लम्हों का सफर / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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जीवन एक यज्ञ है, जिसमें न जाने कितने भावों की आहुति दी जाती है। मन के अभावों को दूर करने के लिए न जाने कितने प्रयासों की समिधा जीवन के यज्ञ-कुण्ड में होम की जाती है। जीवन-ज्योति को उद्भासित करने के लिए हृदय का कोमल और अनुभूतिपरक होना बहुत टीस पहुँचाता है। पता नहीं कब, कौन-सी बात फाँस बनकर खुभ जाए और करकने लगे। पुनीत प्रेम से भरा मानव छलकता हृदय लिये दूसरों से वैसा ही प्रेम पाने की लालसा में पूरा जीवन होम कर देता है। बदले में मिलता है-अपमान, सन्ताप, पश्चात्ताप का दम घोटने वाला धूम। डॉ. जेन्नी शबनम की कविताओं में जीवन की जद्दोजहद के साथ सन्तप्त मन लिये आगे बढ़ने का संघर्ष है, दो पल की गहन विश्रान्ति की तलाश है। मन के बीहड़ वन में इतना कुछ भरा हुआ है कि उससे निकलकर आगे कदम बढ़ाना दुसाध्य ही है।

इनके काव्य की गहराई ने मुझे सदा अभिभूत किया है। सच तो यह है कि इनकी प्रभावशाली एवं व्यापक अर्थगर्भी कविताओं के कारण ही इनसे जुड़ा। इनका गद्य जितना सधा हुआ है, काव्य भी उतना ही मन की गहराइयों में उतरने वाला है। परिवेश और विषम परिस्थितियों के संघर्ष ने इनको खूब तपाया है। भागलपुर में शिक्षा, विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर पिता का कम उम्र में संसार से चले जाना, भागलपूर के दंगों का साक्षी होना, व्यथित मन को लिये शान्तिनिकेतन में कुछ समय के लिए रहना और विवाहोपरान्त दिल्ली में निवास, प्रसिद्ध कवयित्री अमृता प्रीतम से आत्मीयता, इमरोज़ जी का प्रोत्साहन। सभी कुछ जीवन में जुड़ते चले गए. जीवन की कठोरताएँ और उससे उत्पन्न भावों का आकाशीय विस्तार इनकी कविताओं की भावभूमि बना। कुछ कविताओं का अवगाहन किया जाए, तो रचनाकर्म की परिपक्वता सामने आती है।

लम्हों का सफ़र इन सात लम्हों में विभाजित है-1. जा तुझे इश्क हो, 2. अपनी कहूँ, 3. रिश्तों का कैनवास, 4.आधा आसमान, 5. साझे सरोकार, 6. ज़िन्दगी से कहा सुनी और 7. चिन्तन।

'जा तूझे इश्क हो' इश्क की यह दुआ देना या सांसारिक परिप्रेक्ष्य में शाप देना ही है। इस कविता की अभिशप्त स्थिति की यह अनुभूति देखिए— ग़ैरों के दर्द को महसूस करना और बात है / दर्द को ख़ुद जीना और बात, / एक बार तुम भी जी लो, मेरी ज़िन्दगी / जी चाहता है / तुम्हे शाप दे ही दूँ-"जा तुझे इश्क हो!"

'तुम शामिल हो' कविता में प्रेम की अनेकानेक छवियाँ उभरती हैं। कभी बयार, कभी ठंड की गुनगुनी धूप बनकर, कभी फूलों की ख़ुशबू, कभी जल, कभी अग्नि, कभी साँस, कभी आकाश, कभी धरा, कभी सपना तो कभी भय बनकर अनेक रूपों में प्रेम की अनुभूतियों की एक-एक गाँठ खुलती है। कविता वेगवती उद्दाम नदी की तरह आगे बढ़ती जाती है। जीवन और भावों के कई-कई मोड़ पार करती हुई, यथार्थ की चट्टानों से टकराती हुई. कुछ पंक्तियाँ—

कभी फूलों की ख़ुशबू बनकर / जो उस रात, तुम्हारे आलिंगन से मुझमें समा गई / और रहेगी, उम्र भर!

-तुम शामिल हो / मेरे सफ़र के हर लम्हों में / मेरे हमसफ़र बनकर / कभी मुझमें मैं बनकर / कभी मेरी कविता बनकर!

'तय था' कविता की मार्मिकता हृदय के एक-एक कोश को पार करते हुए प्राणों में उतरती जाती है। प्रेम की व्याख्या का दर्शन अव्यक्त और अनिर्णीत रह जाता है; क्योंकि सब कुछ तय होने पर भी ऐसा कुछ न कुछ रह जाता है, जिसका हमारे पास कोई विकल्प नहीं होता। प्रेम में वैसे भी कोई विकल्प नहीं होता। जो कुछ है, सब अवश कर देने वाला—

तय यह भी तो था / बिछड़ गए ग़र तो / एक दूजे की यादों को सहेजकर / अर्ध्य देंगे हम!

और वह स्थिति कभी सोची ही नहीं थी कि बिखरने के बाद (जिसकी सम्भावना सदा बनी रहती है) क्या करना होगा—

बस यह तय न कर पाए थे / कि तय किये सभी / सपने बिखर जाएँ / फिर / क्या करेंगे हम?

'अपनी कहूँ' की कविताओं में स्वत्व की तलाश है। इस खण्ड में एक ऐसी ही कविता है-'मैं भी इंसान हूँ...' इस कविता का सम्प्रेष्य यही है कि आदमी न जाने कितने चेहरे लगाकर जीवन व्यतीत करता है; फिर भी दर्द तो जीवन का शाश्वत सत्य है, जो सभी को व्यथित करता है—

दर्द में आँसू निकलते हैं, काटो तो रक्त बहता है / ठोकर लगे तो पीड़ा होती है, दगा मिले तो दिल तड़पता है।

वहीं कवयित्री अतीत में लौटती है 'जाने कहाँ गई वह लड़की...' को खोजने के लिए. अतीत की किताब पन्ना-दर पन्ना खुलती जाती है। खोज में बीते पलों को फिर से जीने की ललक मार्मिकता से अभिव्यक्त कर दी है-

'उछलती-कूदती, जाने कहाँ गई वह लड़की' वह शहर क्या गई गाँव की सारी खुशबू भी लेती गई. जीवन की कठोरता इस पंक्ति में उतार दी गई—

जाने कहाँ गई, वह मानिनी मतवाली / शायद शहर के पत्थरों में चुन दी गई

कवयित्री ने जीवन के महत्त्वपूर्ण पड़ाव पर पिताजी को खोया है, जिससे पूरा परिवार अस्त-व्यस्त हुआ। इसकी अनुगूँज-'बाबा आओ देखो! तुम्हारी बिटिया रोती है' में हूक की तरह सुनाई पड़ती है—

बूँद आँसू न बहे, तुमने इतने जतन से पाले थे

-जाना ही था, तो साथ अपने, मुझे और अम्मा को भी ले जाते / मेरे आधे आँसू, अम्मा की आँखों से भी बहते हैं, -जानती हूँ, आसमान से, न कोई परी आएगी न तुम आओगे / फिर भी, मन में अब भी, एक नन्ही बच्ची पलती है।

इन पंक्तियों में पीड़ा गलकर बह उठती है—

सपनों में तुम आते हो, जैसे कभी कहीं तुम गए नहीं

-बाबा! जब भी आँसू बहते हैं, मन छोटी बच्ची बन जाता है

'आधा आसमान' खण्ड के अन्तर्गत 'मैं स्त्री हूँ' कविता आज में घने असुरक्षा के वातावरण की कड़वाहट को बहुत गहनता और पीड़ा के साथ उजागर करती है। लगता है औरत का जन्म इस धरती पर दुःख झेलने के लिए ही हुआ है। वह दु: ख अनेक रूपों में एक टीस छोड़ जाता है कि सामाजिक पतन की कोई सीमा नहीं है। सड़े-गले कृत्य समाज को भी बदबूदार बनाने में पीछे नहीं-

-मैं स्त्री हूँ / जब चाहे भोगी जा सकती हूँ / मेरा शिकार, हर वह पुरुष करता है /

-जो मेरा सगा भी हो सकता है और पराया भी / जिसे मेरी उम्र से कोई सरोकार नहीं /

-चाहे मैंने अभी-अभी जन्म लिया हो / या संसार से विदा होने की उम्र हो / क्योंकि पौरुष की परिभाषा बदल चुकी है।

'भागलपुर दंगा (24. 10. 1989)' की पीड़ा भूलते नहीं बनती। आहत और हृदय को तार-तार करने वाली क्रूरता की इस इबारत को डॉ. जेनी शबनम जी ने कागज़ पर उतारते समय बहुत से सवाल भी छोड़ दिए हैं, जो आज भी अनुत्तरित हैं—बेटा-भैया-चाचा सारे रिश्ते, जो बनते पीढ़ियों से पड़ोसी / अपनों से कैसा डर, थे बेखौफ़ और कत्ल हो गई ज़िन्दगी।

तीन दिन तीन युग-सा बीता, पर न आया, मसीहा कोई / औरत बच्चे जवान बूढ़े, चढ़ गए सब, धर्म के आगे बली।

यद्यपि डॉ. जेन्नी शबनम की अधिक संख्य कविताएँ आत्मपरक हैं, लेकिन सामाजिक सरोकार की उपेक्षा नहीं की गई है। जीवन की जटिलताओं और मन की तरंगों को आपने चित्रित किया है। कवयित्री की भाषा सधी हुई और प्रवाहमयी है। हर पंक्ति में एक-एक लम्हे की संवेदना की द्रवित करने वाली लय अंकुरित होती है। मैं आशा करता हूँ कि जेन्नी जी का यह काव्य-संग्रह सहृदय पाठकों के बीच अपना अपनत्व-भरा स्थान बनाएगा।

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' 5 दिसम्बर, 2019 (ब्रम्प्टन,)