लव @ 69 / रिशी कटियार
पूरे आधे घंटे तक स्टेशन के दो चक्कर लगाने के बाद यह तय हो गया कि ट्रेन का 2 घंटे के सफ़र आँखों को श्रृंगार रस की कोई प्रतिमा की बजाय वीभत्स रस की केमिकल इंजीनियरिंग की बोरिंग equations देखनी पड़ेंगी.ट्रेन आने के बाद अक्कड़ बक्कड़ कर के एक डिब्बे में चढ़ गया.....आह ! ट्रेन में जेंडर ratio देख के फील हुआ कि देश को ‘कन्या बचाओ’ पे और अधिक ध्यान देने की जरुरत है ,’टाइगर’ तो हम बाद में भी बचा सकते हैं. फाइनली एक लड़की दिखी.यार कहीं देखा है इसे पहले भी. वैसे तो मुझे हमेशा ही ये फीलिंग होती थी,पर आज कुछ ज्यादा थी.कहाँ की हो सकती है?कोचिंग,कॉलेज,स्कूल या ऐसे ही अड़ोस-पड़ोस के गली मोहल्ले की?कुछ भी हो,पर मन में गिटार बजने शुरू हो गये थे,पर ट्रेन को कैसे पता हो कि आज मेरा स्पेशल डे है,वो तो उतनी ही भरी थी,हमेशा की तरह,लबालब ऊपर तक. पर जहाँ चाह वहाँ राह,और फिर इच्छाशक्ति की अद्भुत मिसाल पेश करते हुए,मैं उस की सीट के पास तक पहुँच ही गया.दोनों सीट्स पे करीब 8-8 लोग बैठे थे,बैठने की कोई गुंजाईश नही दिख रही थी.फाइनली काफी कैलकुलेशन के बाद probability ने कॉलेज के नाम पे चांस लेने को suggest किया.चेहरे के expressions सड़क छाप से scholar मोड में सेट किये और भारी आवाज़ में पूछा
hbti?
हाँ
First year
Yes....yes sir.
branch?
सर...बायोकेमिकल इंजीनियरिंग
ओह..तभी जानी पहचानी लग रही है.पर ये मुझे सीनियर समझ रही है.अच्छा है.फिर मौके का फायदा लेते हुए नाम,पता भी पूछ डाला....ट्रेन में सभी खड़े होने की जगह के लिए जद्दोजहद में लगे थे और और कुछ लकी लोग जो बैठे थे,ऊँघ रहे थे, पर एक बुढ्ढा बार बार हमारी बातों में इंटरेस्ट लेने की कोशिश कर रहा था....साले खूसट बुढ्ढे तुम्हारे दिन गये....अडवाणी मत बनो...और फिर excuse me कहते हुए,मैं भी उस लड़की और बुड्ढे के बीच में एडजस्ट हो गया
“और तुम्हारी hobbies क्या है?”
किसी भी जूनियर के लिए सबसे ख़तरनाक सवाल यही होता है,बड़े बड़े गायक,वादक,डांसर खिलाडी भी सीनियर के इस सवाल पर अपनी हॉबी बदल कर सोना,कंचे खेलना, पतंग उड़ाना इत्यादि कर लेते हैं,और बहुतों की हॉबी सीनियर्स को ही बनानी पड़ती है.वो घबरा रही थी,और नर्वस हो रही थी ...तभी पास बैठे बुढ्डे ने मेरी तरफ देखते हुए कहा
“क्या बात है बेटा?कोई प्रॉब्लम है?”
“कुछ नही अंकल,आप अपने काम से काम रखो”
पर तभी उसे अहसास हुआ कि सवाल मेरे लिए नही था
“कुछ नही पापा,बस कॉलेज के सीनियर सर हैं” जवाब उस लड़की ने दिया था
शिट !!अबे ये तो इसका बाप है.और अचानक zombie जैसे बैठी हुई जनता एक रैगिंग करने वाले घृणित प्राणी, ‘सीनियर’ पर अपनी अपनी निजी frustation मिटाने के लिए उतावली हो उठी.
ओह्ह. ये तुम्हारे पापा है,नमस्ते अंकल...अरे मैं तो मजाक कर रहा था, मैं भी फर्स्ट year में हूँ...ये देखो मेरा id कार्ड.
और इस तरह से कहानी शुरू हुई.उसका नाम पिंकी था.हमने इधर उधर की बकवास की.सीनियर्स और टीचर्स की बुराई की.अपनी अपनी जन्मकुंडली बांची.स्टेशन पे उतरते समय उसने कहा था “मैं अगले सोमवार को सुबह 6 वाली गाडी से वापस जाऊँगी”,और इसके साथ ही मेरे वापस जाने का टाइम और ट्रेन फिक्स हो गयी.सोमवार का सफ़र भी वैसा ही बीता,पर वापस कॉलेज पहुँचने पे जुडाव उतना ही था,जितना सास-बहू टाइप नाटक के 2 एपिसोड लगातार देखने के बाद होता है,कहानी कुछ कुछ समझ आने लगती है.
2 महीने पहले कॉलेज के पहले दिन से मेरे कुछ सपने थे ,जैसा कॉलेज देखा था,आमिर खान या सैफ अली खान की फिल्मों में,जहाँ पढाई छोड़ के सब कुछ होता है.नवोदय के संकुचित विचार वाले माहौल में जहाँ बड़े होने पर भी सोच छोटी रह जाती है,शायद पर फैलाने का मौका नही मिला था.इसके बाद जब 2 साल की कड़ी तपस्या जबकि सारे सपने और सारे अरमान होल्ड पे डाल दिए थे, के बाद भी IIT नसीब नही हुआ तो लगा अब मौका है उन्हें पूरे करने का.इसलिए 4 साल के लिए To-do List कुछ इस प्रकार बनी थी.
1. एक गर्लफ्रेंड बनाना (कम से कम)
2.कुछ भी बाकी न छोड़ना, सब कुछ कर के देख लेना अच्छा और बुरा
3. और थोडा बहुत पढाई करना (अगर समय मिला तो)
दूसरे और तीसरे पॉइंट्स के लिए तो अभी बहुत टाइम बाकी था,पर लगा की सिंगल होने का कलंक मिटने का वक़्त अब आ गया था .कॉलेज में और फ़ोन पे कई दिन तक वक़्त और पैसा बर्बाद करने के बाद उसने कहीं घूमने चलने के लिए कहा तो जवाब के लिए सोचना पड़ा.कॉलेज में तो चलो max. चाय, समोसे,कोल्ड ड्रिंक में निपट जाते हैं और कोई tension भी नही....मगर बाहर!! कहाँ?....जेब खर्च अभी घर से ही मिलता था और वो भी कोई जरुरत बताने पे..एक डायरी बनी हुई थी,जिसमे चाय,समोसे,कापी किताब,पेन पेंसिल का खर्चा लिखा जाता था.....आखिर प्रेम के एक घनघोर पुराने आशिक मित्र मनीष से सलाह के बाद पुराने ज़माने की तरह मंदिर में ही शरण लेने की सूझी.
सिंघानिया साहब ने आज से 53 साल पहले जब JK Temple बनवाया होगा तो सोचा भी नही होगा कि राधा-कृष्ण के इतने भक्त और अनुयायी इसे lover’s point बना लेंगे.मगर ये पूर्ण समर्पण से प्रेम में रमने वाले कृष्ण नही हैं, ये वो हैं, जो सिर्फ गोपियों से रासलीला में और उनके कपडे गायब करने में आनंद पाते हैं.लोग यहाँ पे कई कारणों से आते हैं ,बड़े बूढ़े जॉगिंग करने और पार्क की घास में खोई हुई जवानी ढूंढने,परिवार शादी के लिए लड़का-लड़की ढूंढने,स्कूल-कॉलेज, गली-मोहल्ले के नवजात प्यार ज़माने से दूर एक पनाह ढूंढने,नकली प्यार कोना ढूंढने,शातिर लोग पर्स,पैसे और जूते-चप्पल ढूंढने और कुछ भटके हुए लोग पत्थरों में ईश्वर ढूंढने.
कॉलेज के गर्ल्स हॉस्टल के बाहर हमेशा एक gaurd रहती थी,जो साइकिल ख़राब हो जाने पे भी gate के सामने नही रुकने देती थी.मैं उसके लड़कियों की सुरक्षा के अपने कर्तव्य-निर्वाह के समर्पण का कायल था,पर फिर भी एक सवाल रह जाता था,’who will guard the guard.’इसलिए संशोधित योजना के अनुसार हमें कॉलेज के कंपनी बाग़ एंड वाले gate से रावतपुर और फिर वहाँ से टेम्पल के लिए निकलना था.bike चलानी अभी सीखी नही थी,और डेट का मतलब अभी ‘दिनांक’ और ‘खजूर’ तक ही था.
जब वो कंपनी बाग़ gate पे पहुंची,तो मुझे अहसास हुआ कि हमने दो गलतियाँ कर दी हैं,मैंने साइकिल लाके और उसने अपनी खूबसूरत फ्रेंड लाके.साइकिल पे आगे बिठा के ‘नायक’ के अनिल कपूर बनने का सपना तो वहीँ ख़त्म हो गया.मेरी हीरो-रेंजर मेरी सबसे बेहतरीन साथी थी,संघर्ष वाले 2 सालो से अभी तक और फिर बाद में btech खत्म होने तक भी हमारे बीच कोई नही आ सका.इसलिए उसके साइकिल की तरफ मुंह बिदका देखने से मुझे बड़ी ठेस पहुंची...और मैं साइकिल से ही रावतपुर जाने पे डट गया.मेरा ये निर्णय गुस्से में लिया गया एक इकोनोमिकल फैसला था,देर से पहुँच कर मैंने 6 रूपए बचा लिए थे.आगे का रास्ता रिक्शे से तय करना था,इसलिए ठरकता ने कंजूसी पे विजय पाई.साइकिल स्टेशन के स्टैंड पे लगा के रिक्शे पे बैठ गया.वो दोनों ही मेरे अगल बगल बैठी थी,इसलिए 1 km का सफ़र भी जल्दी खत्म हो गया और 15 रुपये ज्यादा नही जान पड़े.
मौसम खुशनुमा हो रहा था,मंदिर से आरती की सुरम्य तान सुनाई दे रही थी.मंदिर के बाहर समोसे, आइसक्रीम वाले रंगीन खोमचे सजा रहे थे,एक बेचारा अपंग आदमी भी मेहनत की कमाई खाने के लिए जमीन पे स्टाल लगाये बैठा था.छोटे छोटे बच्चे जोड़ों को आशीर्वाद देते घूम रहे थे
मंदिर में काफी देर तक इधर उधर की गपशप की,मंदिर देखा,घूमा और थक के एक जगह बैठ गये.पिंकी की मित्र खूबसूरत होने के साथ साथ समझदार भी थी,और हमें अकेले के लिए समय देना चाहती थी,पर इस मौसम बेईमान में ये ‘दिल मांगे मोर’ हो रहा था.कॉलेज की,घर की,पढाई की,प्रोफेसर की,फ्रेंड्स की बोरिंग बोरिंग बातें हँस हँस के करने के बाद हाथ पकड के बैठने के रोमांटिक अहसास के लिए मन व्याकुल हो रहा था.और मेरा हाथ हमारे हाथों के बीच के 1 फुट के सफ़र को इंच दर इंच तय कर रहा था.
मैंने ईश्वर से हिम्मत पाने के लिए और अपने इस कृत्य के लिए एडवांस में क्षमा मांगने के लिए मदिर की तरफ नज़र उठा के देखा और मुझे तुरन्त सिग्नल मिल गया.मनीष जिसने मुझे यहाँ आने का सुझाव दिया था,हमारे ही बैच के 4-5 दोस्तों के साथ खड़ा हमारी ही ओर आ रहा था.मेरी वही हालत हो गयी,क्या कहते है उसे हाँ,’काटो तो एनीमिया’.लग रहा था जैसे किसी ने चोरी करते पकड लिया हो रंगे हाथ,चोरी के ‘माल’ के साथ.इससे पहले की वो मुझे देख पाते,मैं तुरंत लपक कर उनके पास पहुंचा.
“और पाण्डेय जी ,यहाँ कहाँ?”
“बस ऐसे ही तिवारी भाई, ऐसे ही आ गया था मंदिर घूमने”
“किसके साथ?”
“बस यार एक फ्रेंड आया था,वो अभी अन्दर गया हुआ हैं दर्शन करने,उसी के साथ”
“समझ रहे हैं भाई हम भी,साथ में होता तो उसके साथ न जाते अन्दर”
“नही भाई, मैं उसकी चप्पलों की रखवाली कर रहा हूँ.”
मनीष इस बीच मन ही मन मुस्कुरा रहा था.मैंने उसकी तरफ उसी याचना वाली नज़र से देखा जैसे द्रौपदी ने चीरहरण के समय श्री कृष्ण की तरफ देखा होगा,और उसने कुटिल मुस्कान से साथ फिलहाल इस वक़्त के लिए अभयदान दे दिया था,पर कल ये चर्चा का विषय होगा,इसमें कोई शक नही था.
“अबे,ये अपनी क्लास की लड़कियां हैं न,सही है बे,इन्ही के साथ आया है क्या?”
“कहाँ,हाँ यार,ये भी आई हैं....पर अपनी ऐसी किस्मत कहाँ?”
“हाँ तेरी शक्ल देख के तो तेरी बात पे यकीन करना ही पड़ेगा. आईं होगी कोई मुर्गा फांस के.”
मुझे अपनी तुषार कपूर जैसी शकल पर पहली बार गर्व हुआ,चेहरा चेरी-ब्लॉसम से पोलिश होने के बाद जैसा चमक उठा. आत्मविश्वास लौट आया.पर अभी भी अपने नए नए अंकुरित प्यार के बीज को मैं कीड़े लगा मानने को तैयार नही था.
“नही बे,ये तो सीधी साधी हैं यार,ये तो क्लास में ज्यादा बोलती भी नही.”
“अबे इससे कुछ नही होता.ये जो लम्बी वाली है न,तुम्हारी भाभी हो सकती थी,पर क्या करें,इसका तो पहले ही से चल रहा है,दुबे के साथ,तो हम छोड़ दिए try मारना.और ये जो दूसरी है,पिंकी,उसको तो मैंने पहले कई बार देखा है,चौबे के साथ मूवी देखते हुए,कमर में हाथ डाले rave-3 में टहलते हुए......”
“अबे नही यार,ऐसा नही हो सकता,ये तो सबसे सीधी लड़की होगी पूरे बैच में”
“बेटा,ये देख,3.2 मेगापिक्सेल का कैमरा है मेरे फ़ोन का,सही हैं न फोटो.चौबे इसके लिए बहुत सीरियस है,दिल से.पर ये? भगवान जाने...उसका क्या होगा.छोडो,तुम अभी बच्चे हो बच्चे..धीरे धीरे सीख जाओगे, गाँव के स्कूल और शहर के कॉलेज में अंतर”
“चलो बे,जाने दो,हम लोग मंदिर देख लेते हैं, लेट हो जायेगा नही तो”,मनीष बोला.
और वो सब मेरी शांति भंग कर के अपनी शांति पाने मंदिर की तरफ चल दिए.मन खट्टा हो चुका था.उनके सुरक्षित दूरी तक जाते ही मैंने पिंकी के पास पहुँच कर अपने अभी अचानक याद आये एक जरुरी काम के बारे में बताया,और वापस चलने की पेशकश की.और हम मंदिर से बाहर निकल आये.
मौसम में आर्द्रता बढ़ गयी थी,मंदिर के घंटे का कर्कश स्वर परेशान कर रहा था .खोमचे वाले,आइसक्रीम वाले,गोलगप्पे वाले मुस्करा-मुस्कुरा के लोगों को लूट रहे थे.एक अपंग आदमी स्टाल लगाके गुटखा बेच रहा था. छोटे छोटे बच्चे पैंट खींच के जोड़ी सलामत रहने की दुआ कर कर के तंग कर रहे थे.इससे पहले कि मैं रिक्शे को रोकता,पिंकी ने मेरे हाथ पकड़ते हुए
“आइसक्रीम नही खिलाओगे?”
“हाँ हाँ क्यों नही....बिलकुल बिलकुल...ले लो जो भी पसंद हो”
“तुम अपनी पसंद की कोई भी ले लो...”
बस यहीं पे प्रॉब्लम आ जाती है,मेरी कोई पसंद नही बनी आज तक.गाँव में बरफ वाला पों-पों बजाता हुआ आता था, और उसके पास सिर्फ 2 टाइप की आइसक्रीम होती थी,गर्री वाली एक रूपए की और बिना गर्री वाली दो रूपए की simple.चुस्की वाले का भी funda simple था.बरफ घिस के एक मिटटी के कुल्हड़ में भरना और फिर बोतलों का रंग-बिरंगी पानी डाल देना.वहाँ तो 10 रुपए में मोहल्ले के भर के बच्चों के अच्छे भैया बन जाते हैं.पर यहाँ तो कई सारी वैरायटी थी,और यह भी नही पता था की सस्ती वाली कौन सी होती है और अच्छी वाली कौन सी,पर अनुमानतः महँगी वाली अच्छी वाली समझी जाती है,और खासकर जब पैसे दूसरे को देने हों.
“तुम बताओ न,तुम्हे क्या पसंद है”
“भैया,कोई चॉकलेट वाली है?”
“हाँ मैडम,ये देखिये एक तो ये है,10 रूपए वाली, ये उतनी बढ़िया नही होती और और एक ये है स्पेशल क्रीम वाली”
“हाँ तो यही दे दीजिये”
“सना, तुम कौन सी लोगी?”पिंकी ने अपनी फ्रेंड से पूछा
“नही, मैं नही खाऊंगी,मुझे जुकाम है”
“भैया,2 दे दीजिये,”कितना हुआ,54 रूपये!!,अच्छा,ये लीजिये”इससे पहले सना अपना फैसला बदल सके,मैं आइसक्रीम लेके रिक्शे में बैठ चुका था
“यार कैसी है आइसक्रीम”थोड़े देर बाद सना सकुचाते हुए बोली,
“अच्छी है,लो तुम भी लो थोड़ी सी”
फिर हम सबने 2/3 आइसक्रीम खायी.कैसा लगता है,जब आपके और एक खूबसूरत लड़की के होठों के बीच सिर्फ एक आइसक्रीम की दूरी हो !!! रोमांटिक,exotic?पता नही,क्योंकि मेरा पूरा दिल और दिमाग अपने 54 रूपए के लिए,उस ठेलेवाले को,आइसक्रीम बनाने वाली विदेशी कंपनी को और खुद को गाली दे रहा था.पर कई सालों तक मेरे CV में Extra-curricular में लिखने लायक यही एकमात्र उपलब्धि थी.रावतपुर आके मैं साइकिल उठाई,और उनको उसी रिक्शे पे रवाना कर दिया.
अगले दिन सुबह फिर उसका फ़ोन आया,उसको और उसकी दोस्त को कल साथ अच्छा लगा था,और वो सोच रही थी,कि मूवी देखने चलते हैं तीनो rave-3 में.आज?नही,आज तो वो थोडा busy है,एक दोस्त के साथ जाना है कहीं. कल चलते हैं, शाम को.नेकी और पूछ पूछ.मैं तुरंत राजी हो गया.मन में गुणा–भाग किया. 3 टिकट-300/- ,रिक्शा 30/-, बस....नही नही अगर कुछ खाने का मन किया,लगभग 450/- मान लिया जाए.ROI (Return on investment) तो कुछ खास नही था, पर बुरा भी नही लग रहा था.
अगला सवाल था,पैसों का, 600 रूपए मिले थे घर से इस बार,बुक खरीदने के लिए.69 रूपए तो कल ही चले गए. घर पे और पैसों के लिए फ़ोन करना था,कोई बहाना सोचना था.
“हेलो,हाँ मम्मी नमस्ते”
“हाँ बेटा,बोलो कैसे हो?”
“ बढ़िया हूँ मम्मी,पैसे चाहिए थे करीब 500 रूपए.”
उधर से कुछ देर थोड़ी शांति हो गयी.फिर थोड़ी सी खांसी की आवाज़.इसी बीच कोई एक मेसेज आया था मेरे मोबाइल पे.
“मम्मी,क्या हुआ? खांसी हो गयी क्या?”
“नही बेटा ,बस अभी अरौल से आ रहे हैं,थोडा थक गये,गर्मी से आये फिर तुरंत पानी पी लिया,ऐसे ही आ गयी थोड़ी”
“तो टेम्पो से आना चाहिए न,पैदल आई होगी?”
“अरे 2 ही km तो है,और फिर 2 रूपए भी बच गए.हाँ, तो कब तक चाहिए तुम्हे पैसे,परसों तक इंतज़ाम हो पायेगा,कि और जल्दी तो नही चाहिए, बताओ.”
“नही इतनी जल्दी नही है,”और मैंने फ़ोन काट दिया.मन आत्मग्लानि से भारी हो रहा था.मोबाइल पे मेसेज पड़ा था,चौबे का,” भाई,आज का डिनर रख लेना मेरा,जा रहा हूँ,तेरी भाभी के साथ डेट पे.”
अब नशा धीरे धीरे उतर रहा था,और डायरी में कल के 69/- का हिसाब देना अभी भी बाकी था.