लपक चाटते, जूठा पत्तल / शम्भु पी सिंह
अंतरराष्ट्रीय संगठन यूनिसेफ की एक रिपोर्ट में झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले लोगों, खासकर गर्भवती महिलाओं और पांच साल से कम उम्र के बच्चों के कुपोषण पर सवाल उठ चुका था। सरकार ने मामले की जांच एक गैर सरकारी संगठन को सौंप दी। एक टीम बनाई, जिसमें दो चिकित्सक के साथ एक समाजसेवी और एक पत्रकार को नामित किया गया। अन्य जगह का मसला होता तो कुछ दिनों तक टालमटोल की संभावना होती, लेकिन बिहार के बोधगया के आसपास के अध्ययन पर आधारित रिपोर्ट थी। जल्दी संज्ञान लेना लाजिमी था। बोधगया में विदेशी पर्यटकों की संख्या अधिक होती है, इसलिए आगे विदेशी संगठनों से होनेवाली किरकिरी से बचने को सरकार ने दो दिनों के अंदर रिपोर्ट देने की बाध्यता रख दी। एक ही लक्जरी गाड़ी में हम सभी सवार हुए। पैसे का भी अपना दर्द है। जहाँ जाता है, कुछ न कुछ करिश्मा दिखाता है। थोड़ा गया तो पैसे की इज्जत अधिक की जाती है। बल्क में गया तो ऐसी की तैसी होनी ही है। एक बार बल्क में जाना उसके लिए भी कम सज़ा नहीं होती। जाते ही कहीं किसी कोने के तहखाने में, बैंक के लॉकरों में, सेठ की तिजौरियों में और अब तो बाथरूम की दीवारों पर बने अंदर सेल्फ में भी पूरी जिंदगी काटनी पड़ सकती है। ये अलग बात है कि बाथरूम आने जाने वालों के दर्शन का लाभ तो मिल ही जाता है, लेकिन इंसान का दर्शन दुर्लभ। बाहर निकलने का मौका भी मिला, तो कभी जुए के अड्डे पर-पर चक्कर काटने को मजबूर या फिर शराब ठेकेदारों के हाथ का खिलौना।
इसके साथ इंसान का रिश्ता भी अजीबोगरीब है, किसी के पास अधिक है तो खर्च करने की परेशानी, जिसके पास नहीं है, तो निकालते भी कलेजा फटता है। लक्ष्मी है, आने-जाने का सिलसिला तो लगा ही रहता है। कब बंधकर रह पायी है। कभी इस हाथ, कभी उस हाथ। आते-जाते कब उसकी भी जिंदगी, इंसान के बुढ़ापे की तरह, चुपके से अंतिम सांसें गिन रही होती है, तब कोई उसे बुजुर्गों की तरह अपने साथ रखना नहीं चाहता। रखना तो दूर सामने से देख ही बिदक जाते हैं लोग। फिर याद आता है, वह भी क्या दिन थे, जब बंडल बंधते ही मांग बढ़ जाती। कभी नई नवेली दुल्हन के गले में लटका दिया जाता। दुल्हन कितना संभाल कर रखती। महिलाएँ ऐसे भी पैसे को पुरुषों से अधिक मान देना जानती हैं, लेकिन वहाँ भी कड़क जवानी तक ही भाव बना रहता है। बाद में ढलती उम्र में सबकुछ अपना प्रभाव खो देता है, बात चाहे पैसे की हो या इंसान की। इंसान के लिए काम आता है वृद्धाश्रम और पैसे के काम आता है रिज़र्व बैंक की अंधेर कोठरी।
हम आज चार थे, सरकारी मिशन पर। पैसे को ठिकाने लगाने यात्रा पर निकले। आने-जाने, खाने-पीने का सारा खर्च गैर सरकारी एजेंसी का। सौ किलोमीटर की दूरी तय करनी थी। अभी तो पचास किलोमीटर की दूरी भी तय नहीं हुई थी, बीयर की तलब हुई। पूरे रास्ते बीयर ने साथ निभाया। वैसे भी दो चिकित्सक साथ थे, तो हमें ब्रांड की चिंता क्या करनी। इस मामले में वे खुद ही चूजी होते हैं। ब्रांड का प्रभाव-दुष्प्रभाव पता होता है। चार घंटे के सफर में शायद ही कोई ब्रांड हो, जिसकी कड़वाहट हलक के नीचे न उतरी। एक बजते-बजते पहुँच गए बुद्ध की नगरी, बोधगया। होटल पहले ही बुक हो चुका था, जाते ही पसर गया। आधे घंटे बाद फ्रेश होकर खाने की मेज पर गया। सरकारी व्यस्तता टंच थी। खाने की औपचारिकता पूरी करनी थी, पीने के बाद खाने की फिक्र कहाँ रह जाती है। हमारे साथ गए चिकित्सक को स्थानीय टीम की मदद लेनी थी। सभी संदर्भित क्षेत्रों में स-समय मौजूद थे। हमारे पहुँचते ही पूछताछ होने लगी। मेडिकल जांच भी साथ-साथ हो रही थी। समाजसेवी मित्र और मेरी ड्यूटी एक गवाह भर की थी। सरकारी महकमे पर सवाल उठा था तो मामला गैर सरकारी एजेंसी के हवाले कर समाजसेवी और पत्रकार की साख पर भरोसा किया गया। शाम के पांच बजे तक स्पॉट से हम निकल गए। भेजा गया सरकारी रिपोर्ट दुरुस्त पाया गया। जो थोड़ी बहुत खामियाँ दिखी, उसे इंगित कर दिया गया।
कमिटी ने अपना अंतिम मन्तव्य दे दिया था। रात नौ बजे तक रिपोर्ट को फाइनल किया जा चुका। सोने से पहले हम सभी ने हस्ताक्षर कर दिया। जिलाधिकारी के माध्यम से कल शाम तक रिपोर्ट जमा कर देनी थी। कार्य समाप्त कर हमने राहत की सांस ली। होटल आ गए। अब फिर से तलब हुई दारू की। जिसको जो चाहिए था, फरमाइश की गयी। शराब का नशा सिर चढ़कर बोल रहा था। थकावट तो हुई ही थी। खाना भी आ गया। कुछ खाया, कुछ छोड़ा। स्वाद का अता-पता नहीं था। पेट में शराब और पानी ने ही इतनी जगह ले ली थी कि मुर्गे की वेरायटी भी अपने अस्तित्व को रो रहा था। खाने की औपचारिकता पूरी कर अपने-अपने कमरे में चला गया। सुबह नींद थोड़ी देर से खुली। वातानुकूलित कमरे की खिड़कियों पर पड़े पर्दे से बाहर की रोशनी ताक-झांक कर रही थी। लगा सुबह की रोशनी कुछ अधिक तीखी हो चुकी है। घड़ी देखा तो आठ बज चुका था। घर में होता तो इतनी देर सोने को कहाँ मिलने वाली थी। श्रीमती जी उतना पहाड़ा सुना चुकी होतीं, जितना बचपन में गुरु जी ने भी नहीं सुनायी होगी। लेकिन यहाँ औपचारिक रिश्तों में ऐसी गुंजाइश कहाँ होती है। बाथरूम होकर लौटा, तो खिड़की के पर्दे को हटा बाहर की खिली धूप को एक नजर देखने की कोशिश की। अलसायी आंखें पूरी तरह खुली भी नहीं।
तीसरी मंजिल से नीचे कुछ महिलाओं, बच्चों को एक टाटा मैजिक वैन के पीछे भागते देखा। सभी के हाथ में कोई न कोई बर्तन था। डेकची, कड़ाही, बाल्टी, जग, मग जैसे सारे बर्तन किसी न किसी के हाथ था। महिलाओं, बच्चों का झुंड और उनके हाथों में बर्तन से यह तो स्पष्ट था कि उस गाड़ी से इन्हें कुछ मिलना है। कौतूहल बढ़ गया। मेरी नजर लगातार भागती गाड़ी और गाड़ी के पीछे भागते झुंड पर टिकी थी। गाड़ी होटल के नीचे रुकी। दो व्यक्ति आगे की सीट से अपने-अपने दरवाजे को खोल नीचे उतरा। दोनों ने पीछे गाड़ी पर लदे चार बड़े-बड़े फाइबर के तेल के ड्रम को नीचे उतारा। तीसरी मंजिल से नीचे चीजें बहुत स्पष्ट नहीं दिख रही थीं। मोबाइल उठाया और कैमरे को ऑन कर जूम किया। उन दोनों महाशय ने चारों ड्रम नीचे उतार दिया था। ड्रम के नीचे उतरते ही सभी उसपर टूट पड़े। सबके हाथ कुछ न कुछ आ रहा था, जो अपने-अपने बर्तन में रखते जा रहा था। ड्रम से निकालने के दौरान महिलाओं के बीच कहा-सुनी भी हो जाती। बच्चे भी आपस में झगड़ जा रहे थे। कुछ चीजें ऐसी भी मिल जा रही थी, जिसे बच्चे सीधे मुंह में डाल देते। मोबाइल कैमरे से भी चीजें स्पष्ट नहीं दिख रही थीं। कौतूहल वश मैं जल्दी से कमरे से बाहर निकल लिफ्ट से नीचे आ गया। बाहर उस वैन के पास जाकर खड़ा हो गया। दो बच्चे आपस में झगड़ रहे थे।
"ये मेरा है, इसे मैंने बहुत नीचे हाथ देकर निकाला है।" एक ने कहा।
"नहीं ये मैं लूंगा। मैंने पहले देखा, तुमने ले लिया।" दूसरा उसपर अपना अधिकार जता रहा था। पास खड़ी थोड़ी बड़ी एक लड़की दोनों को झगड़ते देख बच्चे के हाथ से छीन, खुद के मुंह में डाल दी। गाड़ी के पास की एक्टिविटी मेरे लिये एक तिलिस्म बन गया था। बहुत पास गया तो रोंगटे खड़े करने वाले दृश्य से पाला पड़ा। शहर के विभिन्न होटलों से एकत्र किए गए कचड़े का ड्रम था। जिससे महिलाएँ और बच्चे फेंके गए खाने की चीजों को निकाल रहे थे। किसी के हाथ आधे-अधूरे चिकेन का टुकड़ा पकड़ में आ जाता, तो किसी के हाथ रसगुल्ला। इस क्षेत्र के आसपास के होटलों में विदेशी पर्यटकों की संख्या अधिक होती है। उनके रात के भोजन का छोड़ा गया अंश कचड़े के डब्बे में डाल दिया जाता है। आधे घंटे के अंदर चार बड़े डब्बे का कचड़ा एक डब्बे के लायक रह गया। गाड़ी के साथ आये नगर-निगम के कारिंदों ने तीन डब्बे का बचा कचड़ा एक डब्बे में रख, उसे गाड़ी पर लाद लिया, बाकी तीन डब्बों को होटल के पास ही छोड़ दिया। शायद लौटते वक्त उन डब्बों को उसके मालिक तक पहुँचाना होगा। देखने, सोचने, समझने की क्षमता क्षीण पड़ गयी थी।
सभ्य समाज से कहने को कुछ नहीं था। सभ्य समाज की नजर में कुछ हुआ भी नहीं था। यह तो रोज का रूटीन था। सैकड़ों लोग पैदल और अपनी-अपनी बेशकीमती गाडियों से रोजाना गुजर रहे होते हैं। कभी कोई ऐसे दृश्यों से मर्माहत नहीं हुआ। कचड़ों से ही कितनों को प्रत्यक्ष, तो किसी को अप्रत्यक्ष रूप से भोजन नसीब होता है। होटल हो या घर, कचड़े के डब्बे में कौन-सी वस्तु नहीं होती। जो भी हमारे काम की नहीं रह जाती, वह सभी के सभी कचड़े के डब्बे के हवाले कर दिये जाते हैं। महिलाओं के इश्तेमाल के बाद सेनेटरी नेपकिन हो या बच्चों का पैड। इन सभी के बीच एकाध आधे-अधूरे मिठाई या मांस, मछली का टुकड़ा भी जगह पा लेता है। ग्रीन और ब्लू डब्बे का कॉन्सेप्ट भी अभी सरकारी फाइलों की ही शोभा बढ़ा रहा है। पौष्टिक भोजन और स्वास्थ्य सुविधाओं पर सरकारी विज्ञापनों के दावे की असलियत हमारे सामने थी। न किसी से कुछ पूछना, न ही किसी जांच-पड़ताल की जरूरत।
झुग्गी झोपड़ियों में गर्भवती महिलाओं और छोटे बच्चों के पौष्टिकता की रिपोर्ट रात ही वातानुकूलित कमरे में शराब के पैग और चिकेन कबाव के साथ तैयार हो चुका था। जो हमारे लिये उच्छिष्ट था, वही ऐसों के लिए महाभोज। सरकारी व्यवस्था पूरी दुरुस्त थी। वातानुकूलित कमरे में ठहरने वाला अभिजात्य वर्ग का तमगा धारण किये होता है। उसका विवेक और बुद्धि मर चुका होता है। चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता। भारतीय समाज परम्पराओं का गुलाम है, संविधान ने भी उसे यूं ही अपना लिया। सिस्टम अपने तरीके से काम करता है। किसी के होने न होने से बहुत फर्क नहीं पड़ता। सुविधा भोगी समाज का मैं भी हिस्सा बन चुका था। देखकर अनदेखा करना, समझकर नासमझ बनना हमारी आदत बन चुकी है। कमरे में जाते हुए बाल कृष्ण शर्मा 'नवीन' की कविता की एक पंक्ति याद आ गयी-
" लपक चाटते जूठा पत्तल, जिस दिन देखा मैंने नर को।
उस दिन सोचा क्यों न लगा दूं, आग आज इस दुनिया भर को।