लघुकथा साहित्य की बहुपक्षीय शख़्सियत−सुकेश साहनी / श्याम सुन्दर अग्रवाल

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सुकेश साहनी जी बहु-विधायी रचनाकार हैं। कहानी, बालकथा व लघुकथा साहित्य में उनका सराहनीय योगदान रहा है। उनका कहानी संग्रह 'मैग्मा और अन्य कहानियाँ' तथा बालकथा संग्रह 'अक्ल बड़ी या भैंस' साहित्य जगत में चर्चित रहे हैं। लेकिन उनका विशेष लगाव लघुकथा से ही रहा है। मैं भी उन्हें एक समर्थ लघुकथाकार के रूप में ही अधिक जानता हूँ। उन्होने लघुकथा साहित्य को दो मौलिक लघुकथा संग्रह 'डरे हुए लोग' व 'ठंडी रजाई' तो दिए ही साथ में अनेक संपादित लघुकथा संकलन भी प्रदान दिए।

श्री सुकेश साहनी से पहली जान-पहचान भाई रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी के माध्यम से हुई। यह 1991 की बात है जब हिमांशु जी बरेली कैंट में रहते थे। उससे पहले मैं सुकेश साहनी जी की कुछ लघुकथाएँ प्रसिद्ध साहित्यक पत्रिका 'सारिका' में पढ़ चुका था। उनकी लघुकथा 'गोश्त की गंध' का पंजाबी भाषा में अनुवाद भी कर चुका था। उन दिनों मेरे पारिवारिक हालात कुछ ठीक नहीं थे और मैं तनाव में चल रहा था। इसीलिए साहनी जी से संपर्क नहीं साध पाया। हिमांशु जी ने उनके बारे में बताया तथा उनके प्रथम लघुकथा संग्रह 'डरे हुए लोग' की प्रति मुझे भिजवाई। उन्होंने इस संग्रह को पंजाबी भाषा में अनुवाद करने का सुझाव भी दिया। संग्रह की सभी रचनाएँ मैंने पढ़ीं। साहनी जी की लघुकथाओं ने मुझे बहुत प्रभावित किया और मैंने महसूस किया कि ये लघुकथाएँ पंजाबी पाठकों तक पहुँचनी ही चाहिए। 'डरे हुए लोग' (पंजाबी में 'डरे होए लोक') किसी हिन्दी लघुकथाकार का पंजाबी भाषा में प्रकाशित होन वाला प्रथम लघुकथा संग्रह रहा। यह संग्रह पंजाबी भाषा में काफी सराहा गया। डा. अनूप सिंह जैसे वरिष्ठ आलोचक ने इस अनुवाद कार्य के लिए मुझे बधाई दी। इस अनुवाद कार्य के चलते ही सुकेश साहनी जी से परिचय हुआ। इस संग्रह में शामिल रचनाओं को मैंने दो-तीन बार पढ़ा। इन रचनाओं से मुझे लघुकथा विधा के बारे में काफी कुछ जानने व सीखने को मिला।

साहनी जी से पहली मुलाकात अक्तूबर 1992 में हुई। लघुकथा विधा को समर्पित पंजाबी पत्रिका 'मिन्नी' द्वारा पंजाब के शहर अमृतसर में आयोजित किए गए 'प्रथम अंतर्राज्यीय लघुकथा सम्मेलन' में। उग्रवाद के दौर में भी वे भाई रामेश्वर काम्बोज हिमांशु जी के साथ सम्मेलन में भाग लेने अमृतसर पधारे थे। 'साहनी' पंजाबियों में भी होते हैं। पंजाब में जितने भी 'साहनी' मुझे मिले, वे सभी सिख परिवारों से रहे। इधर अरोड़ा बरादरी में एक परंपरा रही कि वे अपने बड़े बेटे को सिख बाना पहना सरदार बना देते थे। शायह इसलिए ही ऐसा रहा होगा। बलराज साहनी को तो कभी देखा ही नहीं, भीष्म साहनी को देखा तो जरूर पर कोई बात नहीं हो पाई। पंजाब में जो साहनी मिले उनके बारे में मेरी राय बहुत अच्छी नहीं रही। लेकिन जब सुकेश साहनी जी से मिला तो उन्हें बिल्कुल ही अलग पाया। एक बहुत ही नर्म, सौम्य, सहृदय व मिलनसार व्यक्ति। सभी को आदर-सत्कार देने वाले। पहली ही मुलाकात में उन्होंने मन जीत लिया।

अगले ही वर्ष 1993 में दूसरे अंतर्राज्यीय लघुकथा सम्मेलन में वे भाई रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी व श्री रमेश गौतम जी के साथ हमारे घर कोटकपूरा पधारे। उनके सान्निध्य में सीखने को तो मिला ही, साथ में मिला उन द्वारा संपादित लघुकथा संकलन 'स्त्री-पुरुष सम्बंधों की लघुकथाएँ'। इस लघुकथा संकलन की रचनाओं ने मुझ पर बहुत प्रभाव डाला। बहुत कुछ नया सीखा भी। साहनी जी की संपादन क्षमता का कायल हुआ व मेरी यह धारणा बदल गई कि लघुकथा 250 शब्दों से अधिक की नहीं होनी चाहिए। पहले मैं सोचता था कि अगर लघुकथा 250 शब्दों से आगे जाती है, तो ऐसा लेखक में कौशल व सामर्थ्य की कमी के कारण है; लेकिन इस लघुकथा संकलन की रचनाओं ने मेरी इस धारणा को पूरी तरह बदल कर रख दिया।

लघुकथा विधा के उन्नयन के लिए सुकेश साहमी ने अनेक क्षेत्रों में काम किया। लेखन, संपादन, अनुवाद, प्रकाशन व आयोजन के माध्यम से लघुकथा साहित्य में प्रभावशाली रोल अदा किया। साहित्यक पत्रिका 'कथादेश' के माध्यम से हर वर्ष लघुकथा-प्रतियोगिता का आयोजन कर वे विशेष रूप से नवलेखकों को प्रोत्साहित कर रहे हैं। बहुत ही चर्चित रहे उनके अपने दो लघुकथा संग्रह 'डरे हुए लोग' व 'ठंडी रजाई' तो पाठकों तक पहुँचे ही, साथ में उन्होंने विभिन्न विषयों पर दस के करीब लघुकथा संकलनों का संपादन भी किया। उन्होंने इन लघुकथा संकलनों के लिए कभी किसी लेखक से एक भी पैसा नहीं लिया तथा सभी को मुफ्त में लेखकीय प्रति पंजीकृत डाक से भिजवाई। साल 2000 से उन द्वारा भाई रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' के साथ मिलकर अंतर्जाल पर 'Laghukatha. com' नाम से वैब पत्रिका का संपादन / प्रकाशन किया जा रहा है। लघुकथा साहित्य के प्रेमियों की यह सर्वाधिक प्रिय वैब पत्रिका है।

अंग्रेजी, पंजाबी, गुजराती, मराठी एवं उर्दू भाषाओँ में उनकी अनूदित रचनाओं के लघुकथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी कुछ कहानियों व लघुकथाओं का जर्मन भाषा में भी अनुवाद हुआ है। यह सब उन द्वारा रचित साहित्य की मकबूलियत को ही दर्शाता है। उनकी कई रचनाएँ स्कूल-पाठ्यक्रम में भी शामिल हुई हैं। साहनी जी की कुछ रचनाओं पर टेलीफिल्मों का निर्माण भी हो चुका है। उनकी लघुकथा 'कुत्ते वाला घर' पर पंजाबी भाषा में भी टैलीफिल्म निर्मित हो चुकी है।

सुकेश साहनी ने खलील जिब्रान की लघुकथाओं का अंग्रेजी से हिन्दी भाषा में अनुवाद किया। इसके पश्चात खलील जिब्रान की लघुकथाओं व लघु रचनाओं का अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद का कार्य सरल हो गया। उन्होंने चर्चित लेखकों की कहानियों का भी अंग्रेजी भाषा से हिन्दी में अनुवाद कर बहुत ही उल्लेखनीय व सराहनीय कार्य किया है।

डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति के साथ मिलकर मेरे द्वारा संपादित लघुकथा संकलन 'पंजाबी लघुकथाएँ' साहनी जी की हल्लाशेरी से ही साल 1994 में प्रकाशित हो पाया। बाद में साहनी जी ने साहित्य के पाठकों तक लागत मूल्य पर पुस्तकें उपलब्ध करवाने के लिए 'जनसुलभ पेपरबैक्स' नाम से एक प्रकाशन हाउस की स्थापना भी की। 'जनसुलभ पेपरबैक्स' से लघुकथा की कई पुस्तकें प्रकाशित हुई, जिनका मूल्य 15 से 25 रुपये तक ही रहा। इन पुस्तकों में डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति व मेरे संपादन में आया लघुकथा संकलन 'बीसवी सदी: पंजाबी लघुकथाएँ' भी शामिल रहा। क्रान्तिकारी पंजाबी कवि पाश की कविताओं का हिन्दी अनुवाद भी इसी प्रकाशन से छपकर पाठकों तक पहुँचा।

पंजाबी पत्रिका 'मिन्नी' द्वारा आयोजित लगभग सभी अंतर्राज्यीय लघुकथा सम्मेलनों में सुकेश साहनी की सक्रिय भागीदारी रही है। ये सम्मेलन पंजाब व अन्य प्रदेशों के विभिन्न शहरों-कसबों में आयोजित होते रहे हैं। इन सम्मेलनों में उन्होंने लघुकथा के कई पक्षों पर आलेख भी प्रस्तुत किए। पटना में आयोजित होने वाले अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलनों में भी वे प्रारम्भ से ही उपस्थित होते रहे हैं। सरकारी सर्विस की तमाम जिम्मेदारियों और दिक्कतों के बावजूद उनका इन सम्मेलनों में उत्साह से भाग लेना, लघुकथा के प्रति उनके असीम लगाव का द्योतक है।

लघुकथा के प्रति मोह के चलते ही उन्होंने 'अखिल भारतीय लघुकथा मंच' के तत्त्वावधान में पहले दिनांक 11-12 फरवरी, 1989 व फिर 11-12 नवंबर, 2000 को बरेली में अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन आयोजित करने का भार वहन किया। मुझे भी दूसरे लघुकथा सम्मेलन में सम्मिलित होने का अवसर मिला। मैं उनके प्रबंधकीय कौशल, क्षमता व मेहमान नवाजी का कायल हो गया। 1989 के सम्मेलन में पढ़ी गई रचनाओं व उनपर हुई चर्चा को एक संकलन में समेटने का काम भी साहनी जी ने किया। लघुकथा साहित्य जगत में उनका यह कार्य बहुत उल्लेखनीय रहा। साहनी जी के ये सभी कार्य लघुकथा विधा के प्रति उनकी सहृदयता, लगन व निष्ठा के साक्षी हैं।

गिनती के जिन लघुकथाकारों की रचनाओं ने मुझे अत्यधिक प्रभावित किया, उनमें सुकेश साहनी का नाम भी शामिल हैं। उनकी लघुकथाएँ आम आदमी के जीवन के बहुत करीब लगीं। उन्होने अपनी लघुकथाओं में व्यक्ति की मानसिकता का चित्रण बाखूबी किया है। आम जीवन से जुड़ी छोटी-छोटी बातों को भी अपनी पैनी निगाह से देखते हुए उन्होंने अपने विचारों के मेल से काबिले तारीफ लघुकथाओँ का सर्जन किया। लघुकथा लेखन में वे सदा ही नए विषय व नई जमीन तलाशते नजर आए। उनकी प्रतीकात्मक लघुकथाएँ बहुत चर्चित रही हैं। उनकी रचनाओँ के तेवर दूसरों से भिन्न दिखाई देते हैं। उनकी लेखन-शैली और शिल्प भी उन्हें भीड़ से अलग करते हैं। जीवन के गहन अनुभव से ही विचारों में परिपक्वता आती है और विचारों की यह परिपक्वता उनकी रचनाओं में स्पष्ट परिलक्षित होती है।

लगभग 40 वर्षों के अपने लेखन काल में उन्होंने 'गोश्त की गंध' , 'ठंडी रजाई' , 'विजेता' , 'जागरूक' , 'मेंढ़कों के बीच' , 'काला घोड़ा' , 'चादर' , 'ओएसिस' , 'स्कूटर' , 'स्कूल' , 'डरे हुए लोग' , 'नपुंसक' , 'इमीटेशन' , 'उजबक' , घण्टियाँ',' चौराहे पर',' अनुताप',' आधी दुनिया',' खेल',' मास्टर',' आइसबर्ग',' त्रिभुज के कोण',' पैंडुलम',' बैल',' ओए बबली',' दीमक',' कसौटी', व' धुएँ की दीवार' जैसी अनेक कालजयी रचनाएँ साहित्य जगत को दी हैं। उनकी अनेक रचनाओं ने लघुकथा लेखन के क्षेत्र में नए मानदंड स्थापित किए हैं। उनकी लेखकीय दृष्टि दूसरों से भिन्न है। रचना का शीर्षक पढ़ कर पाठक साहनी जी को अपनी उंगली थमा देता है और फिर रचना के अंत तक उसे छुड़ाने की कोशिश नहीं करता। जिस लेखक में रचना कौशल होता है उसकी रचनाएँ पहली ही पंक्ति से पाठक को कील लेती हैं और उत्सुकतावश वह खुद-ब-खुद आगे बढ़ता जाता है। यह विशेषता साहनी जी की लगभग सभी लघुकथाओं में पाई जाती है।

लेखन व प्रकाशन के प्रति साहनी जी में उतावलापन बिल्कुल नजर नहीं आता। तभी उन्होंने रचनाओं की संख्या बढ़ाने की बजाय उनकी गुणवत्ता पर अधिक जोर दिया। मेरी नजर में क्वालिटी और क्वांटिटी कभी एकसाथ नहीं चलते। कुछ नये लोग क्वांटिटी पर अधिक जोर देते हैं तो साहनी जी जैसे मंझे हुए रचनाकार क्वालिटी पर। यही बात उन्हें हिन्दी साहित्य के चोटी के लघुकथाकारों में खड़ा करती है। तभी मधुदीप जी ने 'पड़ाव और पड़ताल श्रृंखला' का खण्ड-25 'सुकेश साहनी की 66 लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल' के रूप में प्रकाशित किया है।

सहृदय साहनी जी के उत्कृष्ट लेखन, संपादन व बहुआयामी व्यक्तित्व के कारण ही देश की अनेक साहित्यक संस्थाएँ उन्हें समय-समय पर सम्मानित करती रही हैं। इन्हें मिलने वाले सन्मानों में 'डा. परमेश्वर गोयल लघुकथा सम्मान 1994' , 'माता शरबती देवी स्मृति सम्मान 1996' , 'डॉ. मुरली मनोहर हिन्दी साहित्यक सम्मान 1998' , 'माधवराव स्प्रे सम्मान 2008' व 'दयादृष्टि अति विशिष्ट उपलब्धि सम्मान 2009' विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

उनके बहुआयामी कार्यों एवं व्यक्तित्व के कारण उनका नाम साहित्य जगत में सदा सम्मान से लिया जाएगा।

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