लहरों की बेटी / अभिमन्यु अनत
पहला भाग : 1 :
समंदर पिछली रात की अपनी उथल-पुथल के कारण थका-माँदा-सा लग रहा था। विदुला के साथ जब लखन ऊबड़-खाबड़ सड़क को पार करके समंदर के तट पर पहुँचा तो घंटा भर पहले की चिपचिपाती गरमी कुछ कम हो गई थी। पश्चिम की ओर भागा जा रहा दिन द्वीप के इलाके से अपनी परछाईं को पहले ही उठा चुका था। पश्चिमी क्षितिज से ओझल हो रहे सूरज की कुछ लालिमा पूर्वी आकाश के बादलों के टुकड़ों पर भी झलक आई थी। खूँटी से नाव खोलते हुए लखन की नजर जब उस हलकी लालिमा पर पड़ी तो उसे यह जानते देर नहीं लगी कि मौसम खराब होने वाला है।
उसने गौर से अपने आगे के आकाश को देखा, फिर पूरब की ओर मुड़ा। वह जिस ठौर पर था वहाँ से सामने पहाड़ होने के कारण पश्चिमी क्षितिज पर डूब रहा सूरज तो अदृश्य हो चला था, फिर भी दूर-दूर तक फैली लाली को वह देख रहा था। उसे वह कुछ देर तक इस तरह देखता रहा, गोया आकाश पर फैले बादलों की चित्र-विचित्र आकृतियों को पढ़ने की कोशिश कर रहा हो। देर तक अपने बाप को उसी मुद्रा में देखकर विदुला ने भी उस ओर उसी तरह से देखना शुरू किया। उसकी आँखों में उस असमंजस के भाव को देखकर लखन ने उससे कहा, "आज तो तुम चल सकती हो पर शायद कल या परसों तुम मेरे साथ नहीं जा पाओगी।" "मैं घर अकेली रहूँगी क्या ?" "तुम्हें चंपा मौसी के यहाँ छोड़कर जाऊँगा। यह मौसम कल से खराब होना शुरू नहीं हुआ तो परसों तक तो होकर रहेगा।"
विदुला को वह पहले ही नाव में बिठा चुका था। खूँटी से रस्सी खोलकर उसके छोर को अपने हाथ में लिये वह नाव तक पहुँचा। नाव कमर तक पानी में थी। रस्सी को नाव के भीतर फेंककर उसने अपने दोनों हाथों को नाव के छोर पर रखा। हाथों पर जोर देकर उसने अपने शरीर को ऊपर उछाला और एक पाँव के बाद दूसरे पाँव को नाव के भीतर पहुँचाया। डगमगा उठी नाव पर उसने पतवार को थामा। उसका दूसरा सिरा पानी में डुबोकर उसने पूर्वी आकाश की ओर गौर से देखा, फिर विदुला की ओर। वह टीन के डिब्बे से पिछली रात की बरसात के चलते जमा हो आए पानी को नाव में से निकाल-निकालकर समंदर में फेंक रही थी। लखन ने पतवार की मूठ पर जोर डाला और नाव आगे को खिसकने लगी। विदुला हमेशा की तरह पीछे छूटते हुए अपने घर को देखती रही। पहले घर ओझल होता था, फिर उसके आसपास के पेड़। नाव के कुछ और दूर निकलने पर बरगद का पेड़ भी धुँधल के में खो जाता था और केवल पहाड़ दिखाई पड़ते रह जाते थे। उसका बाप उससे कहता कि जब वह उसके साथ नहीं होती थी तो उसकी यह नाव समंदर में इतने भीतर पहुँच जाती थी कि ये पहाड़ भी अदृश्य हो जाते थे। दिन-दहाड़े पूरा द्वीप तक पीछे छूटकर अदृश्य हो जाता था।
नाव को खेते हुए भी लखन विदुला को देखे जा रहा था। वह कुछ बोली नहीं, सिर्फ मुसकुरा कर रह गई। विदुला सात साल पार कर चुकी थी। गाँव की औरतें कई बार उससे पूछ बैठी थीं कि क्या वह अपने बाप की परछाईं है कि उसके बिना लखन कहीं जाता ही नहीं है ? लकड़ी लाने वह पहाड़ी पर जाता तो वहाँ भी विदुला उसके साथ होती थी, और समंदर में होता तो वहाँ भी। यहाँ तक कि वह सौदा खरीदने जाता तब भी विदुला उसकी बगल में होती थी। विदुला के साथ होने से लखन की दिनचर्या में गाँववालों ने एक भारी परिवर्तन देखा था। अब न तो वह देर तक मित्रों के बीच बैठकर दुनिया भर की बातें सुनता हुआ मिलता था और न ही दुकान के आगे गुलमोहर के पेड़ के नीचे बैठकर अंगूरी शराब पीता हुआ दिखता था। वैसे भी उसकी यह दूसरी आदत तो इस घर में तारा के आते ही छूट गई थी। इसकी सबसे बड़ी खुशी लखन के बाप को हुई थी।
लखन की पत्नी तारा को मरे सात साल से अधिक हो चले थे। विदुला के जन्म के दो घंटे बाद ही उसकी मृत्यु हो गई थी। जब तारा को बच्चा होने वाला था उस समय जोरों की वर्षा हो रही थी। दर्द से छटपटाती और देह को ऐंठती हुई तारा ने लखन से कहा था कि इस बार का दर्द जीवनदत्त के जन्म के वक्त से बहुत ही ज्यादा है तो लखन घंटे भर के अंतराल में चौथी बार लाजो धाई के घर की ओर दौड़ पड़ा था। जब चौथी बार भी उसे बताया गया कि लाजो धाई गाँव के धनी खेतिहर धनदेव साब के घर थी तो लखन उसी के घर जा पहुँचा था। लाजो से तो वह बात नहीं कर पाया था, पर धनदेव साब की भौजी ने उससे कहा था कि उसकी गोतनी के पानी पाते ही वह उसके घर पहुँच जाएगी। रास्ते भर वह यही मनाता हुआ अपने घर लौटा था कि भगवान् करे धनदेव साब का बच्चा जल्द- से- जल्द जनम जाए।
घर लौटकर लखन ने जीवनदत्त से पानी गरम करने को कहा था और तारा के पास भूमि पर बैठकर उससे बोला था कि वह उसे ही लाजो मान ले। उस रात बाहर की उस मूलसाधार वर्षा के बावजूद लखन उन दो घंटों तक पसीने से तर रहा। जैसे-जैसे तारा का दर्द और उसका चीखना बढ़ता गया, वैसे-वैसे लखन के बदन से पसीने छूटते गए थे। जीवनदत्त से आवश्यक चीजें अपने पास रखवाकर उसने उसे गन्ने के सूखे पत्तों से भरे घर के दूसरे भाग में चले जाने को कहा था। इसके बाद अपनी पत्नी से पूछ-पूछकर वह सब कुछ करता रहा था जो कि लाजोधाई को करना चाहिए था। पीतल के कटोरे में कड़वा तेल औंधी हुई ओखली पर रखा हुआ था। कुछ ही देर पहले जीवनदत्ता अपने बाप के कहने पर उसे गरमा लाया था। पीड़ा से कराहती चीखती तारा बीच-बीच में अपने पति को आगे के लिए निर्देश दिए जा रही थी।
और जब तमाम पीड़ाओं के बावजूद तारा ने अपने पाँवों को फैलाया था तो लखन ने सबसे पहले उस बच्चों के सिर को देखा था और कई मिनटों के बाद उसके दोनों नन्हें पाँवों को। कुछ-कुछ बातें तो तारा के बिना बताए ही लखन को मालूम थीं। इसलिए वह उस वक्त तक घबड़ाया रहा जब तक कि बच्चे का रोना शुरू नहीं हुआ। उसकी अपनी इच्छा पूरी हुई थी। जब से उसे मालूम हुआ था कि तारा के बच्चा जनने का दिन करीब आ रहा है, उसने बार-बार तारा से कहा था कि इस बार वह उसे बेटी दे। और अब बेटी पाकर वह बेहद खुश था। उस खुशी में उसे इस बात का खयाल ही कहाँ था कि बच्चे के जनम जाने के बाद भी कुछ बहुत ही जरूरी काम बाकी रह जाते हैं। खून के धब्बों से भरे कपड़े के बीच वह अपनी बेटी को गोद में लिये हुए था, तब उसकी पत्नी ने पूरी औलाद देने के बाद पहली बार उसे देखा था और मुसकराकर बोली थी, "तुम्हारे ऊपर गया है।"
लखन ने तारा की उस मुसकान से राहत पाई थी। पर साथ-ही-साथ उसे अपनी भारी भूल का एहसास भी हुआ था और वह पूछ बैठा था, "तुम तो ठीक हो न ?" तारा बोली थी, "मैं ठीक हूँ।" और फिर आगे के कामों के लिए लखन अपनी पत्नी से हिदायतें लेता रहा। इस बीच उसने आवाज देकर जीवनदत्त को भी बुला लिया था। वह अंगारों से भरी अँगीठी लिये आ गया था। उसी पर लखन ने छुरी गरम करने के लिए उससे कहा था और फिर पूरी सावधानी बरतते हुए उसने बच्ची को उसकी नाभि से जुड़ी नाल से मुक्त किया था। जब उसने मान लिया था कि सभी कुछ ठीक हो गया, तभी उसकी नजर तारा के साँवले पड़ते जा रहे चेहरे पर पड़ी थी। वह फिर से पूछ बैठा था, "तारा तुम ठीक तो हो ?"
तारा ने हामी भर दी थी, पर फिर घंटे भर बाद तारा के बदन से बही जा रही रक्त की धारा को देखकर लखन घबड़ा गया था। तारा के शरीर का तापमान भी एकाएक बदल गया था। उसके चेहरे का रंग बदलते-बदलते साँवले से काला पड़ गया था। लखन ने हड़बड़ाकर अपने बेटे को बुलाया और कहा कि वह दौड़कर धनदेव साब के घर जाए और किसी भी तरह लाजो धाई को अपने साथ लेकर ही लौटे। जीवनदत्त बहुत देर से लौटा था, वह भी अकेले। इस बीच लगातार जारी रक्तस्राव के कारण तारा के बदन का बहुत सारा खून वह चुका था। उसके आधे शरीर को लखन ने कंबल से ढाँप दिया था। जब जीवनदत्ता अपनी माँ के सामने पहुँचा उस समय नवजात बच्ची उसकी छाती से चिपकी दूध की अंतिम बूँदें चूसने में लगी हुई थी और तारा की पकड़ शिथिल पड़ती जा रही थी। लखन ने जब देखा कि तारा का हाथ अपने आप बच्ची के कंधे के पास से खिसक गया तो उसने बच्ची को उठाकर अपनी गोद में ले लिया। कुछ देर बाद ही तारा के मुँह से आवाज निकली-
"विदुला नाम रखना इसका..." "क्या बात है, तारा ?" "इसे माँ और बाप दोनों का प्यार देना।" "तारा ! तुम इस तरह की बात क्यों कर रही हो ?" "जीवन, तुम भी अपनी बहन का खयाल रखना..." "माँ को क्या हो गया, पापा ?" तारा ने अपने बेटे से दृष्टि हटाकर अपनी नवजात बच्ची की ओर देखा। इस बीच लाखन ने उसके ठंडे पड़ते जा रहे दोनों हाथों को अपने हाथों में ले लिया था। तारा ने धीरे से कहा- "भूलचूक माफ करना.."
वाक्य के पूरा होते-न-होते लखन चीत्कार कर उठा, "तारा ! नहीं तारा नहीं तारा..." इसके बाद भी लखन देर तक उसे पुकारता रहा, मगर उसकी और जीवनदत्त दोनों की आवाजें अनसुनी रह गई थीं। घंटा भर बाद जब तारा के सिरहाने माटी का दीया जल उठा था, तब आसपास की औरतों के बीच से रास्ता बनाती हुई लाजो धाई भीतर आई थी। लखन के कंधे पर हाथ रखकर वह बोली थी, "अगर मैं यहाँ होती तो भी तारा का बचना संभव नहीं होता।
दूसरे दिन जब गाँववाले तारा की दाह क्रिया के बाद लौटे तो उनमें से कुछ लोग जो लखन के मित्र थे, उसके साथ ही उसके घर तक आ पहुँचे थे। पड़ोस की कुछ औरतें भी नवजात शिशु की देखभाल के लिए ठहर गई थीं। लाजो धाई अपनी गोद में छोटी बच्ची को लिये लखन के पास आकर बैठ गई और उसे समझाने लगी थी। वह उसे यह भी बता रही थी कि उस रक्तस्राव को रोक पाना असंभव था। फिर भी न जाने क्यों लखन आज तक यही माने बैठा है कि अगर वह समय पर पहुँच गई होती तो शायद उसकी तारा जीवित रह जाती।
तारा की मृत्यु के दूसरे महीने से ही झुमकी लखन से कहती आ रही थी कि वह दुलारी से ब्याह कर ले। ब्याह न सही तो पड़ोस के गाँव से पंडित को बुलाकर हवन करा ले और दुलारी को अपने घर ले आए। लखन बार-बार झुमकी से कहता कि दुलारी बहुत अच्छी तो है पर तारा की जगह नहीं ले सकती। इस पर झुमकी उसे घंटों समझाती कि वह उसे तारा की जगह पर न लाकर नन्हीं विदुला की माँ के स्थान पर ही ले आए।
दुलारी गाँव की सबसे जवान विधवा थी। ब्याह के सात महीने बाद ही उसके पति की मृत्यु बोसाँ कोठी के मालिक की बंदूक से छूटी गोली लग जाने से हो गई थी। हिरण के शिकार के दौरान वह हादसा हुआ था। आसपास की सभी कोठियों और गाँवों के लोग जानते थे कि वह महज एक दुर्घटना नहीं थी। सोनालाल का बाप इलाके के इने-गिने संपन्न लोगों में था और सोनालाल को भी शिकार का शौक था। उसकी मृत्यु से एक सप्ताह पहले बोसाँ कोठी के मालिक ने उसे नदी किनारे रोककर कहा था कि उसे उस इलाके में शिकार करने की इजाजत नहीं है; क्योंकि वह कोठी की जागीर है। लखन ने उससे कहा था, ‘‘नदी के पास की जमीन सरकार की होती है, वह किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत जागीर नहीं हो सकती।" फिर तो जो होना था वह होकर रहा। छः महीनों की छानबीन के बाद पुलिस ने उसे दुर्घटना बताकर फाइल बंद कर दी थी।