लाक्षागृह (कहानी) / अलका सैनी
दुष्यंत के पिताजी ने जैसे ही काल बेल बजाई तो सामने सरला खड़ी थी। सरला से दुष्यंत के पिताजी का खून का कोई रिश्ता नहीं था, मगर एक ही जाति और गोत्र के थे, इसलिए वे परस्पर एक दूसरे को भाई-बहिन ही मानते थे। हास्टल में सारा सामान रखकर दुष्यंत अपने पिताजी के साथ रिक्शा में बैठकर चिठ्ठी वाले पते पर पहुँच गया। सरला के परिवार को यहाँ पर आए चार साल हो गए थे। एक क्षण को तो सरला चुपचाप खड़ी देखती रही फिर गौर से देखने पर पहचानते हुए इतनी खुश हुई कि दुष्यंत के पिताजी जी के गले लग गई। वे पिताजी को अपने सगे भाई की तरह मानती थी। दोनों की आँखों में ख़ुशी के आंसू छलकने लगे। दुष्यंत भी सरला को अपनी सगी बुआ की तरह ही मानता था। कुशल क्षेम पूछने के बाद सरला कहने लगी, “भाई साहब, इतने बरसों के बाद आज इस तरफ का रुख कैसे कर लिया? “
दुष्यंत के पिता जी कहने लगे, ”दुष्यंत का एडमीशन यहाँ के डी.ए.वी. कालेज में हो गया है, इसलिए इसे छोड़ने आया था। हास्टल में सामान रखकर बस सीधे यहीं आ रहे हैं। इतने बड़े शहर में इसे भेजने पर तुम्हारी भाभी का तो रो-रोकर बुरा हाल था। उसने ही तुम्हारा पता ढूँढ कर दिया।"
"अरे भाई साहब, आप दुष्यंत की बिल्कुल चिंता ना करे। मेरा क्या ये कुछ नहीं लगता। इसे अपनी गोद में खिलाया है मैंने। हास्टल में क्यों? ये यहाँ हमारे पास ही रहेगा“
"नहीं, नहीं, कालेज के अन्दर ही हास्टल है इसलिए इसे पढाई में कोई दिक्कत नहीं आएगी। बाकी जब इसका मन हुआ करेगा तो ये आ जाया करेगा आप लोगों के पास। पहले पहल जब तुम्हारी चिठ्ठी आया करती थी तो कई बार मन हुआ करता था तुम लोगों से मिलने का मगर ऐसा कोई मौक़ा ही नहीं मिला, अब जब दुष्यंत खुद यहाँ पढ़ने आ गया है, तो...“
जैसे ही सरला की चिठ्ठी मिली थी तो सबके मुरझाए चेहरे खिल उठे थे। जबसे दुष्यंत का एडमीशन चंडीगढ़ के सबसे बड़े कालेज में हुआ था तबसे सबके दिलों में अजीब-सी घबराहट हो रही थी। उसकी माँ तो बार-बार यही कह रही थी, “कैसे रहेगा मेरा बेटा इतने बड़े शहर में, जहाँ ना कोई जान है ना कोई पहचान है "
दुष्यंत के पिताजी माँ को हौंसला देते हुए बोले, “अरे! उसने अकेले शहर में थोड़ा रहना है हास्टल में रहेगा, जहाँ इतने बच्चे और भी तो होंगे, पता नहीं कितनी दूर-दूर से बच्चे आते है उस कालेज में पढ़ने के लिए। हम तो बहुत भाग्यवान हैं जो हमारा लाडला वहाँ पढ़कर खानदान का नाम रोशन करेगा, लोग तो तरसते हैं वहाँ पढ़ने के लिए “
सब अपनी-अपनी बातें कर रहे थे परन्तु किसी को ये ध्यान ही नहीं था कि दुष्यंत के मन पर क्या बीत रही है। उसके मन में भी तरह-तरह के विचारों की उथल पुथल चली हुई थी। वह इतने बरसों में कभी भी तो अपनी माँ के बगैर रहा नहीं था। रात के समय तो अब भी उसे अकेले सोने में डर लगता था और माँ की मौजूदगी उसे बहुत तसल्ली देती थी। पर उसे ना चाह कर भी पढ़ाई के वास्ते जाना तो पड़ना ही था।
तभी दुष्यंत के बड़े भैया को याद आया कि उनके पुराने पड़ोसी भी तो आजकल चंडीगढ़ में ही तो रह रहे थे। फिर माँ को याद आया कि शुरू-शुरू में उनकी चिठ्ठी कई बार आती थी। फिर काफी देर ढूँढने के बाद माँ को उनकी चिठ्ठी मिल गई।
दुष्यंत की माँ वह चिठ्ठी उसके पिताजी को दिखाते हुए कहने लगी, “सरला दीदी के परिवार को कितने साल हो गए यहाँ से गए हुए अब तो उनकी कोई चिठ्ठी भी नई आई काफी समय से। पता नहीं वे लोग पहचानेंगे भी या नहीं ! “
सरला के दो बेटे थे। वे लोग जब दुष्यंत के पड़ोस में रहते थे तब दोनों परिवारों का एक जगह उठना बैठना था। फिर जब उनके बड़े बेटे मुकेश की नौकरी चंडीगढ़ के एक बैंक में लग गई तो वे लोग वहाँ से चले गए थे। शुरू-शुरू में बातचीत होती रही फिर दूर होने के कारण मेल-जोल कम होता गया।उसके पिताजी ने उसकी माँ को वह चिट्ठियाँ संभाल कर रखने की हिदायत दी जिनके मिलने पर सबके चेहरे ख़ास करके दुष्यंत का मुरझाया चेहरा खिल उठा था।
फिर वह दिन भी आ गया जब दुष्यंत अपने पिताजी के साथ बस में बैठकर अपने सारे सामान के साथ चंडीगढ़ की तरफ रवाना हो गया। उसकी माँ का तो रो-रोकर बुरा हाल था। पहली बार जो अपने जिगर के टुकड़े को अपने से अलग कर रही थी। यही सारी बातें सोचते-सोचते पिताजी किसी दूसरी दुनिया में खो गए थे। अचानक सरला ने उनका ध्यान भंग किया।
सरला ने अपनी बहू को चाय नाश्ते के लिए आवाज लगाई। सामने उनके बड़े बेटे मुकेश की पत्नी खड़ी थी। मुकेश और दुष्यंत हम उम्र ही थे। इस तरह उसका परिचय शिवानी भाभी से हुआ। बस तबसे जब भी कोई दिन त्यौहार होता तो सरला शिवानी भाभी से फोन करवा कर उसे बुलवा लेती। शिवानी भाभी भी स्वभाव की बहुत ही नेक दिल औरत थी। वह दुष्यंत को सगे देवर से भी जयादा स्नेह करती थी। इस तरह एक अजनबी शहर में दुष्यंत को अपनों का एक आशियाना मिल गया था। जब भी किसी मुश्किल में होता तो वह शिवानी भाभी से सलाह मशवरा करता। एक बार जब दुष्यंत बहुत बीमार हो गया और अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा तो शिवानी भाभी ने उसकी खूब सेवा की थी। इस तरह दुष्यंत उस परिवार का हमेशा के लिए कर्जदार हो गया था। उनके अपनेपन में उसकी पढाई के पाँच वर्ष कैसे बीत गए उसे पता ही नहीं चला।
कालेज पूरा होते ही दुष्यंत के अच्छे अंकों के कारण लन्दन की एक कंपनी में उसे नौकरी मिल गई। पर वहाँ जाकर भी वह उस परिवार के स्नेह को भुला नहीं पाया। और वह कभी फोन से, तो कभी पत्र द्वारा उनसे संपर्क में रहता। जवाब में शिवानी भाभी भी चिठ्ठी जरुर लिखती। जब दुष्यंत को लन्दन गए दो वर्ष बीत गए तो सरला बुआ को उसकी शादी की चिंता होने लगी। उन्होंने शिवानी भाभी से चिठ्ठी लिखकर दुष्यंत की जन्मपत्री मंगवाने को कहा।
कुछ समय बाद दुष्यंत के लिए श्वेता का रिश्ता आ गया, उसके चाचा जी उसी कालेज के वाइस प्रिंसिपल थे। दुष्यंत खुद को बहुत खुश किस्मत समझने लगा।इतने बड़े घर की और पढी-लिखी लड़की पाकर वह बहुत खुश था।वह कभी पत्र द्वारा तो कभी लम्बी-लम्बी कविताएँ लिखकर श्वेता से अपने प्रेम का इजहार करता और अपने आने वाली जिन्दगी के रंगीन सपनें बुनता। श्वेता भी दुष्यंत जैसे होनहार और सीधे-सादे लड़के को पाकर बहुत खुश थी।
आखिर दोनों विवाह बंधन में बंध गए। श्वेता बड़े शहर में पली बड़ी थी इसलिए उसे दुष्यंत के घर का माहौल और पहनावा कतई पसन्द नहीं आया। पर वह ये जानती थी कि कुछ दिनों बाद ही तो उन्हें लन्दन चले जाना है। विवाह से पहले ही उसके लन्दन जाने का सारा बंदोबस्त दुष्यंत ने कर लिया था क्योंकि इतनी दूर से बार-बार आना-जाना कहाँ संभव था।
मगर जैसे ही हवाई जहाज ने जमीन पर लैंड किया वैसे ही दुष्यंत के मन ने अतीत की यादों से वर्तमान के धरातल पर लैंड किया।
जब से श्वेता से उसकी शादी हुई थी दुष्यंत तीन वर्षों में अपने घर इंडिया एक बार भी नहीं आ पाया था। इस बार दीवाली पर उसका मन था कि वह इत्मीनान से अपने माता-पिता और भाई-बहन के पास रहे। उसका मन था कि इस बार सब साथ में मिल कर दीवाली मनाए।वह चाहता था कि श्वेता भी उसके घर के संस्कारों को समझे और अपनाए तांकि भावी पीढी में भी उसके खानदान के संस्कार आ सके।
दीवाली से एक दिन पहले वह चड़ीगढ़ जाकर अपने जानने वाले सब दोस्तों और रिश्तेदारों को मिलना चाहता था। श्वेता का मायका भी तो चंडीगढ़ में ही था। उसका मन था कि श्वेता भी सबको मिले। वह सरला के परिवार के सब लोगों के लिए तोहफे खरीद कर साथ लाया था। इतने बरसों में वह एक पल को भी तो सबकी आत्मीयता को भुला नहीं पाया था।
दुष्यंत ने काल बेल बजाई तो सामने शिवानी भाभी खड़ी थी। शिवानी भाभी ने कई बार पत्र लिखकर दुष्यंत को श्वेता को मिलने की इच्छा जाहिर की थी। जब दुष्यंत ने श्वेता को वहाँ जाने के लिए कहा था तो श्वेता कहने लगी, “तुम अकेले ही चले जाओ ना। मै कुछ दिन अपने माता-पिता के पास भी रह लूँ। मेरी उनसे थोड़ा कोई जान पहचान है। “
जब दुष्यंत ने काफी जिद की तब जाकर वह वहाँ जाने के लिए मानी। वहाँ जाकर शिवानी भाभी और सरला बुआ का दुष्यंत के प्रति प्यार दिखाना उसे कतई पसन्द नहीं आया। जब शिवानी भाभी श्वेता को उपहार देने लगी तो श्वेता ने इनकार कर दिया। एक बार तो श्वेता के ऐसे रवैये से दुष्यंत को बहुत बुरा लगा पर उसने बात को संभालते हुए श्वेता की तरफ से स्वयं हामी भर कर उनका दिया तोहफा अपने पास रख लिया।
वापिस आते समय श्वेता से रहा नहीं गया और दुष्यंत को कहने लगी, “देवर-भाभी का कुछ ज्यादा ही प्यार दिखाई दे रहा था। मेरे सामने ये सब कुछ चल रहा था, तो पता नहीं शादी से पहले...“
दुष्यंत उसकी शूल भरी बातें सुनकर चुप रहता क्योंकि उसे पता था कि श्वेता अपने मायके जाकर बात का बतंगड़ बनाए बिना नहीं रहेगी। शुरू से ही उसे हर छोटी से छोटी बात अपनी माँ को बताने की आदत थी। वह दुष्यंत के सामने भी उसे और उसके घर वालों को बुरा भला कहने की कसर ना छोडती कि इन लोगों ने झूठ बोलकर उसकी शादी दुष्यंत से करवा दी है।
जो साड़ी शिवानी भाभी ने श्वेता को दी थी उसे दिखाते हुए उसने जान बूझ कर अपनी माँ से कहा, “मम्मी, ये साड़ी इनकी प्यारी भाभी ने दी है इतने पुराने जमाने की साड़ी मेरे पहनने लायक कहाँ है, इसलिए वो जो आपकी काम वाली आती है उसे मेरी तरफ से दे देना “
ठीक इसी प्रकार, दुष्यंत की बहुत इच्छा थी कि वह श्वेता के साथ एक बार अनुराग की माँ और बहन से मिलकर आए। अनुराग उसके कालेज का सबसे अच्छा दोस्त था जो हर छुट्टी वाले दिन अनुराग को अपने घर ले जाता था। कितनी ही बार उसने उसकी माँ और बहन के हाथ का बना खाना खाया था। जब भी वह हास्टल के खाने से उकता जाता तो अनुराग उसे जबरदस्ती अपने घर ले जाता था। जब उसकी नौकरी लन्दन लग गई थी उसके एक साल बाद अनुराग का कैंसर के कारण देहांत हो गया था। उसकी माँ उसे अपने बेटे की तरह ही मानती थी और दुष्यंत को देखकर उसकी माँ के आंसू थमते ही नहीं थे। तबसे अनुराग की बहन सीमा भी उसे अपने भाई की तरह मानने लगी और हर साल उसे राखी जरुर भेजती। इस बार दुष्यंत काफी समय बाद अपने देश लौटा था इसलिए वह अनुराग की माँ और बहन को भी अपनी तरफ से कुछ देना चाहता था। पर दुष्यंत की हिम्मत नहीं हुई कि वह श्वेता को अनुराग की माँ से मिलने के लिए कहे इसलिए वह दुखी मन से अकेले ही चला गया उनसे मिलने क्योंकि इतनी दूर आकर वह उनसे मिले बगैर नहीं जा सकता था फिर पता नहीं कब दोबारा इंडिया आने का प्रोग्राम बने।वह अपने चारों तरफ दुखों की दुनिया का निर्माण कर रहा था।
दुष्यंत के भोलेपन तथा उसके परिजनों, दोस्तों से मिलने की उत्सुकता को देखकर कटाक्ष करते हुए श्वेता अक्सर कहा करती थी, “तुम चाहे लाख दुनिया के किसी भी अच्छे से अच्छे शहर में रह लो पर रहोगे देहाती ही। आजकल की दुनिया में ये खोखले रिश्ते नाते क्या मायने रखते है?"
ये सब सुनकर दुष्यंत को बहुत बुरा लगता और मन ही मन वह श्वेता से दूर होने लगा। जो सपने उसने अपनी विवाहित जिन्दगी और अपने जीवन साथी के देखे थे वे एक-एक करके धाराशाई होने लगे। दुष्यंत को श्वेता के शक्की और संकीर्ण व्यवहार से बहुत दुःख पहुँचता और मन ही मन गुस्सा भी आता। वह अपने बीते समय और रिश्ते नातों को कैसे भूल सकता था।इस बात की गवाही उसका मन, उसकी आत्मा कभी नहीं देती थी।एक बार जब दुष्यंत की माँ ने दुष्यंत की किसी काम को लेकर तरफदारी की थी, तो श्वेता ने जहर खाकर मर जाने की धमकी दी थी, तबसे माँ ने फिर कभी उसके मामलों में हस्तक्षेप करना उचित नहीं समझा।
दीवाली वाले दिन दुष्यंत के गाँव में उनके सब रिश्तेदार श्वेता को मिलने आने वाले थे क्योंकि पहली बार तो वह शादी के बाद ससुराल आई थी इसलिए दुष्यंत की माँ चाहती थी कि श्वेता उनकी पारम्परिक वेशभूषा घागरा-चोली में तैयार हो। उन्होंने बड़े चाव से उसके लिए ख़ास तौर पर नया परिधान बनवा कर रखा था। परन्तु श्वेता ने आदत से मजबूर उसकी माँ की बात को मानने से इनकार कर दिया यह कहते हुए, “दुष्यंत, तुम्हे पता है मैंने ऐसे कपड़े जीवन में कभी नहीं पहने है, ना ऐसे कपड़े पहन कर मुझे जोकर बनने का शौंक है जिसमे गाँव की गंवार औरतें अपने जिस्म की नुमायश करती हैं “
सब लोग श्वेता के मुँह की तरफ देखते रह गए। जब सबने उसे मनाने की कौशिश की तो वह गुस्से में आग बबूला होते हुए कमरे में चली गई और अन्दर से कमरा बंद कर लिया यह कहते हुए, “दुष्यंत, मुझे तुम्हारे किसी गंवार रिश्तेदार से मिलने जुलने का कोई शौंक नहीं है।अच्छा होता, अगर तुम मुझे वहीँ चंडीगढ़ मेरे माता-पिता के पास ही छोड़ आते तो कम से कम यहाँ की व्यर्थ की परम्पराओं से तो बच जाती”।
उस दिन घर का माहौल त्यौहार वाले दिन भी श्वेता के बचकाने और अड़ियल व्यवहार के कारण इतना ग़मगीन हो गया कि दुष्यंत की दीवाली को लेकर सारी इच्छाएं धरी की धरी रह गई।
दुष्यंत का मन बहुत ही भारी-भारी हो रहा था और उससे रहा नहीं गया और अगले दिन अकेले में वह अपने पिता के सामने अपने मन की सारी व्यथा कह बैठा, “पिताजी अब मै और जीना नहीं चाहता मै अपने वैवाहिक जीवन से बहुत तंग आ गया हूँ इसलिए मै मरना चाहता हूँ “
दुष्यंत सब भाई-बहनों में से शुरू से ही सबसे ज्यादा भोला-भाला था इसलिए उसकी इतनी दयनीय हालत उसके पिता से बर्दाश्त नहीं हुई और दीवाली के कुछ दिनों बाद ही उसके पिता जी सदमे के कारण स्वर्ग सिधार गए। दुष्यंत का मन खून के आंसू रोता रहता पर वह किसी से भी कुछ नहीं कह पाता।उसे हर पल लगने लगा कि जैसे उसकी वजह से ही उसके पिताजी इस दुनिया से चले गए हैं।वह अपने पिता को न केवल अपना गुरु बल्कि एक अच्छा दोस्त भी समझता था। आज वह अपने आप को उस चौराहे पर अकेला पा रहा था, जिस चौराहे पर कभी उसके पिताजी ने उसकी उंगलियाँ थामी थी। वह अपने भीतर ही भीतर घुटता जा रहा था।इसी तनाव से आक्रांत होकर एक दिन उसने श्वेता को कहा, “श्वेता जिस तरह से तुम सबके साथ दुर्व्यवहार करती हो और माता-पिता का दिल दुखाती हो तो कहीं उनकी हाय लगने से तुम माँ बनने से वंचित रह जाओ। क्योंकि माँ बनना ही एक औरत के लिए सबसे सुखदायी पल होता है"
बस इतनी बात क्या सुनी कि वह तमतमाकर बोलने लगी, “अच्छा अगर मैं बाँझ रह गई तो तुम किसी और से शादी कर लेना, तुम्हारे मन की भड़ास भी पूरी हो जाएगी।तुमने मुझे सबसे बड़ी गाली दी हैं बाँझ कहकर जो कि मै जीवन भर नहीं भुला पाउंगी "
इधर-उधर के विचारों की उधेड़बुन की तंद्रा दरवाजे पर काल बेल बजने की आवाज के साथ समाप्त हुई, उसने देखा सामने पोस्टमेन चिठ्ठी लेकर खड़ा था। दुष्यंत ने देखा तो वह शिवानी भाभी की चिठ्ठी थी। उन्हें इंडिया से वापिस आए अभी कुछ दिन ही बीते थे। दुष्यंत को वह दिन याद आ गया जब जैसे ही शिवानी भाभी की चिठ्ठी श्वेता के हाथ लगी थी वैसे ही उसने सारे घर में कोहराम मचा दिया था।
दुष्यंत के विवाह को अभी कुछ महीने ही बीते थे। नई-नई नौकरी थी इसलिए लन्दन जैसे इतने बड़े शहर में घर बसाना कोई आसान बात तो थी नहीं। इसलिए विवाह के बाद जब श्वेता लन्दन आई तो वह दुष्यंत का रहन-सहन देख कर परेशान हो गई। उसने जो बाहर के मुल्कों के हसीन सपने देख रखे थे वैसा उसे कुछ भी नजर नहीं आया। वह चाहती थी कि उसे घर में हर ऐशो-आराम की चीज उपलब्ध हो। दुष्यंत ने प्यार से श्वेता को समझाया भी था, “श्वेता अभी मुझे नौकरी करते हुए ज्यादा समय नहीं बीता है और फिर लन्दन जैसे शहर में गृहस्थी जमाना कोई आसान काम है क्या?। जो पैसा मैंने दो बरसों में जोड़ा था वो हमारी शादी में खर्च हो गया। “
इस पर तो श्वेता और भी भड़क गई और कहने लगी, “तो क्या तुम्हारे माँ-बाप कंगाल थे जो तुम्हारे पैसो से तुम्हारी शादी की ! मुझे कुछ नहीं सुनना तुम्हे शादी से पहले ये सब सोचना चाहिए था कि एक लड़की को घर में हर चीज चाहिए होती है यहाँ तक कि तुम्हारे पास तो रसोई-घर का भी पूरा सामान तक नहीं है फिर कार जैसी चीजों की बात ही छोड़ो?एक मंगलसूत्र की ख़ाक उम्मीद करनी तुमसे जो एक अच्छी साड़ी तक नहीं दिला सकते हो !“
“श्वेता मेरे माता-पिता के पास जो भी पैसा था वो उन्होंने मेरी पढ़ाई लिखाई पर खर्च कर दिया था “
इस पर भी श्वेता चुप नहीं हुई और जब भी मौका मिलता वह दुष्यंत को ताने मारने से पीछे ना हटती।
जिस चिठ्ठी में शिवानी भाभी ने दुष्यंत को जन्म पत्री भेजने को कहा था एक पुरानी किताब में उस चिठ्ठी के मिलने पर तो श्वेता ने सारा घर आसमान पर उठा लिया था और यहाँ तक कि अपनी माँ को इंडिया फोन भी कर दिया था और शिवानी भाभी के बारे में जहर उगलते हुए बोली थी, “मुझे तो पहले से ही पता था कि वो इनकी प्यारी शिवानी भाभी हमारा रिश्ता होने देना नहीं चाहती थी। मेरी तो वो शुरू से ही दुश्मन है इसीलिए वह मेरा रिश्ता दुष्यंत के साथ तुड़वा कर जन्म-पत्रिओं में उलझा कर अपने करीबी रिश्तों में कहीं और शादी करवाना चाहती थी।"
उस दिन रात को तो श्वेता ने गुस्से में दुष्यंत को मर जाने की धमकी दी थी कि वह जहर खा कर मर जाएगी। दुष्यंत श्वेता की बातें सुन कर मन ही मन बहुत डर गया था और कई दिन तक रात को ठीक से सो भी नहीं पाया था।
जब दुष्यंत ने शिवानी भाभी की चिठ्ठी खोली जिसमे उन्होंने लिखा था, “प्यारे दुष्यंत, तुम लोग हम लोगों से इतनी दूर ख़ास तौर पर मिलने आए बहुत अच्छा लगा।इतने बरसों में भी तुम हम लोगों को भूले नहीं और हम लोगों के बारें में अभी भी इतना सोचते हो। मम्मी जी, तुम लोगों की बहुत तारीफ़ कर रही थी। श्वेता को मिलकर बहुत अच्छा लगा ऐसी सुन्दर और पढ़ी-लिखी लड़की किस्मत वालों को ही मिलती है। और हम लोग बेकार ही तुम्हारी शादी की कितनी चिंता किया करते थे और मम्मी जी ने तुम्हारी जन्म पत्री भी कहाँ-कहाँ नहीं दिखाई थी, पर जब दिल मिलते हो तो जन्म पत्रियाँ मिलाना आदि सब रूढ़ी वादी विचार हैं। जब भी इंडिया आया करो तो हम लोगों से जरूर मिलने आया करो अच्छा लगता है, तुम्हारी भाभी“
दुष्यंत की आँखें बरबस ही वह चिठ्ठी पढ़कर नम हो गई और उसने वह चिठ्ठी श्वेता को दी पढ़ने के लिए और मन ही मन उदास हो गया यह सोचकर कि शिवानी भाभी ने कितना सही लिखा है कि दिल मिलने जरुरी होते हैं। कभी-कभी तो अजनबी और पराए लोग भी अपनों से बढकर लगते हैं और जन्मों के रिश्ते निकल आते है और कभी-कभी अपने पास रहकर भी अजनबी और पराए ही लगते हैं। दुष्यंत को सब तरफ धुंआ ही धुंआ नजर आने लगा और उसके सपनों का लाक्षागृह धीरे-धीरे आग की लपटें पकड़ने लगा।