लघुकथा लेखन और रचनात्मकता / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
'लेखन' एक सामान्य शब्द है, जिसका मूल अर्थ केवल लिखना है। जो लिखा गया, वह निरर्थक से लेकर सार्थक तक कुछ भी हो सकता है। 'लेखन' के ध्वनित अर्थ से किसी गुणात्मकता जैसी विशिष्टता का बोध नहीं होता है। लेखन से लेकर रचनात्मकता तक एक लम्बी यात्रा और प्रक्रिया है, जिससे निरन्तर चिन्तन और सर्जन के उन्नयन का बोध होता है। सीखना और निरन्तर परिमार्जन करना, एक दिन का काम नही; बल्कि निरन्तर स्वाध्याय की परिणति है। केवल किसी विषय में निष्णात की डिग्री प्राप्त कर लेना महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्वपूर्ण है, उस ज्ञान और प्रयोग को अपडेट करते रहना। बहुत सारे ऐसे शिक्षक मिल जाएँगे, जो मास्टर डिग्री लेने के बाद 35-40 साल तक शिक्षण करते रहते हैं। उन्होंने जो कभी पढ़ा था, उसमें कुछ नहीं जोड़ते। कुछ भाषा-शिक्षक ऐसे भी देखे कि नई पुस्तक पढ़ना भी उन्हें रास नहीं आता। ऐसे शिक्षक, किसी पीढ़ी को कुछ नहीं दे सकते। वे अगर आज से पच्चीस-तीस साल पहले बने दोराहे या चौराहे खड़े हैं, तो उन्हें अप्रासंगकिक होते देर नहीं लगेगी।
उपर्युक्त बात मैं लेखकों पर भी लागू करता हूँ। कुछ केवल अपना लिखा हुआ ही पढ़ते हैं। वे खुद को एवरेस्ट के शिखर पर पहुँचा हुआ मान लेते हैं। यदि कोई एवरेस्ट के शिखर पर पहुँच भी जाए, तो वह वहाँ सदा नहीं रह सकता है। उसे कुछ घण्टों के बाद वहाँ से हटना / उतरना ही पड़ेगा। एवरेस्ट पर पहुँचने के लिए उसे ऑक्सीजन जैसे बहुत से संसाधनों की आवश्यकता होगी। लेखन के बेस कैम्प से ऊँचाई पर पहुँचने के लिए विशेष प्रशिक्षण और कौशल की आवश्यकता होती है। जीवन के गहन अनुभव हों, उनको सही स्वरूप देने वाली भाषा हो, भाषा में सहजता की सुगन्ध हो। यह एक दिन का काम नहीं। स्वाध्याय की यह यात्रा साँसों की तरह निरन्तर चलने वाली होती है। आचार्य मम्मट ने 'काव्यप्रकाश' में कहा है:
काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये।
सद्यः परनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे॥
मम्मट ने काव्य / साहित्य के जो प्रयोजन बताए हैं, उनमें सर्वप्रथम है 'यश' । यश प्राप्त करने के बाद 'धन की प्राप्ति' को दूसरा प्रयोजन माना है। तीसरा प्रयोजन, मम्मट के अनुसार 'व्यवहार ज्ञान' है। प्राचीन से अधुनातन तक साहित्य के माध्यम से व्यवहार स्वतः आ जाएगा।
मम्मट ने चौथा प्रयोजन 'शिवेतरक्षतये' को माना है। 'शिव+इतर +क्षतये' अर्थात् जो शिव से इतर है, अमंगल है, उसके विनाश के लिए, पाँचवाँ प्रयोजन मम्मट के अनुसार है, 'सद्यः परनिर्वृतये'। अर्थात् दुख का नाश और आनंद की प्राप्ति। रस या आनंद प्राप्ति तो काव्य के लिए है ही। उपदेश प्रत्यक्ष रूप में न होकार 'कान्तासम्मित उपदेश' की तरह मधुर होना चाहिए। सार रूप में देखा जाए, तो आनन्द के साथ-साथ लोकमंगल भी अभिप्रेत है।
एक चुप है, एक चीख रहा है, दोषी कौन है? दोषी चुप हो सकता है, एक चुप सौ को हराए भी चुप हो सकता है। मर्यादा का उल्लंघन न हो, इसलिए भी चुप हो सकता है। चोरी करने वाला चोर भी भीड़ में घुसकर 'चोर-चोर' चिल्ला सकता है, ताकि चोर पर किसी का ध्यान न जाए। चुप्पी और चीख का खुलासा ही सत्य को अनावृत्त कर सकता है। बिना खुलासा किए सही परिणाम तक नहीं पहुँच सकते।
कुछ लेखक यथार्थ की प्रस्तुति का दम भरते हैं; लेकिन एक बात अवश्य विचारणीय है; 'नाली में भरे कचरे का वर्णन यथार्थ नहीं, यथार्थ है, उस कचरे को निकालना, कचरा निकालकर सीढ़ियों पर सजाना यथार्थ के लिए अभिप्रेत नहीं।' अच्छी रचना में इसके लिए अवकाश नहीं। वह कोई भी विधा क्यों न हो। लघुकथा में सीधा-सपाट वर्णन या सामान्य तौर पर किसी सत्य का अत्यन्त सामान्यरूप से प्रकटीकरण रचनात्मकता नहीं है। कथ्य का कोई आग्रह न होने पर आंगिक चेष्टाएँ प्रस्तुति को कमज़ोर बनाती हैं।
सुना, देखा, लिख दिया-रचना की नियति नहीं। क्या जो देखा वही सच है या उससे परे भी कुछ है, क्या लिखा? क्यों लिखा? किसके लिए लिखा? यह सुनिश्चित हो सका या नहीं? रचना में प्राणों का संचार हुआ या नहीं? लिखने के बाद यदि लगा कि अन्तस् को विश्रान्ति मिली, भीतर कुछ अंकुरित हुआ, कुछ भीगा, तो समझो कुछ रचा गया। यह परिणति ही रचना है।
मौसमी लेखन और सामाजिक सरोकारों पर दायित्वपूर्ण लेखन दोनों अलग हैं। चुनाव आने पर नेताओं की करतूतों पर सतही और जोड़-तोड़ की घिसी-पिटी कथा लिखना, दंगों या किसी आन्दोलन और धरने का बिना कोई विश्लेषण किए, बिना विषयवस्तु की तह तक पहुँचे, नेपथ्य में छुपे षड्यन्त्रों को बिना जाने, दिहाड़ी पर लाए गए आन्दोलनजीवियों को अपने गढ़े गए रटे-रटाए जुमलों को खोद-खोदकर उनके मुँह में ठूँसकर, एकतरफ़ा चित्रण करना, सुनी-सुनाई या अखबारी घटनाओं को लघुकथा मानकर प्रस्तुत करना, रचनात्मकता नहीं है। तात्कालिक घटनाओं पर कथ्य का चयन बहुत सावधानी से करना चाहिए। हर घटना, हर कथन में रचना बनने की सामर्थ्य हो, यह ज़रूरी नहीं। लिखने से लेकर रचना की परिपक्वता तक एक आँच हो, एक वैचारिक उद्वेलन हो। संवाद हों, तो पारस्परिक अर्थवत्तापूर्ण अनुबन्धन होना चाहिए, न कि विशृंखलित कथनमात्र। लेखक, केवल लेखक के रूप में सामने आए, किसी का पक्षधर या दल का प्रतिनिधि बनकर सामने न आए।
अच्छे लेखक को अन्धानुकरण से बचना चाहिए। रमेश के खेत में अगर पैंतीस साल पहले धान होता था, तो ज़रूरी नहीं कि मधोक के खेत में भी आज धान ही हो, वह भी ज़मीन के एक टुकड़े में, इतना सारा धान कि घर के खर्च के बाद भी बेचने के लिए बच जाए और फ़सलें भी पैदा की जा सकती हैं, तिलहन और दलहन भी। ये अधिक महँगे भी बिकेंगे। कुछ लेखक और भी महान् हैं। वे किसी स्थापित रचनाकार की कथा के नीचे अपना नाम लिखकर निर्लज्जता को भी ठेंगा दिखा देते हैं। इस तरह के छल-छद्म से बचना चाहिए।
संसार बहुत बड़ा है, विषयवस्तु की दरिद्रता अच्छे लेखक को आड़े नहीं आती। गजानन माधव मुक्तिबोध की एक कविता है-'बाँहें फैलाए रोज़ मिलती हैं सौ राहें'। उसी का एक अंश देखिए-
घर पर भी, पग-पग पर चौराहे मिलते हैं,
बाँहें फैलाए रोज़ मिलती हैं सौ राहें,
शाखा-प्रशाखाएँ निकलती रहती हैं,
नव-नवीन रूप-दृश्यवाले सौ-सौ विषय
रोज़-रोज़ मिलते हैं...
और, मैं सोच रहा कि
जीवन में आज के लेखक की कठिनाई यह नहीं कि
कमी है विषयों की
वरन् यह आधिक्य उनका ही
उसको सताता है,
और, वह ठीक चुनाव कर नहीं पाता है!
विषयों की कमी नहीं। समस्या है-ठीक से चयन न करना। चलते-चलते एक और बात-भाषा की। आक्रोश को व्यक्त करने के लिए उसे जज़्ब करना / आत्मसात् करना ज़रूरी है। आक्रोश की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी दाल में नमक की। आविष्ट होकर गालियाँ लिखना, भाषा की आवश्यकता नहीं, बल्कि लेखक की भाषिक दरिद्रता है। विषय को पूरी तरह धैर्य के साथ आत्मसात् करना चाहिए। अधीरता अच्छे लेखक को कमज़ोर ही नहीं करती, उसे अच्छा लिखने से दूर भी करती है। यह बात दूसरी है कि मौसमी प्रशंसकों की भीड़ वाली भेड़ें उसे आत्ममुग्धता के कुएँ में धकेलकर ही दम लेती हैं। नए ही नहीं कुछ पुराने रचनाकार भी इसका अपवाद नहीं हैं।
लेखक का विशिष्ट और व्यापक अध्ययन एक सामान्य-सी घटना को भी विशिष्ट रचना में बदल सकता है। लेखक को एकाधिक विषयों का गहन अध्ययन करना चाहिए, तभी उसके लेखन में निखार आ सकता है। कुछ लेखक बरसों से लिखते चले आ रहे हैं। अज्ञात मठाधीशों पर बूमरैंग चला रहे हैं; लेकिन आज भी वे कक्षा 5 की हिन्दी से पूरा परिचय नहीं कर सके। उनकी ज़िद है कि जो वे लिख रहे हैं, वही महत्त्वपूर्ण है।
मैं कुछ उदाहरणों से बताना चाहूँगा कि साधारण विषयों पर किस प्रकार अच्छी लघुकथाएँ लिखी जा सकती हैं। सर्व प्रथम सुकेश साहनी की तीन लघुकथाओं (अनुताप, आखिरी तारीख और आधी दुनिया) पर बात करते हैं।
अनुताप में दर्शाया गया है कि पिछले चार-पाँच दिनों से असलम उन्हें दफ्तर पहुँचाता रहा था। आज वह नहीं आया, तो दूसरे रिक्शेवाले ने उनको पहुँचाने के लिए कहा। रिक्शेवाले ने बताया कि असलम अब नहीं आएगा। गुर्दों की खराबी के कारण उसे रिक्शा चलाने के लिए डॉक्टर ने मना किया था। उन्हें पहुँचाने के बाद उसका पेशाब बन्द हो गया। अस्पताल ले जाते समय ही उसकी मृत्यु हो गई।
कल वह रिक्शा चलाते हुए धीरे-धीरे कराह रहा था। कभी एक हाथ से पेट पकड़ लेता था। डाक बंगले तक चढ़ाई पर उन्हें एकबारगी उसकी इच्छा हुई कि रिक्शे से उतर जाए: लेकिन वह नहीं उतरा। आज का रिक्शावाला हट्टाकट्टा और मज़बूत था। डाक बंगले की चढ़ाई पर पहुँचते ही वह 'रुको' कहकर उतर गया।
'वह किसी अपराधी की भाँति सिर झुकाए रिक्शे के साथ-साथ चल रहा था।' कल असलम के रिक्शे से न उतरना, उसे अपराधबोध से भर गया।
साहनी जी ने रोज़मर्रा के इस सामान्य विषय को कल किए गए कार्य के लिए अनुताप से भर दिया। जीवन में ऐसी बहुत सारी घटनाएँ होती हैं, जो अति साधारण और महत्त्वहीन होती हैं; फिर भी उनमें सूक्ष्म मर्म का ऐसा सूत्र निहित होता है कि वह हमारे मन-मस्तिष्क को उद्वेलित कर देता है। सामान्य घटना की विषादमयी परिणति हमारी चेतना को झकझोर देती है। कथ्य के महीन सूत्र की पकड़ अनुभूति की गहराई तक पहुँचकर कोंचने लगती है। यही अच्छी लघुकथा की विशेषता है। यह लेखक की सामर्थ्य है कि वह सामान्य-सी लगने वाली रचना को अपने जीवन-अनुभव से सींचकर किस प्रकार महत्त्वपूर्ण बना सकता है। सामान्य लेखक इसमें खुद कूद पड़ता और रचना को निष्प्राण कर देता।
'आखिरी तारीख' के वर्मा जी की जो मनःस्थिति है, वह हर सामान्य कर्मचारी की होती है। 'उनकी आँखें बंद थीं और दाँतों के बीच एक बीड़ी दबी हुई थी। ऐश-ट्रे माचिस की तीलियाँ और बीड़ी के अधजले टुकड़ों से भरी पड़ी थी।'
'दाँतो के बीच बीड़ी का दबा होना, ऐश-ट्रे माचिस की तीलियाँ और बीड़ी के अधजले टुकड़े' जैसे पदबन्ध वर्मा जी की आर्थिक स्थिति का सहज और विश्वसनीय चित्रण कर रहे हैं।
'दफ़्तर के दूसरे भागों से भी लड़ने-झगड़ने की आवाज़ें आ रही थीं।' ये आवाज़ें किसकी हो सकती हैं? दफ़्तर में पूरे महीने जो संयुक्त लूट हुई है, उसका बँटवारा हो रहा होगा, तो अपने स्वार्थ की पूर्त्ति के लिए भला कौन विवाद नहीं करेगा? या जिसका काम अटका हुआ होगा, वह समाधान के लिए बहस कर रहा होगा। लेखक ने पाठक के लिए संकेत भर कर दिया कि वह क्या अनुमान लगाता है।
लेखक ने सुरेश की मनःस्थिति और उसके आक्रोश को भी मूर्त्त किया है। उसका ध्यान घर के खर्चे को लेकर पत्नी से हुए झगड़े की तरफ चला गया। अपने क्रूर व्यवहार के बारे में सोचकर उसे हैरानी हुई। अब उसके मन में बड़े बाबू के प्रति गुस्सा न था, लेकिन वह पत्नी के प्रति की गई ज्यादती पर पछतावा था।
हिन्दी में एक कहावत प्रचलित है-'बिन घरनी घर भूत का डेरा' अर्थात् बिना गृहिणी के घर भूतों क्रे डेरे की तरह है। महाभारत में इस तथ्य को निम्न प्रकार स्थापित किया है-
न गृहं गृहमित्याहुर्गृहिणी गृहमुच्यते।
गृहं तु गृहिणीहीनमरण्यसदृशं मतम्॥महाभारतम्
घर, घर नहीं है। गृहिणी से ही घर कहा जाता है। यदि घर गृहिणी से रहित है, तो उसे जंगल की तरह सुनसान माना जाना चाहिए। मनुस्मृति में नारी के सम्मान को इतना महत्त्व देते हुए कहा गया है-'जहाँ नारी का सम्मान होता है, वहाँ देवता निवास करते हैं'–
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः।
यत्र तु एताः न पूज्यन्ते, तत्र सर्वाः क्रियाः अफलाः॥ मनुस्मृति 3 / 56॥
शास्त्र-वचन और उनका निर्देशन जनहित एवं पारिवारिक समरसता और सामंजस्य का सन्देश देते हैं। व्यक्ति अपने जन्मजात संस्कारों के साथ कुछ संस्कार समाज में रहकर अर्जित करता है। वे संस्कार अच्छे और बुरे, दोनों तरह के होते। कुछ पति-पत्नी के सम्बन्ध ढाल और तलवार की तरह होते हैं, जिसमें सामंजस्य का स्थान कलह और संघर्ष ले लेते हैं। कुछ ऐसे पति / पत्नी भी होते हैं कि उनका पूरा व्यवहार शत्रुवत् ही होता है। केवल अपने जीवनसाथी पर प्रहार करना। इस तरह के गर्हित व्यवहार के कारण धरती पर ही नरक अवतरित हो जाता है।
आधी दुनिया / सुकेश साहनी में पति का कठोर एवं अशोभनीय व्यवहार केवल प्रहार करना जानता है। लड़की की लम्बाई, फ़िगर्स, खाना बनाना से लेकर घर सँभालना और घर की साफ़-सफ़ाई के सारे काम, 'आज की रात हम जो कहेंगे, करना होगा' का हिटलरी आदेश, उठने-बैठने, हँसने-बोलने पर सामन्ती अंकुश। कथा का समापन होता है-तुम्हारी ये मजाल! ...मुझे आँखें दिखाती हो! निकलो...अभी निकलो 'मेरे' घर से। पूरा जीवन अपमान में बीत जाए, भला यह भी कोई दाम्पत्य सम्बन्ध है! पूरी लघुकथा में एकल संवाद के माध्यम से पति की क्रूर प्रवृत्ति के दर्शन होते हैं। प्रतिकार का अन्तर्द्वन्द्व और प्रतिरोध पत्नी के हृदय में उठा ही होगा; लेकिन यहाँ पाठक भी साधारणीकरण द्वारा उसका हिस्सा बन जाता है। पति के एक-एक संवाद की धमक पाठक को अपने हृदय पर महसूस होती है। पुरुष का एक-एक शब्द हथौड़े की तरह बजता है। मोनोलॉग के माध्यम से कथावस्तु को प्रभावी रूप में प्रस्तुत करना कठिन है, जिसका निर्वाह साहनी जी ने बहुत सहजता से किया है। निकलो...अभी निकलो 'मेरे' घर से-वाक्य में 'मेरे' शब्द की तह में जाना आवश्यक है। इस शब्द में पूरा अहंकार छुपा है। अहंमन्यता, जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना, विवेकशून्यता और दुर्बलता है। घर-परिवार हो या कोई भी अन्य रचनात्मक समाज, अहंमन्यता, पतन का मार्ग खोल देती है। क्षुद्र मानव किसी शक्ति, पद, संस्था का पर्याय क्या होगा, वह खुद का भी पर्याय नहीं हो सकता।
इस लघुकथा में पूरा वैवाहिक जीवन प्रस्तुत कर दिया गया। 'कालदोष' की आधारहीन सोच ही इस रचना के शिल्प ने पलट दी। एकल संवाद के माध्यम से पति की क्रूर प्रवृत्ति के दर्शन होते हैं।
हमारी मनोवृत्तियाँ हमसे जो न करा लें, वही कम है। कहीं हमारा अहंकार सिर चढ़कर बोलने लगता है, कहीं आभिजात्य हमारी सहजता छीन लेता है। जन्मना आभिजात्य रक्त में घुल जाए, तो उसका दूर होना बहुत कठिन है; क्योंकि वह हमें विरासत में मिला है। वह हमारे चिन्तन और कार्यों में बद्धमूल हो चुका है। 'छू लिया / जानकी वाही' की लघुकथा में इस अहंमन्यता की धमक और क्षरण दोनों को देखा जा सकता है।
हर सुबह स्कूल जाते समय सुहासिनी और सरसतिया की भेंट हो जाती है। उसे लगता है कि सरसतिया जानबूझ ज़ोर-ज़ोर से झाड़ू मारकर धूल उड़ाती है। एक के मुँह पर जातिगत दर्प और खीझ झलकती तो दूसरे के चेहरे से गुस्सा और नफ़रत। दोनों अपने-अपने म्यान में सिमटी रहतीं। कभी सरसतिया की बड़बड़ाहट-"हमसे परे-परे जाएँगे? हम तो छूत की बीमारी हैं ना ...?"
एक दिन सरसतिया से दूर जाने की हड़बड़ी में सुहासिनी का पाँव जो मुड़ा, दर्द से दोहरी होकर वहीं गिर गई। सरसतिया ने हाथ का झाड़ू फेंक सुहासिनी को-को थाम लिया। खींच-तानकर पाँव की नस ठीक की और सहारा देकर खड़ा कर दिया।
नफ़रत गल गई-मुस्कुरा कर बोली-"हमने छू लिया तुमको।"
"सच कहा, तुमने तो हमारे मन को भी छू लिया"-सुहासिनी ने सरसतिया के धूल भरे हाथों को प्यार से पकड़ लिया। लगा मनोमालिन्य का एक अभेद्य दुर्ग ढह गया। अन्तिम संवाद ने पूरी लघुकथा को मानवीय उदात्तता का मुकुट पहना दिया।
जातिगत एवं वर्गगत रूप से समाज को विकृत और अशक्त करने का प्रयास आज़ादी से पहले भी किया जाता रहा है। आज भी राष्ट्रविरोधी, विभाजनकारी शक्तियाँ इसी जातिगत विद्वेष को जगाने के विध्वंसक कार्य में लगी हैं। देश इन मानसिक विकृतियों के सहारे आगे नहीं बढ़ सकता। महत्तर जैसे सम्मानजनक पद को मेहतर बनाकर सेवाएँ लीं; लेकिन उसे आधारभूत सुविधाओं और उसके मानवीय अधिकारों से भी दशकों तक वंचित करके लोकतन्त्र को ठेंगा दिखाया गया।
हमारा व्यवहार बहुत से मनोवैज्ञानिक कारकों पर निर्भर है। इसमें 'पद' एक मुख्य कारक है। किसी को श्रेष्ठ और किसी को हीन बता देना अलगाव और विभाजन का कारण बनता है। पिछले सौ साल में इस तरह के चिन्तन को प्रोत्साहित किया है। किसी को रॉयल क़ौम कहकर, किसी को अल्पसंख्यक न होने पर भी अल्पसंख्यक कहकर, सबसे अधिक हक़ और सुविधा देकर, कहीं बड़े वर्ग से, जो उसके पास नगण्य भी है, उसे भी छीनकर भेद-दृष्टि का प्रसार किया गया। जनसेवक (भले ही वह आपादमस्तक भ्रष्ट हो) का ऐसा रूप गढ़ा गया कि वह सामान्य व्यक्ति (जो मन–प्राण से कर्त्तव्यनिष्ठ एव ईमानदार है) से कहीं ऊपर का प्राणी है, वही सर्वथा कुलीन है। सुभाष नीरव की 'धूप' और कमलेश भारतीय की 'मिसफिट' इसी श्रेणी की लघुकथाएँ हैं।
'धूप' लघुकथा में अधिकारी खिड़की से झाँकने पर देखता है कि लंच के समय कर्मचारी पार्क की हरी-हरी घास पर पसरी सर्दियों की गुनगुनी धूप का आनंद ले रहे हैं; लेकिन वे जब से यहाँ आए हैं, उस गुनगुनी धूप के लिए तरस जाते हैं। वहाँ सिंगल स्टोरी! ऑफ़िस के सामने खूबसूरत छोटा-सा लॉन था। यहाँ उनका मन धूप का आनन्द लेना चाह रहा था; लेकिन इस विचार को त्याग दिया। इतना बड़ा अफ़सर और अपने मातहतों के बीच नीचे घास पर बैठे! वे खिड़की से हटकर सोफ़े पर अधलेटे-से हो गए। तन्द्रा के कारण लगा कि वे पार्क में हैं। अभी लंच समाप्त होने में बीस मिनट शेष थे। उनके क़दम पार्क की ओर बढ़े। लोगों ने उन्हें देखकर भी अनदेखा कर दिया था। वे चुपचाप एक कोने में अपना रूमाल बिछाकर बैठ गए और सर्दियों की गुनगुनाती धूप में नहाने का आनन्द लेने लगे। लंच खत्म होने पर वे भी लोगों की भीड़ का एक हिस्सा होते हुए अपने ऑफ़िस में पहुँचे। धूप की सुखानुभूति उन्हें नहला गई।
यह 'धूप' केवल सर्दी की धूप या उसकी गर्माहट नहीं। यह किसी बँधे-बँधाए दायरे से निकलने की गरमाहट है। जब तक हम मन में खुद को विशिष्ट समझते रहेंगे, बड़े 'पद' का भाव तब तक सहज आनन्द से वंचित ही रखेगा। पद के इस गरिष्ट भाव से मुक्त होना आवाश्यक है। समाज का प्रत्येक व्यक्ति महत्त्वपूर्ण है। बड़े पद पर बैठा व्यक्ति तभी सफल हो सकता है, जब उसके अधीनस्थ उसको अपना हितैषी समझें। कार्य के अनुसार सब महत्त्वपूर्ण हैं। एक ईमानदार चपरासी, बेईमान सहयोगी अधिकारी से अधिक बड़ा है। इस बात को समझ लेना चाहिए।
'मिसफिट / कमलेश भारतीय' में उसे अचानक बड़ा पद मिला, उसी पद के अनुरूप गाड़ी बंगला और ड्राइवर भी मिले। ऑफिस निकट था, तो पैदल ही पहुँच गए। सबने समझाया कि ऐसे नहीं आते। ऑफिस का डेकोरम नष्ट होगा। अगले दिन दफ़्तर की गाड़ी से आया, लेकिन डाइवर की प्रतीक्षा किए बिना स्वयं दरवाज़ा खोलकर उतर आए। फिर साथियों ने टोका कि दरवाज़ा ड्राइवर को खोलने दीजिए। दोपहर को खाना खाने गए, तो ड्राइवर को भी साथ ही बैठा लिया। क्लब के प्रेज़िडेण्ट ने कहा-' ड्राइवर यहाँ अलाउड नहीं हैं, आप इसे बाहर बिठा कर लंच करवा सकते हो! उसे
शिमला का मॉल रोड याद आ गया, जहाँ लिखा रहता था-'डॉग्स एण्ड इंडियन्स आर नाट अलाउड!'
उसे लगा कि वह उस पद के अयोग्य तो नहीं।
आदमी वास्तव में जो है, उसे वह न रहने देना, बल्कि उसे वह बनाने का प्रयास करना, जो वह है ही नहीं। कृत्रिमता का यह बड़प्पन उससे उसकी सहजता, आत्मीयता और निःश्छलता छीन लेता है। कृत्रिमता का आवरण किसी भी व्यक्ति को कुछ भी दे दे, लेकिन उसे उसकी जड़ों से छिन्नमूल अवश्य कर देता है। -0-
क्रमशः