लज्जा / सरोजिनी साहू / दिनेश कुमार माली
उसने कहा था कान को दांतों से काट, चैती ने कान को दांतों से भींचकर पकड़ा था। कान के भीतर से एक अजब-सी दुर्गंध आ रही थी, बकरे की दुर्गंध की तरह। उसको उबकाइयां आने लगी, मगर उसने अपने आप को संभाल लिया था। इस तरह घृणित भाव से खाते हुए उसने पहले कभी देखा न था। कितना लोभी और स्वार्थी आदमी है वह, उसने सोचा था। भले ही पहले से कितने लोगों को उसने देखा था, नवघन बीच- बीच में लोभी की तरह व्यवहार करता था, किंतु अपना आदमी समझकर आदत पड़ गई थी।
वह आदमी खाने के बाद मरे हुए जानवर की तरह बिस्तर पर सो गया था। स्नान घर में जाकर हाथ-मुंह धोते समय, नहीं चाहते हुए भी उल्टी करने की उसकी इच्छा हुई। पास के कमरे में सुनाई पड़ेगा सोचकर कुल्ला करके उसने मुंह धोया, बाल बनाए, मांग में फैला हुआ सिंदूर ठीक कर लिया था। चैती भीतर ही भीतर इतने जोर से रो रही थी कि उसे लगने लगा उसका शरीर फटकर टुकडे-टुकडे हो जाएगा। उसे समझ में नहीं रहा था कि वह अपनी किस्मत को कोसे या भगवान को गाली दे।
शायद उस आदमी को नींद नहीं आई थी, उसके आने की आवाज सुनकर झटपट उठकर बैठ गया और पेंट-शर्ट पहनकर पूछने लगा, जाओगी?
चैती ने सिर हिलाया। बाहर उसका बारह साल का लड़का चित्र साइकल के चक्के को घुमा - घुमाकर खेल रहा था। मां को बाहर आता देख, साइकिल के चक्के को तेजी से भगाते-भगाते आगे दौड़ने लगा।
चैती के मुंह से गंदी-गंदी बास आ रही थी। आंखों से साफ-साफ नहीं दिख रहा था। शाम के समय गांव के अंतिम छोर पर पोखरी के पास किधर जाएंगी वह? बात कहने से पता नहीं चल जाएगी? उसके सांस छोडने से हवा में शराब की गंध फैल गई थी। नाक की सीध में दौड़ी थी चैती उस दिन। शरीर टूट रहा था, कितनी बार उसने कुसना पी थी, मगर विदेशी दारु भी कांच के गिलास में इस तरह पहले कभी नहीं पी थी।
बाबू ने पूछा था, “कुसना पीओगी?”
चैती ने सिर हिलाया था।
“इसे पीकर देख” कहकर कांच का गिलास उसने उसकी तरफ बढ़ाया था।
वह आई थी काम को लेकर डर के मारे विनती करने। बाबू उसका इतना आदर-सत्कार करेगा, उसे पता न था। वह बाबू को मना नहीं कर पाई। गिलास से एक घूंट, दो घूंट वह पी गई। कुसना कभी भी चैती को दारू नहीं लगी। बाबू ने उसे अंग्रेजी दारु दी थी। चैती सोच रही थी, बाबू अकेले रहते हैं, उसके घर में झाडू पोंछा कर देगी और अपना दुख बताकर आ जाएगी,मगर हो गया उलटा, बाबू ने बैठने के लिए कुर्सी दी।
पोखरी के किनारे तांती गांव की पुलिया को देखकर बहुत दूर से उसने आवाज लगाई, “बड़ी माँ, गुडाखू रखी हो क्या? थोड़ी-सी दो ना? आंचल को मुंह में बांधकर आधी अंगुली गुडाखू ले ली थी चैती ने। जल्दी से पानी के भीतर जाकर कमर तक पानी में जाकर खड़ी हो गई। पीछे से पुनिमा चिल्लाई, “तुम बुद्धू हो, इतनी अच्छी साड़ी पहनकर पानी के अंदर घुस गई हो? कहां गई थी?”
चैती का बेटा माँ के लिए न रुककर गांव के अंदर चला गया। चैती को गुडाखू करने का अभ्यास नहीं था। गुडाखू की तेज गंध से उसका सिर चकराने लगा। वह तो चूल्हे की राख से अपने दांत मांजती थी, मगर गुडाखू नहीं करती थी। यह जिस्म तो बर्बाद हो गया, यह बात वह किसको कहेगी ? सना परिड़ा की बेटी कम बेइज्जत हुई थी इसके लिए? लोकहंसी हुई अलग से, ससुराल से निकाल दिया था। आखिर भाई-भाभी के गले में चिपक गई थीं। औरत का सहारा क्या? और नवघन को कहने लगी, वह क्या समझेगा उसकी दुर्दशा? उलटा पीठ पर दो मुक्के मारेगा। जिसके लिए उसने चोरी की, वही उसको चोर कहेगा।
कनेर के बीज पीसकर खाने का मन हो रहा था उसका और क्या इज्जत आबरू रह गई उसकी? अगर वह कनेर के बीज पीसकर खा लेती तो उसके तीन बच्चों की जिंदगी बर्बाद हो जाती। यह शराबी क्या उन्हें संभालता?
घर आकर आंगन में जोर-जोर से उलटियां करने लगी चैती। पेट दर्द करने लगा है, सिर चकराने लगा है, कहकर वह सो गई। बेटे ने खाने को मांगा, छोटी बेटी चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगी। वह उठकर किसी के लिए कुछ नहीं कर पाई। बेटे को कहा, छींके में उबले हुए आलू रखे हैं, तीनों मिलकर पखाल निकालकर खा लो।
उल्टी में दारू की गंध आ रही थी। नवघन दीवार के सहारे बैठकर चिलम पीते हुए कहने लगा, कहां से पेट भर कुसना पीकर आई हो जो उल्टी कर मरी पड़ी हो। मुलाकात हुई थी बाबू से या आधे रास्ते से लौट आई हो?
क्या कहती चैती? बाबू ने तो कुछ नहीं कहा था। उसकी आंखों में आंसू भर आए थे। पकड़ में आ जाएगी सोचकर आंचल से आंसू पोंछ ली थी। कितनी बार पूछेगा?, मेरा पेट दर्द हो रहा है, पता नहीं क्यों।
“मैं कहां बार- बार पूछता हूँ? बाबू के पास डर कर नहीं गई हो। गांव के अंतिम छोर पर कुसना पेट भर पीकर आकर सोई पड़ी हो, क्या कहना है?”
चित्र बरामदे में बैठकर पखाल खा रहा था। कहने लगा, “माँ गई थी बाबू के घर को, उससे झूठे झगडा क्यों कर रहे हो।”
“गई थी तो बाबू ने क्या कहा बता क्यों नहीं रही है?”
“कह रहे थे कल तुम जाकर मिलो।” चैती झूठ कहकर मुंह मोड़कर सो गई थी।
जिसकी आत्मा दुःख से हिल हो गई हो, उसकी आंखों में क्या नींद आएगी। सारी रात करवटें बदलती रही। नवघन दूसरे दिन जैसे-तैसे ऑफिस गया था। बाबू ने उसे फिर काम पर आने को कहा था। और अगर बीच में गांजा और शराब पीकर अनुपस्थित रहता है, तो उसकी बात नहीं सुनी जाएगी, कहकर धमकाया था।
नवघन ने बी.डी.ओ. बाबू की प्रशंसा उनके सामने ही नहीं बल्कि घूम- घूमकर सभी के सामने की थी। अरखपुर के सभी आदमी बी.डी.ओ. बाबू की तारीफ करते थे, उन्हें अपनी प्रशंसा सुनना अच्छा लगता था। कौन किस तरीके से उपकृत होता है, जानकर वही कहता था जिससे दूसरों को सुख मिलता था।
एक बार बाबू की जीप के आगे गिर पड़े एक आदमी को बाबू ने अपनी जीप में बैठाकर डॉक्टरखाने लेकर गए थे। किसी ने कहा था, बाबू सच्चा आदमी है। पूरी दुनिया जानती थी, बाबू किसी के पास पैसे-वैसे नहीं खाते हैं। आजकल के जमाने में ऐसे लोग कहां मिलेंगे। नेता से लेकर जनता तक सभी उनको प्यार करते थे। ठेकेदार लोगों को वह फूटी कौड़ी नहीं सुहाते थे। एक बूढ़ा कहता था, अगर ऐसे दो- चार बाबू होने से देश में रामराज्य आ जाता। कोई- कोई कहता था, बाबू हमारे यहां का बेटा है, उसमें मिट्टी की ममता जैसी कोई चीज नहीं है क्या? बाबू की औरत तो और भी अच्छी है। साक्षात माँ लक्ष्मी। इतना मधुर व्यवहार, बड़े लोग होने पर भी घमंड बिलकुल नहीं है।
वही लक्ष्मी मां यदि अपने पिता के घर नहीं जाती, तब क्या इतनी दुर्दशा होती चैती की?
इस बात को बीते पन्द्रह साल हो गए थे। बहुत कुछ देश और गांव में बदल चुका था। मगर नवघन की वही पुरानी आदत बदली नहीं थी। शराब और गांजा पीकर उसने अपने शरीर की हालत खराब कर दी थी। अक्सर ऑफिस आता-जाता नहीं था। तनख्वाह बहुत कुछ कटकर घर आती थी। पहले की तरह चैती अभी भी सामान गिरवी रखकर खाती थी। चैती के नाम से गांव में दारु की दूकान से खुले आम दारु पीता था और लोगों के साथ गप लड़ाता था। नवघन केवल ब्लॉक ऑफिसर का पियोन ही नहीं, वरन वह गांव के सरपंच का आदमी भी था। गांव में सड़कें बनेगी, खाने के लिए काम होगा, इंदिरा आवास योजना में कितने लोगों को रोजगार मिलेगा,तरह तरह के सपनें दिखाए थे उसने।
चैती ये सारी बातें नहीं समझती थी। गांव पोखरी के किनारे बैठकर इधर-उधर की बातें करने जैसी बात है देश चलाना, गांव चलाना। बीच-बीच में सभाएं होती थी। सभा में बैठने से कितनी जानकारियां मिलती थी। प्रधान सभी बातों में उसकी सहायता करते थे जरुर। नहीं तो उसे क्या पता चलता राजनीति? किसी हाथी को सोना के कलश से जलाभिषेक करने की तरह वह गांव की मुखिया बन गई, कम से कम पांचवी कक्षा तक पढ़ाई की थी उसने, वह नहीं तो और कौन बनता सरपंच?
इस बार सरकार ने घोषणा की थी उसके गांव से आदिवासी महिला सरपंच का चुनाव लड़ेगी। चैती का पुत्र चित्रभानू उस समय सत्ताइश वर्ष का जवान लड़का था। कॉलेज में दो साल तक पढ़ाई की थी। बार-बार फेल होने की वजह से पढ़ाई छोडकर इधर-उधर घूम रहा था। कह रहा था, “मेरी माँ सरपंच के लिए लड़ेगी। मेरे पिताजी ब्लॉक ऑफिसर के पुराने आदमी है। मैं माँ को पढ़ने में मदद करूंगा।”
किसान जाति में और कौन था चैती जैसा? चैती पहली बार राजी नहीं हुई। गांव में किसान, खडिया, कुलता, ब्राह्मण जैसी कई जातियों के लोग रहते हैं। सभी के सुख- दुख,फरियाद वह सुनेगी? किसान मुखिया बनकर कुलताओं के ऊपर राज करेंगे? वह भी औरत जात। उसका शरीर कांप रहा था, होने पर भी हाथी को सोने के कलश से जलाभिषेक करने जैसा उसके चेहरे पर सरपंच के पद का भार आ गया।
अच्छे थे पुराने दिन, पोखरी से लौटकर, सजना-साग-पखाल, कांसे के कटोरे में जो शांति थी, वह और नहीं। लोगों के हानि-लाभ की बात समझने के विषय को लेकर पुत्र और शशि प्रधान के भीतर रात-दिन झगडा झंझट। शशि प्रधान पुराना सरपंच, मेम्बर होकर रहता था। उसके ऊपर भरोसा कर पाती चैती। वह जैसा चाहता, वैसा काम करवाता। बेटे से सहन नहीं हुआ। शशि प्रधान के ऊपर गुर्राने लगा। कहने लगा, वह तुम्हें डुबायेगा। लोग राजनीति करके महल बना रहे हैं, गाड़ी भरके धन कमा रहे है और तुम्हारा तो अपने बेटे से ज्यादा उसके ऊपर विश्वास है, एक दिन देखना उसके लिए तुम जेल जाओगी।”
चैती को डर लगने लगा। इस विषय में वह किसको पूछेगी, शशि प्रधान अच्छा काम कर रहा है या खराब? कभी-कभी बेटे की बात मान लेती था। जहां बेटा कहता,वहां वह दस्तखत कर देती। घर अखाड़े की तरह लगने लगा, कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। घर छोडकर कहीं जाने की इच्छा हो रही थी।
टाउन से सविता दीदी, अपर्णा दीदी आदि आई थी, मद विरोधी आन्दोलन को तेज करने के लिए। चैती महिला पंचों को इकट्ठा करके बस्ती-बस्ती घूमी थी। एक-एक लकडी लेकर शराब की हांडियों को तोड़ा था उन्होंने। इस शराब के लिए ही घर-घर में नौटंकी। खेतों के बीच छोटी-छोटी झाड़ियों में शराब की हांडिया फूटी थी। खड़िया किसानों की हांडीशाला में डेगची-डेगची भर कुसना पड़ा हुआ था। ये तो उनका प्रतिदिन का भोजन था। लकड़ी की लाठी से हांडियों को तोड़ते समय चैती को बहुत दया आ रही थी। दुख से छाती पिघलने लगती थी। रोने की इच्छा हो रही थी। उसके जीवन में और क्या बचा था? भगवान ने तो कुछ भी नहीं दिया। सरकार उनके लिए सब कुछ करेगी, मगर सरकार ने भी कुछ नहीं किया। वे लोग चौदह पीढ़ियों से गरीब है, और अब भी। केवल थोड़ा बहुत नशे का पानी पीते हैं, इस दुख और अभाव से छुटकारा पाने के लिए।
चैती की उस दिन खूब इच्छा हो रही थी कि वह ‘रानू’ का जुगाड़ करती? कुसना बनाकर खुद पीती, बुला- बुलाकर सभी को पिलाती। नहीं, और वह लौटा नहीं पाएगी अपने उन पुराने दिनों को?
शराब को बंद कर पाएगी वह, लोगों को रोक सकेगी? फिर घर-घर में दारु बनने लगी थी। फिर हरेक शाम को गाली-गलौज, लडाई-झगडा। शोर सुनाई पड़ने लगा था घर-घर में। चित्र ने कहीं से अखबार लाकर देखा था, उसका नाम अखबार में निकला था। जिसने मद निवारण अभियान चलाया था। उसी चित्र ने फिर से मद पीकर आकर उसे पीटा था।
चैती सिर पर पट्टी बांधकर डॉक्टरखाने से लौटी थी। जगा ड्रेसर ने पूछा था, “काकी, बताओ तो तुम्हें तुम्हारे गंजेडी आदमी ने पीटा है। सरपंच हो या नेता, घर वाला अगर अयोग्य है तो अपने आपको खत्म समझो।
“कौन क्यों पीटेगा?, दरवाजा बंद करते समय लंगडी खाकर गिर गई, इसलिए चोट लगी है।” चैती मन ही मन सोच रही थी कि ड्रेसर बहुत सयाना बन रहा है। “तुम्हारे बेटे ने तो अपने पिता का रास्ता पकड़ लिया है। तुम उसको समझाती क्यों नहीं है? पढ़ा लिखा है, चाहने से गुप्ता स्टील में काम मिल जाएगा।”
किसी ने जैसे चैती के कच्चे घावों पर नमक डाल दिया हो। “कौन वह गुप्ता, जिसके लिए उसके बेटे की इतनी जिद्द। जिसकी वजह से उसकी इतनी दुर्दशा? किस प्रांत से आया है वह? उसने ऐसा क्या कर लिया है?, जो सारे नौजवान उसके पीछे पागलों की तरह दौड़ रहे हैं।”
चैती ने सुना था कि दिल्ली का एक सेठ वहां एक कारखाना खोलेगा। जिसके लिए जमीन घेरने का काम पूरा हो गया है। गांव के लोग उसी नशे में पड़े हैं। अभी घर बन रहे हैं। उसके बाद मशीनें बैठेगी। बाबू लोगों के लिए क्वार्टर बनेंगे। लोगों की जंगल काटने के लिए जरुरत पडेगी। लोगों की दीवार तैयार करने और कारखाना बनाने के लिए जरूरत पड़ेगी।
चित्रभानू ट्रेक्टर में लोगों को ढोता था, दोनो समय। भात-दाल और पचीस रुपए मजदूरी। खड़िया किसान बस्ती के चौदह साल से लेकर अधेड़ उम्र के लोग चित्रभानू के पास भीड़ लगाते थे। फिर सोमवार सुबह से घर के आगे भीड़ लगती थी। चित्र देख-देखकर आदमी बुलाता था। सब्जी के जैसे आदमियों को छांट-छांटकर अलग करता था। न तो बूढ़े आदमी को लेता था और न ही बच्चों को। लेता था तो जवान हट्टे-कट्टे आदमियों को। धुतूरा कितना जरुरतमंद हो गया था उस दिन होने पर भी सुना नहीं था," तुम काका, वह सामान ढोने को काम नहीं कर पाओगे। तुम्हारे शरीर पर तो केवल हड्डियां ही दिख रही हैं। तुम अगर पत्थर तोड़ने का काम करोगे तो बेहोश हो जाओगे। व्यर्थ में, मैं परेशान हूंगा। मुझे वह दिल्ली वाला बाबू परेशान करेगा।”
धुतूरा के घर में हफ्ते में चार दिन चूल्हा नहीं जलता था। उसके बच्चें बहुत कष्ट पा रहे थे। धुतूरा ने कहा, “क्या चित्र, तूं मुझे मूर्ख समझ रहा है? तू सोच रहा है यह बूढ़ा काम नहीं कर पाएगा? उस नेशनल हाइवे वाले ढाबे में किसने दीवार बनाई थी, कहो तो?”
चित्र ने नहीं सुना, छांट- छांटकर तगडे लड़कों को अपने साथ ले जाता था। कंपनी के ठेकेदारों को देकर दो पैसे कमाता था। ठेकेदार देता था एक आदमी के पीछे पचास रूपए। अपने पास चित्र पचीस रुपए रखता था, लोगों को नाश्ता कराने तथा अपने ट्रेक्टर का खर्च निकालने के लिए। बीच-बीच में ट्रेक्टर खर्च भी लेता था उन लड़को से। शशि प्रधान ने एक बार कहा भी था, यह अच्छा काम नहीं है। अवैध काम है। चैती ने भी बेटे को समझाया, मगर चित्र ने नहीं माना। तुम औरत जात क्या जानती हो? आज सरपंच क्या बन गई अपने आपको तीस मार खां समझती हो? तुझे किसी साले ने भडकाया है, मैं उसके हाथ-पांव तोड़ दूंगा। मेरे हाथ में पैसा आ रहा है, देखकर बरदाश्त नहीं हो रहा है? चैती सोच रही थी, इस संसार में तो इसी तरह चलता है। साग खाने वाले को माड़ खाने वाला देखकर सहन नहीं कर पाता है। वह सरपंच बन गई और उसके बेटे ने अगर दो पैसे कमा लिए, तो लोगों की आंखों को नहीं सुहाया।
चित्र ने बहुत छानबीन करने के बाद कहा, “अगर तुम्हें ये सब काम अवैध लगते हैं तो मेरे लिए कोई नौकरी क्यों नहीं खोज लेती?”
चैती ने तपाक से जबाव दिया, “मैं कहां से नौकरी लाऊंगी जो मुझे कह रहा है?”
“तुम्हारे कहने पर मेरी नौकरी लग जाएगी।”
“यह आजकल की बात नहीं है, एक महीने से ज्यादा हो गया चित्र को उसके सामने गुहार लगाते, “तुम्हारे कहने से नौकरी लग जाएगी। नेता बनकर लोग कोठियों की कोठियां खड़ी कर देते हैं। बड़ी -बड़ी गाडियां खरीद लेते हैं। तुमने मेरे लिए क्या रखा है? कल तू पावर से हट जाएगी तो आम आदमी बनकर रहोगी।”
चित्र की नाराजगी भरी बातें सुनकर चैती समझ नहीं पाई कि उसे क्या करना है? सारी बातें तो मीटिंग में मेम्बर लोग तय करते हैं। शशि प्रधान जो कहता है, वही काम होता है। किस पैसों की बात कहता है चित्र? किन पैसों से वह जमीन खरीदेगी? कोठी बनाएगी? चैती को कुछ भी समझ में नहीं आया। मगर बेटे का चाल-चलन, पता नहीं क्यों, उसे अच्छा नहीं लग रहा था।
तोते की तरह एक ही बात की रट," तुम्हारे कहने से मुझे नौकरी मिल जाएगी। बी.डी.ओ. बाबू अभी हमारे जिले के कलेक्टर हो गए हैं। तुम्हारे कहने से क्या वे तुम्हारी बात नहीं मानेंगे? वे अगर गुप्ता को कहेंगे, तो मेरी नौकरी लग जाएगी। गुप्ता उनकी बात को नहीं काट पाएगा। तुम कलेक्टर से बात तो करो"।
मेरे कहने पर वह मेरी बात सुनेंगे ? चैती सोचने लगी। “ बेटा क्या कह रहा है तू? मेरी ऐसी क्या औकात है जो मैं तुम्हारे लिए फरियाद करूंगी? औरत जात हूं मैं और ऑफिस में तरह-तरह के लोग होते हैं। मेरे मुंह से कुछ बोल नहीं फूटेंगे, क्या कह पाउंगी ? तूं मुझे यह बात मत कह, मेरा शरीर कांप उठता है। तुझे क्या दिक्कत हो रही है, सप्लाई का काम कर रहा है, दो पैसा कहीं से भी मिल रहा है।”
“नौकरी परमानेंट काम है। बाकी काम तो आज है, कल नहीं, तुम्हारे इतना कहने से क्या हो जाएगा? तुम कलेक्टर से बात करोगी या नहीं, साफ-साफ मुझे बता दो।”
कैसे दिख रहे होंगे बी.डी.ओ. बाबू कलेक्टर बनकर। यही दो- तीन महीने बीते होंगे, उनको यहां बदली होकर आए हुए। क्या पंद्रह वर्ष के बाद भी उन्होंने उसे याद रखा होगा ? वह बहुत पुरानी बात है। उस समय नवघन ने जिद्द की थी, “जा बी.डी.ओ. बाबू को कहो, उनके चाहने से मेरा सस्पेंशन आर्डर हटा लेंगे। मैं काम छोड़कर अगर बैठ गया तो तुम सालों को खाना-पीना नहीं मिलेगा, मर जाओगे। जो बात आदमी के कहने से नहीं होती है, उसकी औरत के गिड़गिडाने से हो जाती है।”
अब बेटे ने जिद्द पकड ली थी।क्या करेगी वह? क्या कहेगी? गुमसुम बैठ गई थी चैती।
उसकी चुप्पी ने चित्र को हिला दिया था। क्या? मुंह की मर्यादा तोड़ते हुए जो मुंह में आए गाली देना आरंभ कर दिया चित्र ने। ऐसे तो दारु का नशा पहले से ही चढ़ चुका था। और साथ ही साथ, उसका पारा गरम हो गया। ठेकेदार साला, चूतिया साला, मेरी मां साली, तीनो चूतियें। शशि प्रधान को आज खत्म करूंगा। जो मन में आया, बकता गया चित्र। “दारु पीकर क्या- क्या बक रहा है,कलमुंहे। तू मर क्यों नहीं गया। सारा गांव सुन रहा है?”
“क्या कह रही हो, रांड? अपने को सती-सावित्री समझ रही हो? मुझे क्या कुछ पता नहीं है? तू क्या सोच रही है मैं अभी भी बच्चा हूँ? वही तुम्हारे कृष्ण नागर फिर एक बार बदली होकर आए हैं?” कहते-कहते कांसे के बर्तन कंसा को उठाकर चैती के सिर पर दे मारा चित्र ने।
चैती के सिर से खून की धारा बहने लगी। वह पहले से उसको समझ नहीं पाई थी। कहीं से हवा का एक झोंका आया जिससे वह निर्वस्त्र हो गई और कुछ छुपा हुआ नहीं था। उसे बहुत असहाय लगने लगा। वहीं पर झुककर वह बैठ गई। पन्द्रह वर्ष पहले की बात को छुपाकर रखा था लड़के ने। उसका और साहस नहीं हुआ पूछने को क्या बात करनी है, किसकी बात? वह सिर को दबाकर रखने की जगह, आंखों को आंचल से दबाकर बैठी थी।