लघु फिल्मों का गहरा प्रभाव / जयप्रकाश चौकसे

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लघु फिल्मों का गहरा प्रभाव
प्रकाशन तिथि : 03 नवम्बर 2021


विगत कुछ वर्षों में फिल्म निर्माण के क्षेत्र में लघु फिल्मों की संख्या बढ़ गई है। दरअसल ये फिल्में कम समय में मनोरंजन के साथ-साथ एक दृष्टिकोण भी सामने रखती हैं।

इसी तरह की एक लघु कथा फिल्म का नाम है ‘इतवार’। यह पति-पत्नी और उनके युवा पुत्र की कथा है। कहानी में परिवार का मुखिया लंबे समय से आर्थिक तंगी से तनाव में रहता है। काम से लौटकर वह सोना चाहता है परंतु उसे शोर सोने नहीं देता। असल समस्या आर्थिक तंगी और महंगाई की है। वह प्राय: अपने बेटे पर ही झुंझलाता है। मां जानती है कि उसका पुत्र नौकरी पाने का भरपूर प्रयास कर रहा है। एक दिन पुत्र को नौकरी मिल जाती है। उस दिन पिता को शोर अच्छा लगने लगता है।

दशकों पूर्व मनोज कुमार ने ‘शोर’ नामक फिल्म बनाई थी। फिल्म में पुत्र एक दुर्घटना के कारण अपने बोलने की क्षमता खो देता है और शल्य चिकित्सा के लिए अधिक धन की आवश्यकता है। नायक सात दिन तक निरंतर साइकिल चलाने की एक इनामी प्रतिस्पर्धा से उतना धन कमाना चाहता कि पुत्र का इलाज करा सके। वह सफल होता है और तमाशबीन भी चंदा देते हैं। पुत्र की शल्यक्रिया सफल होती है परंतु पिता किसी कारण से अपने सुन सकने की क्षमता खो देता है। इस तरह की ट्विस्ट एंडिंग वाली कथाएं ओ हेनरी ने सैकड़ों लिखी हैं।

‘शोर’ फिल्म का गीत, ‘जिंदगी और कुछ भी नहीं, तेरी मेरी कहानी है, एक प्यार का नगमा है मौजों की रवानी है।’ लोकप्रिय हुआ था।

एक लघु फिल्म का नाम है ‘डॉटर बॉय लॉ’ एक बहू को उत्सव पूर्व घर की सफाई में अपने विधुर ससुर द्वारा वर्षों पूर्व लिखे प्रेम-पत्र मिलते हैं। बहू बहुत प्रयास करके ससुर की पुरानी प्रेमिका को खोज निकालती है और दोनों का मिलन करवा देती है।

एक अन्य लघुकथा फिल्म का नाम है ‘स्लीवलेस’ जिसमें एक महिला की पुत्री को कॉलेज में दाखिला मिल गया है। कॉलेज में वह स्लीवलेस वस्त्र पहनना चाहती है और उसकी मां को यह पसंद नहीं है। पुत्री इस बात से सख्त नाराज होती है। उसकी मां कहती है कि युवतियों का खुले वस्त्र पहनने और शरीर प्रदर्शन के कारण उनको बाहर परेशानी झेलना पड़ती है और इस वजह से लड़कियों के साथ दुष्कर्म जैसी घटनाएं भी बढ़ रही हैं। पुत्री यह बात जानती है कि वर्षों पूर्व उसकी मां के साथ एक नजदीकी रिश्तेदार ने दुष्कर्म किया था। सारा परिवार इससे अनजान बनता है। पुत्री मां से कहती है कि मां ने सारी उम्र साड़ी पहनी परंतु तो भी उसके साथ यह हुआ और पुत्री का यही कथन फिल्म में गहरा प्रभाव छोड़ता है और विषय पर सोचने को मजबूर करता है। ज्ञातव्य है कि इम्तियाज अली की आलिया भट्ट अभिनीत फिल्म ‘हाईवे’ में भी इस तरह की घटना को प्रस्तुत किया गया था। ‘सुता’ नामक फिल्म में एक पुत्री यह जान लेती है कि उसका पिता उसकी मां को धोखा दे रहा है। उसका कोई प्रेम प्रकरण चल रहा है। उसकी मां पहले ही सब कुछ जानती है परंतु सहन करती रहती है। तब पुत्री अपनी मां को साहस दिलाती है और पिता का असली चेहरा सबके सामने लाकर पुत्री अपनी मां के साथ हमेशा के लिए वह सुविधा- संपन्न घर छोड़ देती है।

गोया की ये सारी लघु फिल्में वर्तमान में प्रस्तुत हुई हैं। अरसे पहले सत्यजीत रॉय ने एक लघु फिल्म में उस बालक की तन्हाई प्रस्तुत की थी, जिसके पास स्वचलित खिलौने हैं परंतु कामकाजी माता-पिता के पास उसके लिए समय नहीं है। दूसरी ओर उनके बंगले के माली के पुत्र के पास कंचे, लट्टू और पतंग है। अंतिम सीन में अमीर बालक सारे स्वचलित खिलौनों को चलाकर उनके बीच तन्हा और उदास बैठा रहता है और गरीब बालक की पतंग हवा में उड़ रही होती है। अत: मनोरंजन के आकाश में भी लघु फिल्मों की पतंग उड़ रही है।