लहरों में ज़हर / भीकम सिंह

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पंकज चतुर्वेदी की पुस्तक लहरों में ज़हर मरती हुर्ह नदियों की पीड़ा को पत्रकार के दृष्टिकोण से उदघाटित करने की प्रस्तुति है। यह प्रस्तुति उनके पत्रकार के तौर पर लिखे गये दक्षतापूर्ण शोध पत्रों के अनुभवाश्रित विश्लेषण और केन्द्रीय प्रदूषण बोर्ड/राज्य प्रदूषण बोर्ड के प्रकाशित आँकड़ों के आलोचनात्मक मूल्यांकन के संदर्भ में की गई है। भूमिका के अतिरिक्त छह अध्यायों को 94 पृष्ठों में सामाहित करती यह पुस्तक नदी प्रदूषण विषय पर पाठकों में जिज्ञासा और सरकारी प्रयासों की उदासीनता के प्रति भडकाती भी है। पुस्तक का पहला अध्याय ‘आठ बहनों वाले राज्य में मरती नदियाँ’ अर्थात् असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम और त्रिपुरा जिसे लेखक ने आठ बहन कहा है, दरअसल उत्तर पूर्व भारत के एक दूसरे पर परस्पर निर्भरता के कारण इन्हें सात बहनों की भूमि के रूप में जाना जाता था। 1975 में सिक्किम भारत का 22वाँ राज्य बना और लेखकानुसार पूर्वोत्तर की आठवीं बहन। इस अध्याय में भूक्षरण और प्रदूषण से बिफरती ब्रहमपुत्र के साथ पूर्वोत्तर की लगभग 25 नदियों की उपेक्षा की कहानी है जिसमें रिमोर्ट सेंसिंग के सर्वेक्षण में ब्रहमपुत्र के दोनों किनारों को निगलने की भयावह तस्वीर (पृष्ठ 22) सामने आती है तो दुनिया के सबसे बड़े नदी द्वीप माजुली (पृष्ठ 22) का अस्तित्व भी खतरे में दीखता है। अरुणाचल प्रदेश की सियांग नदीं, दिबांग नदी, मणिपुर की नांबुल नदी, मेघालय की लुका और मिंतदू, कालू, रिंग्गी, दारिंग, सांदा, इंतदू, दिगारू उमखरी और किनचियांग, मिजोरम की तलीश्वरी, लांगाय, नागालैंड की तवाना, दीक्षी, जांसी, त्रिपुरा की तुंगै, मनखोवाई, गुमती आदि सभी नदियों की धारा चिंतन की नई धारा शुरू करती है जिसे लेखक ने पडताल के माध्यम से निष्कर्षों तक पहुँचाने का प्रयास किया है।

इस पुस्तक का दूसरा अध्याय दक्षिण भारत: नदियों की गोदी में कूड़े का ढेर (पृष्ठ 33- पृष्ठ 47) हमें कावेरी के भयावह रूप से परिचय कराता है जिसके जल बँटवारे का विवाद 1837 से चल रहा है (पृष्ठ 33) लेकिन उसमें अनावश्यक लवण, कार्बनिक तथा अकार्बनिक पदार्थ, कल-कारखाने, औद्योगिक इकाइयों से निकले अपशिष्ट, मलमूत्र, कूड़ा करकट ने कावेरी के पानी को मवेशियों के लिए भी जहर बना दिया है (पृष्ठ 35) जिसके लाभ हानि के विश्लेषण के लिए पुस्तक ईशारा करती है कि नदियों में घुल रहे जहर का डाटाबेस तैयार हो और कम्प्यूटराइज्ड अध्ययन भी हो ताकि विकास की गति बढ़े और खुशहाली आये।

तीसरे अध्याय (यमुना: वादों की नदी, इरादों की दरकार है) में लेखक ने यमुना के उद्गम से दिल्ली में नाला बनने तक के सफर को दुखद और मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। यमुना, जो दोआब की जीवन रेखा थी और सदियों से जिसका दोआब वासियों के सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक जीवन से गहरा सम्बन्ध रहा, आज वह मृत हो चुकी है, ओखला में तो यमुना नदी में बी.डी.ओ. स्तर सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय स्तर से 40-50 गुना अधिक है। एम्स के फोरेंसिक विभाग के अनुसार 2004 में आर्सेनिक की मात्रा बहुत अधिक पाई गई (पृष्ठ 50) हिंडन के उद्गम और यमुना से संगम उन तमाम गाँवों, कस्बों, शहरों का परिचयात्मक विश्लेषण लेखक करवाता है जहाँ-जहाँ हिंडन में बदबू ही बदबू है। नून नदी के पवित्र और अंतरंग सम्बन्धों पर पड़ी प्रदूषण की काली छाया का विश्लेषण भी इसी अध्याय में है।

चौथे अध्याय में लेखक ने गोमती का सांस्कृतिक भावनात्मक आधार बताकर उसका कद जून 2019 में इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायधीश की अध्यक्षता वाली समिति के माध्यम से व्यक्त करवाया है (पृष्ठ 70) समिति ने 11 जनपदों के जिला अधिकारी को डी.पी.आर. नमामि गंगे परियोजना के अन्तर्गत भेजे। जो प्रदूषण के कारण किसी नदी को नाले में परिवर्तित होने का, अर्थात् गोमती के अस्तित्व को बचाने का मसला था। बीच-बीच में कई शोधकर्ताओं के माध्यम से लेखक ने नदियों में बढ़ रहे भयानक प्रदूषण की विकरालता को उजागर किया है। किसी भी नदी का महत्व आर्थिक आधार के साथ-साथ सांस्कृतिक आधार पर होता है, भारतीय संस्कृति में क्षिप्रा नदी का जिक्र आता है, समुद्र मंथन के अमृत कलश के कारण क्षिप्रा, गंगा, गोदावरी को अधिक आदर मिला और संस्कृति ने अधिक प्रगति की तो क्षिप्रा से दूरी बढ़ने लगी जिसे भौतिक सुविधाओं ने लुप्त होने के कगार पर ला दिया, 12 वर्ष में कुम्भ के आयोजन के समय इधर-उधर से पानी पाइप के माध्यम से लाकर नदी को जीवित किया जाता है (पृष्ठ 76) यह तथ्यात्मक बात है लेकिन इसे गम्भीरता से नहीं लिया जाता और क्षिप्रा में श्रद्धा, आस्था, पूजा-पाठ से डिसॉल्व आक्सीजन (डी.ओ), बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड (बी.ओ.डी.), फेकल कॉलीफार्म (एफ.सी.), टोटल कॉलीफार्म (टी.सी.) का लेवल लगातार बढ़ता जा रहा है (पृष्ठ 81) जिसे लेखक ने पाँचवे अध्याय में समाहित किया है।

छठे अध्याय में सोन नदी के भौतिक बहाव के घुलते जहर को खोजने का लेखक ने प्रयास किया है जिसे बड़े अच्छे ढंग से प्रस्तुत भी किया है। जिसमें सरकार और प्रदूषण नियंत्रण मंडल का घिनौना चेहरा उभारता एक स्वयंसेवी संगठन भी लेखक का सहयोग करता नजर आता है। या यूं कहे कि पुस्तक की पूर प्रक्रिया नदियों के मरने की त्रासदी का नया आख्यान रचती प्रतीत होती है। नदी की त्रासद-धारा में लहरें ठहरी हैं, लेखक का पड़ताली संघर्ष उभर रहा है, जिसे वे अपने ढँग से जूझते हुए सफल हुए हैं। पुस्तक पानी के राजनैतिक हस्तक्षेपों से परिचय कराती हुई इस निष्कर्ष पर पहुँचती है कि हमारे देश के नेता, योजनाकार, तकनीशियन, प्रदूषण निवारण और नियंत्रण अधिनियम, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, नमामि गंगे, वर्ल्ड वाटर फोरम, मेघा पाटकर, नदियों के अन्तर्जोड की टास्कफोर्स जो भी नदियों के लिए कार्य कर रहे हैं, उनका लाभ नदियों के हित में नहीं हो रहा है। पंकज चतुर्वेदी के आज तक की सारी पुस्तकों का शिल्प देखा जाये तो उनके केन्द्र में विश्लेषणात्मक खोज रही है। चाहे ‘क्या मुसलमान होते हैं?’, ‘दफन होते दरिया’, ‘जल माँगता जीवन’, ‘लोक आस्था और पर्यावरण’, आदि खोजकर शिल्पवृत्ति के कारण ही शिखर पर पहुँची हैं। लहरों में जहर की रचना से पहले भारत की प्रमुख नदियों के किनारे बसे चयनित गाँवों में जाकर वहाँ की प्राकृतिक क्षमता, पारम्परिक कृषि से आधुनिक कृषि की मानसिकता का अध्ययन लेखक ने किया। तभी अपने शिल्प में विज्ञान और साहित्य को मिलाकर लहरों में जहर की रचना की। मूलतः लहरों में जहर नदियों की मुक्ति की पुस्तक है, जो बेजोड़ है।

लहरों में ज़हर: पंकज चतुर्वेदी, पृष्ठ 94, मूल्य 10 रुपये, ISBN.978.93.90419.57.9ए प्रथम संस्करण-2020, प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, सी-46, सुदर्शनपुरा, इंडस्ट्रियल एरिया, एक्सटेंशन, नाला रोड़ 22 गोदाम, जयपुर-302006