लागी लगन-अध्यात्म की गहन अनुभूति / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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लागी लगन हाइकु संग्रह सागर पर केंद्रित है। जहाँ तक मेरी जानकारी है 'सागर' विषय पर यह हिन्दी-हाइकु का पहला स्वतन्त्र सन्ग्रह है। सागर और संसार दोनों ही अगम्य हैं, तात्त्विक दृष्टि से भी और सांसारिक दृष्टि से भी। लहर का सागर से उत्पन्न होना, सागर में ही मिलना। चाँद को छूने के लिए लहरों का मचलना, उद्ग्रीव होना एक शाश्वत आकर्षण है। रेत के गलीचे पर लहरों का लेटना उसके अंतरंग सम्बन्धों को पुष्ट करता है।: तट के हृदय को छूती तरंगें, जूही की महक से तट का बहकना, ये सब चित्रण बहुत सजीव बन पड़े है। जीवन दर्शन को शुष्क दर्शन के रूप में न लेकर, सरस बना दिया है। सागर खण्ड के हाइकु में प्रकृति और प्रेम अनुस्यूत हो गए हैं। प्रेम की प्रगाढ़ता का समापन आँसू के छलकने पर होता है।

अगर हम पूरी सृष्टि का अवलोकन करें, तो प्रेम की प्रगाढ़ता आनन्द की ओर बढ़ा एक कदम है। प्रकृति के पूरे उपादान उसी एक चक्र में बँधे है, वह है आनन्द का चक्रीय क्रम।

आकर्षण-प्रेम का प्रथम सोपान है। प्रिय को आकर्षित करना, प्रेम की दिशा में बढ़ा पहला कदम है।

भरा-काजल / लहर-अँखियों ने / करें पागल।

लहर रूपी आँखों ने काजल आँजकर उस आकर्षण को और अधिक बढ़ा दिया है। प्रेम के ये कदम फिर आगे बढ़ चलते हैं। आवश्यक नहीं कि सभी को अपना प्राप्य प्रेम मिल ही जाए. किसी को किनारा मिल जाता है, कुछ को मझधार से निकलना भारी पड़ता है। हर लहर काभी अपना-अपना नसीब होता है-

हर मौज का / कहाँ यह हासिल / मिले साहिल।

जीवन है, तो लहर है, जहाँ लहर है / तरंग है, तो वहाँ जीवन होगा ही। लहरों का तट से भी आत्मिक सम्बन्ध है। तट को पाने के लिए तट पर आने के लिए, लहरों की व्याकुलता, छटपटाहट देखी जा सकती है। तट ही तो वह संयम है, जो लहर को बाँधता भी है और लहर के कारण टूटता भी है। मर्यादा, बन्धन को कमज़ोर करने के लिए नहीं, वरन् उसको सुदृढ़ करने के लिए होती है। किनारे को सहलाने के लिए लहरें बहाने बनाकर बार-बार आती है, अपना अनुराग छुपा नहीं पाती है। लहर का क्या, काल उसे तरह-तरह के नाच नचाता है, पर वह कब मानने वाली है! जीवन की तरंग की भी वही गति होती है-

करतीं हट / बार-बार आने को / सागर तट

लहरें आतीं / किनारे सहलाने / बना बहाने

काल नचाए / विचि रुक न पाए / आए औ जाए

भोर होने पर अँगड़ाइयाँ लेकर लहर के उठने का मानवीकरण के साथ-साथ विशेषण विपर्यय से सौन्दर्य और भी द्विगुणित हो जाता है। सौन्दर्य और प्रेमानुभूति की गहनता इतनी तीव्रतम है कि लगता है, पूरी सृष्टि एकचित्त हो गई है, समय का चक्र रुक गया है।

सिन्धु-लहरें / भर लेती बाहों में / वक्त ठहरे।

प्रेमानुभूति के कारण हृदय आनन्द की ओर अग्रसर होता है। प्रेम की एकात्मकता क्या है? उसमें खो जाना, अपने अस्तित्व को विलीन कर देना? नहीं, अपना अस्तित्व बनाए रखना, जैसे एक लहर सागर की गोद में समा जाने पर भी उसमें विलीन नहीं होती, फिर लौट आती है। सिन्धु की गोद में समा जाना, उसी की होकर रह जाना वैसा ही है, जैसे आत्मा का परमात्मा से मिलन-

छोटी-सी विचि / सिन्धु गोद समाई / लौट भी आई

सागर का प्रेम भी तो कम नहीं। कोई उसकी लहरों को भिगोए, उनके साथ खिलवाड़ करे सागर को कहाँ पसन्द है। उसे लहर से प्रेम है, इसलिए कोई लहर को परेशान करे, उसे कतई पसन्द नहीं। सिन्धु को गुस्सा आना स्वाभविक है।

हर विचि को / बादलों ने भिगोया / सिन्धु गुस्साया। लहर का तो रुतबा ही अलग है। पटरानी जैसी उसकी अकड़ एकदम अनोखी है-

हुकम चलाए / लहर पटरानी / सिन्धु थर्राए.

अगर वह पटरानी है, तो उसकी अकड़ को तोड़ने के लिए बिजली भी कहाँ कसर छोड़ती है। वह जीभर उसको रौंदती है। यह रौंदना एक शक्ति का दूसरी शक्ति को उसकी औकात बताने जैसा है-

जब भी कौंधे, लहरों को बिजुरी / जी भर रौंदे। जीवन का आनन्द भी तो लहर ही है। जीवन में भाव-विचार-कल्पना की तरंग ही न हो तो कैसा जीवन! नीरस जीवन, ऊब से भरा जीवन किस काम का!

उनींदी-सी हूँ / कटे न रैन-दिन / लहरों बिन।

सागर अपने आप में सदा कौतूहल और जिज्ञासा का विषय रहा है, इसीलिए सागर को पार करना, जीवन को ठीक तरह से जीना ही है। ज्वार-भाटे और घुमड़ते तूफ़ानों से निपटना हो जाए, तभी जीवन में आकर्षण जागता है। सच्चा प्रेम क्या है? दूसरों को सुख देना। अक्खड़ समुद्र भी तो यही करता है। कुछ न लेकर मोतियों से झोली भर देता है। कवयित्री ने अलमस्त फ़क़ीर की मस्ती समुद्र में देखी, तभी तो उसको जोगिया कहा है, शाहों का शाह बताया है। जोगी और फ़क़ीर अक्खड़ और फ़क्कड़ दोनों ही होते हैं। अपने लिए कुछ नहीं, खुद पर किसी का अंकुश नहीं-

अद्भुत है / ये फक़ीर मस्ताना / लहरें-बाना

बेपरवाह / जलधि-जोगिया है / शाहों का शाह

यह सारा सौन्दर्य इतना बेपनाह है कि 'नैन-पलड़े। / तोल रहे सौन्दर्य / श्वासों के बाट'-फिर भी ज़रूरी नहीं कि इसे कोई तोल पाया हो।

अगला पड़ाव आनन्द का है। आनन्द के लिए सर्वांग डूबना पड़ता है। बिहारी के अनुसार–'अनबूड़े बूड़े, तरे, जे बूड़े सब अंग'। कुमुद जी ने इस बात को अपने इस हाइकु में कुछ इसी तरह से कहा है-

सिन्धु बुलाए / रूह डूबती जाए / मोती ही पाए रूह का डूबना ही चरम परिणति है आनन्द की। आनन्द का चषक नयनों से भर-भर पिया जाए, उस असीम के सौन्दर्य का पान किया जाए- सागर-जाम / भर नयन पीती / सुबह शाम

संसार दु: खमय है। लहर-नीर के रूप में वही पीड़ा द्रवित होकर बहती रहती है। हाइकु जैसे 17 वर्ण के बन्धन में इस गहनता को बाँधना कठिन है, लेकिन कवयित्री ने इसको बहुत सहजता से अभिव्यक्त कर दिया है।

सागर-अश्रु / बनके लहर-नीर / बहती पीर

सागर का कार्य यहीं तक सीमित नहीं। वह हमारे पर्यावरण का सबसे बड़ा प्रहरी है। वह सब जलचरों का पोषण कर रहा है। सागर का यही खारा पानी, जो बहुतों के खारे आँसू पीकर और अधिक खारा हो गया है, यही इन सब पोष्य जीवों का जीवन है।

सागर हो और उसकी लहरों को चूमकर व्याकुल करने वाला चन्द्रमा न हो, तो यह सम्भव नहीं। जब लहरे शान्त ह्कर सोई हों, उस समय चाँद का सौन्दर्य पूरे निखार पर होता है-

मौन बिखरा / सिन्धु की तश्तरी में / चाँद निखरा

भोर हो ने पर सागर भी विभोर हो उठता है। कभी मेघों की छाँव उसे गोद में भर लेती है, कभी सूरज की थकी-हारी किरणें सिन्धु में आकर तैरना चाहती हैं, वे निर्भीक हैं। समुद्र की लाल पीली अँखों से डरने वाली भी नहीं

दौड़के आई / आज रवि-किरणें / सिन्धु तैरने

सिन्धु दिखाए / लाल-पीली अखियाँ / मैं नहीं डरूँ!

सागर के सौन्दर्य को इस हाइकु में मूर्त्तिमान कर दिया है-

हौले-हौले से / सिन्धु खोले पलकें / रस-छलके

सागर से यह गहन प्रेम अध्यात्म की ऊँचाई की ओर ले जाता है- बन्द पलकें / देख तेरा नज़ारा / वियोग हारा

सागर-तट / मैंने धुनी रमाई / हुई हँसाई

तेरे ही लिए / ये प्रेम सूफियाना / श्वेत-सा बाना

सिन्धु की बातें / बाँध लाई गठरी / कटती रातें

नाविक-नौका के पारस्परिक सम्बन्ध को कहीं बिटिया के रूप में, तो कही खेवनहार के रूप में चित्रित किया है,

किश्ती हो पार / सिन्धु ही जब बने / खेवनहार

नौका-बिटिया / नाविक, सागर से / करे बतियाँ

मन हो या सागर हो, दोनों ही अथाह हैं। इनसे पार पाना कठिन है। मानव दूसरे के मन को कैसे पढ़े, अपने ही मन की थाह पाना। उसे नियन्त्रित करना कठिन है। नाव मेन छेद हो या मन मेन दुविधा हो, तो समस्या का निदान नहीं खोज सकते।

मैं हार गई / सिन्धु-मन अथाह / मिली न थाह

मैं बीच धारा / कैसे सुलझे भेद / नाव में छेद

संसार रूपी सिन्धु में अमृत और विष दोनों हैं। किसको क्या मिलेगा, यह निश्चित नहीं है। सागर भरा-पूरा होने पर तनिक-सी प्यास भी नहीं बुझा सकता-

सिन्धु-मन्थन / अमृत-विष आए / कौन क्या पाए

सिन्धु अतल / प्यासे को बूँद नहीं / खारा है जल

दर्शशास्त्र से आपका गहरा सम्बन्ध रहा है। यही कारण है कि आपके सागर विषयक हाइकु बहुत गहरे हैं। भाव और नूतन कल्पना के साथ-साथ अर्थ वैविध्य के कारण भी। इन हाइकु में प्रेम की अभिभूत करने वाली उद्दाम कल्पना देखिए-

सिन्धु-आगोश / समा गया सूरज। रहा न होश।

लहरों का घूँघट वाला रूप इस हाइकु में-

है झिलमिल / दिखते रुक-रुक / वीचि घूँघट।

एक ही विषय पर एक ही रचनाकार द्वार विभिन्न भाव-भंगिमाओं के इतने हाइकु लिखना सरल कार्य नहीं। कवयित्री का अध्ययन बहुत व्यापक है, अत: प्रत्येक हाइकु की नवीनता मन मोह लेती है। हाइकु के क्षेत्र में डॉ कुमुद रामानन्द बंसल का यह संग्रह प्रबुद्ध पाठकों द्वारा सराहा जाएगा, ऐसा विश्वास है।

लागी लगन (हाइकु-संग्रह) : डॉ कुमुद रामानन्द बंसल, पृष्ठ: 128, मूल्य: 250 रुपये, संस्कारण: 2018; प्रकाशक: पaरग बुक्स, ई-28, लाजपत नगर, साहिबाबाद (उत्तर प्रदेश)

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