लाजो / ज्योति चावला
तीन दिन से नानी का ब्लड प्रेशर हाई चल रहा था। आंखों से दिखना कम हो गया था। अस्पताल में भर्ती थीं और न जाने क्या-क्या बड़बड़ाई जा रही थीं। बातें तो ज़्यादा समझ नहीं आ रही थी। हाँ एक नाम था जो बार-बार उनकी ज़बान पर आ रहा था और जिसे पुकारकर वे कभीं हंस रही थीं तो कभी-कभी ज़ोर-ज़ोर से रो रही थीं और वह नाम था-लाजो।
मैंने जब से होश संभाला है अक्सर अपनी नानी को बड़बड़ाते देखा है। अकेले में भी वे खुद से बातें कर सकती हैं, यह दृश्य हम सबको बचपन से बहुत रोमांचित करता आया है। नानी कहीं बैठी हो, बस थोड़ा-सा एकांत मिला और उनका बड़बड़ाना चालू। हम हमेशा नानी को ऐसा करते देख हंसा करते थे। अक्सर तो हम बच्चे चुपके-चुपके बिना कोई आवाज़ किए चुपचाप नानी के पीछे जाकर खड़े हो जाते और अकेली बैठी नानी को बड़बड़ाते देखते और मुंह पर हाथ रखकर खूब हंसते। हम भरसक कोशिश करते कि हमारी हंसी की आवाज़ से नानी की एकाग्रता में कोई खलल न पड़े और वे यूं ही अपना एकालाप जारी रखें। पर सात-आठ-दस साल के हम नन्हें-नन्हें बच्चे कितनी भी कोशिश कर लें उतने माहिर तो नहीं ही हो सकते थे कि अपने पूरे इस खेल में खुद पर इतना काबू पा लें कि ज़रा भी शोर हो ही न। मेरे छोट-छोटे पैरों में उन दिनों चांदी की पाजेब हुआ करती थी जो मुझे बेहद पसंद थी। सारा दिन मैं उनकी आवाज़ सुनने के लिए न जाने कितने जतन किया करती। दौड़ना-भागना, अलग-अलग अदाओं में नाचना, इस तरह से ज़मीन पर पांव रखना कि ज़्यादा से ज़्यादा आवाज़ हो सके उन छोटे-छोटे घुंघरुओं से। उन पलों में जब हम नानी के पीछे जाकर खड़े हो जाया करते थे उनकी बातें सुनने के लिए, तब भी मेरे पैरों में वे पाजेब हुआ करती थीं। हम चार बच्चे कितनी तन्मयता से कोशिश करते थे उन्हें सुनने की जिनमें कई आहटें होती थीं। पर नानी न जाने कितनी गहरी डूबी होतीं उन पलों में कि हमारे होने का उन्हें एहसास तक न होता और बहुत देर बाद जब अचानक उनकी नज़र पड़ती तो-तुसी फेर आ गए। भज्जो ऐदरों कंजरो! की मीठी-सी डपट देकर हमें वहाँ से भगा देतीं। कितना मज़ा किया हमने नानी की उन बुदबुदाहटों को सुनने और उन्हें अपनी स्मृतियों में बटोरने में।
पर जैसे-जैसे मैं बड़ी होने लगी, नानी की वे बुदबुदाहटें मेरे जीवन में गहरे धंसती चली गईं। क्या था उनकी बुदबुदाहटोे में! किससे बातें करती रहती हैं वे ज़रा-सा एकांत मिल जाने पर ही। छह-सात बरस से लेकर आज चालीस बरस की उम्र तक न जाने कितना कुछ बदला मेरे जीवन में, हमारे आस-पास। कितना कम हो गया नानी से मिलना। पर जो नहीं बदला, वह था उनका वही अकेले में बड़बड़ाना।
आज नानी की उम्र बानवे बरस है। ठीक-ठीक तो नानी भी नहीं जानती उनकी उम्र। उन्होंने कौन-सा केक काटकर हर बरस अपना जन्मदिन मनाया है। उन्हें तो बस इतना याद है कि जब उनका ब्याह हुआ उस समय उनकी उम्र लगभग पंद्रह साल थी। अपनी शादी की कहानी सुनाती हुई नानी फिर से वहीं लौट जाती हैं। मैंने न जाने कितनी बार उनके मुंह से उनकी शादी वाला किस्सा सुना है। छोटी-सी थी नानी जब उन्हें एक दिन पता चला कि पेशावर वाले मेवाराम जी के छोटे बेटे दयाराम से उनका ब्याह तय हो गया है। नानी बताती हंै कि उन्होंने अपने हाथ से अपनी चुनरी पर सितारे टांके थे। माँ सिखाया करती थी कि जेड़ी कुड़ी नूं ऐ नहीं पता कि चुन्नी ते सलमा-सितारे किस तरह लाए जांदे ने ओ कुड़ी कदे वी अपणे प्यो दी पग्ग दी लाज नहीं रख सकदी और यह सुनकर उन्होंने और ज़्यादा खूबसूरती से तारे टांकना सीख लिया था अपने दुपट्टे पर।
नानी की माँ ने उनके लिए चांदी के तिल्ले से जड़ा सलवार-कुर्ता बनवाया था। कितने तो जेवर मिले थे ब्याह के वक्त उन्हें। चैदह साल की नानी तो दब गई थी चांदी-सोने और सितारों से जड़ी चटख लाल चुन्नी के नीचे। मामे ने उठाकर जब डोली में डाला था उन्हें तो उस वक्त वह पंद्रह बरस की लड़की बहुत रोई थी। आंसू पोंछते उनके मामा जी से उनका भार उठाया नहीं जा रहा था।
उसके बाद तो लाला मेवाराम की बहू हो गई वह पंद्रह बरस की लड़की। नाना जी की भी क्या उम्र थी उस वक्त। मुश्किल से 18-19 के रहे होंगे। मसकें भी नहीं फूटी थीं ठीक से और लाड़ा बनके ब्याह लाए अपनी लाड़ी को।
सास तो पहले ही नहीं थी उनकी। पांच साल की लाजो थी जो सारा दिन या तो दयाराम की उंगली थामे रखती या फिर अपने पिता लाला मेवाराम जी की सलवार पकड़े झूलती रहती। पंद्रह साल की प्रकाश के सिर आते ही न जाने कितनी जिम्मेदारियाँ लग गईं। मेवाराम जी ने तो ब्याह के दिन से ही यह मान लिया था कि अब उनके दो नहीं बल्कि तीन बच्चे हैं-दयाराम, लाजो और प्रकाश यानी हमारी नानी।
कितना भी क्यों न मान ले कोई लेकिन जिम्मेदारियों का बोझ तो आ ही गया उनके कंधे पर। ले देकर औरत के नाम पर उस घर में एक लाजो थी और एक उस घर की पुरानी सेवादारिन रज्जो। रज्जो की उम्र पचास-पचपन के आस-पास रही होगी। बड़ी सेवा करती वह सबकी। उसने बड़ा मान किया प्रकाश का उस घर में। आते ही मान लिया कि घर की मालकिन आ गई है। घर की हर चीज से परिचय करवाया उनका। सारे काम सिखाए, कोई कमी हो जाने पर उन्हें सामने न आने दिया। बड़ा साथ दिया रज्जो ने। धीरे-धीरे प्रकाश समझदार हो गई। घर का ही नहीं, अपने पति के साथ लाजो की भी पूरी जिम्मेदारी ले ली उसने अपने कंधे पर। अब लाजो मेवाराम जी और दयाराम के अलावा प्रकाश से भी हिल-मिल गई। उसके नन्हें से मुंह से भाभी-भाभी सुनकर प्रकाश खुद ही बड़े होने के एहसास से भरने लगी और उसने लाजो को अपने सीने से लगा लिया बिल्कुल छोटी बच्ची की तरह।
पांच साल की लाजो प्रकाश से ही चिपकी रहती। अपने हर काम के लिए उसके मुंह से सारा दिन भाभी-भाभी ही निकलता। मेवाराम जी अब पूरी तरह निष्चिंत हो चुके थे। बहू ने आते ही घर की ही नहीं, नन्हीं-सी लाजो की भी जिम्मेदारी संभाल ली थी। दयाराम भी निश्चिंत होकर पिता का हाथ बंटाने लगे थे। रज्जो की मदद से जल्द ही प्रकाश घर के सारे कामकाज समझ गई थी। रज्जो भी साये की तरह उनके साथ लगी रहती। उसके लिए तो दोनों ही छोटी बच्चियाँ थीं। उसे अक्सर प्रकाश पर बड़ा प्यार आता। वह प्रकाश को अपने पैरों पर बैठाकर उसके बालों में कसकर तेल धंसती और उसे आसीसें देती जाती-पुतर जी, तुसी तां आंदया ही इस घर नूं चन्न ला दिता है। लाजो वी लगदा है हुण बे माँ नहीं रह गई। निक्की जई उमर! ते ऐनी समझदारी। रब्ब नजर न लाए, कहकर वह प्रकाश के सिर पर अपने मुंह से कुछ थू-थू कर देती। (पंजाबी लोग नजर उतारने के लिए या नजर से बचाने के लिए सिर पर इस तरह से थूकने का अभिनय करते हैं।) प्रकाश की दोनों गुत्तें गूंथकर वह देर तक उसका माथा सहलाती रहती।
(2)
नानी ने सुबह से कुछ नहीं खाया है। बस यूं ही बड़बड़ाई जा रही हैं। सारे ब्लड टेस्ट के लिए डाॅक्टर ने संेपल ले लिया है। रिपोर्ट शाम तक आएगी। माँ नानी के बगल में ही बैठी गुरु ग्रंथ साहिब का पाठ कर रही है। बीच-बीच में नानी हुंकारा लगाती है तो लगता है कि वे सब कुछ सुन रही हैं और फिर अचानक माँ को डपट देती है-नी कुड़िये, हट परां। की पई करनी एँ। मेरा दमाग न खा। जा परां हो। फिर अचानक बांह पर लगी ग्लूकोज़ की नली को ज़ोर से खींचकर हटा देना चाहती हैं तो माँ ने बढ़कर रोक लिया है। माँ ने उन्हें मुंह पर उंगली रखकर धीरे से सो जाने का इशारा किया है। नानी सोना नहीं चाहतीं-मैं नहीं सोणा। मैं क्यों सोवंा। तूं सों जा। ऐने सालां दी ते सुत्ती होई सी। हुण नहीं सोणा। तूं सों! और फिर साथ वाले बिस्तर पर इशारा करके कहती हैं-ऐनू आख सों जावे। जागदा ही रहदंा ऐ। सों जा। वे ज़ोर से डपट देती।
डाॅक्टरों का कहना है कि उनका सोडियम बढ़ गया है। ऐसी हालत में ही मरीज़ बड़बड़ाया करते हैं और बगल में खड़ी मैं सोच रही हूँ कि इसका मतलब नानी का सोडियम तो बरसों से बढ़ा हुआ है क्योंकि वे तो बरसों से बड़बड़ा रही हैं। अपने आप से बतियाती, खुद से ही झगड़ती, दूर अंधकार में से किसी को पुकारती और जवाब न मिल पाने पर आंखों से पानी बहाती और बह आए पानी को अपनी ही चुन्नी के किनारे से पोंछती फिर अपने में ही खो जाती। नानी तो जैसे सदियों से बड़बड़ाती आ रही हैं। पता नहीं उनके इन आत्मालापों में कौन-कौन उनके साथ आ खड़ा होता रहा है। कई सारे शब्द, कई सारे नाम दिमाग में गड्डमड्ड हो रहे हैं जो बचपन में मैंने नानी के मुंह से सुने थे-हरबंस, जीतां, माणो, गुलाबो बुआ, चाचा। न जाने कितनी जगहांें के नाम। न जाने कितनी गलियों का पता। न जाने क्या क्या। पर एक नाम जो सबसे ज़्यादा सुना था नानी के मुंह से वह था-लाजो।
नानी जो बरसों से बड़बड़ा रही है पर जिनका बड़बड़ाना कभी किसी को अखरा नहीं। या यह कहें कि क्योंकि उन्होंने अपनी इन बड़बड़ाहटों को कभी भी अपनी ज़िम्मेदारियों के आड़े नहीं आने दिया, इसलिए किसी को इससे फर्क नहीं पड़ा। या ऐसे कहें कि किसी को उनकी इन बड़बडाहटों से कुछ लेना-देना नहीं था। लेकिन आज जब वे अपनी ज़िंदगी के अंतिम पड़ाव पर खड़ी हैं, आज जब सब कुछ लगभग खत्म होने को है, जब उनकी बड़बड़ाहटों, उनकी शिकायतों, उनके शिकवों का कोई परिणाम उन्हंें अपने अंतिम वक्त पर भी दिखाई नहीं दे रहा है तो उनकी ये बड़बड़ाहटें उच्छृंखल हो गई हैं और नासमझ डाॅक्टर कहते है कि नानी का सोडियम बढ़ गया है।
(3)
बिन माँ की लाजो प्रकाश की छाया में पलने-बढ़ने लगी। प्रकाश उसकी नन्हीं-नन्हीं चोटियाँ गूंथती, उसे अपने हाथों से खाना खिलाती, उसे स्कूल लेकर जाती और दोपहर में घर के आंगन में लकीरें डालकर उसके साथ स्टापू खेलती। दिन भर बड़ों जैसा व्यवहार करती-करती प्रकाश लाजो के साथ खेलते हुए खुद भी बच्ची हो जाती। होती भी क्यों न! अभी उमर ही क्या थी उसकी। मुष्किल से पंद्रह बरस। दोनों साथ खेलती हुई सहेलियां-सी लगतीं। खेल में गलती करने पर मुंह पर हाथ रखकर खूब ज़ोर से हंसतीं और लाजो जहाँ हंसती ही चली जाती, प्रकाश आँख बचाकर चारों तरफ नजर भी घुमा लेती कि उसे इस तरह ज़ोर से हंसते हुए किसी ने देख तो नहीं लिया। बचपन और जिम्मेदारियों के बीच झूलती प्रकाश ने खुद ही संभलकर रहना सीख लिया था। लाजो को खेलते-खेलते ज़रा-सी चोट लग जाने पर वह दौड़कर उसे गोद में उठा लेती और उसके पेट में इतनी ज़ोर से गुदगुदी करती कि लाजो सब भूलकर ज़ेार ज़ोर से हंसती हुई बोलती-भाभी एक बारी फेर! भाभी एक बारी फेर!
प्रकाश और लाजो का यह अजब रिश्ता था जो एक नई ही इबारत लिख रहा था। दोनों साथ-साथ बड़ी हो रही थीं। साथ-साथ ज़िंदगी को समझ रहीं थीं। प्रकाश के लिए लाजो उसकी बच्ची ही थी और कुदरत का भी कैसा खेल कि शादी के इतने बरस तक प्रकाश और दयाराम का कोई बच्चा हुआ भी नहीं। घर में सास न होने के कारण कौन बड़ी थी जो इन सब बातों की अपनों की तरह परवाह भी करती। पिता के साथ काम में व्यस्त दयाराम भी अभी तक इस फिक्र से परे थे।
लाला मेवाराम का लायलपुर के शहर पंजे में मेवों का व्यापार था। नाम मेवाराम और काम भी मेवों का। अजब संयोग था। लेकिन शायद यह संयोग नहीं भी था। उनके बाउ जी ने जब यह दुकान खोली उसी बरस मेवाराम जी का जन्म हुआ। बस, उन्होंने अपने बेटे का नाम भी मेवाराम ही रख दिया।
बाजार के बीचों बीच उनकी बड़ी-सी दुकान थी जहाँ सारा दिन ग्राहक लगे रहते। दुकान पर उनकी मदद के लिए चार लड़के भी रखे हुए थे उन्होंने। दयाराम ने भी अपने पिता के काम को बराबर संभाल लिया था। फिर भी सारा दिन उन्हें सांस लेने की फुर्सत न मिलती। बस दिन में वे एक बार घर आते, खाना खाते और बाउ जी के लिए खाना बाँधकर साथ ले जाते। पूरे दिन की भागमभाग में उनके पास रुककर प्रकाश के पास बैठने का भी समय नहीं होता। लेकिन वे बड़े गौर से प्रकाश को देख-समझ रहे थे, इसका पता प्रकाश को तब लगा जब एक रात कमरे में उन्होंने प्रकाश का हाथ पकड़कर उसे पास बैठा लिया और उसका माथा चूम लिया-
प्रकाशो बहुत शुक्राना! जदों दी तुसी आए हो एस घर विच ऐ घर वाकई घर हो गया है। बे माँ दी बच्ची नूं तेरी ममता ने बहुत सहारा दित्ता ए। ए लाजो नूं वेख। सारा दिन भाभी-भाभी जपदी फिरदी है। कहकर दयाराम चुप हो गए और एक बार फिर से प्रकाश के माथे को चूम लिया।
(4)
नानी को आज रह-रहकर लाला जी की याद आ रही थी। लाला जी यानी दयाराम जी यानी मेरे नाना जी यानी मेरी माँ के बाऊ जी। पर बच्चे-बूढे सब उन्हें लाला जी ही कहा करते थे। लाजो भी लाला जी को लाला जी ही कहा करती थी और मेरी नानी भी उन्हें लाला जी ही कहती। बस, लाला जी के साथ तेरे शब्द जुड़ जाता। यानी अगर वे मेरी माँ से या मुझसे पूछना चाहती हैं नाना जी के बारे में तो कहती थीं, कुड़िये तेरे लाला जी किदर गए! या फिर तेरे लाला जी नू सद के ले आ!
आज नानी को उनकी बहुत याद आ रही है। बार-बार लाला जी लाला जी पुकार रही हैं। मुझे भी डांट चुकी हैं कि तूं सुणदी नहीं! जा तेरे लाला जी नूं बुला के ले आ! जा पूछ, बाज़ार नहीं जाणा! शायद नानी भूल गई हैं कि लाला जी को गुज़रे तो पूरे चार साल हो गए। इन चार सालों में उन्हें अक्सर लाला जी की याद आती थी लेकिन अपने बच्चों और उनके सुखी परिवारों को देखकर ही वे खुश हो जातीं और कहतीं-तुसी सारे लाला जी दी लाई वंशबेल ही ते हो! लाला जी किदरे नहीं गए। ऐनां बच्चयाँ दी खुशियाँ वेखके ओ वी खुश हो रहे होणगे। कहकर वे ऊपर देखते हुए हाथ जोड़ देतीं ऐसे जैसे लाला जी से कोई तार जोड़ रही हों। ऐसे जैसे लाला जी वहीं से उनकी कही बात को अपनी स्वीकृति देंगे।
लेकिन आज रह-रहकर उन्हें उनकी याद आ रही है। कभी वह उन्हें याद करती, कभी अपने उस घर को जिसमें वे ब्याह कर आई थीं, कभी उन्हें उनकी माँ की याद हो आती और वे ज़ोर-ज़ोर से बचपन में गाया कोई गीत गाने लगतीं और बीच में उसके शब्द भूल जाने पर वे खीझने भी लगतीं। नानी आज पुरानी यादों के गहरे समंदर में गोते लगा रही थीं। वे यह भी नहीं जानती थीं कि उन्हें तो तैरना भी नहीं आता। यादों के समंदर में गहरे उतरती जातीं और ज्यों ही डूबने लगतीं हड़बड़ाकर हाथ-पैर मारकर फिर वर्तमान में लौट आतीं। इस पूरी प्रक्रिया में वे रह-रहकर सब पर खीझ रही थीं। माँ जानती थीं कि नानी का अतीत बार-बार उन्हें सता रहा है। रह-रहकर बीता वक्त उनके सामने आ खड़ा हो रहा है और जीवन भर अपने अतीत और वर्तमान में संतुलन बनाकर चलने वाली नानी आज बेबस है। उनका अपने पर बस नहीं रह गया है। वे नानी के मन की शांति के लिए गुरु ग्रंथ साहिब का पाठ कर तो रही थीं लेकिन जानती थीं कि नानी पर इस सबका अभी कोई असर नहीं। अभी वे बेचैन हैं। अभी कुछ है जो उन्हें परेशान कर रहा है। मेडिकल रिपोर्ट आने में अभी समय था। माँ ने डाॅक्टर से जाकर नानी को नींद का इंजेक्शन देने के लिए कह दिया है। इंजेक्शन से नानी को नींद आ जाएगी और उनके दिमाग में चल रही उथल-पुथल को भी कुछ देर के लिए आराम मिलेगा।
(5)
सन 1938 की बैसाखी के दिन ब्याह हुआ था प्रकाश और दयाराम का। गुरुद्वारे में लावां फेरे कराके जब विदा हुई थी प्रकाश अपने घर से तो कितना रोई थी वह। माँ ने गले से घुटकर लगाया था और खुद से जुदा करते हुए ऐसा लगा था उन्हें जैसे अपनी देह का कोई टुकड़ा ही काटकर अलग कर दिया हो। प्रकाश बहुत रोई थी डोली के वक्त। उसके बाद जब उनकी बारात डोली लेकर विदा हुई और अपने पंजे पंहुची उस वक्त तक शाम हो चुकी थी। कितने लोग भरे थे वेहड़े में जो उसे देखने आए थे। उसके बाद से वह वेहड़ा ही प्रकाश का सब कुछ हो गया था।
1938 में लाजो की उम्र 5 साल थी। दयाराम जी की छोटी बहन, मेवाराम जी की बेटी, बिन माँ की बेटी घर में सबकी लाडली थी। प्रकाश ने भी आते ही उसके लाड में इजाफा कर दिया और लाजो सबकी जान हो गई।
लायलपुर का शहर पंजा एक शांत कस्बा था। 1938 में जब सब तरफ आजादी की लड़ाई का शोर था, यह कस्बा एक शांत कस्बा था। यूं भी छोटे-छोटे साहूकारों का यह शहर अपने-अपने काम धंधों में मसरूफ फिज़ाओं में फैली गंध को सूंघ ही नहीं पा रहा था। किसी को अंदाजा नहीं था कि आगे आने वाले बरसों में क्या कहर बरपने वाला है। अपने सौदे-सुलफ और छोटे-छोटे धंधों में बंधे ये छोटे-छोटे लोग अपनी बनाई छोटी-सी दुनिया में रमे हुए थे। हाँ, हल्की फुल्की सुगबुगाहटें सुनने को मिलती रहती थीं जिस पर चैक-चैराहे पर या जहाँ चार लोग इकट्ठे होते, बातें होती रहतीं। अखबार में खबरें होतीं जिनसे गांधी जी के प्रयासों, कांग्रेस के अधिवेशनों, अंग्रेज़ी हुकूमत की नई-नई चालों की खबर लगती रहती। खबरें आती रहतीं कि देश के अलग-अलग हिस्सों में आजादी को लेकर किस तरह संघर्ष चल रहे हैं लेकिन सब कुछ के बावजूद पंजे के लोगों के दिलों में अभी तक किसी तरह के खौफ ने घर करना शुरू नहीं किया था। खौफ का ठीक-ठीक कोई कारण था भी नहीं। स्थिति बस यह थी कि हिंदुस्तान आजाद होगा कि नहीं।
पर ये सब खबरें प्रकाश और लाजो के लिए तो खबरें भी नहीं थीं। लाजो दिन-दिन बढ़ रही थी और दिन-दिन प्रकाश को और जिम्मेदार बना रही थी। प्रकाश और लाजो का रिष्ता और गहरा और गहरा होता जा रहा था।
प्रकाश और दयाराम के ब्याह को पूरे चार साल हो गए थे लेकिन अभी तक प्रकाश की गोद हरी नहीं हुई थी। शायद गुरु महाराज को भी यही मंजूर था। लाजो को अभी इन सबके प्यार की ज़रूरत थी। अपने बाऊ जी, दयाराम और प्रकाश के लाड-प्यार में वह बढ़ रही थी और प्रकाश के साथ एक नए रिश्ते को आकार दे रही थी।
(6)
लाला जी बाहर ऐना शोर क्यों हो रया ए? कोण लोकी ने! जाके वेख बाहर! तुसी वी जाओ! सारे जाओ! कह दो ओना नूं असी किदरे नहीं जाणा! असी किदरे नहीं जाणा! नानी फिर अतीत में गोते लगा रही थी। वे जोर-जोर से चिल्ला रही थीं। असी नहीं जाणा। ऐ साडा मुल्क है। ऐ साडा मुल्क है। लाला जी मेरी बांह छुडाओ। मेरी बाहं छुड़ाओ... । नानी चिल्ला रही थीं ऐसे जैसे सचमुच उनकी बांह किसी ने जकड़ रखी हो। माँ नानी को चुप करवाने की कोशिश कर रही हैं। मामा जी भी नानी को लेटाने की कोशिश कर रहे हैं और मन ही मन उनसे खीझ भी रहे हैं। उन्हें अपनी माँ की इस आदत से खीझ होती थी और अब तो यह इतना बढ़ गई है कि जोर-जोर से चिल्लाने लगी हैं। कितने साल हो गए हिंदुस्तान-पाकिस्तान को तकसीम हुए लेकिन नानी है कि भूलती ही नहीं। रह-रहकर चिल्लाने लगती हैं। उन्हें शर्मिंदगी हो रही है उनके चिल्लाने से।
नानी न जाने किस-किस को बुला लाई हैं अभी अपने साथ। उनके पड़ोस में रहने वाली वीरां, उनके घर कपड़े बेचने आने वाली रेशमा, उनके मोहल्ले में रहने वाले अख्तर खां की पत्नी सलीमा, चत्तर बुआ-न जाने कितने लोग अभी नानी के साथ बैठे दुख-सुख सांझा कर रहे थे कि कुछ लोग आए और सब औरतों के नाम पूछ-पूछ कर उनकी बांह पकड़कर उन्हें अलग करने लगे। वे लोग ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहे थे। उनकी आंखें लाल थीं और वे बार-बार मेवाराम जी की हवेली की ओर उंगली उठा-उठाकर कुछ कह रहे थे। नानी उनका विरोध कर रही थीं। वे सलीमा और चत्तर बुआ और रेशमा ओैर वीरां का हाथ पकड़कर उन्हें हवेली के भीतर ले जाना चाह रही थीं लेकिन दूसरी ओर दुगुनी ताकत से कुछ लोग उन्हें जुदा कर रहे थे। नानी चिल्ला रही थीं, रो रही थीं, सुबक रही थीं। उनकी आंखों के आगे जैसे उनका अतीत घूम रहा था और वे बेबस-सी बैठी सब कुछ देख रही थीं।
नानी ज़ोर-ज़ोर से लाजो-लाजो चिल्ला रही थी। मेरी लाजो नू बचाओ। मेरी लाजो नू बचाओ। लाजो, लाजो! और दूसरी ओर से कोई जवाब नहीं आ रहा था। कहीं से कोई जवाब नहीं आ रहा था। कोई होता तो जवाब देता न! जिस वक्त में जाकर नानी आवाज़ें लगा रही थी वह वक्त तो कब का बीत चुका था और पीछे न भरने वाले घाव दे गया था। ऐसा नहीं है कि बंटवारे में बंटे और टूट गए लोग फिर जी नहीं पाए। वक्त सारे मर्ज का मरहम होता है। लेकिन ये घाव दिलों में कहीं गहरे ही छूट गए जो बयानवे बरस की उम्र में फिर हरे हो रहे हैं और नानी को परेशान कर रहे हैं।
लायलपुर के पंजे में मेवों का व्यापार करने वाले मेवाराम का परिवार सुख से जी रहा था। घर-गृहस्थी की उलझनों में उलझा अपने लोगों के बीच सुख से जीवन काट रहे परिवार को पता ही नहीं था कि जिसे वह बरसों से अपना समझता आ रहा है उसे आँख चुराकर बांट दिया गया है। ज्यों-ज्यों आज़ादी की खबरें सुनाई देनी बढ़ने लगीं, साथ ही एक नई खबर भी सुनाई देती थी जिसने लोगों के जे़हन में डर बैठा दिया था। अपने काम-धंधे में दिन-रात रमे रहने वाले इस या इस जैसे परिवार ने कभी सोचा भी नहीं था कि जिनके साथ उम्र भर का साथ है, जिनके साथ जीना-मरना सांझा है उनसे ही कोई खतरा भी हो सकता है। मुल्क का बंटवारा होगा-हिंदुओं का मुल्क एक और मुसलमानों का मुल्क दूसरा। मुसलमानों को पाकिस्तान चाहिए। मेवाराम सोच में पड़ जाते-किस मुसलमान को पाकिस्तान चाहिए। ये दो मुल्कों की बात किसी के ज़ेहन में आ ही कैसे सकती है। जब से वे पैदा हुए तब से ही तो इस सांझी विरासत के गवाह रहे हैं वे। उनकी दुकान पर आने वाले आधे ग्राहक तो मुसलमान ही हैं। पीर की मजार पर चादर चढ़ाने तो मेवाराम जी भी जाते हैं। गुरु़द्वारे में मत्था टेकने वालों से आज तक किसी ने उसका मज़हब नहीं पूछा। फिर किस को अलग-अलग मुल्क चाहिए। कौन है जिसका दम घुट रहा है इस साझी हवा में। उन्हें सारी बातें बेमानी लगती थीं। कोई बंटवारा नहीं होगा। बहते पानियों को कोई जुदा कर पाया है जो सरहदें बांटेगा! हमारा मुल्क तो सांझी मिट्टी का बना है। मुसलमान की मिट्टी और हिंदू की मिट्टी अलग होती है क्या! मेवाराम जी को अखबारों में छप रही खबरों पर विश्वास नहीं होता था। लेकिन अखबार में छपा है इस पर यकीन भी कैसे न करें! अजीब स्थिति थी।
(7)
उधर लाजो ने चैदहंवे बरस में प्रवेश किया था और इधर हिंदुस्तान आज़ाद होने जा रहा था। 1947 की ही एक रात को देश आजाद होगा। अंग्रेज हिंदुस्तान को छोड़कर अपने मुल्क लौट जाएंगे और हिंदुस्तान पर हिंदुस्तानी सरकार की हुकूमत होगी। इस बात ने पूरे मुल्क को जोश और उत्साह से भर दिया था। लेकिन बंटवारा भी होगा और इस कदर होगा कि सरहदें ज़मीनों पर ही नहीं दिलों में भी खिंच जाएंगीं, इस पर रह-रहकर भी लोगों को यकीन नहीं हो रहा था। हालांकि माहौल में तुर्शी आनी शुरू हो चुकी थी। लोग एक-दूसरे को शक की निगाह से देखने लगे।
पंजा गाँव जो अब तक बाहरी सरगोशियों से अनजान था, अब पिछले दिनों से यहाँ की ठहरी हवा में भी हरकत होने लगी थी। लोग धीरे-धीरे अपनी राह बदलने लगे थे। कितने लोगों को अलग हिंदुस्तान या पाकिस्तान चाहिए था, नहीं पता लेकिन दिलों में दरारें उठने लगी थीं। हिंदू और मुस्लिम के भेद से परे इस सांझी संस्कृति में तरेड़ आ रही थी। अपनों की ही निगाह बदली-सी दिख रही थी। बेगैरत सियासतदारों ने आज़ादी के ख्वाब को ठीक से जीने का भी मौका नहीं दिया और अपनों के ही बंटने और बेगाने हो जाने के शुबहे ने दिलों में फर्क पैदा कर दिए थे।
लाजो और प्रकाश दोनों को इस बात की हिदायत दे दी गई थी कि वे हवेली से बाहर न निकलें। बाहर माहौल ठीक नहीं है। मेवाराम जी ने रात दुकान से लौटने के बाद कुर्सी पर बैठने से पहले अपनी पग उतारकर रखते हुए प्रकाश से कहा था-पुतर जी, तुसी ते बहुत समझदार हो। बाहर दे हालात ठीक नहीं ने। चारों पासे डर दा माहौल है। उनके चेहरे पर चिंता कि लकीरें साफ दिखाई दे रही थीं। अपणे ही बेगाने हो रहे ने और फिर एक लंबी सांस लेते हुए कहा था, त्वाडे उत्ते जिम्मेदारी होर वद गई है। आपको अपना भी ख्याल रखना है और लाजो पुतर का भी। किसी अनजान आदमी को घर में न घुसने देना पुतर जी। घर के दरवाजे ठीक से बंद रखना...और और...कोई परेशानी आए, कोई मुसीबत आए तो नूरुददीन चाचा और फिर अचानक रुककर और दो पल कुछ सोचकर बोले, नहीं नहीं, फतेह सिंह चाचे को आवाज़ दे देना। वे दौड़े आएंगे पुतर जी... मैं भी उन्हें कह दूंगा। मैं कह दांगा पुुतर जी। हालातां दा कुछ पता नहीं...बाउजी के कंधे भी आज ढलके हुए थे और चेहरे का नूर भी जैसे फीका पड़ गया था। मेवाराम जी बेहद निराश दिख रहे थे। बाहर हालात ठीक नहीं... बाहर हालात ठीक नहीं...कहते कहते ही वे जूते उतारकर पास पड़े तखत पर निढाल हो गए।
(8)
और फिर 1947 की वह सुबह आ ही गई जिसका पूरे हिंदुस्तान को सदियों से इंतज़ार था। हिंुदस्तान के वीर जवानों, शहीदों की कुर्बानियाँ बेकार नहीं गईं। अपनी सियासत होगी, अपने लोग होंगे, अंग्रेज़ी हुकूमत, अंग्रेज़ी गुलामी से सदा के लिए मुक्ति का ख्वाब उस रात हिंदुस्तान की हकीक़त बन गया। 15 अगस्त 1947 का दिन तारीख में दर्ज हो गया। हिंदुस्तान उस रात जश्न मना रहा था। लोगों का देखा सपना साकार हो गया था। मुल्क आज़ाद हो चुका था...अंग्रेज हिंदुस्तान की सरहद छोड़कर जा चुके थे...लेकिन हिंदुस्तान की छाती पर ऐसा घाव छोड़ गए थे जो बरसों तक रिसता रहा। जिस वक्त पूरा देश आज़ादी का जश्न मना रहा था, ठीक उसी समय पंजाब की ज़मीन पर लकीर खींच दी गई थी। सियासतदारों का ऐलान था कि वक्त की नज़ाकत को देखते हुए हिंदुस्तान के दो टुकड़े कर दिए जाएँ-पाकिस्तान और हिंदुस्तान। इस एक फैसले ने पंजाब के माथे पर एक बदनुमा दाग लगा दिया। साझी संस्कृति वाला पंजाब हिंदू-मुस्लिम के भेदभाव से भर गया। जो लोग कल तक एक-दूसरे के सुख-दुख में साझे थे, वे आज हिंदू-मुस्लिम हो गए। ईद और दीवाली बंट गई। मंदिरों, गुरुद्वारों और दरगाहों में फर्क आ गया। दिल तकसीम हो गए। भाई-भाई एक-दूसरे के दुश्मन हो गए।
अंग्रेज मुल्क छोड़कर जा रहे हैं। अब हिंदुस्तान पर हिंदुस्तानियों की हुकूमत होगी। यह खबर आग की तरह चारों ओर फैली। पर इस खबर के साथ ही दूसरी खबर कि अब हिंदुस्तान के दो टुकड़े होंगे, इस खबर ने तो आग से भी तेज रफ्तार पकड़ी थीं। बंटवारे की आग ने लोगों को ऐसा बांट दिया कि एक-दूसरे के सिर धड़ से उतारने से भी अब उन्हें कोई गुरेज नहीं था। बहन-बेटियों की इज्जत से खेलना तो जैसे रीत हो गई थी। जिस समय पूरा मुल्क जश्न में डूबा था, पंजाब में ज़िदगी और मौत का खेल चल रहा था। मुस्लिमों को हिंदुस्तान छोड़कर 'अपने मुल्क' जाना था और पाकिस्तान क्योंकि एक मुस्लिम देश हो गया था तो हिंदुओं को अपनी जड़ें छोड़कर हिंदुस्तान आना था। दोनों तरफ से लाशों का व्यापार चल पड़ा।
इस आग से लायलपुर का छोटा-सा कस्बा पंजा भी कैसे अछूता रहता। एक दोपहर पूरे बाज़ार को दंगाइयों ने घेर लिया था। दहशत का कोई मज़हब नहीं था। ज़मीनें और जायदादें लूट लेने की होड़ और अपनी ज़मीन से 'परायों' को खदेड़ देने की धुन ने बाज़ार की हलचल को शमशान में बदलने की कसमें खा ली थीं। जो कल तक साथ बैठकर हंसते-बोलते थे, वे आज जान के दुश्मन हो गए थे। जिनके बीच कल तक दांतकटी रोटी की दोस्ती थी, वे दूसरे को रोते-तड़पते देख आँख चुराने लगे। फिज़ाओं में जैसे बेगानियत भर गई थी। लोग भूल गए थे कि वे अब तक एक ही चिनाब का पानी पीते रहे हैं। मज़हब का भेदभाव किए बगैर सबको पानी पिलाती नदियों के सीने को कैसे तकसीम करेंगे ये धर्म के ठेकेदार! लेकिन अभी तो जैसे सिरों पर मौत सवार थी। देखते-देखते दुकानें धू-धू करके जलने लगीं। दंगाइयों का मकसद केवल हिंदू या मुस्लिमों को मारना ही नहीं था। बल्कि इस दहशतगर्दी में अपने घर भरना भी था। जिसके हाथ जो लगा, वह उसे लेकर दौड़ा।
जिस समय दंगाई बाज़ार में घुसे, मेवाराम और दयाराम दोनों अपनी दुकान पर बैठे थे। दोनों का ही दुकान में और काम में दिल नहीं लग रहा था। बाज़ार भी आज उदास दिख रहा था। कितने हिंदुओं ने उस दिन दुकानें खोली तक नहीं थीं। दोनों बाप-बेटा आ तो गए थे लेकिन उनका ध्यान घर की ओर ही था। पुतर जी, सरकार ने फैसला कर लया है। उन्होंने लंबी सांस ली और आगे बोले, सानू वी हुण ऐ ज़मीन छडके जाणा पएगा। असी किदर जावांगे बेटा। जिस हिंदुस्तान को वह हमारा कह रहे हैं, वह तो बेगाना है हमारे लिए। अपनी ज़मीन छोड़कर बेगानी धरती पर किसके सहारे जाएँ बेटा जी। अगर वह हिंदुस्तान है तो नहीं चाहेदा ऐसा हिंदुस्तान बेटा जी। आप किसी तरह रोक लो यह सब। मेवाराम जी जानते थे कि अब किसी के हाथ में कुछ नहीं। दयाराम जो कल तक उनके लिए बच्चे थे, आज उसी दयाराम के सामने वे बेबस और लाचार दिख रहे थे। दयाराम ने बाऊ जी के सिर को अपनी गोद में रखा हुआ था जब बाहर से हो-हल्ला सुनाई दिया। अंदर बैठे डर को जैसे आवाज़ मिल गई थी। दोनों बाप-बेटा चैंककर खड़े हो गए और दौड़कर दुकान का दरवाज़ा बंद करने लगे। लेकिन सब बेकार। अब कुछ संभव नहीं था। दंगाइयों ने उन्हें घेर लिया था और ज़ोर-ज़ोर से हिंदुस्तानियों बाहर निकलो, हिंदुस्तानियों बाहर निकलो। पाकिस्तान हमारा है। हमको जान से प्यारा है, के नारे लगा रहे थे। वे लोग सैंकड़ों की संख्या में थे और दयाराम और मेवाराम दोनांे को दुकान से बाहर धकेल रहे थे। अंग्रेजो भारत छोड़ो का नारा सुनने वाले कानों के लिए यह एक नया नारा था। क्या इसी दिन का ख्वाब देखा था गांधी जी ने। क्या ऐसा ही हिंदुस्तान बनाना चाहते थे हमारे वह शहीद जिन्होंने मुल्क के लिए शहादत दी। न जाने कितना कुछ घूम रहा था मेवाराम जी के ज़ेहन में। कौन-सा मुल्क, कैसी आज़ादी! पर वक्त ने तो सोचने का भी वक्त न दिया। देखते-देखते मेवाराम जी की दुकान लूट ली गई। सोच में डूबे मेवाराम जी की पगड़ी को सिर से उतारकर बीच सड़क में फेंक दिया गया। दयाराम सामने खड़े देखते रह गए और देखते ही देखते दुकान दहशतगर्दों के जुनून का शिकार हो चुकी थी। बीच सड़क अपनी ही दुकान, अपनी ही पहचान से बाहर खदेड़ दिए गए थे मेवाराम। अब तो केवल जान की खैर मनानी थी। पर उसके लिए उन्हें होश कहाँ था। अपनों के हाथ से यूं ज़लील होना होगा, उन्होंने कभी ख्वाब में भी न सोचा था। सामने दुकान लूटी जा रही थी और इधर बीच सड़क पर मेवाराम जी बेसुध बैठे थे। जिनके माथे पर पग हमेशा उनकी इज्ज़त की तरह सजी रही आज वह माथा खाली था। पगड़ी की इज्ज़त उतारी जा चुकी थी। दयाराम ने बाऊ जी को ऐसे कभी नहीं देखा था। वे अब बाऊ जी को लेकर कहाँ जाएँ, कैसे जाएँ की पशोपेश में फंस चुके थे। इन दंगाइयों के हाथों जान कैसे बचाई जाए, बाऊ जी को क्या कहकर दिलासा दिया जाए, उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था। सारा बाज़ार उन दहशतगर्दों का शिकार था।
बाऊ जी ने अन्न जल तो जैसे त्याग दिया था। उनके बच्चों का क्या होगा, उनके घर का क्या होगा, यह चिंता उन्हें खाए जा रही थी। दुकान लुट चुकी थी। घर में खौफ का माहौल था। उन्हें अब आज से कल के बीच सब कुछ छोड़कर भागना होगा। यह मुल्क, यह सरहद-अब सब उनके लिए बेगाने हो चुके थे। जिन लोगों से कल तक दिलों का रिश्ता था, वे ही लोग आज जान के दुश्मन बन गए हैं, यह बात उन्हें खाए जा रही थी। मैं नहीं जाणा। मैं नहीं जावांगा। कोई नहंी जाएगा। असी क्यों जाइए! ऐ साडा मुलक है। वे बड़बड़ाते जा रहे थे। गैर मुलक! असी गैर...! नहीं।
और उस रात जो बाऊ जी ने आंखें मींची तो फिर कभी नहीं खोलीं। वे सचमुच उसी ज़मीन के थे। उसी ज़मीन के होकर रह गए।
दयाराम और उनके परिवार के लिए एक के बाद यह दूसरा सदमा था। लेकिन सदमों का सिलसिला थम ही नहीं रहा था। सदमे पर रुककर आंसू बहा लेने तक का वक्त नहीं था उनके पास। बाऊ जी के जाते ही दयाराम के सिर पर ज़िम्मेदारियों का बोझ और बढ़ गया। उन्हें आज के आज इस ज़मीन को अलविदा कहना होगा। प्रकाश दयाराम की पशोपेश समझ रही थीं। उन्हें पता था कि यह वक्त अब उनका इम्तेहान ले रहा है और इस इम्तेहान में उन्हें दयाराम जी को अकेले नहीं छोड़ना है। उन्होंने बढ़कर दयाराम जी का हाथ थाम लिया। लाजो अब उन दोनों की साझी ज़िम्मेदारी थी। उन दोनों ने आगे बढ़कर रोती हुई लाजो के सिर पर हाथ रख दिया।
(9)
चारों तरफ खौफ का माहौल था। हिंदू-मुस्लिम दोनों एक-दूसरे की जान के प्यासे हो चुके थे। सरहद के दोनों ओर से लाशों के लेन-देन का व्यापार चल रहा था। जिन ट्रेनों में नाउम्मीद लोग एक उम्मीद के सहारे चढ़ रहे थे, वे नहीं जानते थे कि इस सफ़र की मंज़िल क्या होगी। वही न जाने कितनों ने अंतिम संांस लीं। लाशों से भरी गाड़ियों ने आग में घी का काम किया था और यह उन्माद, यह पागलपन बढ़ता ही चला गया। बहू-बेटियों की इज्ज़त तो जैसे इंतकाम का सबसे मुफीद ठिकाना हो गईं।
बाऊ जी की मौत का मातम मनाने का समय भी नहीं था दयाराम के पास। प्रकाश और लाजो-दोनों की जिम्मेदारी थी उनके कंधे पर। कैसे पार लगेगी नैया, वे समझ नहीं पा रहे थे। जगह-जगह शरणार्थियों के लिए कैंप लगाए गए थे जहाँ से उन्हें अपने-अपने मुल्क के लिए रवाना होना था। दयाराम, प्रकाश और लाजो भी उस कैंप का हिस्सा होने जा रहे थे। रात भर में ही उन्हें अपनी गृहस्थी को समेट लेना था। जिसे बसाने में बरसों लग गए, उस घर को ठहरकर ठीक से देख लेने का भी वक्त नहीं था उनके पास। इसी घर में आज से 10 बरस पहले प्रकाश ब्याह कर आई थी। इसी घर, इसी वेहड़े ने उसे धीरे-धीरे अपना बना लिया था। आज यह घर, यह वेहड़ा सब कुछ पीछे छूटता चला जा रहा था। 14 बरस की लाजो का हाथ थामे प्रकाश और दयाराम इस घर से विदाई ले रहे थे।
बाऊ जी को शायद इसी घर के साथ उनकी यादों में दफन हो जाना था।
(10)
चैदह बरस की लाजो कहने को चैदह बरस की हुई थी। लेकिन बाऊजी, दयाराम और प्रकाश के लाड़ ने उसे बड़ा होने ही कहाँ दिया था। नन्हीं-सी बच्ची जो बंटवारे का मतलब भी उस दिन ठीक से समझ नहीं पाई थी। प्रकाशो सोचती है कई बार कि इसी की उम्र की थी मैं जब इस घर में ब्याह कर आई थी और इस उमर तक लाजो का तो बचपना भी ठीक से नहीं गया और यह सोचकर उसका लाजो पर प्यार उमड़ आता। अपनी ननद तो कभी समझा ही नहीं था प्रकाश ने लाजो को और आज सचमुच इम्तिहान का वक्त सिर पर खड़ा था। अपनी जान-माल की हिफाज़त करते हुए उसे न केवल खुद को दंगाइयों से बचाना था बल्कि लाजो को भी अपने आंचल में छिपाकर ले जाना था।
उस रात जब वे कैंप पंहुचे तो दहशत पूरे माहौल पर तारी थी। अपनों को ही मार मिटाने के लिए रगों में लहू उछाल मार रहा था। नंगी तलवारें हाथों में लिए दंगाई सड़कों पर घूम रहे थे। सियासत के लिए फैसलों का बदला लोग अपनों से ही ले रहे थे। प्रकाशो को वह दृश्य आज भी नहीं भूलता। रास्तों पर तो जैसे बर्बादी की कहानी लिख दी गई थी। लुटी हुई दुकानें, उजड़े हुए घर, टूटे हुए छप्पर, सुनसान राहें, अजनबी निगाहें ... सब कुछ देखते-देखते बदल गया था। जिस कुंए से कल तक पानी भरते थे, उसकी जगत आज सूनी पड़ी थी। पड़ोस की रेशमा और जहान बीबी ने ही उन्हें घर से निकलने में मदद की थी। कितना फूट-फूट कर रोई थी रेशमा गले लगकर। आंखों में कितना कुछ अनकहा रह गया था। एक उम्मीद कि फिर लौटेंगे। एक दिलासा कि हमारा घर सहेजकर रखना। लेकिन दिल के अंदर कोने से जैसे सब कुछ साफ सुनाई दे रहा था। ये रास्ते, ये गलियाँ जो अबकी छूटीं तो फिर न मिलेंगीं। वेहड़े में खिंची लकीरें जिस पर लाजो स्टापू खेला करती थी, मिट्टी का चूल्हा जो लाजो ने अपने हाथ से बनाया था और खुश होकर बाऊ जी ने लाजो की हथेली पर एक आना इनाम रखा था, सब कुछ पीछे छूटता चला जा रहा था।
यहाँ कैंप में आकर एक पल के लिए लगा कि दहशतगर्दी से बचकर अपनों के बीच आ गए हैं। इन्हीें के साथ सबको सरहद पार करनी थी। रेलगाड़ी में जाने वालों की संख्या बहुत ज़्यादा थी। किसको कब मौका मिलेगा, कहना मुश्किल था। बड़े-बड़े रईस भी यहाँ फकीरों की तरह बैठे अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे। कैंप का दमघोंटू माहौल और खौफ मिलकर हवा पर तारी था।
जब उस पार से रेलगाड़ी आती तो दहशत का माहौल और बढ़ जाता। रेलगाड़ियों से उतरते लोग हैवानियत की कोई कहानी कहते और उसके बदले में यहाँ से हैवानियत का जवाब हैवानियत से दिया जाना तय हो जाता। लाशों के बदले लाशें, औरत के बदले औरत, इज्ज़त के बदले इज्ज़त। उस शाम भी ऐसा ही हुआ। रेलगाड़ी जब आई तो बदले का जूनून आंखों में खून की तरह तैरने लगा। पूरे हिंदू कैंपों में भगदड़ मच गई।
लाशां जाणगियाँ ऐदरों वी। आंखों में खून उतर आया था। कैंपों में दहशत फैल गई थी। इन बेचारों ने क्या किया था! लेकिन बदला तो इन्हीें से लिया जाना था। दहशतगर्द कैंपों के इर्दगिर्द मंडरा रहे थे। कहीं से खबर उड़ती आई कि चार गुंडे एक लड़की को उठाकर ले गए। खबर सुनते ही लोग जैसे कांपने लगे। दयाराम जी ने प्रकाश और लाजो को सीने से लगा लिया था। कैप में ही एक सरदार जी फूट-फूट कर रो रहे थे और अपनी तीन जवान बेटियों को कागज की पुड़िया थमाते जा रहे थे। दयाराम जी ने दौड़कर पूछा, ऐ की कर रहे हो सरदार जी? सरदार जी रोते जा रहे थे और कोई जवाब नहीं दे रहे थे। बेटियाँ भी रो रही थीं। दयाराम जी ने फिर ज़ोर से चिल्लाकर पूछा, तुसी ऐ की कर रहे हो? ऐ की है एनां दे हत्थां च?
सरदार जी सुबकते हुए बोले, संख्या (ज़हर) ।
संख्या! क्यों वीर जी? ऐना कुड़ियाँ दा कि कुसूर!
ऐना दा ए ही कुसूर है कि ऐ कुड़ियाँ ने... सरदार जी ने आंसू पोंछ लिए थे। मैं ते पिछले कई दिनां दा ऐ पूड़ियाँ जेब विच लैके घुम रया हाँ। पर कदी हिम्मत नहीं होई। लेकिन अज्ज...होर नहीं। होर नहंी। अब हिम्मत नहीं है वीर जी। अपनी आंखों के सामने कैसे देखूं इनकी आबरू लुटते हुए? वे रोते जा रहे थे और अपनी रोती हुई मासूम बेटियों से आंखें चुरा रहे थे।
दयाराम जी ने आगे बढ़कर सरदार जी को सहारा दिया, वाहेगुरू ते भरोसा रक्खो सरदार जी। ओ जानी जाण है। ओसने कुछ सोचया होएगा। ये शब्द दयाराम जी उन सरदार जी से कह रहे थे या खुद को, समझना मुश्किल था। उन्होंने आगे बढ़कर लड़कियों के हाथ से पूड़ियाँ छीनकर दूर फेंक दीं और उनके सिर पर हाथ फेरकर और सरदार जी को दिलासा देकर प्रकाशो के पास वापस लौट आए। लाजो पास में बैठी सामान समेट रही थी। दयाराम जी की नज़र लाजो पर ही थी। उन्होंने लाजो की बांह पकड़कर उसे सीने से लगा लिया और उसका माथा चूमा। लाजो अपने वीर जी की आंखों में फैले डर को शायद समझ रही थी।
(11)
नानी की नींद खुल गई थी शायद। उठते ही उन्होंने फिर से लाजो-लाजो चिल्लाना शुरू कर दिया था। वार्ड में लोग उन्हें देखकर हैरान थे। मेरी लाजो नू बचा लो लाला जी। लाला जी, मेरी लाजो! माँ नानी के बिस्तर पर सिर टिकाए सोए हुई थी जब नानी ने चिल्लाना शुरू किया। माँ समझ गई थी कि नींद के इंजेक्शन का असर खत्म हो गया है। वे फिर से डाॅक्टर को बुलाने जाना चाहती थी जब नानी ने उनका हाथ पकड़ लिया और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी-वीरां, तूं मेरी लाजो नू बचा लै। ओ लैके जा रहे ने मेरी लाजो नूं। बचा लै! लाला जी कुज करो! कुज करो लाला जी! नानी बोलती जा रही थी। उन्होेंने माँ का हाथ इतना कसकर पकड़ रखा था कि माँ छुड़ा भी नहीं पा रही थी। नानी को इस तरह रोते देख उनकी इच्छा भी नहीं थी हाथ छुड़ा लेने की। उन्होंने नानी को गले से लगा लिया और प्यार से पुचकारने लगीं।
मां की आंखों के आगे नानी-नाना और उनकी बुआ लाजो के साथ घटा वह पूरा दृश्य घूम गया। उस रात जब एक सरदार जी को समझा-बुझाकर दयाराम जी ने उनकी बेटियों को ज़हर देने से रोका था और उस मंज़र की कल्पना करने मात्र से वे घबरा गए थे और उन्होंने लाजो को कसकर अपने सीने से लगा लिया था, उसके ठीक अगले दिन उन्हें रेलगाड़ी में चढ़ने का मौका मिल गया था। भरी-पूरी गृहस्थी और बाऊ जी को पीछे छोड़कर आने के दुख से कहीं बड़ी इस पल की खुशी या कहें कि सुकून था कि उन्हें रेलगाड़ी में चढ़ने का मौका मिल गया था। उनके पास इस वक्त सिर्फ़ तीन गठरियाँ, गांठ में कुछ पैसे, किसी तरह प्रकाश के लाए थोड़े गहने और दिल में सबकुछ पीछे छूट जाने की गहरी टीस थी। इसके अलावा, इस मिट्टी, इस ज़मीन का सब कुछ वे यहीं छोड़े चले जा रहे थे। प्रकाश और दयाराम जी ने कसकर एक-दूसरे का हाथ थाम रखा था और दोनों ओर अपनी बांहों के घेरे में भरकर वे लाजो को बचाते चल रहे थे। दोनों वाहेगुरू से मन ही मन यही अरदास कर रहे थे कि सब कुछ सही सलामत रहे और किसी तरह वे लोग 'अपनों' के बीच सुरक्षित पंहुच जाएँ। सरहद के उस पार जाकर क्या होगा, ज़िदगी की नई शुरुआत कैसे होगी, सारी ंिचंताएँ अभी मन में पीछे कहीं दबी थीं। अभी तो किसी तरह सब उस पार पंहुच जाएँ बस।
गाड़ी चल दी और दयाराम जी की सांस में सांस आई। उनके साथ न जाने कितनी जानें थीं जो इस पल डर के साये में जी रही थीं। रेलगाड़ी के चल देने से थोड़ा सुकून मिला। ...लेकिन चल देने से ही सरहद थोड़े पार हो जाती है। अभी लोगों ने ठीक से सांस भी नहीं ली थी कि कुछेक किलोमीटर चलने के बाद गाड़ी बीच सुनसान में कहीं रुक गई। गाड़ी के रुकते ही लोगों की जान जैसे हलक में अटक गई। पता चला कि रेल की पटरी पर मवेशी आ गए हैं। इस सुनसान में बीच पटरी पर सौ-दो सौ की संख्या में मवेशी कहाँ से आ गए। रेल का इंजन आवाज़ें देता रहा लेकिन कोई नहीं आया मवेशियों को भगाने। हाॅर्न की तेज आवाज़ के साथ ड्राइवर ने इंजन स्टार्ट कर दिया। रेल हौले-हौले खिसकने लगी। छुक-छुक छुक छुक। मवेशियों की आवाज़ों के साथ पटरी पर धीरे-धीरे सरकती रेल की आवाज़ एक अजब कोरस बना रही थी।
ड्राइवर को शायद कुछ शक हो गया था। इसलिए वह जल्दी से यहाँ से निकल जाना चाहता था। लेकिन इससे पहले कि गाड़ी स्पीड पकड़ती, हाथों में नंगी तलवारें लिए लोग गाड़ी में चढ़ चुके थे। नंगी तलवारों से लोगों को कोंचने का सिलसिला चल निकला। वे तलवार की नोंक से आदमियों के सिर की पगड़ियाँ गिराने लगे। संख्या में कुल पचास-साठ ये लोग भीड़ को चीरते हुए लड़कियों और औरतों की ओर बढ़े। चारों ओर चीत्कार मच चुकी थी। इनका इरादा आज बंटवारे की इबादत स्त्री की देह पर लिख देने का था। रेल के डिब्बों में चीत्कार मच गई थी जो रेल की आवाज़्ा और मवेशियों की आवाज़ के साथ मिलकर ट्रेन में बैठे लोगों की धमनियों में डर की तरह उतर रही थी। उन सरदार जी का डर सही साबित हुआ। उनकी तीनों बेटियों सहित न जाने कितनी लड़कियों के सीने पर पड़े दुपट्टे तलवार की नोंक पर लटके थे ।
भीतर से बुरी तरह काॅंप रही प्रकाश ने लाजो को अपने सीने से लगा लिया था और उसे अपनी ओढ़नी से ढंक लिया था। सतनाम वाहेगुरू जपती प्रकाश के मुंह से सांस की भी आवाज़ नहीं आ रही थी। वह तो बस इस पल बुत होकर इन हैवानों की नज़र से लाजो को बचा लेना चाहती थी।
लेकिन वक्त को शायद कुछ और ही मंज़ूर था। लाजो को आंचल में छिपाते देख एक दहशतगर्द ने ज़ोर का ठहाका लगाया और तलवार की नोंक से प्रकाश की ओढ़नी को खींच लिया। लाजो प्रकाश से ऐसे चिपकी थी जैसे बकरी का मेमना अपनी माँ की देह से चिपक जाता है। लाजो को जब प्रकाश की देह से अलगाया उन दहशतगर्दों ने, तो प्रकाश को ऐसा लगा जैसे जीते-जी किसी ने उसके शरीर से उसका कलेजा ही निकाल लिया है। चीत्कार उठी वह! रोती रही! लेकिन । लाजो भी इस हैवानियत का शिकार हो गई। दयाराम जी और प्रकाश दोनों की आंखों के सामने उन्होंने लाजो को उठा लिया और चलती गाड़ी में कितनी लड़कियाँ इस दरिंदगी का निवाला हो गईं। दयाराम जी ने उन दहशतगर्दों के पैर पकड़ लिए। वे रोते-रोते लाजो को छोड़ने की गुहार लगाते जा रहे थे। लेकिन उनमें से एक ने तलवार की नोंक दयाराम जी के गले मेें खोंस दी। डर के मारे प्रकाश चीख उठी और उसने तलवार को अपने हाथ से पकड़ लिया। एक भयावह हंसी का ठहाका गूंजा। वे लोग हाथों में नंगी तलवारें लिए थे। उनमें से चार ने इन चार लड़कियों को अपने कंधे पर उठाया और चलती रेलगाड़ी से छलांग लगा दी और बाकी के लोगों ने तलवारों की नोंक पर उनकी हिफाज़त की। गाड़ी सुनसान जंगल मेें से धीरे-धीरे सरक रही थी... छुक छुक, छुक छुक। पटरी पर से मवेशी दूर छिटक गए थे। गाड़ी के अंदर और बाहर से आ रही रूह कंपा देने वाली आवाज़ों में मवेशियों की आवाज़ें खोकर रह गईं।
पटरी किनारे गाड़ी से उठाई जा रही लड़कियों को नोंचा-खसोटा जा रहा था, गाड़ी में बैठे लोगों का खून खौल रहा था। लेकिन उनकी गर्दनों पर टिकी तलवार की नोेंकों ने उन्हें हिलने तक का मौका नहीं दिया। जिस समय उन मांस के लोथड़ों पर गिद्ध टूटे हुए थे, उन्हीें में से कुछ लोग तलवारें लिए गाड़ी के साथ-साथ दौड़ रहे थे। जिनकी लड़कियाँ नीचे नोची-खसोटी जा रही थीं उनके परिवारवाले गाड़ी से कूद जाने को थे परन्तु साथ-साथ तलवार लिए दौड़ रहे लोगों ने उन्हें अंदर धकेल रखा था। गाड़ी ने जबतक रफ्तार नहीं पकड़ ली, ये नंगी तलवारें साथ-साथ दौड़ती रहीं।
नानी ने माँ को बताया था कि सिर्फ़ उनके डिब्बे से उस रात चार लड़कियों का दंगाइयों ने बलात्कार किया। एक-एक लड़की पर कितने-कितने हैवान टूटकर पड़े थे। रेल की आवाज़ और दंगाइयों के उल्लास से उन बच्चियों की चीखें भी दबकर रह गईं। गाड़ी में बैठे लोग पुकार में उठते उन लड़कियों के केवल हाथ ही देखते रह गए। पूरी गाड़ी में मातम छा गया। सब अपनी-अपनी गठरी को कसकर अपने सीनों में धंसाए हुए थे। दयाराम और प्रकाश का तो जैसे कलेजा ही कट कर रह गया हो। जिस लाजो को पिछले कितने बरसों से अपने सीने से लगाकर बड़ा किया था, जिसके बड़े होने के साथ-साथ हर पल प्रकाश भी बड़ी और जिम्मेदार हुई थी, जिसके सिर पर उन्होंने अपना हाथ रखा था, आज वही लाजो पीछे अकेली छूट गई थी कभी न लौटने के लिए। गाड़ी धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी और उनकी आंखों के आगे कभी न मिटने वाला अँधेरा छाता चला जा रहा था। उनकी लाजो पीछे छूटती चली जा रही थी...
सब कुछ छूट गया। सब कुछ लुट गया।
वे सरदार जी तो जैसे पागल ही हो गए थे और रह-रहकर मुट्ठी में बंद ज़हर की पुड़िया को देख रहे थे और दोनों हाथों से माथा पीट रहे थे। दयाराम जी को तो लगा कि कितनी बड़ी भूल हो गई उनसे जो उन्होंने सरदार जी को रोक दिया अपनी बच्चियों को ज़हर देने से। बल्कि उन्हें तो लाजो को भी ज़हर दे देना चाहिए था उस रात।
उस रात इन लड़कियों की कुर्बानी पर बाकी लोग अपनी मंज़िल तक पंहुच पाए। कैसी भयावह रात थी वह। कैसा भयावह, डरावना और घिनौना था सरहदों का बंटवारा! कितना कुछ खो दिया था उन्होंने। कितना कुछ छूट गया था पीछे और कितना कुछ ऐसा था जो ताउम्र उनका पीछा करता रहा।
मां बताती हैं कि नानी के दिल पर गहरा असर पड़ा था उस रात का। उस रात जो बीता, कितना कुछ रीता कर गया उनके जीवन से। उनकी लाजो, जिसे वे कितने बरसों से अपनी बच्ची की तरह पाल रही थी, उसके साथ यह दरिंदगी, यह हैवानियत... याद आता प्रकाश को तो वह रातों को भी जागकर चिल्लाने लगती और लाजो-लाजो की पुकार लगाती। कैंप मंें रहते और फिर-फिर तिनका-तिनका घर संजोने की जद्दोजहद में भी लाजो और उस रात ने नानी यानी प्रकाशो का पीछा नहीं छोड़ा। लेकिन जो बीत गया, वह लौटकर कभी नहीं आता, चाहे रोनेवाले कितना भी चीत्कार लें।
और फिर हिंदुस्तान आने के बरस-दो बरस बाद प्रकाशो की गोद भी हरी हो गई। अपनी जड़ों से उखडकर आए प्रकाश और दयाराम जी के फिर से जीने के संघर्ष, बच्चों के जन्म और उनकी परवरिश ने प्रकाशो के मन पर पड़ी खरोंचों को भरा या नहीं, नहीं पता लेकिन ढंक ज़रूर दिया था। बच्चों के बड़े होने के साथ-साथ और अकेले कोनों में वे ज़ख्म फिर-फिर अपनी चादर उघाड़कर सामने आ खड़े होते थे और प्रकाश अकेले बैठी बड़बड़ाती रहती थी। वही बड़बड़ाहटें जिन्हें बचपन में सुनकर हम बच्चे मुंह दबाकर नानी पर हंसते थे। वही बड़बड़ाहटें जिनमें अक्सर नानी के अगल-बगल न जाने कितने लोग अतीत की तहों से बाहर निकल आ बैठते थे और नानी कभी उन्हें नाम से तो कभी संकेतों से पुकारती थी। नानी उनके साथ हंसती थी, रोती थी, लड़ती-झगड़ती भी थी। वह नानी की अपनी दुनिया थी जिससे ताउम्र वे जुड़ी रहीं। लेकिन उनकी इस अनदेखी दुनिया से अनजान हम सबके लिए नानी की वे बड़बड़ाहटें हंसी और मज़ाक का सबब था।
बंटवारे और बंटवारे के दर्द ने कभी भी नानी का पीछा नहीं छोड़ा। बाऊ जी का पीछे छूटना, उनकी दुकान, उनकी बसी-बसाई गृहस्थी, उनका सुकून सब कुछ बंटवारे ने छीन लिया था। लाजो का जाना तो जैसे नानी की देह के किसी ज़रूरी अंग का चला जाना था। बंटवारे की त्रासदी और लाजो के पीछे छूट जाने के लिए वे ताउम्र उन सबको कोसती रही जो इसके ज़िम्मेदार थे। वे अक्सर कहती थीं, रब्ब करे कदे वी कोई अपनी जड़ां तो न विछड़े। रब्ब ऐ दिन किसी नू न दिखाए। यह कहते हुए उनकी आंखें भीग जाती थीं और वे लाजो को याद कर अंदर ही अंदर डूबती रहती थीं।
बंटवारे के दर्द ने उनकी बड़बड़ाहटों में उम्रभर के लिए जगह बना ली थी जो नानी को अकेला पाते ही उन्हें घेर लेते थे।
चूंकि नानी के दिल के ज़ख्म कभी भी अपनी चादर उघाड़कर सबके सामने नहीं आए, बल्कि सिर्फ़ नानी यानी प्रकाशों को ही सालते रहे तो किसी को इसकी परवाह भी नहीं थी कि नानी अकेले में बैठी-बैठी किससे बतियाती रहती है। गुरुद्वारे में पाठ के दौरान भी कोने में बैठी नानी के मन में न जाने क्या-क्या चलता रहता और उनकी आंखों के कोर भीग जाते। अपनी चुन्नी के किनारे से आंखें पोंछते उन्हें बचपन में हमने कई बार देखा था।
आज वही नानी और नानी के दिल के वे ज़ख्म खुलकर सामने आ गए हैं और हावी हो गए हैं नानी पर भी तो कोई उन्हें पागल कह रहा है, कोई खीझ रहा है उनसे और डाॅक्टर तो कहते हैं कि नानी के शरीर में सोडियम बढ़ गया है।
(12)
नानी आज सुबह से सो रही है। वाॅर्ड नम्बर 11 के बेड नम्बर एक पर नानी सुबह से सो रही है। माँ भी आज थोड़ी ठीक नज़र आ रही हैं। नानी की सेवा और देख-रेख की थकान उनके चेहरे पर दिख रही है। पिछली कितनी रातें हो गईं माँ को नानी के सिरहाने बैठे। आज माँ थोड़ी सूकून में दिखाई दे रही हैं। नानी ने सुबह थोड़ी चाय पी है और थोड़ा दलिया भी खाया है।
वाॅर्ड नम्बर एक के साथ वाला बेड कल रात से खाली है। उसका मरीज़ ठीक होकर घर चला गया है। नानी भी घर जाना चाहती है। माँ उन्हें घर ले जाना चाहती हैं लेकिन डाॅक्टर अभी छोड़ना नहीं चाहते।
बंटवारे को सपने में कोसती नानी बीच-बीच में अजीब-अजीब-सी आवाज़ें निकाल रही हैं। कभी रोने की आवाज़ें, कभी चिल्ला देती हैं और नींद में ही बड़बड़ाती हैं। कुल मिलाकर सब सुकून में हैं। नानी की बड़बड़ाहटें सब अपने तक ही केंद्रित हैं इसलिए सब निश्चिंत हैं। ठीक उसी तरह जैसे बरसों से निश्चिंत थे। बस, नानी ही उम्र भर उस खौफनाक मंज़र से कभी बाहर निकल नहीं पाई। जब तक नाना जी यानी दयाराम जी ज़िंदा थे, दोनों मिलकर गुज़रे वक्त पर आंसू बहा लेते और फिर उसके बाद नाना जी अपने काम-धंधे में मसरूफ हो जाते और नानी अपनी बड़बड़ाहटों में इतिहास के उस अपराध से अकेली जूझती रहती। जब से नाना जी गए, नानी और अकेली हो गईं। अब उनका सहारा वे लोग ही थे जो पंजा गाँव में उनके मंजे पर आकर बैठा करते थे और दुख-सुख सांझे किया करते थे। लाजो की चोटियाँ गूंथती नानी, उसके साथ वेहड़े में खेलती-कूदती नानी और उसे प्यार से सीने से लगाकर दुलारती नानी। नानी और लाजो का बिछोह तो कभी हो ही नहीं पाया। मरकर भी लाजो ताउम्र नानी के दिल में ज़िंदा रही। नानी लाजो से हाथ जोड़कर माफियाँ मांगती रहीं, लाजो मैंनू माफ कर दे पुतर। ओस रात सारा दर्द तूने अकेले ही झेला ... वाहेगुरू जी, लाजो की जगह आपने मुझे ही क्यों नहीं डाल दिया उन हैवानों के आगे! उनकी शिकायतें वाहेगुरू जी से बदस्तूर जारी थीं। वह वहशत की रात जिसने सिर्फ़ लाजो को उनसे जुदा नहंी किया, बल्कि न जाने कितनी बच्चियाँ, औरतें सरहद को बांटने की वहशत की शिकार हुईं। वह वहशत की रात किसी की ज़िंदगी में न आए। खुदा के नाम पर, सरहद के नाम पर, ज़मीन के नाम पर, सियासत के नाम पर दिलों को कभी तकसीम न किया जाए। कोई बच्ची, कोई औरत किसी बंटवारे की शिकार न हो। यही दुआ नानी सारी उम्र वाहेगुरू से करती रही।
(13)
और आज ही वाॅर्ड नम्बर 11 के बेड नम्बर दो पर एक नई मरीज़ आई है। उसके साथ कई लोग हैं। एक बच्ची जिसकी उम्र 11-12 बरस है। उसके आते ही कई नर्सों ने उसे घेर लिया है। लड़की बहुत ज़ोर-ज़ोर से रो रही है और अपनी जांधों के बीच हाथ रखकर उसे दबा रही है और चिल्ला रही है, मां, बचा लो मां! माँ बचा लो मां! बाबा, आ जाओ बाबा! छोड़ दो मुझे! छोड़ दो! उसके हाथ में खून लगा है। उसके कपड़े खून से सने हैं। वह जांघों के बीच अपने हाथों को रखे ज़ोर-ज़ोर से दबा रही है और चिल्लाती जा रही है। उसकी माँ रो रही है और उसके हाथ पकड़ने की कोशिश कर रही है। उसके पिता उसके पांव पकड़े खड़े हैं और अपनी कमीज़ की बाजुओं से अपनी बार-बार भीग जाती आंखों को पोंछ रहे हैं। वे रो रहे हैं लेकिन बेटी के सामने कमज़ोर पड़ना नहीं चाहते।
उस बच्ची ने दर्द के बीच अपनी आंखें खोलकर देखी और अपने आप को लोगों के हुजूम के बीच पाया। ढेर सारे लोग उसको घेरे हुए हैं। सब उस पर झुके हुए हैं। अपने दर्द के बीच उस बच्ची ने एकदम से अपनी आंखें मींच लीं और आंखें मूंदें ही रौशनी की तरफ इशारा करके कहा बत्ती बुझा दो। रौशनी नहीं। रौशनी नहीं। अँधेरा कर दो। मुझे सब देख रहे हैं। अँधेरा कर दो प्लीज। बच्ची के पिता एकदम से रौशनी के स्विच की तरफ दौड़ पड़े। लेकिन वहाँ के स्विचों से सिर्फ़ दो लाइटें ही बंद हो पायीं। बच्ची ने फिर से तड़पकर कहा 'नहीं...एकदम से घुप्प अँधेरा कर दो।' तब एक नर्स गयी और सारी लाइटें बंद कर आयीं। अब उस वार्ड में जितने भी बिस्तर थे सब अंधेरे में थे। जहाँ उस बच्ची का बिस्तर था उस कोने से बस आवाज आ रही थी।
डाॅक्टर जब वाॅर्ड में दाखिल हुए तो अँधेरा देखकर जोर से कहा 'व्हाय द लाइट हैव बीन स्विचड आॅफ?' लेकिन उन्होंने भी इस आवाज को सुनकर समझ लिया। परन्तु बगैर लाइट के देखना संभव नहीं था। बच्ची जिस बिस्तर पर थी उस बिस्तर पर की लाइट को छोड़कर और लाइटें जला दी गईं।
वाॅर्ड में अफरा-तफरी मच गई है। बच्ची की चीखों ने जैसे सबका कलेजा चीरकर रख दिया था। डाॅक्टर सबको धकेलने की कोशिश कर रहे हैं-हट जाइए, हमें काम करने दीजिए! हटिए पीछे! पुलिस भी है और बच्ची का बयान लेना चाहती है। कितने लोग थे वे, कैसे चेहरे थे उनके? लेकिन बच्ची बिस्तर पर हाथ-पांव पटक रही है और छोड़ दो, छोड़ दो चिल्ला रही है। उसका दर्द और बेबसी सब कुछ बयाँ कर रही है।
गहरी नींद में सोई नानी के कान में अचानक उस रात बच्चियों की चीखों, गाड़ी की आवाज़ और हैवानों के उल्लास से बना भयावह कोरस गूंजने लगा। वे नींद में ही हाथ-पैर पटकने लगीं। वाॅर्ड में हुए शोर ने जैसे नानी को गहरे सपने से बाहर लाकर खड़ा कर दिया था और बच्ची की चीखों से वे अपने बिस्तर पर ऐसे उछल बैठी ऐसे जैसे बरसों की लंबी नींद से बाहर आई हो। जैसे फिर वह मंज़र उनकी आंखों के आगे हो और जिसे आज वे फिर से गंवाकर गुनहगार नहीं होना चाहतीं। वे झटके से नींद से उठीं और ज़ोर-ज़ोर से लाजो-लाजो चिल्लाने लगीं ऐसे जैसे लाजो उनके सामने आ खड़ी हुई हो... ऐसे जैसे यह वही रात हो... लाजो को दरिंदों ने घेर रखा हो और लाजो ज़ोर-ज़ोर से वीर जी वीर जी, भाभी, भाभी चिल्ला रही हो। नानी ने ग्लूकोज़ की नली को अपने हाथ से ज़ोर से खींचा और अपने बिस्तर से नीचे कूद पड़ी। भीड़ को खदेड़ते हुए और पुलिस व डाॅक्टरों को धक्का देकर पीछे कर नानी उस बच्ची के पास जा पंहुची और कसकर उसे अपने सीने से लगा लिया। अब नानी की हंुकार ने बच्ची की रोने की आवाज़ को दबा दिया। नानी ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रही थी-मेरी लाजो नूं कोई हत्थ नहीं लगाएगा, मेरी लाजो नूं कोई हत्थ नहीं लगाएगा। लाला जी, लाला जी लाजो नूं बचा लो लाला जी। लाला जी, साडी लाजो, साडी लाजो लाला जी! न! न! दूर हट जाओ सारे! कोई हत्थ नहीं लगाएगा मेरी लाजो नू! न बच्ची न! न मेरा बच्चा न! नानी की आंखों में जैसे खून उतर आया था। वे बच्ची के बिस्तर पर चढ़ बैठी थी और घायल शेरनी की तरह गुर्रा रही थीं और उन्होंने अपने हाथों के घेरे में उस बच्ची को ऐसे समेट लिया था जैसे सचमुच उनकी लाजो उनके सामने हो।
आसपास खड़ी भीड़ इस दृश्य से सन्न थी।