लपक लड्डू / सुधा भार्गव
एक पेड़ पर कबूतर रहता था। सुबह होते ही वह पारस के आँगन में गुँटर-गुँटर करने लगता। पारस को वह सुंदर कबूतर बड़ा अच्छा लगता। वह रुई की तरह सफेद था। पंख भी बड़े चिकने थे। पारस की उम्र पाँच वर्ष ही थी। उसे घर से अकेले नहीं निकलने देते थे। उसके हाथ छोटे-छोटे थे। पैर भी छोटे थे। बड़ों की तरह वह भाग नहीं सकता था। लेकिन उसे कबूतर के पीछे भागने में मजा आता था।
एक दिन पारस भी गुँटर-गूँ करने लगा। कबूतर ने सोचा-वह उसकी नकल कर रहा है। उसे बहुत बुरा लगा। जल्दी से वह उड़ा और अपनी पैनी चोंच पारस की हथेली में चुभो दी। हथेली से खून की पिचकारी छूट पड़ी। पारस को बहुत दर्द होने लगा। उसकी गोलमटोल आँखों में मोटे-मोटे आँसू आ गये। कबूतर भी घबरा गया। उसे ख्याल ही नहीं आया था कि खून भी बह सकता है।
वह नदी के किनारे गया। चोंच में ठंडा पानी भरा। ऊँचाई से एक-एक बूंद पारस की हथेली पर सावधानी से टपकाने लगा। ठंडक से खून थम गया। पारस को उदास देख कर कबूतर को अपने ऊपर गुस्सा आने लगा।
उसने सोचा - बदले की आग में जल कर उसने छोटे से बच्चे को बहुत कष्ट पहुँचाया। उसकी समझ में अब यह नहीं आ रहा था कि उसे कैसे खुश करे। वह शहर की ओर उड़ चला। उसने वहाँ हलवाई देखा जो बूंदी के लड्डू बना रहा था। उसकी खुशबू हवा में घुल गई थी। उसने एक लड्डू अपनी चोंच में दबाया और पारस की हथेली पर गिराना चाहा। हवा को शैतानी सूझी, वह गोलाई में घूमी। अपने साथ लड्डू को भी घुमाने लगी। पारस ने लड्डू को लट्टू समझा। वह अचरज में पड़ गया। उसने लट्टू को गोल-गोल जमीन पर तो घूमते देखा था हवा में नहीं।
उसने लपक कर लड्डू को पकड़ लिया। मुट्ठी में कस कर भींचने लगा कहीं छूट न जाये उसकी पकड़ से।
"अरे-र-रे, यह तो लड्डू है। फूट भी गया।"
कबूतर चिल्लाया - "गुँटर-गूँ, गुँटर-गूँ।"
पारस उसकी भाषा समझ गया। वह कह रहा था-खाओ!
पारस ने नहीं खाया। वह उसे कबूतर के साथ खाना चाहता था।
उसने मीठा लड्डू उसकी ओर बढ़ा दिया। कबूतर ने अपनी गर्दन जोर से हिलाई और बोला - "मैं नहीं खाऊँगा, वरना लड्डू की तरह गोल हो जाऊँगा।"
पारस के चेहरे पर हँसी फर्राटे से दौड़ पड़ी।
कबूतर खुशी से नाचने लगा - "लगता है तुमने मुझे माफ कर दिया है। अब लड्डू खाऊँगा।"
दोनों मगन हो हिलमिल कर खाने लगे।