लघुकथा / अंजू खरबन्दा / कविता भट्ट

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बुलावा

ठक-ठक।!

"कौन? दरवाजा खुला है आ जाओ।"

"राम राम चन्दा!"

"राम राम बाबूजी! आप यहाँ!"

"क्यों मैं यहाँ नहीं आ सकता?"

"आ क्यों नहीं सकते! पर यहाँ आता ही कौन है!"

" आया न आज! ये कार्ड देने मेरे बेटे की शादी का!

"कार्ड! बेटे की शादी का!"

"हाँ अगले महीने मेरे बेटे की शादी है तुम सब आना।"

"......!"

"...और ये मिठाई सबका मुँह मीठा करने के लिए!"

काँपते हाथों से मिठाई का डिब्बा पकड़ते हुए चंदा बोली-"हम तो जबरदस्ती पहुँच जाते है शादी ब्याह या बच्चा पैदा होने पर, तो लोग मुँह बना लेते हैं और आप हमें बुलावा देकर...!"

आगे के शब्द चंदा के गले में ही अटक कर रह गए।

"चन्दा, बरसों से तुम्हें देख रहा हूँ सबको दुआएँ बाँटते!"

"......!"

"याद है जब मेरा बेटा हुआ था तो पूरा मोहल्ला सिर पर उठा लिया था तुमने खुशी के मारे।"

"हाँ! और आपने खुशी-खुशी हमारा मनपसंद नेग भी दिया था!"

"तुम लोगों की नेक दुआओं से मेरा बेटा पढ़ लिखकर डॉक्टर बन गया है... और तुम सबको उसकी शादी में जरूर आना है!"

"क्यों नहीं आएँगें बाबूजी! जरूर आएँगें! आपने इतनी इज्ज़त मान से बुलाया है, तो क्यों न आएँगें!"

कहते हुए चंदा की आँखे गंगा-जमुना-सी बह उठीं और उसका सिर बाबूजी के आगे सजदे में झुक गया। -0-

अंजू खरबंदा, 207 द्वितीय तल भाई परमानन्द कॉलोनी, दिल्ली 110009

न्यूतू

ठक-ठक। !

ठक-ठक। !

"को च? द्वार खुल्ला छन ऐ जावा।"

"राम राम चन्दा!"

"राम राम बाबूजी! तुम इख!"

"किलै, मि इख नि ऐ सकदौं क्या?"

"ऐ किलै नि सकदाँ! पर इख औंदू इ को च!"

" अयों न आज! ये कार्ड देणू म्यारा नौना का ब्यो कु कार्ड च!

"कार्ड! नौंना का ब्यो कु!"

"हाँ अगला मैंना महीने म्यारा नौंना कु ब्यों च तुम सब्बी आन।"

"...!"

"...अर या मिठै सब्बु मुख मिट्ठू कन्ना वास्ता!"

कौंपदा हात्थु न मिठै कु डिब्बा पकड़िक चंदा न बोली

"हम त जबरदस्ती पौंछी जाँदाँ ब्यो काज या सुलकुडू हूँण पर, त लोग मुक बणै दींदन अर तुम हमतैं न्यूतु दीक...!"

अगनै का शब्द चंदा का गौला माँ इ अटगि गेन।

"चन्दा, बरसु बिटी तुम तैं दिखणु छौं सब्बू तैं सुभकामना बाँटदु!"

"...!"

"...!"

"याद च जबरि म्यारू नौनु ह्वै छौ त पूरु खोल़ा मुंड म उठै यली छौ तिन खुसी म।"

"हाँ! अर तुमुन खुसी-खुसी हमारू मनपसंद सगुन बि दे छौ!"

"तुम लोखु की सुभकामना सि म्यारु नौनु पढी लेखिक डॉक्टर बणी गै... अर तुम सब्बू न वे का ब्यो माँ जरूर औण!"

"किलै नि आँण जरूर औला बाबूजी! जरूर औला! तुमुन इतगा इज्ज़त मान-सी बुलाई, त किलै नि औण!"

बुल्दी बुल्दू चंदा की आँखी गंगा-जमुना-सी बगण लगी गेन अर वींकु मुंड बाबूजी क अगनै झुकी गै।