लतिका / सुधा भार्गव
हाँ, उसका नाम लतिका ही था। उसकी तरह न जाने इस जग में कितनी भरी पड़ी हैं जो लता बनने से पहले ही लताड़ दी जाती हैं या अपना इस्तेमाल करने के लिए खुद विवश हो उठती हैं।
उसके साथ तो कुछ यू हुआ –तीन भाइयों वाली वह बहन थी। प्रकाश की सारी उम्मीदें उसी पर टिकी थीं। बड़ा लड़का तो शादी के बाद ही घर जमाई हो गया। लतिका ने इंटर पास किया और बी ए आनर्स में दाखिला लेने की गर्मागर्मी थी। । अचानक उसके पिता प्रकाश को दिल का दौरा पड़ा औए परलोक गमन कर गया। परिवार सूखी टहनी की तरह बिखर गया। प्रकाश के इलाज में काफी खर्च हो गया था। बंगला बेचकर परिवार दो कमरे के फ्लैट में समा गया। लता और उसके भाई अभावों की दुनिया में रहना सीखने लगे। तीनों का पढ़ना –लिखना छूट गया। लतिका ने छोटी सी नौकरी कर ली। शाम को दो बच्चों को पढ़ाने निकलती। वह चुपचाप घर से जाती और सीधे घर लौटती।
एकाएक न जाने क्या हुआ, उसने नौकरी छोड़ दी। अकेली कमाऊ –चार –चार का भार। अनहोनी हो गई।
दिन के प्रकाश में फ्लैट की खिड़कियाँ दरवाजे बंद रहते। लगता शमशान की सी मुरदनी छाई है। आँगन में बंधी डोरी पर एक जोड़ी जनाने कपड़े और एक जोड़ी बच्चे के कपड़े सूखते नजर आते। एक जैसे रोज कपड़े, कहीं कुछ रद्दोबदल नहीं। कुछ दिनों में कमीजें उड़ गईं। रह गए केवल निकर। जगह –जगह थेगली से सूराख बंद होते नजर आ रहे थे। लेकिन तब भी बहुत कुछ दिखाई दे जाता। देखने वाले शर्म से आँखें झुका लेते।
अंधेरा होते ही बीयावान जंगल जैसे घर में चहल –पहल होने लगती। खिड़की से हताश सूखे चेहरे झाँकते। चबूतरे पर भी परछाइयाँ रेंगतीं पर जरा सी आहट पाते ही न जाने कहाँ लुप्त हो जातीं। लतिका धीरे से दरवाजा खोलती। उसके हाथ में कुछ न कुछ होता जरूर था। खरामा –खरामा जाती –खरामा –खरामा लौट आती पर बहुत कुछ खाली लगती। घर की नई –पुरानी चीजें, भाड़े –बर्तन दुकानदार की भेंट चढ़ रहे थे। वह अवसरवादी पाँच के तीन ही लगाता पर लतिका के मुंह पर ताला ही जड़ा होता।
छोटा भाई गर्मी से बेहाल, दस्तों की चपेट में आ गया। डाक्टर को दिखाना जरूरी था। टूटी चप्पलें घिसटाती जानी पहचानी दुकान पर वह पहुँच गई। यूसुफ को बैठा देख उसे अच्छा लगा। दसवीं तक दोनों साथ –साथ पढ़े थे। दुकानदार की तरह उसका बेटा रूखा और कंजूस न था। उसने लतिका के अच्छे दिनों का स्कूली मौजभरा जीवन भी देखा था। वह उसकी दिल से मदद करना चाहता था।
लतिका ने अपना चेहरा उठाकर यूसुफ को निहारा फिर आदतन निगाहें नीची कर लीं। यूसुफ को बड़ा अजीब सा लगा और बोला –तुम ठीक तो हो।
-यूसुफ मुझे 50 रुपए दे दो। ऐसा है आज मैं बेचने को कुछ ला न पाई। अगले हफ्ते यह रुपया जरूर लौटा दूँगी।
यूसुफ से उसकी दयनीय हालत छिपी न थी।
-हाँ –हाँ अभी देता हूँ। कहकर 50 का नोट उसके हाथों में थमा दिया।
-कुछ और चाहिए तो बताओ। उसने सहजता से कहा।
लता जबरन अपने होठों पर हंसी लाई और वहाँ से शीघ्र गायब हो गई।
पंद्रह दिनों के बाद न चाहते हुए भी लतिका को यूसुफ की दुकान पर आना पड़ा। दूर से यूसुफ ने देखा –लतिका धीरे –धीरे उसी की ओर बढ़ती चली आ रही है। आज उसने अपने बाल बड़े कायदे से बना रखे थे। बहुत दिनों बाद दो चोटियां की थीं। कपड़े भी और दिनों की अपेक्षा स्वच्छ थे। बदली रंगत देख यूसुफ अचरज में पड़े बिना न रहा साथ में अंजाने सुख की तरंगों में बह निकला।
-आओ लता, बैठो। बहुत दिनों बाद देखा। उसने उठते हुए उसका स्वागत किया। लतिका के चेहरे पर पल को गुलाब खिल पड़े। यूसुफ के आग्रह पर लतिका उसके निकट ही बड़े इतमीनान से बैठ गई। मानो उसे कुछ काम ही न हो। समझ नहीं आ रहा था कि वह कहाँ से बातें शुरू करे। , किस मुँह से कहे –उसे 100 रुपए चाहिए। पिछले 50 रुपए तो लौटाए नहीं। भाई मरण शैया पर पड़ा है। बिना पैसे के डाक्टर हाथ नहीं रखता। माँ की आँखों का सूनापन देखा नहीं जाता। कुछ तो करना ही होगा।
यूसुफ लतिका के मानसिक द्वंद को तो न समझ पाया पर उसने गौर किया कि लतिका का पल्ला आज बार –बार कंधे से ढुलका पड़ रहा है। शायद लतिका टूट जाना चाहती थी
मर्यादा का उल्लंघन होता देख यूसुफ तड़प उठा।
-लतिका होश में आओ। उसका स्वर आक्रोश से भरा था। एक क्षण को लतिका सकपकाई। उसे यूसुफ से ऐसी आशा नहीं थी। अपने हमदर्द को पाकर वह सुबक पड़ी। । अश्रुओं की बाढ़ में यूसुफ के कंधे भीग गए। बाढ़ का पानी कम हुआ। धुंधलका साफ होने लगा। लतिका लता बन कर सिमट गई लेकिन हमेशा –हमेशा के लिए यूसुफ को दिल में बसाकर। उसके इर्द –गिर्द प्यार भरे नगमे झर झर झरने लगे। उन्हीं को उसने जीने का सहारा बना लिया। अलसाई सी उठी पर धीरे –धीरे कदम बढ़ाते हुए उसी अंधकार में विलीन हो गई जहां से आई थी।