लड़कियाँ / हेमन्त शेष

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भारत में लड़कियों की सही संख्या के आँकड़े जनसंख्या की पुस्तकों में होंगे पर मेरे मन में एक चित्र है- लड़कियों के इक्यासी हज़ार खिले हुए चेहरों का. फिलहाल मैं उसी को लेकर आप से मुखातिब हूँ. नहीं जानता, यह संख्या मेरे दिमाग़ में कहाँ से आयी? संख्या भी ऐसी कि अच्छे-अच्छे सांख्यिकी-विशारदों का भेजा भी चकराने लगे. पूरी इक्यासी हज़ार न ज़्यादा, न कम. हाँ, मैं आपको इस तस्वीर का कोई रूमानी पहलू नहीं दिखाना चाहता इसलिए यह बतलाना भी ज़रूरी नहीं कि वे नाज़ुक,, सुन्दर और सनसनीखेज हैं या साधारण? उनकी आंखें आपको ‘उर्दू शायरी’ में क्या याद दिलाती हैं? वे जब इठलाती हैं तो देखने वालों के दिल पर कैसे-कैसे साँप लोट जाते हैं- वग़ैरह-वग़ैरह. हाँ, अन्त तक आते-आते आपको पछताना पड़ जाये तो कृपया आप मुझे दोष न दें. यह लेखक का ही विशेषाधिकार है कि वह लगातार आपको स्वप्न और यथार्थ के बीच झुलाता है- तो मैं कह रहा था, वे क्यों हँस रही हैं? हो सकता है वे चाशनी जैसे किसी मीठे ख़याल पर खुश हों...युवावस्था के किसी पहले चुम्बन से.... किसी ऐसी भविष्यवाणी से कि उनके भावी पति उन पर जान छिड़कते रहेंगे. सारी इक्यासी हज़ार सौभाग्यकांक्षिणियों के मन में ख़याल हो कि सुसंस्कारित, सुन्दर, सुडौल और लगातार प्रेम करने वाले बाँके नौजवान ही उनके पति होंगे तो भी वे मुस्कुरा सकती हैं. ख़ुशी से फूट पड़ते समय लड़कियों को इस बात की परवाह नहीं होती कि जीवन में बहुत-सी बातें सच नहीं होती, हमारे अधिकांश सपने अधूरे रह जाते हैं- पर उन्हें प्रसन्नचित्त देख कर तो ऐसा नहीं लग रहा. अगर लड़कियाँ अपने-आपको घूरे जाने का अर्थ समझती हैं, अगर वे जानती हैं राह चलते लोगों का ध्यान किस तरह आकर्षित किया जाये, अगर उन्हें नये फ़ैशन और डिजाइन की पोशाकों में दिलचस्पी होती है और दर्जी से लाते ही वे उन्हें पहन कर घर से बाहर हो आना चाहती हैं, अगर उन्हें बाल काढ़ने का सलीक़ा आता है, अगर वे रेखागणित में फेल होते हुए भी ‘कोणों’ के बारे में बेहतरीन समझ रखती हैं, अगर वे सारा ख़ाली वक़्त शीशे के सामने बिता कर आत्ममुग्ध होती रहती हैं, अगर वे आस-पड़ोस की अन्य सुन्दर लड़कियों से अपनी तुलना मन ही मन करती नहीं अघातीं.... तो घरेलू कामकाज में हाथ बँटाते हुए भी वे असुन्दर नहीं दिखतीं। अक्सर रसोईघर की जिम्मेदारियाँ उन्हें दुबला और फुर्तीला बना डालती हैं. ज़रूरत पड़ने पर वे दस-बारह अप्रत्याशित मेहमानों को चाय के साथ आलू के चिप्स तुरन्त तल कर खिला देने की योग्यता भी रखती हैं, वे ढेरों कपड़े धो सकती हैं, रोते बच्चों को चुप करा सकती हैं, घर की सफ़ाई के लिए उन पर पूरा इतमीनान किया जा सकता है, हिसाब-किताब रखने में भी वे लापरवाह नहीं होतीं, आले अलमारियों और बुखारी में रखी हुई पुरानी से पुरानी चीज़ की याद उन्हें रहती है, वे सबसे अन्त में भोजन करें तो भी उनकी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता, खेलों और राजनीति की तुलना में उनकी दिलचस्पी फ़िल्मों और गोलगप्पों में ज़्यादा होती और सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि उन्हें अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा लगभग तीन-चौथाई एक ऐसे परिवार की सदस्य या सेविका के रूप में बिताना होता है जिससे उनका पूर्व-परिचय लगभग बिलकुल ही नहीं होता! लड़कियों के जीवन में हँसने के अवसर बहुत कम होते हैं. वे अत्यधिक आसानी से फूट-फूट कर रो सकती हैं. यह ऐसा अभ्यास है एक जो उनके जीवन में बहुत काम आता है. क्रोध और प्रेम तो उनकी नाक पर धरा रहता है. वे इसकी अभिव्यक्ति के लिए उपयुक्त अवसर नहीं देखतीं. मैं घर से भागी हुई १७ लड़कियों की फ़ेहरिस्त आपको दे सकता हूं जो किसी भी ‘ऐरे-गैरे’ के प्रेम में सत्रह साल पुराने अपने घर को तिलांजलि दे कर किसी और का घर बसाने चली गयीं. ऐसी लड़कियाँ बेशक पिता के घर लौटती हैं- पर कुछ वक़्त बाद, जब समय का अन्तराल सारे घाव भर देता है और उनकी जाति-बिरादरी के सामने नाक कटा चुकी माँएँ प्यार से अपने काले-कलूटे नाती को चूमती नहीं थकतीं.... तो दोस्तो, कुछ देर के लिए उन लड़कियों को हँसता हुआ छोड़ कर कहीं और चलें! उन्हें हँसने दें... किसे पता हँसते-हँसते किस क्षण उनके आँसू निकल पड़ें! !