लटों और रीढ़ की हड्डी में इस्पात का प्रवेश / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 25 फरवरी 2021
भूतपूर्व मंत्री एम.जे.अकबर और प्रिया रमानी मुकदमे के फैसले पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है। मीनल बघेल ने सीता और द्रोपदी से अपना लेख प्रारंभ करके ग्रीक साहित्य तक से उद्धरण देकर अपने लेख को एक दस्तावेज़ बना दिया है। महिलाओं से छेड़छाड़ के प्रकरण में खामोश बने रहने को हिदायत दी गई है। पाकिस्तान में जन्मे अन्य देश में सक्रिय फ़िल्मकार माजिद मजीदी ने ‘बोल’ नामक फिल्म बनाई थी जो इसी खामोशी की हिदायत की मुखालफत करती है। पुरुष प्रधान फिल्म जगत में भी नायिका केंद्रित फिल्में सफल रही हैं।
विद्या बालन अभिनीत फिल्म ‘कहानी’ और ‘बेगमजान’ व श्रीदेवी अभिनीत ‘इंग्लिश-विंग्लिश’ तथा ‘मॉम’ के साथ ही प्रियंका चोपड़ा अभिनीत ‘मैरीकॉम’, कंगना रनोट अभिनीत ‘क्वीन’ तथा ‘झांसी की रानी’ भी इस फेहरिस्त में शामिल हैं। गोयाकि दबंग महिलाएं हर कालखंड में रही हैं। इंदौर की महारानी देवी अहिल्या के जीवन पर प्रसारित टीवी सीरियल के एक सीन में अहिल्या की बाल अवस्था में उसके सामने सोना-चांदी और अनाज रखकर पूछा जाता है कि इनमें से अधिक क्या महत्वपूर्ण है। वह कहती है कि अनाज सबसे जरूरी है। मीडिया में पंजाब किसान आंदोलन को समर्थन के संकेत दसों दिशाओं से ध्वनित हो रहे हैं। 25 वर्ष पुरानी घटना को हाल ही में अदालत लाया गया। मीनल बघेल लिखती हैं कि गुजश्ता वर्षों में प्रिया रमानी के बालों की लट और रीढ़ की हड्डी में इस्पात प्रवेश कर चुका है, जिस बात से भूतपूर्व मंत्री अनिभिज्ञ रहे। स्मरण आता है गीत, ‘चांदी जैसा रंग है तेरा सोने जैसे बाल एक तू ही धनवान है गोरी बाक़ी सब कंगाल...’ दरअसल शिकार युग में अपने अचूक निशाने और शरीर में हिरण सी चपलता के कारण स्त्री-पुरुष से अधिक सफल रही। कृषि प्रारंभ होते ही मेनहतकश पुरुष ने हल चलाकर, अपने पसीने से सींचकर अनाज उपजाया। तब आलसी और बैठे-ठाले निकम्मों ने रीति-रिवाज इत्यादि के सहारे एक तंत्र रचा जिसके माध्यम से उसने मेहनत की कमाई में से कुछ धन अपने लिए लूट लिया। ढकोसलों के साथ अंधविश्वास पनपने लगे।
पुरुषों ने अपने लाभ के लिए कुछ नियम बनाए, जिन्हें कालांतर में संस्कार का गरिमामय नाम दे दिया गया जो महिला के लिए जंजीरें बना दी गईं। जंजीरों की लंबाई तक ही सीमित कर दिया गया, उनका सारा सैर-सपाटा। हरिवंशराय बच्चन ने लिखा कि उनका सारा सृजन उनके भीतर बैठी स्त्री ने किया है। ग्वालियर के पवन किरण ने प्राचीन ग्रंथों से लेकर मध्य युग तक की महिलाओं की वेदना का वर्णन किया।
नरगिस की मां जद्दनबाई इतनी दबंग फ़िल्मकार थीं कि पुरुष उनके सामने खड़े होते तो उनके पांव कांपने लगते थे। नूतन और तनूजा की मां शोभना समर्थ भी दबंग महिला थीं। उस दौर में वे अपने अंतरंग मित्र मोतीलाल के साथ सिनेमा और सामाजिक समारोह में सरेआम जाती थीं। सिमॉन द ब्वॉ लिखती हैं कि जब मध्यम वर्ग की महिला बुर्जुआ प्रसाधन के सारे तामझाम को फेंककर अपने स्वाभाविक रूप में सामने आती हैं तो पुरुष भयभीत हो जाते हैं।
हमने प्रकृति प्रदत्त दो पहियों के रथ को एक पहिए की गाड़ी बनाकर सारे विकास को लंगड़ा बना दिया। इस पहिए की गाड़ी ने धरती पर गड्ढे बना दिए। हड़ताल पर बैठे किसान आगे नहीं पहुंचें, इसलिए एक सीमेंट से बनी सड़क उखाड़ दी गई और नुकीले कीले उनमें ठोंक दिए गए हैं, वैचारिक संकीर्णता अब खुलकर जाहिर हो रही है, सवैतनिक हुड़दंगी सभी ओर सक्रिय हैं। घूंघट और उसी तरह के तमाम परदों की रचना की नींव में पुरुष भय ही समाया हुआ है। एक अत्यंत सरल दिखने वाली परंपरा यह है कि सारे पूजा-पाठ और हवन इत्यादि में महिला को पुरुष के बाएं हाथ की ओर बैठने को कहा जाता है। इसी स्त्री का बायां हाथ जब पुरुष के गाल पर पड़ता है, तो इस थप्पड़ से वह हिल जाता है। ज्ञातव्य है कि ‘थप्पड़’ नामक फिल्म भी सराही गई है।