लाइलाज कोरोना वायरस का आतंक / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 28 जनवरी 2020
चीन के 11 लाख आबादी वाले बुआन शहर में एक वायरस जन्मा, जिसकी लपेट में आए लोग इस लाइलाज बीमारी से त्रस्त हैं। चीन से आए सभी यात्रियों की गहन जांच हो रही है और उन्हें विशेष कक्ष में रखा गया है। यह ज्ञात हो चुका है कि यह रोग जानवरों से मनुष्य तक पहुंचा है। रोग ग्रस्त मवेशी का मांस खाने से यह वायरस हो सकता है, यह बात विश्वास से नहीं कही जा सकती। दुनियाभर में उस मांस को बनाने के लिए प्रयोग किए जा रहे हैं जिसका स्रोत मवेशी न हों। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की तरह आर्टिफिशियल मांस की खोज भी जारी है। टीबी, चिकनगुनिया इत्यादि वायरस का इलाज खोजा जा चुका है। कोरोना वायरस भी लंबे समय तक रहस्य बना नहीं रह पाएगा। बीमारियां फैल रही हैं और प्रयोगशाला में निरंतर प्रयास हो रहे हैं। मनुष्य कभी हार नहीं मानता।
यह इत्तेफाक है कि 24 जनवरी को ही टेलीविजन पर ‘डॉक्टर कोटनीस की अमर कहानी’ का प्रसारण हुआ। डॉक्टर कोटनीस स्वेच्छा से चीन गए थे। जापान ने चीन पर आक्रमण किया था। रहवासी बस्तियों पर भी जापान ने बमबारी की थी। शांताराम द्वारा बनाई गई इस फिल्म में नायक की भूमिका भी स्वयं शांताराम ने अभिनीत की थी। डॉक्टर कोटनीस को अपनी सहयोगी चीनी जूनियर डॉक्टर से प्रेम हो जाता है। उनका विवाह भी हो जाता है। युद्ध के समय एक वायरस फैल जाता है। डॉक्टर कोटनीस स्वयं को इंजेक्शन देकर देखते हैं कि मवेशी से मनुष्य तक रोग कैसे जाता है। इस प्रयोग से वे ऐसा वैक्सीन बनाने में सफल होते हैं, जिससे रोग का इलाज हो सके। इस जोखिमभरे प्रयोग से उनकी सेहत बिगड़ने लगती है। उनकी चीनी पत्नी उनकी सेवा करती है। अपनी मृत्यु को निकट जानकर डॉक्टर पत्नी को कहते हैं कि उसे भारत जाना चाहिए। वह उसे कहते हैं कि स्टेशन पर तांगा लेकर उसे अपने ससुराल का पता बताना है। उनकी इस कमेंट्री का दृश्यानुवाद दर्शक परदे पर देखता है। अंतिम दृश्य में दिखाया गया है कि बहू की आरती उतार रही है शहीद डॉक्टर की मां। यह सिनेमा प्रस्तुतीकरण के क्षेत्र में एक नया प्रयोग था। शांताराम ने विविध विषयों पर फिल्म बनाते हुए लंबी पारी खेली। उनके निधन के समय खाकसार ने लिखा था कि अगर हम फिल्म निर्माण को एक दिन मान लें तो कहना होगा कि शांताराम सूर्योदय के थोड़ी देर पश्चात आए और सूर्यास्त के थोड़ी देर पहले चले गए।
ज्ञातव्य है कि विगत सदी के चौथे दशक में ख्वाजा अहमद अब्बास ने अपने कॉलम में लिखा कि शांताराम की फिल्म में सेट पर बनाई गई दीवार हिलती है। शांताराम ने उन्हें स्टूडियो आमंत्रित किया और समझाया की ट्रॉली शॉट में इस तरह का प्रभाव उत्पन्न होता है। शांताराम ने ख्वाजा अहमद अब्बास से कहा कि उन्हें स्टूडियो में फिल्म बनाने की प्रक्रिया देखनी चाहिए। तब उनकी समीक्षा अधिक प्रभावोत्पादक विश्वसनीय बन सकती है। दरअसल फिल्म समीक्षा लिखने का दावा करने वाले अधिकांश पत्रकार इस विधा से अपरिचित रहे हैं। मोहम्मद खालिद जैसे फिल्म समीक्षक ने कुछ फिल्में बनाईं जिनसे उनका अनाड़ीपन ही जाहिर हुआ।
बहरहाल शांताराम और ख्वाजा अहमद अब्बास की भेंट होती रही और अब्बास साहब ने ‘डॉक्टर कोटनीस की अमर कहानी’ की पटकथा लिखी। शांताराम को पटकथा पसंद आई और फिल्म 1946 में प्रदर्शित हुई। विगत सदी के चौथे दशक के अंत में ‘धोबी डॉक्टर’ नामक फिल्म में प्रस्तुत किया गया कि अस्पताल की चादरें, तौलिया इत्यादि धोने के लिए एक धोबी अस्पताल आता था। एक दिन उसने टेबल पर रखा स्टेथोस्कोप पहन लिया और एक रोगी ने उसे अपने लक्षण बताए और दवा भी लिख दी।
पश्चिम के देशों में अस्पताल की पृष्ठभूमि पर साहित्य व सिनेमा रचा गया है। हमारे यहां भी कुछ फिल्में बनी हैं। ‘दिल एक मंदिर’ नामक फिल्म में डॉक्टर की भूमिका राजेंद्र कुमार ने और कैंसर रोगी की भूमिका राजकुमार ने अभिनीत की थी। खाकसार की लिखी ‘शायद’ यूथेनेशिया विषय पर बनी पहली फिल्म थी, परंतु सेंसर बोर्ड ने इसका क्लाइमेक्स बदलने के लिए बाध्य किया था। ‘कोमा’ नामक उपन्यास से प्रेरित फिल्म बनी है। ‘आईलेश इन गाजा’ नामक उपन्यास में प्रस्तुत किया गया कि समय रहते जख्मी आंख को नहीं निकालने के कारण दूसरी स्वस्थ आंख काम करना बंद कर देती है। इसे सिम्पैथेटिक ऑप्थाल्मिया कहते हैं।
खाकसार की ‘पाखी’ में प्रकाशित कथा ‘मत रहना अंखियों के सहारे’ में आंख की ‘स्टारबक’ नामक लाइलाज रोग का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया गया है। यह इत्तेफाक की बात है कि एक अरबपति ने दुनियाभर के तानाशाह प्रवृत्ति के हुक्मरानों के खिलाफ एक मुहिम प्रारंभ की है। इसका प्रारंभ चीन से किया जा रहा है। पड़ोसी देश तक मुहिम आ सकती है। तानाशाह प्रवृत्ति भी वायरस ही होती है।