लड़ाई ख़त्म नहीं होगी / प्रियंका गुप्ता
अगर सूरज की तीखी किरणों ने दिन को अपनी बाँहों में सम्हाला न होता तो शीत की ठिठुरती रात ने कब का उसे अपने काले अन्धेरे में गुम कर लिया होता। दिन भी जैसे इसी भय से तो सहमा-सा रहता है आजकल अक्सर। आशुतोष भी अपने भीतर दुबके दिन को महसूस करता है...काँपता हुआ-सा...पर हर बार अम्मा इसी धूप की तरह वक़्त पर आकर उसे बचा लेती है। अम्मा न होती तो रोज पगली भीड़ की रेलमपेल में धक्के खाते हुए, बस-टैम्पो की पायदान पर चढ़ते-उतरते, सर्दी के कोहरे में ठिठुरते और गर्मी की चटखती धूप को सहते हुए जलती हुई बस में सफ़र करते-करते वह कब का मर ही गया होता। अम्मा कि याद उसे अक्सर दिन में भी यूँ आती है जैसे वह उससे मीलों दूर हों और वह इस कंक्रीट के जंगल में नितान्त अकेला भटक रहा हो। ये याद उस समय और भी तीव्र हो जाती जब भूख से उसकी अँतड़िया ऐंठने लगती हैं। इस ऐंठन से वह सच में खत्म हो जाए, उससे पहले ही वह अम्मा कि शरण में पहुँच जाना चाहता है।
आज भी दिन भर की भागमभाग से पस्त आशुतोष को लगा था कि अगले किसी भी पल वह गश खाकर गिर सकता है। पाँव मन भर भारी हो रहे थे। किसी तरह वह बस चल रहा था अपनी ज़िन्दगी की तरह वीरान-सुनसान हो चुकी उस लम्बी-सी सड़क पर। घर अभी भी काफ़ी दूर था। थक कर वह वहीं फुटपाथ पर पड़े एक ईँटे पर बैठ गया। दम भर साँस लेकर अगल-बगल निगाह दौड़ाई तो हाथ भर की दूरी पर लेटे एक मरियल-से कुत्ते पर निगाह पड़ी, जो जाने किस नज़र से उसे देख रहा था। कुत्ता तो नहीं, पर वह बेवजह उस पर गुर्राया, "जा रहा हूँ स्सालेऽऽऽ...मेरे नहीं तो तेरे भी बाप की सड़क नहीं है ये। जितना हक़ तेरा है, उतना ही मेरा भी यहाँ बैठ कर सुस्ताने का।" कह कर उठते हुए उसने 'पिच्च' से वहीं थूक दिया...मानो इस तरह उसके मन का सारा कसैलापन वहीं छूट जाएगा। कुत्ता हल्का भौंकता हुआ तिरछा-तिरछा-सा उससे दो कदम पीछे हट गया, ऐसे जैसे वह नहीं, बल्कि कुत्ता उससे घिना रहा हो...तरस खा रहा हो।
यूँ अचानक उठने के कारण उसके पैर की कोई नस तड़क गई तो वह एकदम से लड़खड़ा कर गिरते-गिरते बचा। सामने से गुज़रते एकमात्र राहगीर ने हिकारत से उसकी ओर देखते हुए दूसरी तरफ़ 'पिच्च' से कर दिया, "साले शराबी... जब सम्हला नहीं जाता तो इतनी पीते ही क्यों हैं।"
उसने कुछ जवाब देने के लिए मुँह खोला ही था कि सहसा रुक गया। कुत्ता अब उसे देखते हुए जाने क्यों पूँछ हिला रहा था, मानो कह रहा हो...हो गए न शामिल मेरी ही जमात में। उसने झल्ला कर उसे एक लात मारी और फिर बिना पीछे देखे अपने रास्ते पर आगे बढ़ गया।
थोड़ी देर में घिसटते-चलते आखिरकार वह अपने घर के दरवाज़े तक पहुँच ही गया। दरवाज़े की दरार से रोशनी की पतली-सी लकीर बाहर आ रही थी। उसने अगल-बगल के घरों की ओर देखा। इकलौता उसी का मकान ऐसा था जहाँ अब तक लोहे का गेट नहीं लग पाय़ा था...वही मरियल-सा, सड़ा हुआ लकड़ी का दरवाज़ा। उखड़ी दीवारों से झाँकता प्लास्टर अपनी कहानी खुद बयान करता था। उसका मन हुआ दरवाज़े और दीवारों, दोनों को इतनी ज़ोर से लात मारे कि पूरा घर ही भरभरा कर गिर जाए... पर मन का गुस्सा मन में ही दबा उसने धीरे से दरवाज़ा ठेला। अम्मा ने रोज़ की तरह दरवाज़ा भिड़ा रखा था, ताकि उसके घर आने का पता बाऊजी को न लगे, अगर सम्भव हो तो।
अन्दर जाकर उसने दरवाज़े की कुण्डी लगाते हुए कुछ इस तरह की चोर निगाहों से चारो ओर देखा जैसे अपने घर में नहीं, किसी और के घर में घुसा है चोरी करने के इरादे से। बाऊजी आँगन में नज़र नहीं आए तो उसने राहत की साँस ली। चलो अच्छा है, कम-से-कम खाना तो चैन से खा लेगा। पर दो कदम बढ़ते ही उसे उनकी बड़बड़ाहट भरी आवाज़ सुनाई दी, "आ गए लाट साहब कमाई कर के... ? आज हुज़ूर कितना मालमत्ता लाए हैं बाप की झोली भरने के लिए... । या आज भी अम्मा के आँचल में घुस कर मुफ़्त की रोटी तोड़नी है...?"
वह अन्दर तक कट गया। दिल किया उल्टे पाँव बाहर निकले और जिधर कदम ले जाएँ, चल पड़े। पर ऐंठती अँतड़ियों ने उसके दिल पर काबू कर लिया। बाऊजी की आवाज़ तेज़ होती सुन अम्मा भी बाहर की ओर दौड़ी और उसका हाथ पकड़ लगभग घसीटती-सी उसे अन्दर कमरे में ले गई।
"ध्यान न दे उनकी बातों पर...बाप हैं। कुछ जली-कटी सुना भी देते हैं तो क्या हुआ रे। तुम सब का भला ही तो सोचते हैं न...?" अम्मा उसे सहज करने की कोशिश कर रही थी, पर वह हो नहीं पा रहा था। एक-दो बार की बात हो तो ठीक भी था, पर यहाँ तो पल-पल, उठते-बैठते, सोते-जागते बाऊजी का वही एक राग..."हम इसकी उमर के थे तो तीन बच्चों के बाप बन गए थे...और ये जनाब, अब भी पालने में ही मूत रहे। कमाने-धमाने की कौन कहे, अभी महतारी के करेजे से ही चिपके पड़े हैं।"
बाऊजी की बातों से उसे अक्सर लगता था मानो वह कमर कसे बैठे हों अपने शब्दों की चाबुक से उसकी आत्मा तक को लहुलुहान करने के लिए... । अम्मा जब उसे उनके बाप होने का वास्ता देकर समझाना चाहती, ऊपर से तो वह चुप ही रहता पर उसका मन एक खामोश विद्रोह पर उतर आता। जी करता चीख कर कहे, "किसी पंडित-महात्मा ने आशीर्वाद दिया था या किसी डॉक्टर का मशविरा था कि इस मँहगाई के ज़माने में भी बस अपने शौक के लिए चार-चार बच्चे पैदा करके सबको भूखे मरने के लिए छोड़ दो...? शुक्र मनाओ, जो एक औलाद पैदा होते ही भगवान को प्यारी हो गई, वरना आज वह भी हम सब की तरह अपने भाग्य को रोती।" जाने और भी क्या-क्या अनाप-शनाप बोलने को जी चाहता था उसका, पर पता नहीं क्यों बाऊजी के सामने पड़ते ही उनकी लाल-लाल आँखें उसके मन में एक अनाम-सी दहशत पैदा कर देती। सिर अपने आप नीचा हो जाता। उसकी आत्मा कि ज़मीन पर उगा बौना-सा आक्रोश पनपने से पहले ही दम तोड़ देता था।
ऐसा नहीं था कि उनकी आँखों से सिर्फ़ उसे ही डर लगता हो, बाकी भाई-बहनों का भी यही हाल था। छोटी तो माँ के आँचल के पीछे दुबकी, बेआवाज़ रोती हुई थर-थर काँपने लगती थी। डरती तो माँ भी थी बहुत ज़्यादा, तभी तो चाहती थी कि भले ही उन आँखों की पूरी आग उसे ही झेलनी पड़ जाए, पर उसके बच्चों तक उनकी आँच भी जितना कम पहुँचे, उतना अच्छा। इस लिए हर बार वह आग ज्वालामुखी बन कर बहुत कुछ तबाह कर डाले, उससे पहले ही वह सबको अपनी ममता कि छाँव तले सिमटा लेती थी। बाहर बाऊजी के गुस्से, चीख-चिल्लाहट का लावा बहता रहता, भीतर वह बच्चों के आँसू अपने आँचल में समेटती जाती।
आशुतोष को सबसे ज़्यादा कोफ़्त तब होती थी जब बाऊजी घरवालों के सामने ज़हर भरी फुफकारी छोड़ने के बाद बाहर वालों के सामने भी ऐसे ही ज़हर की उल्टियाँ करते थे, "देख लीजिए साहब...ये हमारे सबसे बड़े साहबज़ादे हैं...यानि कि हमारी रियासत के युवराज।" अपने मज़ाक पर खुद ही ठहाके लगाते वह इतने भर से संतुष्ट नहीं हो जाते थे, "ताड़ ऐसे हो गए हैं, पर अभी तक खुद को बच्चा ही समझे हैं। काम-धन्धा कुछ है नहीं, बस दिन भर खाना-सोना और आवारागर्दी...बस यही मेन धन्धा है इनका। अरे साहब, कहीं किसी ऑफ़िस में ही जाओ, अर्ज़ी दो...नौकरी कैसे नहीं मिलेगी...? पर नहीं साहब, इनके तो अपने चोंचले हैं। मोबाइल चाहिए, इंटरनेट चाहिए... । कहते हैं साहबज़ादे कि नौकरियाँ अब ऐसे नहीं मिलती। हाइटेक हो गया है सब। अरे काहे का हाइटेक साहब, नाच न जाने आँगन टेढ़ा। जब मुफ़्त की रोटी तोड़ने की आदत पड़ जाती है न, तो खून-पसीना कौन बहाता है सरकार। अब हम तो सिर्फ़ समझा ही सकते हैं न...पर जनाब तो उसमें भी बुरा मान जाते हैं। अरे, जब खुद की अक़्ल न हो तो अपने बड़ों से उधार ही ले लो न...पर नहीं। अरे आजकल तो 'भिक्षाम देही' कहने पर भिक्षा देने का भी रिवाज़ नहीं है, वरना हम तो यही कहते कि भैय्या, मुफ़्त की रोटी तोड़ने की आदत है ही, उसी को धन्धा बना लो।" कहते हुए बाऊजी हर बार ज़ोरदार ठहाका लगाते...कई बार अकेले ही।
पहली बार जब बाऊजी एक मेहमान के सामने ऐसे बोले थे तो उनकी बातें और उनकी हँसी, दोनों जैसे पिघले शीशे की तरह उसके कानों में उतरती चली गई थी। फिर अम्मा कहती रह गई थी पर वह बिना कुछ खाए-पिए ही निकल गया था घर से। उस दिन बहुत देर तक वह निरुद्देश्य सड़कों पर घूमता रहा था। आखिर जाता भी तो कहाँ...? उसके लगभग ज़्यादातर दोस्त किसी-न-किसी काम धन्धे में लगे हुए थे...जो लायक थे वह खुद ही और जो किसी लायक नहीं थे, उनके लिए भी उनके पिताओं ने कोई-न-कोई जुगाड़ लगा ही दिया था। अब जब भी उन सबसे मिलता है, सब जैसे बदले-बदले से नज़र आते हैं। उस दिन तो विनीत ने हँसी-हँसी में कह ही दिया था, "अमाँ याऽऽऽर...अब तो कुछ कमा-धमा। तभी तो शादी होगी तेरी। आखिर कब तक यूँ छुट्टे साँड़ की तरह बाड़ा-बूचा घूमता रहेगा...?" अपमान से वह सुलग उठा था। उसके बाद वह एक पल भी वहाँ नहीं ठहर पाया था। बाहर आकर उसने नाली में यूँ थूका मानो विनीत का मुँह हो, "स्साला...नौकरी के साथ छोकरी भी पटा लिया तो अपने को बहुत बड़ा तीसमारखाँ समझने लगा।"
इस घटना के बाद से वह कमाऊ दोस्तों से मिलने से बचने लगा था। पूरा दिन जब इधर-उधर भटकने के बाद लस्त-पस्त होकर वह घर पहुँचता तो बाऊजी को किसी जंगली जानवर-सा अपने शिकार की तलाश में अपने पंजे माँजता हुआ पाता। उन्हें देख कर उसके मन में अजीब-सी घृणा उपजती थी। मोटी-थुलथुली, अधनंगी देह...नाभि के नीचे तक उतरने को लगभग तैयार पायजामा, पान मसाला खा-खा कर लाल-पीले से हुए बदबुआते दाँत...सिर पर बचे गिनती के अधकचरे बाल, जो न गंजे में रहने दें और न बाल वालों में। ऊपर से भुजंग काला रंग। ऐसे आदमी के साथ रहते हुए माँ चार बच्चे कैसे पैदा कर ले गई... ? और अगर उस एक मरी को भी शामिल कर ले तो पाँच...!
हर बार बाऊजी के क्लेश से घर में एक मातमी सन्नाटा-सा पसर जाता था। आज भी ऐसा ही था। इस सन्नाटे के बीच भी उसके अन्दर का ज्वालामुखी धधकता रहता था...और इससे पहले कि वह ज्वालामुखी फट कर सब कुछ तहस-नहस करने पर उतर आए. अम्मा हमेशा कि तरह मानो ठण्डे पानी की बौछार-सी उसकी थाली परोस कर उसके सामने बैठ गई, "सच में बेटा, आजकल तू बहुत देर तक बाहर रहने लगा है। चिन्ता तो होती है न बेटा, माथा गरम है न उनका, सो अण्ट-शण्ट बोलने लगते हैं। पर बाप का कलेजा है...हम दोनों बस तुम सब का मुँह देख कर ही तो जीते है न...?"
जल्दी-जल्दी मुँह में कौर ठूँसते आशुतोष के हाथ सहसा रुक गए थे। आँखों के सामने माँ का सूखा-सा, लगभग असमय ही झुर्रियाया चेहरा था और उनकी कमज़ोर, डण्डी-सी कलाइयों में न जाने कब की बदरंग हो चुकी गिनती की चार पाँच चूड़ियाँ। धोती भी तो पैबन्दों भरी थी।
उसे लगा जैसे इस समय उसके सामने माँ नहीं, बल्कि इस घर के इतिहास का एक गला हुआ पन्ना है और अगर उसने जल्दी ही इस पन्ने की संभार का कोई उपाय नहीं किया तो किसी भी दिन वह पन्ना। वह एकदम से काँप उठा, "अरे अम्मा, क्यों करती हो इतनी चिन्ता...? मैं काम से ही तो निकलता हूँ न...तो फ़िकर न किया करो। मैं अपना ध्यान रखता हूँ...बस तुम निश्चिन्त रहा करो।"
"तो बेटा, कहीं काम-धन्धा कि बात बनी क्या...?" माँ बड़ी आशा से उसका मुँह देख रही थी। उसने मुँह नीचा कर लिया, "जल्दी ही हो जायेगा माँ।"
"अच्छा है बेटा, भगवान के घर देर है, अन्धेर नहीं।" माँ उसकी बातों से आश्वस्त हो गई थी। आशुतोष ने कुछ पल बाद चोर नज़रों से माँ की ओर देखा तो उसे बड़ी दया आई... । ये उमर नहीं थी माँ की...ऐसा बुढ़ाने की। अपनी एय्याशियों और तानाशाही के चलते...चार बच्चों की गृहस्थी माँ के नाज़ुक कन्धों पर पटक बाऊजी ने तो मुक्ति की साँस ली होगी, पर इन सबके कारण न तो माँ को कभी कोई मानसिक सुख मिला और न ही कोई शारीरिक सुख नसीब हुआ। माँ ने तो खुद ही सन्तोष कर के बच्चों के लिए, बच्चों की खुशी में ही खुश रहना सीख लिया। काश! कभी वह माँ को वह सारे सुख दे सके जो उनका अपना हो...उधार का नहीं।
वह खा चुका तो थाली उठाती अम्मा ने यूँ ही प्यार से उसके सिर पर हाथ फेर दिया। चार जमात पढ़ी अम्मा हर बार उसके आश्वासन से यूँ ही संतुष्ट हो जाती थी। क्या समझाता वह उन्हें...? कि जब डॉक्टरी-इंजीनियरिंग किए लड़के-लड़कियाँ नौकरी के लिए इतनी ज़द्दोजहद में लगे रहते हैं, तो वह साधारण बी.ए... उसे कौन नौकरी देगा...?
अभी हाल में ही कमल ने बहुत हिचकते हुए कहा था उससे, "यार...मेरे ऑफ़िस में एक फ़ोर्थ ग्रेड की जगह खाली तो है पर उसमें भी अन्डरग्रेज़ुएट चाहिए... ।"
वह शर्मिन्दा होने के साथ-साथ थोड़ा फ़्रस्टेटेड भी हो गया था, "रहने दे यार...ऐसी नौकरी की बात बोल कर क्यों जी जलाता है...? ये तो अपने देश का ही सिस्टम है जो न तो कम पढ़े-लिखे को नौकरी देता है और न ज़्यादा पढ़े को। अब चपरासी की नौकरी में भी अगर कोई ग्रेज़ुएट आ ही जाए तो क्या नुकसान हो जाएगा...? पर नहीं। स्साला। यहाँ रहना ही पाप।"
उसका मन अन्दर आत्मा तक कसैला हो गया था। वैसे उसका भी कभी कुछ खास मन नहीं लगा था पढ़ने में...पर घर के हालात भी तो कभी ऐसे नहीं थे कि वह कुछ कायदे की पढ़ाई कर पाता...कोई प्रोफ़ेशनल डिग्री ही ले पाता। कभी एक-आध कोर्स करने की सोची भी तो बाऊजी का वही नरभक्षी रूप...गाली-गलौज़। करे भी तो क्या करे...उसका तो दिमाग ही काम नहीं करता अब।
उसकी सिर की नसें खिंचने लगी तो उससे और ज़्यादा देर तक बैठा नहीं गया। हाथ-मुँह धोकर वह कमरे में आ गया। कमरा उसकी ज़िन्दगी की मानिन्द अन्धेरे में डूबा...उसकी आत्मा कि तरह सन्नाटे से भरा था। ज़मीन पर बिछी कथरी पर बाकी के भाई-बहन आड़े-तिरछे पड़े सो रहे थे। उन्हीं के बीच जगह बनाता वह भी एक कोने में जाकर ठुँस गया।
आँख बन्द करके बहुत देर तक पड़े रहने के बवजूद उसे नींद नहीं आ रही थी। करवटे बदलते-बदलते जाने कितना वक़्त बीत गया, उसे पता ही नहीं चला। नींद आँखों से अब भी दूर थी। उसे लगने लगा, नींद भी शायद सुखों की मोहताज़ होती है। जो आँखें सपने देख सकें, नींद भी उन्हीं आँखों में अपना डेरा डालती है। नींद और सपने तो नहीं, पर हाँ...अपनी बेचारगी पर खारा पानी ज़रूर आ गया उसकी आँखों में...जिसे उसने चुपके से अपनी कमीज़ की बाँह में सोख लिया। अन्दर का समुन्दर शोर तो बहुत कर रहा था, पर फिर भी वह उसकी आवाज़ बाहर आने से रोके हुए था। बगल में रोज़ की तरह अम्मा आ कर सो गई थी और वह नहीं चाहता था कि दिन भर की थकान से टूटे उनके शरीर को जो ये नींद का छोटा-सा सुख मिला है, वह उसे भी उनसे छीन ले।
सहसा उसके दिल में सोया विद्रोह का नाग फिर फन उठाने लगा। उसकी इच्छा हुई कि खूब ज़ोर से चीखे...इतनी ज़ोर से कि न केवल इस घर के... बल्कि इस दुनिया कि सभी सोई आत्माएँ जाग जाएँ। उसे अपने सिर की नस बहुत तेज़ तड़कती जान पड़ी फिर से...कुछ इतनी ज़ोर से कि लगा मानो सिर तरबूज़ की तरह दो टुकड़े हो जाएगा और सब कुछ बाहर आ जाएगा। घबरा कर उसने बिना सोचे अम्मा को झिंझोड़ डाला, "अम्माऽऽऽ...सिर बहुत तेज़ फट रहा...दबा दो ज़रा।"
इस तरह गहरी नींद से अचानक जगा दिए जाने पर अम्मा एकदम हड़बड़ा कर उठ बैठी, "हाँ...काहे नहीं। अभी दबा देते हैं।" माँ के हाथ सूखे-खुरदरे होने के बावजूद उसे बहुत सकून पहुँचा रहे थे। उसने अपनी आँखें बन्द कर ली और अम्मा कि गोद में सिर रख कर मानो सिमट गया...जैसे बचपन में सिमट जाता था जब किसी बात से बहुत सहम जाता था। उसे अभी भी वैसी ही सुरक्षा का अहसास होता है उस छोटी-सी गोद में। उसने सिर और कस के माँ की गोद में धँसा लिया और सोने की कोशिश करने लगा। अम्मा कुछ देर तक उसका सिर दबाती रही, फिर उसे एकदम शान्त देख कर सोया जान धीरे से उसका सिर उठा कर तकिए पर रख दिया और फिर लेट गई... । कुछ ही देर में अम्मा कि भारी साँसों की आवाज़ से वह जान गया कि थके शरीर और आत्मा के साथ वह गहरी नींद में सो चुकी हैं। सोते समय भी उनका हाथ उसके माथे पर ही था। कुछ देर तक वह उनके हाथों के स्पर्श को महसूस करता रहा, फिर धीरे से खिसक कर उनके सीने में मुँह दुबका कर किसी अबोध बच्चे की तरह सो गया।
सुबह जब उसकी आँख खुली, तब तक बेतरतीबी की गिरफ़्त में जकड़े कमरे में धूप भी किसी मरणासन्न मरीज़ की तरह ज़मीन पर पसर चुकी थी। उसके नीचे की दरी भी जाने कब से ग़रीब की लाज की तरह सिकुड़ी-सिमटी-सी एक कोने में पड़ी थी और वह ग़रीब की चेतना कि तरह सुन्न पड़ी ज़मीन पर सोया हुआ था। रात को कमरा कितना ठुँसा हुआ-सा था और अब...सिर्फ़ मरियल-सी धूप के साथ वह उस कमरे में बिलकुल अकेला था।
बाहर चौके से आती खटर-पटर की आवाज़ से कहीं मर-बिला गई भूख पता नहीं कैसे ज़िन्दा हो गई। किसी तरह उसे कुछ देर और मरने को कह आशुतोष कमरे से बाहर आ गया। बाहर बाऊजी उमेश से तेल मालिश करवा रहे थे। उसे देखते ही भूखे बाज़ की तरह उसपर टूट पड़े, "ससुरा...निकम्मा कहीं का। इस समय सो कर उठा है...मुफ़्त का भकोसने। फिर लाट साहब आवारागर्दी करने निकल जाएँगे। अरे, जब तक बाप-महतारी हैं तब तक भर लो पेट का घड़ा...उसके बाद तो इस लच्छन में भूखों मरना ही है।"
रात को अम्मा के हाथों के स्पर्श से कम हुआ सिरदर्द सहसा फिर जाग उठा। उसने असहाय दृष्टि से चौके की ओर देखा...पर वहाँ अम्मा का नामो-निशान नहीं था। गीता चुपचाप सिर झुकाए चाय बना रही थी। वह समझ गया, अम्मा फिर उधारी पर राशन का इंतज़ाम करने गई होंगी। वह किस-किस तरह से कतर-ब्योंत कर के बाऊजी समेत उन सबका पेट भरती हैं, वह कभी सोचता है तो ग्लानि से भर उठता है। इस समय भी वह ग्लानि अपना सिर उठा ही रही थी कि उभरती भूख तले उसने बड़ी बेदर्दी से उसका सिर कुचल दिया और चुपचाप जाकर चौके के एक कोने में बैठ गया...चाय के इंतज़ार में।
चाय के साथ अक्सर उसे अखबार की तलब लगती है, पर इतने सीमित साधनों में अखबार भी एक विलासिता कि वस्तु लगता है। एक बार को उसका मन आया, अब तक शायद पड़ोस में अखबार पढ़ा जा चुका होगा, तो माँग लाए... पर फिर विचार त्याग दिया। आखिर होता ही क्या है अखबार में ऐसा कुछ नया, जिसे पढ़ा जाए... । वही लूट, हत्या, डकैती, रेप...हर जगह लड़ाई... मारकाट...सिर-फुटौव्वल। कहीं दो देशों के बीच लड़ाई... कहीं दो क़ौमों के बीच...कोई अपनी ज़िन्दगी की लड़ाई लड़ता है तो कहीं अपनी अस्मिता कि रक्षा के लिए कोई संघर्ष कर रहा। इंसान चैन के दो पल बिताने जाए भी तो कहाँ जाए... अब तो घरों में भी शान्ति नहीं मिलती...कम-से-कम उसके घर में तो बिल्कुल नहीं।
गीता अभी कप में उसकी चाय छान ही रही थी कि बाहर आँगन में फिर बाऊजी की दहाड़ सुनाई पड़ी। अबकी निशाने पर वह नहीं, बल्कि घर लौट चुकी अम्मा थी। वह अनछुई चाय छोड़ कर तेज़ी से बाहर लपका। बाऊजी किसी शेर की तरह दहाड़ रहे थे और अम्मा उनके जबड़े में फँसे शिकार की तरह मानो छटपटा रही थी, "ग़लती हो गई आशुतोष के बाबू...आज शान्त हो जाओ... अगली बार सबसे पहले तुम्हारा सामान ही लाऊँगी। आज एक तिनका राशन नहीं था घर में...बच्चों के साथ तुमको भी तो कुछ नहीं दे पाती न...वो ज़्यादा ज़रूरी था न आशुतोष के बाबू...? तुम्हारा तेल...पान-मसाला के बिना तो काम चल सकता है न कुछ दिन।"
बाऊजी पर अम्मा कि किसी दलील का कोई असर नहीं दिखा। वह फिर पूरी ताकत से किसी भाप उगलते इंजन की तरह चीखे, "कमीनी...बदज़ात...अपने नाकारा...फ़ालतू औलादों के भकोसने का इंतज़ाम तो पूरा कर लिया...मेरा चौथाई ही सामान ले आती। सालीऽऽऽ...काट के डाल दूँगा अगर हमसे झूठ बोला कि बनिया हमारा ई सब सामान उधारी नहीं दिया। दूसरी जगह जाते तेरे पाँव कट गए थे क्या...?"
अम्मा के ऊपर उठा बाऊजी का हाथ हवा में ही रह गया...आशुतोष की चौड़ी हथेलियों में कसमसाता-सा, "बस्स बाऊजी... बहुत हो गया। जब तक आपकी ज़ुबान चलती थी, हम सब झेलते थे। पर आज जो ये कोशिश किये हैं न अपने हाथ की ज़ोर आजमाइश दिखाने का...इसे आखिरी कोशिश ही मानिएगा तो अच्छा होगा। अम्मा को अकेला या कमज़ोर समझने की भूल न करिएगा कभी...वो हम सब की सबसे बड़ी ताक़त हैं। बेहतर होगा, हमारी ताक़त को अपनी बुढ़ाती उमर से ललकारने की ग़लती न करें दोबारा...कई बार सेहत के लिए अच्छा नहीं होता।"
बाऊजी के साथ-साथ वह अम्मा और बाकी के भाई बहनों को भी हतप्रभ ही छोड़ कर बाहर निकल गया। बाहर आसमान पूरा खुल चुका था...चटकी धूप अपनी पूरी रंगत के साथ यहाँ-वहाँ बिखरी पड़ी थी। कड़ाके की ठण्ड में आमतौर पर ये मौसम उसे बेहद लुभाता था, पर आज जाने क्यों उसे घुटन-सी हो रही थी। पेट में उठती मरोड़ के साथ उसे हल्की उबकाई आई तो वह पास की नाली के ऊपर दोहरा हो गया। दिमाग़ में गूँजते साँय-साँय के बीच उसे अजीब-से शोर का अहसास हुआ...जैसे कहीं कोई भयानक युद्ध छिड़ा हुआ हो। अन्धेरे में डूबने से पहले उसने एक बार सोचा...जब तक ज़िन्दगी है...ये लड़ाई कभी ख़त्म होगी क्या...?