लड़ाई का दूसरा पर्व / कांग्रेस-तब और अब / सहजानन्द सरस्वती
आर्थिक मसलों के साथ ही हमें भीतर और बाहर के राजनीतिक सवालों पर भी धयान देना जरूरी है। दरअसल राजनीति हमारी जान है। फलत: उसके समझे बिना हम मर जाएँगे , तबाह हो जाएँगे , यह तयशुदा बात है।
मुद्दत की भिड़ंत और जुझार के बाद हमारे मुल्क ने अंग्रेजी जुआ उतार फेंका यह सभी जानते हैं। हम कहते थे , ललकारते थे कि तुम रहोगे या हम ; दोनों रह नहीं सकते। हुआ भी वही। वे जो हमारी छाती पर कोदो दलते थे चोर की तरह भाग निकले। खूब ही दबाया , जलाया , दिल खोल कर दमन किया। मुल्क को दमन की आग की जलती भट्ठी बना दी। फिर भी भागते ही बना , सो भी चोरों की तरह।
लोग समझते थे , अब विपदा की रात का बिहान हुआ , हमारे कष्ट भागेंगे। जो समझदार थे , जिन्हें आजादी के युध्दों का इतिहास ज्ञात था , वे ऐसा तो नहीं मानते थे कि जनता के कष्टों का खात्मा होगा। मगर इतना तो वे भी मानते थे कि मुसीबतें बढ़ेंगी नहीं ; उनमें बहुत कमी होगी। लेकिन आज सभी हैरत में हैं कि उलटी बात हुई और जनसाधारण पर आफत के पहाड़ टूट पड़े। फिर भी यह तो होना ही था। किसान-मजदूर माने बैठे थे कि अब लड़ना न होगा। लेकिन उनकी आँखों ने भी असलियत को ताज्जुब के साथ देखा। आज वे भी मानते हैं कि अभी बड़ी जुझार बाकी ही है। रूस में आजादी आने के बाद जब लेनिन ने समझाना चाहा कि श्रमजीवियों को और भी जूझना है तो लोग कहते थे कि उसका माथा फिर गया है। वे मानते थे कि अब हमारे अपने ही लोग-स्वजन ही-शासक हैं। कुछ ही देर बाद उन्हें भी स्वजनों का नंगा रूप देखने को मिला और लोग लड़ने को आमादा हुए। यहाँ भी स्वजनों की असली सूरत साफ नजर आ रही है। फलत: महाभारत के पहले पर्व के बाद दूसरा जरूरी है यह मान्यता किसान-मजदूरों की हो चली है। आजादी के फलस्वरूप जो सर्वत्र होता है भारत में भी हो रहा है। इतिहास की पुनरावृत्ति हो रही है। यदि द्वितीय पर्व के आरंभ में हमने देर की तो मर जाएँगे याद रहे। यों तो दूसरा पर्व जारी ही है। किसानों और मजदूरों की अनवरत लड़ाइयाँ वह पर्व ही तो हैं। उन्हीं को व्यापक और संगठित रूप देना शेष है।