लाई हयात आए कज़ा ले चली चले / वेदप्रकाश सिंह

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आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र के उस्ताद शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ (1790-1854) की एक ग़ज़ल है- लाई हयात आए कज़ा ले चली चले

अपनी ख़ुशी न आए न अपनी ख़ुशी चले

यह ग़ज़ल लक्ष्मीधर मालवीय जी (1934-2019) को बहुत पसंद थी। इस ग़ज़ल के पहले शेर की पहली पंक्ति इतनी पसंद थी कि उन्होंने इस पंक्ति (लाई हयात आए कज़ा ले चली चले) को आधा-आधा बाँटकर अपनी दो किताबों का शीर्षक बनाया। संभवतः दोनों किताबें मालवीय जी की ज़िन्दगी के बड़े हिस्से को सामने लाती हैं। मैंने अभी तक पहली किताब ‘लाई हयात आए’ ही पढ़ी है दूसरी किताब ‘कज़ा ले चली चले’ अभी प्रकाशनाधीन है।

दिल्ली में रहते हुए ‘जनसत्ता’ में छपने वाले ‘शब्दों के रास’ कॉलम के जरिये लक्ष्मीधर मालवीय जी से मेरा पहला परिचय हुआ। लेकिन वे तब तक मेरे लिए ओम थानवी जी के संपादन में ‘जनसत्ता’ में छपने वाले हिंदी के अनेक गंभीर लेखकों में से एक थे। इससे अधिक मैं उनके बारे में कुछ नहीं जानता था। ‘जनसत्ता’ में मैं उनको पढ़ता था। कुछ समझ आता था और बहुत कुछ नहीं भी आता था। दिल्ली विश्वविद्यालय में ‘देव ग्रंथावली’ भी देखी थी। उनके जीवन और रचनाओं से थोड़ा अधिक परिचय सन् 2017 में जापान आने के बाद ही हुआ।

ओसाका विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाने लगने के कुछ दिन बाद ही मुझे पता चला कि यहाँ लक्ष्मीधर मालवीय जी भी पढ़ाते थे। वे ओनोहारा में इसी घर में कुछ समय रहे भी, संयोग से जहाँ अब मैं रह रहा हूँ। ओसाका विश्वविद्यालय के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रोफेसर अकीरा ताकाहाशी जी उनके विद्यार्थी और सह-अध्यापक रहे हैं। मालवीय जी से जुड़ी कुछेक दिलचस्प बातें उन्होंने भी बताई हैं। ताकाहाशी जी ने बताया कि मालवीय जी बहुत सख्त अध्यापक थे। उनकी सख्तमिजाजी का एक मज़ेदार किस्सा यूँ है। एक बार एक विद्यार्थी मालवीय जी के पास आया। विद्यार्थी पढ़ने में कमजोर था। उसे परीक्षा में कम अंक मिले थे। मालवीय जी अपने कमरे में बैठे कुछ पढ़ रहे थे। उनका कमरा शायद छठी मंजिल पर था। विद्यार्थी कमरे में आया। और बोला कि आपने मुझे फेल कर दिया है। आप मुझे पास कर दीजिए नहीं तो मैं आपके कमरे की खिड़की से नीचे कूदकर आत्महत्या कर लूँगा। मालवीय जी ने ध्यान से उस जापानी विद्यार्थी की बात सुनी। आराम से अपनी कुर्सी से उठे। खिड़की खोलकर कहा- कूद जाओ।

27 नवम्बर 1934 को इलाहाबाद में जन्मे मालवीय जी का बचपन बनारस में बीता। वहीँ उनके दादा महामना मदनमोहन मालवीय जी (1861-1946) रहते थे। मदनमोहन मालवीय जी ने 1916 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। मदनमोहन मालवीय भारतीय स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षाविद, पत्रकार और प्रसिद्ध वकील थे। मालवीय जी का परिवार पंजाब से मध्य देश के मालवा क्षेत्र में बसा और फिर वहाँ से सन् 1449 के लगभग इलाहाबाद आकर बसने के कारण ‘मालवीय’ नाम के पुकारा जाने लगा। पंडित मदनमोहन मालवीय जी के दादा श्री प्रेमधर चतुर्वेदी जी कथावाचक थे। यही उनका पारिवारिक जीविकोपार्जन का साधन था। श्री प्रेमधर चतुर्वेदी जी के पुत्र श्री ब्रजनाथ चतुर्वेदी जी भी कथावाचक थे। कथावाचन से ही परिवार का पालन-पोषण होता था। मदनमोहन मालवीय जी को भी उनके परिजन इसी काम में प्रवीण करना चाहते थे। लेकिन वे संस्कृत और अंग्रेजी की शिक्षा के साथ वकालत की शिक्षा हासिल कर पहले अंग्रेजी के शिक्षक बने बाद में उन्होंने वकालत भी की। मदनमोहन मालवीय जी कांग्रेस के चार बार अध्यक्ष बने। उन्होंने चौरा-चौरी आन्दोलन में अभियुक्त बनाए आन्दोलन कर्मियों की ओर से केस लड़ा और जीता था। माना जाता है ‘सत्यमेव जयते’ का कथन उन्होंने ही प्रचलित करवाया था।

मदनमोहन मालवीय जी के चार बेटे और तीन बेटियाँ थीं। उनके बेटे मुकुंद मालवीय ने बम्बई में व्यापार कार्य किया। वे अधिक शिक्षा न ले सके। बीए में अनुत्तीर्ण रहे। उन्होंने अपने बेटे लक्ष्मीधर मालवीय जी के नौकरी करने के निर्णय को भी पसंद न किया। लक्ष्मीधर मालवीय जी ने अपने पिता से अपने सम्बन्धों के बारे में कुछेक बातें सूत्र रूप में भी लिखी हैं। उन्होंने नवम्बर 1962 में शिमला में आत्महत्या की थी। मालवीय जी की बेटी मधु जी ने इस बात से इनकार किया है। इसे वे दुर्घटना बताती हैं। इस समय मालवीय जी जयपुर में अध्यापन कार्य कर रहे थे।

मालवीय जी का बचपन बनारस और इलाहबाद में बीता। वे जब 12 साल के थे तब उनके दादा महामना मदनमोहन मालवीय जी का देहांत हो गया। उस समय तक वे बनारस में ही रह संस्कृत पाठशाला में अध्ययन करते थे। जब मालवीय जी दस वर्ष के थे तब उनके पिता ने उन्हें हिन्दू विश्वविद्यालय की संस्कृत शास्त्री की कक्षा में बैठाया था। उसके बाद वे अपनी माता जी के साथ अपने मामा ब्रजमोहन व्यास जी के पास इलाहाबाद चले गए। इलाहाबाद में ही मालवीय जी का पैतृक निवास भी था, जिसमें उस समय कोई किरायेदार जबरन मौजूद था। इलाहाबाद के ही सी ए वी इंटर कॉलेज से आगे की पढ़ाई की। उसके बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी ए और एम ए के बाद ‘महाकवि देव के लक्षण ग्रंथ’ पर माताप्रसाद गुप्त जी के निर्देशन में डी. फिल. की उपाधि प्राप्त की।

इसी बीच इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक साथ अवैतनिक अस्थाई अध्यापक के रूप में अध्यापन कार्य भी किया। उस समय विभागाध्यक्ष डॉ रामकुमार वर्मा जी थे। उनके न चाहने के कारण मालवीय जी की वहाँ नियुक्ति नहीं हुई। 18 जुलाई 1961 को वे हमेशा के लिए इलाहाबाद को छोड़ जयपुर नौकरी करने के लिए निकले। जयपुर में मालवीय जी लगभग साढ़े पाँच साल रहे। 24 अप्रैल 1966 को जयपुर और अपनी माताजी, पत्नी इंदु जी, दो बेटियों गौरी जी, मधु जी और समस्त परिवार, मित्रों को भारत में छोड़ वे जापान के ओसाका शहर आ गए। तीन साल के बाद 1969 में तोक्यो नौकरी करने के लिए गए। लेकिन स्थाई आय और नौकरी के अभाव में जीवन घोर अनिश्चितता और गरीबी से ग्रस्त रहा। फिर भी इन अनिश्चित और बेहद थकाऊ दिनों को मालवीय जी ने अपने जीवन के स्वर्णिम दिन कहा है। इन्हीं दिनों तोक्यो में उनकी भेंट अकिको जी से हुई। 19 जून 1971 को तोक्यो में शादी की। वहाँ से 1973 में एक साल के बेटे अमित को लेकर वापस ओसाका लौटे। और फिर 1990 तक ओसाका विश्वविद्यालय में अध्यापन करते रहे। सेवानिवृत्ति के बाद क्योतो में घर लेकर पत्नी और दो बच्चों के साथ रहने लगे। क्योतो के एक विश्वविद्यालय में सांस्कृतिक अध्ययन विषय पर सात साल तक पढ़ाते रहे।

1934 में इलाहाबाद में जन्मे मालवीय जी की मृत्यु 10 मई 2019 को क्योतो में उनके घर पर हुई। आज उनकी पहली बरसी है। वे 1966 ई. से लेकर जीवन के अंतिम दिन तक जापान में रहे। उन्होंने लगभग 53 साल यहाँ बिताए। जब वे राजस्थान से अपनी नौकरी छोड़ जापान के शहर ओसाका आए तब उनकी उम्र 32 साल की थी। ओसाका विश्वविद्यालय में श्री जगत दवे जी के अचानक वापस लौट जाने के बाद भारतीय अध्यापक का पद एक साल खाली रहा। उनके बाद डॉ लक्ष्मीधर मालवीय जी ओसाका विश्वविद्यालय आए। तब इसका नाम ओसाका गाईकोकुगो दाईगाकु था। इसके अलावा उन्होंने कुछ समय तोक्यो में भी अध्यापन कार्य किया। ओसाका विश्वविद्यालय में करीब 25 साल हिंदी पढ़ाने के बाद उन्होंने सेवानिवृत्ति के बाद सात साल तक क्योतो में तुलनात्मक संस्कृति के बारे में भी अध्यापन कार्य किया। मालवीय जी ने कुछ समय तोक्यो में भी रहकर काम किया।

वे अपनी मातृभाषा अवधी के अलावा हिंदी, ब्रज, संस्कृत, उर्दू, फारसी, अंग्रेजी, स्पेनिश, जापानी आदि भाषाएँ गहराई से जानते थे। वे रीतिकाल के मर्मज्ञ विद्वान और धीर शोधकर्ता थे। उन्होंने देव के साथ-साथ बिहारी, श्रीपति मिश्र और सुवंश कृत उमराउकोश आदि रचनाओं का प्रामाणिक संपादन किया। उन्होंने चार उपन्यास भी लिखे- किसी और सुबह, रेतघड़ी, दायरा और यह चेहरा क्या तुम्हारा है। उनके चार कहानी संग्रह भी हैं- हिमउजास, शुभेच्छु, फंगस, और मक्रचाँदनी।

इनके अलावा दो आत्मकथ्य-संस्मरणों की किताबें भी हैं- ‘लाई हयात लाए’, स्फटिक (दो खण्डों में)। भाषा और अन्य विषयों पर ‘शब्दों का रास’। ‘कज़ा ले चली चले’ किताब उनकी इच्छा के अनुसार मरणोपरांत प्रकाशित होनी है। वे सिर्फ हिंदी के अध्यापक और लेखक ही नहीं थे। वे कुशल चित्रकार और बेजोड़ फोटोग्राफर भी थे। सन् 1984 में दिल्ली में उनके छायांकनों की एकल प्रदर्शनी दिल्ली में हुई।

वे जीवन को भरपूर जीने वाले औघड़ व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति थे। एक लेख में भारत में उनकी बेटी मधु जी ने लिखा कि उन्होंने 55 साल की उम्र में आठ सौ सीसी की बड़ी मोटरसाईकिल खरीदी उसका लाइसेंस लिया। और अपना यह शौक पूरा किया। वे घुम्मकड़ भी बहुत थे। उन्होंने लगभग पूरा लैटिन अमरीका घूम रखा था। इसके लिए उन्होंने स्पेनिश भी सीखी और इस भूगोल से जुड़ा एक उपन्यास भी लिखा- ‘और किसी सुबह’ (लेखक के परिचय में किताब का नाम हर जगह ‘किसी और सुबह’ लिखा है और किताब पर शीर्षक है ‘और किसी सुबह’)।

जापान आने के बाद मैं अक्सर ही साथी शिक्षकों से मालवीय जी के बारे में कुछ न कुछ सुनता ही रहा हूँ। उनसे मिलने का मेरा बहुत मन था। कई बार मेल द्वारा उनसे बात भी हुई। फोन पर भी एकाध बार संवाद हुआ। वे जापान की धर्मनगरी माने जाने वाले राज्य क्योतो के कामेओका शहर के एक गाँव में रहते थे। मेरे द्वारा मिलने आने के लिए कहने पर हमेशा कहते- “इतनी दूर कैसे आओगे? रहने दो।” मैं जापान में इतना नया और साथ में यात्राभीरू था और अब भी हूँ कि उनकी बातें मानता रहा।

जापान में एक साल बीत जाने के बाद उनकी बेटी तारा जी से एक संस्थान में मुलाकात हो गई। उनसे मालवीय जी की मेल आईडी लेकर उनको मेल किया। अगले ही दिन 15 अप्रैल, 2018 को उनका पहला मेल आया।

“प्रियवर, मुझ बनवासी को आपने याद किया, आभारी हूं। इटावा वाले देव कवि का काव्यकोश संपादित करने में पिछले कई दशकों से लगा हुआ हूं। २ लाख १६ हज़ार शब्द हैं। कितना अधूरा छोड़ जाता हूँ, देखना है। पुराने काव्य में आपकी रुचि अगर हो तो लाभान्वित होना चाहूँगा।

इस काम के पीछे कहीं आता-जाता नहीं। आयु के चरण ही आगे बढ़ते जाते हैं।

श्रीमतीजी से मेरा सादर अभिवादन कहना न भूलेँ।

लक्ष्मीधर मालवीय”

ब्रजभाषा और कोशविज्ञान में मेरी शून्य गति होने की मैंने बात कही। अपनी अल्पज्ञता के बावजूद मालवीय जी से मिलने की अपनी इच्छा मैं उनसे बार-बार दुहराता रहा। मैंने कोश के काम को देखने और उनके कुछ काम आने की इच्छा व्यक्त की तो उन्होंने देवकाव्य कोश के कुछ पन्ने भेजे। 15 अप्रैल 2018 को ही उन्होंने दूसरा संक्षिप्त मेल भेजा।

“बंधुवर,

तत्काल आपके सिर पर हाथ रख रहा हूँ, भस्मासुर का। साथ में कोश के चंद पन्ने नमूने के। देखें। आशा है मनोरंजन होगा।

मा०”

आशीर्वाद के हाथ को भी भस्मासुर का हाथ कहना, उनका अपना तरीका था। वे मानते थे कि हितैषी व्यक्ति जरूरी नहीं कि मनोहारी बातें बोले। वे ‘हितम् मनोहारि च दुर्लभं वच:’ की सूक्ति मानने वाले व्यक्ति भी थे। भारवि के किरातार्जुनीय की यह चर्चित सूक्ति उन्होंने एक मेल में भी मुझे भेजी थी।

अगले महीने यानी मई 2018 में मैंने मालवीय जी से ओसाका विश्वविद्यालय में हिंदी-शिक्षकों के इतिहास के बारे में पूछा तो उन्होंने यह मेल किया। 84 साल की उम्र में वे मेरी यह इच्छा पूरी कर भी कैसे सकते थे! 12 मई 2018 को उन्होंने मेल किया-

“प्रिय बंधु,

रक्तचाप के मारे तेज़ चक्कर, घर के भीतर ही चलना कठिन है।

जिद निभाने के लिए सुबह कुर्सी पर, कोश का एक ही शब्द आगे बढ़ाने में ही सारी शक्ति क्षीण हो जाती है। क्षम्य हूँ।

लक्ष्मीधर मालवीय”

इस मेल के बाद मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ। लगभग पाँच महीने बाद मालवीय जी का अगला मेल आया। 6 अक्टूबर 2018 को उन्होंने मुझसे तोक्यो में भारतीय दूतावास के विवेकानंद सांस्कृतिक केंद्र के निदेशक डॉ. सिद्धार्थ सिंह जी का जिक्र किया। वे मालवीय जी से मिलकर उनका साक्षात्कार करना चाहते थे। वे (डॉ. सिद्धार्थ सिंह जी) मुझे भी इस साक्षात्कार में शामिल करना चाहते थे। वह साक्षात्कार भी न हो सका। इसी मेल में उन्होंने डॉ. सिद्धार्थ सिंह जी का मेल आईडी पूछा। साक्षात्कार के लिए कोई सुगम तरीका वे आगे बताते लेकिन उसका समय नहीं आ पाया। 6 अक्टूबर 2018 को उन्होंने लिखा था-

“प्रियवर

आशा है, सपरिवार सानंद हैं।

“कल तोक्यो से विवेकानंद केंद्र के प्रधान का फोन आया था। उन्हें मैंने अपना ईमेल का पता दिया, उसमें मुझसे कहीं चूक तो नहीं हो गई। कृपया उनका पता मुझे दे दें। वह आपको माध्यम बनाकर मेरा इंटरव्यू जैसा कुछ करना चाहते हैं। इससे सुगमतर मार्ग है, बाद में सुझाऊँगा।

लक्ष्मीधर मालवीय”

आगे तीन दिन बाद 9 अक्टूबर 2018 फिर एक मेल आया। मैंने मालवीय जी से उनके बचपन से लेकर अब तक के जीवन के बारे जानने की जिज्ञासा व्यक्त की थी। उनका मेल आया। साथ में एक लेख बनारस में अपने बचपन के बारे में भेजा। 9 अक्टूबर 2018 को उन्होंने लिखा-

“बनारस और मेरे बाल्यकाल में आपको जिज्ञासा थी। सो यह लेख। हितम मनोहारि च दुर्लभं वच:” लेख का शीर्षक था – शव का काशी। जीवन की सीख देते हुए किरातार्जुनीय में लिखा भारवि का यह श्लोक भी लिखा। शव का काशी लेख जितना मालवीय जी के बनारस के जीवन पर उससे अधिक बनारस की उस सांस्कृतिक विपन्नता के बारे में भी है जो अपने इतिहास को संजोकर रखने में महान असमर्थ है। इस लेख पर कुछ विस्तार से आगे बात की जाएगी।

इस मेल के बाद वर्ष 2019 के नववर्ष की शुभकामनाओं के साथ मैंने मालवीय जी को मेल किया। उसी दिन उनका मेल आया। मुझे उनके इसी मेल का इतने दिनों से इंतजार था। जापान में आप बिना किसी की इच्छा से नहीं मिल सकते हैं। इसलिए मुझे मालवीय जी से मिलने के लिए उनकी इजाज़त का इंतजार था। इस लेख में उन्होंने शीत ऋतु बीत जाने पर मिलने आने की बात कही।

जापान में सर्दियाँ काफी लम्बी होती हैं। अक्टूबर से शुरू होकर लगभग मई महीने तक सर्दियाँ रहती हैं। मई या जून से ही गर्मी शुरू होती है। समुद्र में या ठण्डे पानी से नहाने लायक गर्मी तो अगस्त में आ पाती है। खैर मुझे उनके अगले मेल और शीत बीत जाने का इंतजार था। उनका यह मेल 2 जनवरी 2019 को आया था। पहले उसे पढ़ लेते हैं- “शीत का मौसम बीते तो अवश्य पधारें। अभी कल तारा से आपकी चर्चा कर रहा था।”

तारा मालवीय जी की तीसरी और सबसे छोटी बेटी हैं। उनकी दो बेटियाँ भारत में हैं। जापानी पत्नी अकिको जी से उन्हें एक बेटा और एक बेटी हैं। उनकी बेटी तारा जी ओसाका विश्वविद्यालय में ही हिंदी पढ़ती थीं। और ओनोहारा में मेरे घर के पास एक संस्थान में नौकरी करती हैं। जहाँ मैं और मेरी पत्नी रूपा जी जापानी सीखने कभी-कभार चले जाते हैं। वहीँ तारा जी से परिचय हुआ और मित्रता हुई। वे अपने पिता जी का हाल-समाचार अक्सर देती रहती थीं। सर्दियाँ ख़त्म होने का इंतजार बहुत लम्बा हो गया। बीते साल 2019 की जापान की सर्दियाँ ज्यादा ही लम्बी हो गईं। और अचानक भारत से डॉ. रामप्रकाश द्विवेदी जी द्वारा यह दुखद खबर मिली कि मालवीय जी नहीं रहे। (डॉ. रामप्रकाश द्विवेदी जी दिल्ली विश्वविद्यालय के डॉ. भीमराव अम्बेडकर महाविद्यालय में हिंदी के अध्यापक हैं।) मालवीय जी से अब कभी मिलना नहीं हो सकेगा!

मालवीय जी की बेटी तारा जी से परिचय हुआ तो साल 2018 में मेरे यहाँ आईं। यह पहले उनका ही घर था। आईं तो पिता मालवीय जी की अनेक बातें कीं। एक विडियो दिखाया। उसमें अपने घर के पास मालवीय जी टहल रहे हैं। काफी कमजोर और बूढ़े लग रहे हैं। जापान में अस्सी-पिचासी साल में भी कोई बूढ़ा और कमजोर नहीं लगता है। जापान में अधिकतर लोग उम्रखोर होते हैं अपनी उम्र से काफी कम का लगना जापानी लोगों और यहाँ रहने वालों की खास विशेषता है। इसलिए मालवीय जी कुछ ज्यादा ही कमजोर लगे।

वे कमजोर भले दिखने लगे हों लेकिन वे अशक्त नहीं थे। अंतिम दिनों में भी अपने लिए भारतीय खाना खुद पकाते थे। पत्नी का बनाया खाना तो खाते ही होंगे लेकिन उनकी बेटी ने बताया कि वे रोटी और भारतीय खाना अब खुद बनाते हैं। कितनी भी ठंड या गर्मी हो सुबह सात बजे अपने कम्प्यूटर के सामने बैठ काम करना शुरू कर देते थे। वे स्वभाव के बहुत जिद्दी थे। यह बात उनकी बेटी तारा जी अक्सर ही कहती हैं।

जापान के निचाट अकेलेपन को उन्होंने अपनी जीवनशैली और निरंतर पढ़ने की वृत्ति से ही परे रखा होगा। यहाँ अधिकतर वृद्ध अकेले रहते और अकेले ही मरते हैं। जिसे जापानी में ‘कोदोकुशी’ कहते हैं। इस विषय पर एकबार मालवीय जी का एक छोटी सी टिप्पणी पढ़ने को मिली थी। मृत्यु के क्षणों में भी कोई आसपास न हो ऐसी लाचारी अनेक जापानी वृद्ध-वृद्धाएँ भोग रहे हैं। लेख इसी लाचारी पर था। साथ ही कोई पड़ोसी किसी को न बुलाता है न आता है। पचीसों साल एक ही दीवार की दूरी भी यहाँ लोग बनाए रखते हैं। इसे निजता की सबसे ऊँची अवस्था भी कह सकते हैं। लेकिन यह निजता अनेक बार किसी शाप की तरह भी लगने लगती है। उनकी यह टिप्पणी अंग्रेजी में डान (Dawn) समाचारपत्र में छपी एक खबर में टिप्पणी रूप में 10 अप्रैल 2015 को छपी थी।

मालवीय जी अभी पचासी साल के थे। लेकिन वे अपने चचेरे भाई और अन्य परिजनों से यही कहते कि नब्बे साल तो जिऊंगा ही। यह उनकी जिजीविषा ही थी, जो वे ऐसा कहते थे।

मालवीय जी ने अपनी जिन्दगी अपनी शर्तों और तरीकों से जी। अज्ञेय जी के शब्दों में कहें तो - "मैं मरूँगा सुखी/ मैंने जीवन की धज्जियाँ उड़ाई हैं"। उसे बेझिझक लिखा।