता! जल ग्रहण नहीं किया!

हरभगवान चावला की लघुकथा ‘सरहद’ बहुत ही सशक्त लघुकथा है, इसमें बहुत ही प्रभावी ढंग से मनुष्य और प्रकृति के संतुलन की बात की गई है,भू विज्ञान में इसे isostatic equilibrium से समझा जा सकता है। कथा में नदी के दोनों किनारों पर,जो खुद सरहद है, दो आदमी आ बैठते, अँधेरा घिरने पर एक दूसरे की ओर हाथ हिलाते और विपरीत दिशा में चल देते। नदी हैरान होती, बहुत बार दुखी भी कि आख़िर ये दोनों उसे पार कर आपस में मिलते क्यों नहीं? कई बार तो वह अपने विस्तार को इतना समेट लेती कि उसमें घुटनों भर पानी रह जाता, फिर भी वे दोनों किनारों पर ही बैठे रहते।

नदी जान जाती है कि दोनों भाई अलग अलग देशों से हैं, एक दिन दोनों भाइयों को देशद्रोह के आरोप में जेल में डाल दिया जाता है। नदी उदास हो जाती है,उदासी क्रोध में बदल जाती है,बे काबू उफनती नदी दोनों किनारों को तोड़ डालती है,पत्थर टूट टूटकर नदी में गिरने लगते है।

लेखक यह सम्प्रेषित करने में सफल रहा है कि प्रकृति किसी सरहद को नहीं मानती। यदि मनुष्य उससे छेड़छाड़ करेगा, तो पृथ्वी अपने को संतुलित करेगी, उसके क्रोध का परिणाम मनुष्य को भुगतना पड़ेगा।

संध्या तिवारी की’तनख्वाह’ अपनी बुनावट और जीवंत वर्णन के कारण अपना प्रभाव छोड़ने में सफल रही है। लघुकथा का समापन देखें –

मैंने पुजारी से एक घी डूबी बाती और माचिस माँगी।

पुजारी ने जलती आँखों से मुझे देखकर कहा;” जिसे पैसे चढ़ाए, जाओ उसी से बाती और माचिस माँगो।”

मैं सन्न रह गई। कानों पर भरोसा नहीं हुआ। मेरा एक मिनट उस तिलकधारी को घूरने में बीत गया।

“क्या कहते हो पंडित जी, दानपात्र तो पैसे चढ़ाने के लिए ही रखा है न…”

पुजारी बत्ती बनाते हुए खीझकर बोला -मेरी प्लेट भी तो रखी है, वह नहीं देखी आपने…

पेट केवल मंदिर बनवाने वाले का ही नहीं, तनख्वाह वाले पुजारी का भी होता है…

छन्न…

मुझे सात्विक नशा टूटने की आवाज बहुत देर तक आती रही…

और अंत में

कथादेश प्रतियोगिता में सभी लघुकथाएँ कथारस से भरपूर हैं। कथादेश प्रतियोगिता 16 की घोषणा हो चुकी है, सभी की रचनाओं का स्वागत है। सशक्त लघुकथाएँ अपना प्रभाव देर तक छोड़ती हैं। मुझे महेश कटारे जी की पुस्तक मेले में लघुकथा ‘दंश'(दिनेश भट्ट ) पर की गई टिप्पणी याद आ रही है, वो लघुकथा और उसका लेखक दस वर्ष बाद भी उनकी स्मृति में था। पारस दासोत कहते थे -लघुकथा एक ऐसी विधा है, जिसकी रचना का अंत नहीं होता। लघुकथा लेखक के शब्दों से हटकर पाठक के मस्तिष्क में शब्दों की रचना करने लगती है, यही उसकी पूर्णता है। ऐसी ही कुछ लघुकथाओं में आईना(सत्यनारायण ),स्मृतियों में पिता (रघुनन्दन त्रिवेदी ),नवजन्मा(रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’), नामांतरण (युगल ), कोयले की इच्छा(आनंद हर्षुल ),कथा नहीँ(पृथ्वीराज अरोड़ा) जैसी अनेक लघुकथाएँ हैं, जिनसे सीखने को बहुत कुछ मिलता है। इसी क्रम में नीचे विपरीत परिस्थितियों में जीवन यापन कर रहे आम आदमी पर केंद्रित दो महत्त्वपूर्ण लघुकथाएँ दी जा रही हैं –

समाजवाद

लघुकथाकार : उर्मिल कुमार थपलियाल

दिन भर धरना, रैली, प्रदर्शन और नारेबाजी के बाद वह जब रात को घर लौटा तो बेहद थक गया था। जैसे वो एक दर्द हो, जो निकास नहीं पा रहा हो। घर जाकर उसने बड़ी दिक्कत से अपनी दोनों टाँगें फेंक दीं। एक टाँग मेज के पास और दूसरी बाथरूम के दरवाजे के पास जाकर गिरी। अपने दर्दीले कंधे उचकाकर उसने दोनों हाथों से अपना भारी सर अलग किया। वो तकिए और बिस्तर के नीचे लुढ़क गया। अपने दोनों हाथ उसने झटके से अलग किए। वे पलंग के इधर–उधर जा गिरे। उसका धड़ बिस्तर के बीचों–बीच जाकर अटक गया। अब वह कमरे में कहीं नहीं था। उसकी एक विभाजित सी उपस्थिति थी। आँखों की पलकें बंद थीं। जैसे किसी ने उन्हें सी दिया हो। वह लगभग अभंग था।

सवेरा होते ही उसके दरवाजे की सॉकल खटकी। खटकने की आवाज सुनने से पहले एक तरफ पड़े चेहरे की पलकें खुलीं। दरवाजे पर कोई बड़ी हड़बड़ी में चिल्ला रहा था ‘‘उठो, जल्दी उठो, समाजवाद आ गया है।’’ वो अस्वव्यस्त था। दरवाजे की सॉकल फिर बजी और चिल्लाने वाला अगले मकान की तरफ बढ़ गया। पाँव पहने। कंधे पर सर टिकाया और सड़क की तरफ दौड़ पड़ा। कहीं कुछ नहीं था। चिल्लाने वाला किसी दूसरे मकान की सॉकल बजा रहा था। पागलों की तरह। मुड़–मुड़कर कुछ उसे देख रहे है, कुछ हैरत में है। कुछ चकित, कुछ देर के बाद लोगों के हँसने की आवाज उसे सुनाई देने लगी। उसे रोना आने लगा।

उसे लगा कुछ गड़बड़ जरूर है, क्योंकि जब वो रोने लगा तो उसके आँसू उसकी पीठ पर बह रहे थे।

आदमी

धीरेन्द्र अस्थाना

हालाँकि दफ्तर से साढ़े पांच बजे छूटकर अपने बस- स्टाप पर पहुँचने तक के सफर के दौरान उसने बेइंतहा थकान के बावजूद तय किया था कि घर पहुँचकर, आज वह तीन काम जरूर करेगा। पहला, अपने पिता के चौथे खत.का जवाब देने का, दूसरा अपनी छह माह पूर्व किसी कहानी को फेयर कर लेने का और तीसरा तथा अंतिम काम अपनी पैंट-कमीज को धो लेने का, क्योंकि बदन पर का जोड़ा अब अधिक से अधिक एक दिन और पहना जा सकता था।

मगर साढ़े सात बजे वह भीड़ के द्वारा अपने मुहल्ले के स्टाप पर आलू की बोरी की तरह फेंक दिया गया, तो वह तीन में से किन्हीं दो कामों को ज़रूर ही निपटा देने के लिए उनकी प्राथमिकता तय कर रहा था। रास्ते व होटल में रुककर खाना खाने के बाद जब वह साढ़े आठ बजे कमरे का टाला खोल रहा था, तो दिल को मज़बूत करता हुआ कहानी फेयर कर लेने मोर्चे पर डटा हुआ था।

अपने कमरे में घुसकर बिजली जलाने पर उसने पाया कि फर्श तीन चिट्ठियाँ हैं और एक पत्रिका। चारों को खाट के सिरहाने रख कर उसने दरवाज़ा बंद किया, जूते उतारे और कमर सीघी करने और चिट्ठियों को फुर्सत से पढ़ने के लिए खाट पर अधलेटा हो गया।

ओह …! खाट को पकड़ते ही किसी सत्तर वर्षीय बूढ़े की तरह उसका गला गनगनाया और वह पूरी तरह खाट पर पसर गया।

उसका पूरे का पूरा बदन इस तरह दुःख रहा था मानो किसी ने लाठियों से पीटा हो। खुद-ब-खुद उसकी ऑंखें मिचती चली गईं। वह नींद, थकान, दर्द और झुंझलाहट में छटपटाता हुआ कभी दफ्तर, कभी जिंदगी और कभी व्यवस्था के विरुद्ध सोचता रहा और डूबता गया। अचानक उसे लगा, कहीं पास ही बहुत तेज शोर हो रहा है, सम्भवतः उसके दरवाज़े के सामने ही। उसने सोचा कि वह उठे, देखे कि क्या बात है, पर आँखें थीं कि बंद ही होती जा रही थीं। उसने बहुत सोचा कि उठे, पता करे।

अंततः वह नहीं उठ सका। बेहोशी के-से आलम में डूबते- उत्तराते उसे लगा कि शोर ज्यादा ही बढ़ गया है और अब तो दरवाज़े पर थाप भी पड़ने लगी है।

लगभग चीखता और झूमता हुआ-सा वह दनदनाकर उठा और दरवाज़ा खोल दिया। बाहर काफी भीड़ थी। इससे पहले कि वह अचरज में डूबी आवाज़ के साथ पूछता, कि क्या बात है, भीड़ ने लगभग चिढ़े हुए अन्दाज़ में उससे पूछा, “क्या बात है ? तुम इतनी ऊँची आवाज में क्यों रो रहे हो?”

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