लज्जावती लड़की / लफ़्टंट पिगसन की डायरी / बेढब बनारसी
पान की इतनी प्रशंसा सुनकर मैंने अपने विचार को काम में लाना ही उचित समझा और चार बीड़े पान मुँह में रखे। फिर उसे दाँत से कूँचने लगा। कूँचने के दो मिनट बाद ही क्या देखता हूँ कि मेरे मुख से चार धारायें फूटकर निकल पड़ीं। एक मेरी दाहिनी ओर कोट के कालर पर से होती बह चली, दूसरी मेरी बाईं ओर। तीसरी नेकटाई पर से और चौथी गरदन पर से होती हुई कालर के भीतर-भीतर सीने की ओर वह निकली, जैसे किसी झरने से चार नदियाँ बह निकलें। जान पड़ता था कि मैं लड़ाई के मैदान में हूँ। गोली लगी है और रक्त की धारायें बह चली हैं।
मुँह में स्वाद न मीठा न खट्टा, न तीता न नमकीन। मैंने रूमाल निकाला ही था कि कोट पर से पोछूँ कि गले में न जाने क्या फँस गया और मुझे खाँसी आने लगी। खाँसी के साथ मैंने सोचा कि सब थूक दूँ परन्तु गाइड ने कहा कि इसे यों नहीं खाते। आप पान चबाइये और उसका रस धीरे-धीरे कण्ठ के नीचे उतारते जाइये। मैं बकरी की भाँति पागुर करने लगा और उसका रस गले के भीतर उतारने लगा। धीरे-धीरे क्या देखता हूँ कि कुछ हल्की मचली-सी जान पड़ने लगी और एक विचित्र भाँति का मन होने लगा। आइने में मुख जो देखा तो जान पड़ा कि दाँत नहीं हैं, मानिक के टुकड़ों की पत्तियाँ हैं और ओंठ पके तरबूजे के टुकड़े। स्वाद तो मुझे अच्छा लगा, किन्तु दाँत लाल हो जाना कुछ खटका।
मैंने ब्रुश से खूब दाँत साफ किये; फिर सब लोग लारी पर सवार हो कर कानपुर के लिये चल पड़े। गाइड को मैंने दस रुपये का एक नोट दिया। वह लारी तक झुक-झुककर सलाम करता रहा। पन्द्रह बार से कम सलाम उसने नहीं किया होगा। प्रति सलाम एक रुपये से भी कम पड़ा। जान पड़ता है भारतवर्ष में सलाम बहुत सस्ता है।
लारी चली जा रही थी और हम लोग झपकियाँ लेते हुए चले जा रहे थे। एकाएक हमने देखा कि आठ-दस आदमी चले आ रहे हैं और साथ में एक डोली है जो चारों ओर से बन्द है; और डोली के भीतर से रोने का स्वर सुनायी दे रहा है। पहले मैंने उधर विशेष ध्यान नहीं दिया। जब लारी निकट होने लगी तब मुझे रोना और स्पष्ट सुनायी देने लगा। मैंने लारी को धीरे-धीरे चलाने की आज्ञा दी।
इस झुण्ड के निकट आने पर यह स्पष्ट हो गया कि यह लोग किसी स्त्री को उस डोली में बन्द किए हुए हैं और उसके रोने से यह भी जान पड़ा कि इसे यह लोग भगाये चले जा रहे हैं। मैंने सिपाहियों को आज्ञा दी कि इन्हें पकड़ लेना चाहिये। लारी खड़ी कर दी गयी और हम लोगों ने इस समूह को घेर लिया।
हम लोगों के उतरते ही दो-तीन आदमी तो भाग गये। बाकी लोग सब घिर गये। डोली धरती पर रख दी गयी और रोने का स्वर और भी तीव्र हो गया। मेरा विश्वास और भी दृढ़ हो गया। हम लोगों में मैं ही एक व्यक्ति था जो कुछ हिन्दुस्तानी बोल सकता था। मैंने पूछा, “तुम लोग क्यों इसे पकड़े ले जा रहे हो? छोड़ दो इसे।” मैं विशेष कठोर होना नहीं चाहता था। इसलिये कहा कि यदि तुम लोग इसे छोड़ दो तो मैं कुछ नहीं करूँगा, नहीं तो तुम सब लोगों को पुलिस में दे दूँगा। तुम लोग इसे कहाँ से भगाये चले जा रहे हो?
मेरी बात सुनकर सब डर गये जिससे मेरा विश्वास और ठीक जम गया। डोली में रोने की आवाज और बढ़ गयी। मैंने फिर अपनी बात दुहरायी। एक आदमी हाथ जोड़े हुए मेरे सामने आया और बोला कि यह मेरी स्त्री है। इस प्रकार के बहाने मैं जानता था। स्त्रियों को भगानेवाले इसी प्रकार बहाना किया करते हैं। अन्त में जब इन लोगों ने नहीं माना तब मैंने सैनिकों को आज्ञा दी कि इन्हें घेर कर ले चलो।
सैनिकों ने पूछा, 'कहाँ?' अब मेरी समझ में यह बात नहीं आयी कि इन्हें कहाँ ले जाऊँ। कानपुर ले जा नहीं सकता था। इतनी दूर! लारी में स्थान होता तो वह भी सम्भव होता। कानून के पंजे में आये इन लोगों को छोड़ देना सम्राट के प्रति विश्वासघात होता। इस देश की शान्ति और रक्षा के लिये ही तो हम लोग यहाँ पर हैं। इसे कैसे त्याग सकते हैं? उत्तरदायित्व कैसे छोड़ दें? बड़ी उलझन में पड़ा। बनारस से पाँच-छः मील हम लोग चले आये थे। यही सम्भव था फिर वहीं लौटें। फिर इन सब लोगों को पैदल चलना पड़ेगा।
अन्त में मैंने यही निश्चय किया। सैनिकों की देख-रेख में इन्हें बनारस भेज दिया जाये और वहीं यह लोग पुलिस के हवाले कर दिये जायें। मैंने एक छोटी-सी रिपोर्ट तैयार की। उन लोगों में से सभी हाथ जोड़कर न जाने क्या-क्या कह रहे थे। अधिकांश तो मेरी समझ में आया नहीं। परन्तु उनकी बातों का तथ्य था कि हम लोग निर्दोष हैं, हम लोगों को छोड़ दिया जाये। परन्तु न्याय करना हम लोगों को परम धर्म है। ब्रिटिश शासन का इतना विस्तार केवल न्याय के बल पर हुआ है और न्याय के बल पर यह टिका भी है। इसलिये छोड़ना तो असम्भव बात थी और कोई साधारण बात होती तो मैं क्षमा कर देता। एक स्त्री को इस प्रकार भगाना तो सभ्यता और समाज के प्रति भी अपराध है।
मैं चार सैनिकों को आदेश दे रहा था कि इन्हें बनारस में पुलिस को देकर वह लोग रेल से कानपुर आयें कि एक व्यक्ति घोड़े पर जा रहा था। निकट आने पर देखा कि वह कोई पुलिस अफसर था। वह वर्दी भी पहने हुए था। मैं भी वर्दी में था। मैंने उसे रोका। उसने मुझे सरकारी सलाम किया। मैंने अंग्रेजी में उसे पूरा विवरण बताया और कहा कि यह लोग बदमाश जान पड़ते हैं। इस प्रकार के कृत्य करते हैं। वह तो संयोग से हम लोगों ने देख लिया। इन लोगों ने समझा होगा कि इस राह में कौन मिलता है। वह पुलिस का इंस्पेक्टर दारोगा था। उसने मुझे बहुत-बहुत धन्यवाद दिया और वह उनको बुलाकर सब घटना पूछने लगा। कुछ बात करने के बाद वह मुस्कुराया और मेरे पास आकर बोला, “यह सब आदमी निर्दोष हैं।” मुझे बड़ा क्रोध आया। मैंने कहा कि यह कैसी बात है। दारोगा ने कहा कि बात यह है कि भारतवर्ष में यह प्रथा है कि विवाह में बहुधा अपनी स्त्री को घर नहीं ले जाते। कुछ दिनों के बाद ले जाते हैं। वही प्रथा यह है और पति के साथ इतने आदमी उसकी ससुराल गये थे और यहाँ की वह भी एक प्रथा है कि जब दुलहिन घर छोड़कर पति के साथ आने लगे, तब उसे रोना पड़ता है। चाहे उसकी इच्छा हो या न हो, रोना आवश्यक है। जो न रोये वह लड़की निर्लज्ज समझी जाती है और उसकी हँसी होती है और जो जितना अधिक रोती है, वह उतनी ही शिष्ट और शालीन समझी जाती है। गाँव-भर में उसका उतना ही नाम होता है। राह-भर और पति के घर तक रोते जाना माता-पिता के प्रति प्रेम का लक्षण है।
मुझे यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। मैंने मन में सोचा कि भारत, तू विचित्र देश है और लारी बढ़ायी।