लड़ाई में हिस्सा / सत्य के प्रयोग / महात्मा गांधी
विलायत पहुँचने पर पता चला कि गोखले तो पेरिस मे अटक गये है , पेरिस के साथ यातायात का सम्बन्ध टूट गया है और कहना मुश्किल है कि वे कब आयेंगे। गोखले अपने स्वास्थ्य के कारण फ्रांस गये थे , परन्तु लड़ाई की वजह से वहाँ फँस गये। उनसे मिले बिना मुझे देश जाना न था और कोई कह सकता था कि वे कब आ सकेंगे।
इस बीच क्या किया जाय ? लड़ाई के बारे मे मेरा धर्म क्या है ? जेल के मेरे साथी और सत्याग्रही सोराबजी अडाजणिया विलायत मे ही बारिस्टरी का अभ्यास करते थे। अच्छे-से-अच्छे सत्याग्रही के नाते सोराबजी तो बारिस्टरी की शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैड भेजा गया था। ख्याल यह था कि वहाँ से लौटने पर वे दक्षिण अफ्रीका मे मेरी जगह काम करेंगे। उनका खर्च डॉ. प्राणजीवनदास मेहता देते थे। उनसे और उनके द्वारा डॉ. जीवराज मेहता इत्यादि जो लोग विलायत मे पढ़ रहे थे उनसे मैने विचार-विमर्श किया। विलायत मे रहने वाले हिन्दुस्तानियो की एक सभा बुलायी और उनके सामने मैने अपने विचार रखे। मुझे लगा कि विलायत मे रहने वाले हिन्दुस्तानियो को लड़ाई मे अपना हिस्सा अदा करना चाहिये। अंग्रेज विद्यार्थियो ने लड़ाई मे सेवा करने का अपना निश्चय घोषित किया था। हिन्दुस्तानी इससे कम नही कर सकते थे। इन दलीलो के विरोध मे इस सभा मे बहुत दलीले दी गयी। यह कहा गया कि हमारी और अंग्रेजो की स्थिति के बीच हाथी-घोडे का अन्तर है। एक गुलाम है , दूसरा सरदार है। ऐसी स्थिति मे सरदार के संकट मे गुलाम स्वेच्छा से सरदार की सहायता किस प्रकार कर सकता है ? क्या गुलामी से छुटकारा चाहने वाले गुलाम का धर्म यह नही है कि वह सरदार के संकट का उपयोग अपनी मुक्ति के लिए करे ? पर उस समय यह दलील मेरे गले कैसे उतरती ? यद्यपि मै दोनो की स्थिति के भेद को समझ सका था, फिर भी मुझे हमारी स्थिति बिल्कुल गुलामी की नही लगती थी। मेरा तो यह ख्याल था कि अंग्रेजो की शासन-पद्धति मे जो दोष है , उससे अधिक दोष अनेक अंग्रेज अधिकारियो मे है। उस दोष को हम प्रेम से दूर कर सकते है। यदि अंग्रेजो के द्वारा और उनकी सहायता से अपनी स्थिति सुधारना चाहते है, तो उनके संकट के समय उनकी सहायता करके हमे अपनी स्थिति सुधारनी चाहिये। उनकी शासन-पद्धति दोषपूर्ण होते हुए भी मुझे उस समय उतनी असह्य नही मालूम होती थी जितनी आज मालूम होती है। किन्तु जिस प्रकार आज उस पद्धति पर से मेरा विश्वास उठ गया है और इस कारण मै आज अंग्रेजी राज्य की मदद नही करता, उसी प्रकार जिनका विश्वास उस शासन पद्धति पर से नही , बल्कि अंग्रेज अधिकारियो पर से उठ चुका था, वे क्योकर मदद करने को तैयार होते ?
उन्हें लगा कि यही अवसर है जब जनता की माँग को ढृढता-पूर्वक प्रकट करना चाहिये और शासन-पद्धति मे सुधार करा लेने का आग्रह रखना चाहिये। मैने अंग्रेजो की इस आपत्ति के समय अपनी माँगे पेश करना ठीक न समझा औऱ लड़ाई के समय अधिकारो की माँग को मुलतवी रखने के सयम मे सभ्यता और दूरदृष्टि का दर्शन किया। इसलिए मै अपनी सलाह पर ढृढ रहा और मैने लोगो से कहा कि जिन्हें स्वयंसेवको की भरती मे नाम लिखाने हो वे लिखावे। काफी संख्या मे नाम लिखाये गये। उनमे लगभग सभी प्रान्तो और सभी धर्मो के लोगो के नाम थे। मैने इस विषय मे लार्ड क्रू को पत्र लिखा और हिन्दुस्तानियो की माँग को स्वीकार करने के लिए घायल सैनिको को सेवा की तालीम लेना आवश्यक माना जाय तो वैसी तालीम लेने की इच्छा और तैयारी प्रकट की। थोड़े विचार-विमर्श के बाद लार्ड क्रू ने हिन्दुस्तानियो की माँग स्वीकार कर ली और संकट के समय मे साम्राज्य की सहायता करने की तैयारी दिखाने के लिए आभार प्रदर्शित किया।
नाम देनेवालो ने प्रसिद्ध डॉ. केंटली के अधीन घायलो की सेवा-शुश्रूशा करने की प्राथमिक तालीम का श्रीगणेश किया। छह हफ्तो का छोटा-सा शिक्षाक्रम था , पर उसमे घायलो को प्राथमिक सहायता देने की सब क्रियाएँ सिखायी जाती थी। हम लगभग 80 क्यक्ति इस विशेष वर्ग मे भरती हुए। छह हफ्ते बाद परीक्षा ली गयी , जिसमे एक ही व्यक्ति नापास हुआ। जो पास हो गये उनके लिए अब सरकार की ओर से कवायद वगैरा सिखाने का प्रबन्ध किया गया। कवायद सिखाने का काम कर्नल बेकर को सौपा गया और वे इस टुकड़ी के सरदार नियुक्त किये गये।
इस समय विलायत का दृश्य देखने योग्य था। लोग घबराते नही थे, बल्कि सब लड़ाई मे यथाशक्ति सहायता करने मे जुट गये थे। शक्तिशाली नवयुवक तो लड़ाई की ट्रेनिंग लेने लगे। पर कमजोर , बूढे और स्त्रियाँ आदि क्या करे ? चाहने पर उनके लिए भी काम तो था ही। वे लड़ाई मे घायल हुए लोगो के लिए कपड़े वगैरा सीने-कटाने मे जुट गये। वहाँ स्त्रियाँ का 'लाइसियम' नामक एक क्लब है। इस क्लब की सदस्याओ ने युद्ध-विभाग के लिए आवश्यक कपड़ो मे से जितन कपड़े बनाये जा सके उतने बनाने का बोझ अपने ऊपर लिया। सरोजिनी देवी उसकी सदस्या थी। उन्होने इस काम मे पूरा हिस्सा लिया। मेरे साथ उनका यह पहला परिचय था। उन्होंने मेरे सामने ब्योते हुए कपड़ो का ढेर लगा दिया औऱ जितने सिल सके उतने सी-सिलाकर उनके हवाले कर देने को कहा। मैने उनकी इच्छा का स्वागत किया और घायलो की सेवा के शिक्षाकाल मे जितने कपड़े तैयार हो सके उतने तैयार करवा कर उन्हें दे दिये।