लघु पत्रिकाएँ कल आज और कल / मनोहर चमोली 'मनु'
‘लघु पत्रिकाओं का आंदोलन कहां तक पंहुचा’ से पहले यह मीमांसा की जानी आवश्यक होगी कि आखिर पत्रिकाओं के साथ ‘लघु’ जोड़े जाने की आवश्यकता कब और क्यों पड़ी?
भारत में पत्रिकाओं के इतिहास को आजादी के से पहले और आजादी के बाद के समय के साथ देखा-परखा जा सकता है। आजादी के आंदोलन के समय भारत के बौद्धिक लामबद्ध हुए। यहीं से उपजी है लघु पत्रिकाओ की हिस्सेदारी। उस समय एक ही उद्देश्य था, सब तक रणबांकुरों की बात पंहुचे। उग्र और शांत तरीके से भारतीयों के मन में अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा होने की ताकत देने के लिए पत्र-पत्रिकाओं का जन्म हुआ। राजधानियों के भीतर और बाहर भी हाथ की, दीवार की पत्रिकाओं का भी प्रकाशन हुआ। भूमिगत रूप से भी और खुल्लमखुल्ला भी।
देश आजाद हुआ तो आगे बढ़े हुए रचनाकारों-पत्रकारों और संपादकों ने राजधानियों से निकलने वाली पत्रिकाओं को संभाला। सब कुछ पहले-पहल ठीक चलता रहा। फिर शुरू हुआ देश भर में मशहूर हो रही पत्रिकाओं में लिखना। मत-मतान्तरों के साथ फिर शुरू हुआ, लेखकों, पत्रकारों और वैचारिक धड़ेबाजी का दौर। कहना आसान तो नहीं है मगर अपवादों को छोड़ दें तो सत्तर के दशक में धड़ेबाजी अपने चरम पर पंहुची।
कुछ संपादक-लेखक वैचारिक रूप से और कुछ धड़ेबाजी से खिन्न होकर कस्बाई पत्रकारिता में उतर गए। वहां भी विचार और मन की शांति नहीं मिली तो कस्बाई पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू हो गया। यह कहना मुश्किल है कि लघु पत्रिकाएं सिर्फ असंतोष के कारण ही उपजी हों। उस समय संचार की व्यवस्था आज के दौर की नहीं थी। नब्बे फीसदी लेखक-रचनाकार हाथ से लिखकर डाक से अपनी रचनाएं छोड़ते थे। फिर समूचे भारत में किसी भी भाषा की दर्जन भर पत्रिकाएं ही थीं, जो प्रमुखता से छपती थीं और जिनका नाम था। यह भी कारण है कि हर माह और पाक्षिक सभी की अभिव्यक्ति को स्थान नहीं मिल पाता था। इससे बड़ा कारण था कि कस्बाई क्षेत्रों के सरोकार और विचार, समझ, अभिव्यक्ति, व्यक्तित्व को स्थान नहीं मिलता था। मुझे इस संदर्भ में मशहूर रचनाकार शैलेश मटियानी और रस्किन बांड के संदर्भ याद आते हैं। दोनों ने अपने साक्षात्कार में कहीं कहा है कि पत्रिकाएं छोटी हों या बड़ी। दोनों के पाठक आपको पढ़ते हैं। आपको पता भी नहीं होता कि आपकी रचनाएं कौन और कहां पर पढ़ रहा है।
यही कारण है कि लघु पत्रिकाओं का विस्तार हुआ और आज भी हो रहा है। प्रिन्ट के ही क्षेत्र में ले लें और केवल हिंदी की ही बात करें तो मेरी अपनी ही जानकारी में लगभग पचास से अधिक पत्रिकाएं हैं, जो बेहद छोटी सी जगह से प्रकाशित होती हैं, और गुणवत्ता की दृष्टि से बड़ी और नामचीन पत्रिकाएं भी उनके सामने पानी भरती हैं।
उपभोक्तावाद की संस्कृति और विज्ञापन के मोहजाल ने भी पत्रिकाओं की साख पर बट््टा लगाया है। व्यक्तिगत कुण्ठा और स्वयंभू संपादक की मानसिकता ने भी लघु पत्रिका के आंदोलन को चोट पहुंचाई है। लेकिन हर राज्य से दर्जन भर लघु पत्रिकाएं तो हैं ही, जो मिशनरी भाव से आज भी प्रकाशित हो रही हैं। सामुदायिक सहयोग से वह प्रकाशित होती हैं। स्तर और अभिव्यक्ति वहां शिखर पर है। ऐसी पत्रिकाओं का सम्मान किया जाना चाहिए।
वहीं दूसरी ओर ऐसी लघु पत्रिकाएं भी दर्जनों हैं, जो बनियावाद को बढ़ावा देती मिल जाएंगी। साहित्यिक, कला, संस्कृति और धरोहर के नारों के साथ प्रकाशित ये पत्रिकाएं ‘अंधा बांटे रेवड़ी, फिर-फिर अपने को दे’ वाली हैं। राजनेताओं और मुनाफाखोरों की तस्वीरे-विज्ञापन छाप कर इनके संपादक अपनी रोजी-रोटी चला रहे हैं।
सकारात्मक और समाजोपयोगी लघु पत्रिकाओं का आंदोलन सर्वव्यापी है। ये पत्रिकाएं भले ही रूप और आकार में बेहद लघु हैं, लेकिन ये सम्मान की दृष्टि से हर वर्ग में देखी जाती हैं। नैतिक और आत्मिक समर्थन इन पत्रिकाओं को हर जगह मिलता है। बस इन्हें आर्थिक संसाधन नहीं मिल पाते। मगर ये पत्रिकाएं सिर उठाकर प्रकाशित हो रही है।
आज समाज जिस दिशा में जा रहा है। अमीर और मुनाफ़ाखोर और अधिक और अनुचित लाभ पा रहा है, तब ऐसे में इन पत्रिकाओं का आंदोलन और पुख्ता होना चाहिए और हो भी रहा है। आने वाला समय पूंजीपतियों की पत्रिकाओं का नहीं कस्बों से निकलने वाली इन्हीं लघु पत्रिकाओं का है। ये पत्रिकाएं ही होंगी जो सामाजिक सरोकारो, जन हितों और समाजोपयोगी प़क्ष को शामिल करेंगी। आज स्वान्तः सुखाय के लिए रचनाकर्म का समय नहीं रहा। ऐसे में वे पत्रिकाएं ही जिन्दा रहेंगी, जो आदमी को जिंदा रखने का हौसला देगी।
मरे हुए पाठकों के लिए आखिर उखड़ती सांस की पत्रिकाएं कब तक जिंदा रह सकती हैं।