लाटो बाबू का नाचघर / शैवाल
स्वदेशी कांड: हवाला से निवाला तक
'टन-टन भाजा' उर्फ 'धोतीफाड़ा का रूमाल' उर्फ 'लाटो बाबू का लुटकुन' उर्फ विलट यादव की 'डॅसर गुलाबछड़ी' उर्फ 'लोलो ब्रेगान्जा गायब' हो गई। घटना पिछले माह की है, पर उसका आतंक अब तक व्याप्त है। वी.आई.पी. कॉलोनी अनुग्रहपुरी की उदग्र नासिका विलुप्त हो गई। अब चाहे वहाँ के निवासी भद्रजनों की जिंदगी में किसी इच्छा-विच्छा ने डंक मारा हो या नहीं, विलट यादव के खटाल की रौनक को मारण-केलि में संलिप्त विषकन्या ने अभूतपूर्व ढंग से डंस लिया। अब एक महीना से ऐन सुबह साढ़े सात बजे और शाम पांच बजे पूरे खटाल, विलट यादव और उसके पंचप्यारे विष के दुष्प्रभावी' जुआर' से आतप्त हो बिलखते हैं। "हमरा भतरमारी थानवाला छौकठवा खेत देखा है, हो?" कटहर गोसाई विलट यादव की नासिका से निकली जेठ की उत्तप्त हवा से सिहर कर पूछते हैं। भतरमारी यानी सुहाग की निशानी को मार डालनेवाली स्त्री। थान यानी जमीन की निशानदेही। अजब संयोग है थान और स्त्री का। कोई सती हो जाने वाला थान है, कोई असुर निकंदनी थान है, कोई मत्स्यगंधा, तो कोई भतरमारी। पंचप्यारों में से कोई नहीं हिलता। सबके सिर झुके हुए। उठे, तो काहे के लिए। इस वक्त खांटी जर्सी गाय के मलाईदार दूध में बनी एक गिलास चाय और लाटो बाबू के नाचघर से उतरने वाली अप्सरा के चरण-चाप की आहट दोनों के कारण जो समां बंधता था, उसकी कमी और भोग की पूर्वस्मृति विह्वल किए हुए है सबको। किसका सिर उठे... विलट जी को बिरह-काल में साथ नहीं दीजिएगा, तो खटाल में वक्तकटी के लिए आश्रय मिलेगा ?
आश्रय भाव से कृतज्ञ हुए पंचप्यारों में से एक की जुबान हिलती है, कौन थान, जिसके उतरवारी ठोर पर सेमर गाछ है?" "हाँ, एकदम ललका गोदना माफिक !" एक उत्तेजित स्वीकार-भाव काँधता है। "बहुत पनचहल है..." ठीक कहा। उसी पनचहल जमीन में मांगुर मछली का सुपुर-सुपुर तैरना भोरे-भोरे देखा, तो मन कछट गया।" "पैर पड़ गया?" नन्हें यादव पूछते हैं। होंठ विवक के कांपता है, तो लगता है, याएं पैर का अंगूठा दर्द से तड़प उठा है। "अब का कहें कि क्या पड़ा... मुदा अनमन बोही थी गुलाबछड़ी... पनचहल खेत की माया... रे बाप, एक वार आँख से आँख मिल गया था, सो पांच महीना करेजा में ठोठी मारता रहा मांगुर !" कटहर गोसाई विरह की कटार विलट यादव की ओर बढ़ा देते हैं। विलट यादव लाटो बाबू की हवेली के टेरेस पर दृष्टि डालते हैं। कहीं कोई नहीं। हा, रे देव! लील गया पाताल कि ब्रह्मा जी खुद भांजी मार गए, गायब कर दिया अपने सुख के लिए। अब जो हो। भरोसी कुर्मी की पड़ताल-भरी दृष्टि सारे चेहरों पर दौड़ती है। निर्विकार! या हो सकता है कि बाहर हो मुल्ले का मस्जिद, भीतर छिपी अनारकली। उमांस भरते हैं भरोसी कुर्मी। फिर बुदबुदाते हैं, "इन दिनों जाने काहे बुरहान अली नवाब बहुत याद आ रहे हैं..." पंचप्यारों में उकताहट का भाव कौंधता है...ई साले नवाबों को याद करेंगे। बाप का चूतड़ घिस गया कोवी रोपते और सगहा प्याज उखाड़ते, पर ये सालारजंग की बुर्जी से नीचे नहीं उतरेंगे। "मखमल की गद्दी पर पोसते थे बेगम हुस्ना को।" "कोन बोला?"
"अरे, बोलने से होता है ई सब..." भरोसी कुर्मी का कंधा उतान लेते वक्त कांपता है, "यहाँ... यहाँ करेजा में फुरेरी हो, तो महसूस कीजिए।" "मान लिया कि किया, अब बताइए कि हुआ का?" "अरे, इधर हुस्ना ने आह भरा... उधर नवाब गश खा के गिर गए... आ गिरे, तो सात दिन के लिए सांस गायब!" "पर हुस्ना को आह काहे आया?" "अरे, चंपाकली का खुर पड़ गया रेशम पर और छिल गया, तो चौदह दिन टिभ- टिभ करता रहा।" "खुर माने?" प्यारे यादव वात को टीप लेते हैं, "हुस्ना का क्या..." "नवाव साहब की घोड़ी थी, हुस्ना।" रहस्योद्घाटन करते हैं कटहर गोसाई। फिर उवासी भरते हैं... साला, घोड़ी की बात यहाँ पर थोप रहा है...तो सुहागरात में क्या किया होगा। खुद गायब, और छाको पहलवान का घोड़ा अंदर! हा-हा-हा! मन ही मन हँसते हैं कटहर गोसाईं, पर बाहर एक पाव गुल्ला नहीं बाहर आता रस का। प्यारे कुर्मी आहत नहीं होते। रेंगनी के कांटे पर सोए-सोए कराहते हैं, "हम तो देखे थे गुलाबछड़ी का पर... आही हो जान। लुक (लू) मारिस तो एक पखवारा भोजन नहीं ढुका ।" "काहे ?" "लगे कि बेगम हुस्ना का पैर पड़ गया रेशम पर!" भरोसी कुर्मी का कंचा थरथराता हुआ दाएं भागता है, तो प्यारे यादव की नाक से टकरा जाता है। प्यारे यादव थोड़ी दूर जाकर बैठते हैं। फिर कहते हैं," हमको तो ममानी बाला किस्सा याद आता है।"
"ममानी नहीं?" कटहर भुजंग-वन से बोलता है... अरे ससुर, प्यारे ! ममानी का पर दवाते-दबातें पहुंचा दया दिया और अभी खाली खिसवे याद आता है, कटहर का कोवा नहीं, रसभरी फलेना (जामुन) नहीं? प्यारे काटती हुई नजरों से उसे देखते हैं। भरोसी बात का जहर मारते हुए कहते हैं, चालू रहिए, इधर-उधर का फिकिर मत कीजिए।" प्यारे भर नाक टेटन पर चुपड़े घृतकुमारी का इत्र या चितकबरी गाय के 'फेनुस' की साँधी वू भरते हुए सुगबुगाहट-भरी उत्तेजना के साथ कहते हैं, "छत्तीस कोस तक वास जाता था ससुरा !" "किसका ?" "केश का!" "अरे, केश किसका... भैंसी का?" "बोले नहीं, केशो रानी का! अटारी पर बाल गूंथती थी, तो समझिए कि राजा महताब बहादुर के महल में दुक जाता था बास और अमला फैला...पाही (अतिथि) सिपाही सबके नाक में वलतोड़ का दरद समा जाता था।" "ई कौन दरद हुआ, हो?" "जिसका पूरा फौज हार गया, उहे जानता होगा कि ई कौन दरद है।" "किस्सा है खाली।" "तो जा के देख आइए पहले, स्मारक बना है मोकामा में केशो रानी का।" "यानी आपके ममानी के गाँव में?" "हाँ," अब प्यारे यादव की आवाज थिर हुई, "ममानी कहती थी कि ऐसा बास था केशो रानी के लट का... कि सिपहियन को लगे, सूंघते जाएं-सूंघते जाएं... माने मने नहीं भरे!" "आ," इसी सूंघा-सूंघी में नाक का बाल टूट गया?
"और का!" प्यारे यादव ने अब भर जी ताकत लगा के अपनी बात को प्रभावी बनाने का प्रयास किया, "हम तो पहले बेर लाटो बाबू की हवेली से आता बास सूंघे कि जान गए... यही है केशो रानी के लट का बास!" प्यारे यादव ने झूम कर लाटो बाबू के नाचघर की ओर देखा और गाने लगे, "अगे लटिया जे मारे बास, झमाय गिरे फौजिया... आ गेलई हार रे राजा महताब! आहे ... केशो रानी तोहरे करनवां, से रह गेल बचल मोकमा के आब! आहे..." ऐन "आहे" पर विलट यादव ने हाथ के इशारे से उसे बरज दिया। बरजने का कारण था चुल्हाई का आगमन, उसकी धाँकनी की तरह चलती सांस और कटारी की तरह वार करते आगत की आहट, " गजब हो गया विलट भाय!" "का?" "गुलाबछड़ी..." "हाँ... का हुआ उसको?" "लाटो बाबू मार दिहिन बजरमूठ !" "माने? साफ-साफ काहे नहीं कहते?" "डैंसर बना रहे हैं... बेच रहे हैं उसको।" ... बज्रपात! सारा खटाल अग्नि-दाह में झुलसता हुआ। चेहरे अवाक्। विलट यादव बांस के जंगल की तरह हर-हर जलता हुआ। हाय रे लाटो बाबू! अंत में आ ही गए अपनी आंकात पर। खुल गया चरित्र। बिलट यादव ठेहुना में सिर रोप के जैसे अपने जन्म-काल में लौट जाते हैं... अब बचा क्या, सिर्फ काल की स्मृति और स्मृति-चिन्ह- लाटो बाबू का नाचघर ।
फ्लैश बैक : स्वदेश-गान बजरिये इजलास तीस हजारी
... नाचघर। डैंसर। और रियाया का श्वास-प्रश्वांस यानी स्वप्न-गान ! “का रे लहटनवां! कैसी लगी डॅसर?" “एकदम टन-टन भाजा!" “ससुर, अपना भाषा में काहे नहीं कहता है?" “अनमन घोती फाड़ का रूमाल... और का कहें, बाबू साहेब!"....सन 1947 के आसपास लाटो बावू की हवेली का चरित्र यही था, ध्वन्यात्मक आंकात यही थी और वह भी रियाया की नजर में। रियाया हवेली में दबे पांव जाती थी और छिप-छिपा कर ये सब देखती थी। देखे हुए सत्य का इजहार झोपड़ी में करती थी या एकांत गोशे में चिलम पर्व के दौरान। सन् 1950 के आसपास एक पर्व का समापन हुआ। दूसरे पर्व की शुरुआत 'बकडोल' आदर्शवादियों के मजमे में हुई और वहाँ से आगे बढ़ते ही वह पर्व तेज- तर्रार मंत्रियों के निजी कक्ष में दफन हो गया। हवेली इच्छाओं के कब्रगाह में तब्दील हुई। हवेली-पर्व लाटो बाबू की बग्घी में लब कर, सुना जाता है कि शिमले चला गया। चालीस बरसों तक कहाँ-कहाँ रहा, कोई नहीं जानता। पर मारुति धाऊजेंड में जो लौटकर आई, यह तह-तह जवान 'लटफारम' थी। जवानी और तिस पर तारी अंग्रेजी भवता। कभी-कभी तो लगता, वाका से होनोलूलू तक सरपट पसर गया... प्रसार करीने का हो, इसलिए नाचघर की सफाई हुई, पर अंग्रेजी विवर के 'पनछुक्का धार' को जर्सी गाय की मलाई में डाली, तो क्या यनेगा आखिर । थार में पानी की रंगत थोड़ा-थोड़ा सुरमई हो जाती, जब विलट यादव की जुवान पर चढ़ती। खटाल का सारा काम ठप हो जाता। अब सोचने की बात है कि हवेली के बगल में खटाल कहाँ से आया? तो जनाब, चालीस साल के सफरनामे का कुल जमा प्राप्य यही है, यस एक यही काम।
हवेली के ऐन गोशे में खटाल। भैंसों का रंभाना और तिस पर विलट यादव के पंवप्यारों का बिरह गान ! "टन-टन भाजा के बारे में कुछ और पता लगा?" "रामलगन नेता का डरेबर बोला- लाटो बाबू का माल है।" "माने ?" "शिमला में फुरफुरी रखे हुए थे, उसी के चेंगना (संतान) है ई जवान हो गई, तो उनका माले न होगी।" "आ, अपना परिवार कहाँ गया?" "अमिताभ बच्चन का बेटा-बेटी कहाँ है?" "स्विज्जरलैंड!" "तो इनका भी बहीं है, साफ बात।" ...सफा बात रियाया क्या बोलेगी। जो सुना, जो कहा... पर विना जाने और जानने के लिए देखना पड़ता है, उतरना पड़ता है चुपचाप जनतंत्र के गहवर में, पर उतरने का मौका भी तो मिले। यहाँ तो विलट यादव बीस साल से यही जानता है कि लाटो बाबू के नाचघर में छप्पन दरवाजे हैं, एक सौ बावन खिड़कियों हैं, सुरंग है जो शिमले में निकलती है. लाटो बाबू वहीं से स्विच दबाते हैं और यहाँ झाड़-फानूस रोशन हो जाते हैं। अब रोशनी का यह हाल-अहवाल भी विलट यादव ने देख के तो नहीं जाना। दादा ने अपने बेटे को बताया और उसके बेटे ने भैंस को चारा देते वक्त अपने बेटे को जी बहलाने के लिए बताया। सो कही-सुनी में नाचघर मुहावरे की तरह समाया है। मुहावरे का अर्थ कहाँ पता लगता है। विलट यादव ने तो जब से देखा, बंद हवेली और बाहर ताला। अंदर का सच तो ले गए लाटो बाबू अपने साथ बग्घी में। अब नेता रामलगन ने बताया कि लाटो बाबू शिमला में कहाँ, अक्सर एक पाँव दिल्ली और एक पौव 'फोरेन' में रखते हैं... तो मान गए लोग, कि नेता की
बात है, गलत कैसे होगी। पर कवायद करने वालों ने पूछा, " करते क्या हैं?" जवाब मिला, 'एक्सपोर्ट'। 'काहे का?' 'पता नहीं, होगी कोई चीज !' दूसरी खबर यह आई कि शिमला में लाट हो गए लाटो बाबू। लाट क्या होता है? अब यह भी कोई पूछने की बात है। बावा आदम के जमाने से हो रहा है, कोई नई बात है, लट्ठो खाने वाले पूछते रहे कि हैमबर्गर क्या है? पंडित जी बताते हैं, पहले के जमाने में भालेन्द्र की चुरचुरी खाते थे लोग, ई साला हैमबर्गर क्या रहेगा उसके सामने। तो दोनों अजूबा हैं, जानिएगा क्या कि था क्या वो और है क्या ये। बस, जानिए कि होता है। शिमला क्या है? जो दिल्ली है। दिल्ली क्या है? जो कलकत्ता है। कलकत्ता क्या है? जो मद्रास है, बंबई है, ढाका है, टोकियो है, होनोलुलू है। और ये सब आप नहीं समझ सकते हैं, तो विलट यादव की बात मान लीजिए, कि जो ये सब हैं वही लाटो बाबू का नाचघर है। ...अरे, नाचघर है, तो नाच होगा। नाच होना है, तो नचनी होगी, तो छप्पन दरवाजा और एक सौ बावन खिड़कियाँ होंगी। सारे दरवाजे और एक-एक खिड़की पर एक- एक जोड़ी आँखें होंगी और आँखें होंगी, तो रियाया होंगी... जो अपने झोपड़ों में पहुँच कर लाटो बाबू के नाचघर का जिक्र-जिकरात करेगी, हवा में उड़ेगी, सपनों में नाचेगी। सपनों का नाच है जब तक, तब तक लाटो बाबू का नाचघर रहेगा, विलट यादव की नींद में, बात में, अफवाह में, कराह में- सब जगह वह होगा और विलट यादव जब उसे छूने के लिए आगे बढ़ेगा, ताला आगे आएगा, ताले का सच विलट को मुहावरों में ले जाएगा और विलट पेरिस के म्यूजियम में भी पहुँचकर आपसे कहेगा, "ई कोन चीज है, हो? हमारे यहाँ आइए। बगल में दिखाएँगे जो, उसके सामने भूल जाइएगा सव... ऐसा है लाटो बाबू का नाचघर!" फिलहाल ऐसा ही है नाचघर, मान लीजिए। मानिएगा, तो किस्सा आगे बढ़ेगा। किस्सा रुका, तो ताला लटका और ताला टूटा, तो समझिए, लटफारम आँख के आगे आया। एक सांस में ढाका से होनोलुलू, सव स्टेशन पार !
... पहले पार करने का तरीका कुछ दूसरा था अपने मुल्क में। चले जा रहे हैं। लड़िया पर या लोटा-सत्तू बांध के निकल गए। पहुँच रहे हैं एक महीने में, पर अब तो इंटरनेट का जमाना है, एक मिनट में सारे मुल्क का हाल-अहवाल ले लीजिए। यह दूसरी बात है कि बगल के घर में देवदास और बुढ़िया पारो दोनों की हत्या हो जाए, एक महीने लाश गंधाती रहे और आपको पता न चले। खैर, चालीस साल बाद लाटो बाबू आए अपने नाचघर में, तो लोगों को मालूम हुआ कि मालिक आया। यह दूसरी बात है कि कोई कुटुंबी नहीं मिलने आया। हो सकता है, खबर नहीं हो या हो सकता है, कुटुंबी ही नहीं हो आसपास, सब 'डिल्ली-बांवे-नखलऊ' अगोर रहे हो। आखिर ठहरे लाटो बाबू के कुटुंबी। जो खुद इतने साल कहाँ रहे, ठिकाना नहीं... तो कुटुंबियों का क्या पूछना । ठिकाना भी होता तब, जब पहले का जमाना होता, ललपरिया बूढ़ी आँचल में मुँह ढांक के विनाती (रोती), 'कहाँ रहल हो बाबू हमार लाटो.. व्यापारियों को अपनी ओर आने की दावत देता हुआ। दावत खुशनुमा थी, पर समां दिल की सरगोशियों को रहस्यमय दुर्ग की ओर ले जाने वाला था। चुनांचे सुवह पर जहाजी सीटियों ने इस तरह कुहरा बरपा दिया कि किनारे पर खड़े लोगों को लगा, जैसे समुद्र कंचनजंघा की चोटियों में तब्दील हो गया हो और चारों ओर तेज हिमपात हो रहा हो। रास्ते बंद हो गए हों और आसमान जमीन को जीवित रखने के लिए मुंह से मुंह सटाकर गर्मी पहुँचा रहा हो। बहरहाल, जमीन तो अहसासों का सरिस्ता है, चाहे जिस खतियान को वहाँ लाल कपड़े से लपेट कर रख दीजिए और अगली पीढ़ियों के लिए गली अनारकली की रहवरी सुरक्षित कर दीजिए। हम मुतमइन हैं कि सुरक्षित ही रहेगा विलट यादव का बारहमासा। बहरहाल, कजरी-प्रतियोगिता का हाल-अहवाल इरशाद फरमाइए। ...तो हुआ यूं कि सुबह नौ बजे का वक्त-ए-तमाशा रहा होगा, जब एक जलजले ने लाटो बाबू के नाचघर के आगे अपनी आमद दर्ज की। बगल के खटाल का पुर्जा-पुर्जा हिल गया। विलट यादव का कलेजा चाक हो गया और चाक-ए-
गिरेबां में कटहर गोसाई ने नजर डाली, तो रगे-बुलबुले ने हिना के रंग से सारी कायनात को रंगते हुए एक टुकड़ा दीवानों की मजलिस में इस अदद मुखड़े के साथ डाल दिया कि 'हवा में उड़ता जाए, मोरा लाल दुपट्टा मलमल का - मोरा लाल दुपट्टा मलमल का, हो जी-हो जी...'
अगले दिन से दुपट्टे ने जिन लोगों की जिंदगी का रुख बदल दिया, उनमें विल यादव और पंचप्यारों का नाम सुनहरे अक्षरों में आया। अक्षरों ने नजरों की सीमाएं तय कर दीं। तयशुदा मरहले में सिर्फ एक फाटक था और यह फाटक लाटो बाबू के नाचघर की तरफ अंदर की ओर खुलता था। दीवाने बाहर रहते थे। गो कि फाटक जब-जब दरख्त की पत्तियां उड़कर आती थीं, उनके ऐन नीचे दीवानों की धड़कनें हुआ करती थीं। दुपट्टा हवा में सर्र करता और कई जीवित वुतों में सांसों की आवाजाही थम जाती। जूतियों के जरिये 'टर्र' की आवाज होती और दिलों के पुर्जे मेंढ़क की शक्ल में सावनी फुहार की कदमबोसी करने को छप-छप दरिया में कूद जाते। दरिया की गहराई पाताल तक समाती थी, पर लहरों का सफर लंबा नहीं था। अहले सुबह सात बजे उनकी जंजीरें खुलती थीं। साथ में फाटक खुलता था। सीढ़ियों पर पेर नजर आते थे, जो पानी की लकीरों पर चलते हुए मारुति 1000 में समा जाते थे। दरियाई किस्सा शुरू होता था और सेंट फ्रांसिस स्कूल के अहाते में बंद हो जाता था। बुलंद दरवाजे की चौखट पर कई दिनों तक सिर पटकने के बाद पता लगा, गुलावछड़ी स्कूल में पढ़ाती है। पंचप्यारों की धमनियां अवरुद्ध हो गईं...कि आखिर इतने चालीस बच्छर कइसे भुलाइल रहल हो बाबू लाटो... ऐ गो पतियो न दिहले हो बाबू लाटो...'
किस्सा कोताह इतना कि बाबू लाटो तरह-तरह से बुढ़िया का मान- मनौवल करते, कहते कि दादी गे, जी नहीं पाए तुम्हरे विना ठीक से। एक-एक दिन पहाड़ हो गया, और एक-एक रात हिंद महासागर... अब आए हैं, तो अंचरा में एक टुकी आश्रय दे दो। पर यहाँ आश्रय की बात कहाँ। लाटो बाबू खुद आश्रय देने वाले ठहरे। जमींदार घराने में पैदा हुए, पेरिस-लंदन में पढ़े, लौट के आए, तो खुदमुख्तार यानी मालिक बन गए। अब अंग्रेज ने उनको या उनके घराने को ही क्यों चुना। एक-दूसरे के विना दाना-पानी नहीं चलता, जीना मुहाल होता, इसीलिए न। अब नातेदारी टूटती कैसे, जान रहते टिकती। वह तो कहिए कि गान्ही आ गया बीच में बकरी ले के। वकरी सारी सुविधाओं की फसल चर गई रातों-रात । अपना ही देश बिराना हो गया, तो उठे-पुठे, चल दिए सेला-सोंटी ले के। हाँ, इतना हुआ कि नाचघर को बेचा नहीं, सपनों का महल बचा के रखा और लोटना हुआ, तो सीधे यहीं आए। आए तो आगे-पीछे दो-दो टाटा सियेरा। बीच में खुद मारुति 1000 पर। और पीछे से ट्रक, असबाव से भरा। अमला फेला उतरे। अदब से खड़े हुए। एक ने नपे-तुले कदमों से आगे बढ़कर थाउजेन्ड का दरवाजा खोला। लाटो बाबू निकले, पैर जमीन पर उतरा। क्या स्मार्टनेस, बाप रे! पैर से शीर्ष तक सूत-सूत नपा- तुला। जिस्म पर एक कतरा गोश्त फालतू नहीं। मूँछों के साथ सारा सलीका सद्दाम हुसैन की तरह। फालतू में सिर्फ एक सफेद फ्रेंचकट दाढ़ी, गले में टाई, बदन पर सफेद सूट। विलट यादव ने गौर किया, अंदर से दो आदमी निकले। फाटक खोला। अगवानी किया। दूर से झांक कर अंदर देखा विलट यादव ने, और भी अमला-फैला मौजूद थे। कब आए, कुछ पता नहीं। उनकी आमद लाटो बाबू की तरह थोड़े ही हुई होगी कि किसी को पता चले। लाटो बाबू अंदर गए और फिर गुम। शाम तक नाचघर झक-झक हो गया। जेनरेटर चलने की आवाज हुई। कैम्पस के कॉटेजनुमा दरबों में आदमियों की आमद रफ्त बढ़ गई। लगे ही नहीं कि नाचघर इतने दिनों तक भुतहा हवेली बन कर रहा होगा।
पाँच दिनों तक खूब गहमा-गहमी रही। इस अफरा-तफरी में कब वापस निकल गए लाटो बाबू, कुछ पता नहीं। बिजली बत्ती का कनेक्शन, फोन और सुविधाओं की जरूरी पटरी फिट-फाट कर निकल गई गोरी फौज। तव बचे कुल जमा चार आदमी। एक आदमी केरेलियन ड्राइवर, एक नेपाली दरवान, एक नौकर असमिया और एक ओरत क्रिश्चियन। विलट यादव सहित सारे पंचप्यारे की समझ में कुछ नहीं आया, यह सारी तैयारी किस ओलंपिक की है। या यह पूर्वाभ्यास है, तो किस युद्ध का।
जंगजू जहाज अगले दिन किनारे से लगा। पाल फहराता हुआ, दूर से सीटियां बजाता हुआ, बड़े आदमी के ' लुटकुन' को ऐसी क्या जरूरत पड़ गई, जो गुरुआईन की पंगत में आकर बैठ गई? अंततः अनुमान लगा कि जी बहलाने को गालिब ये काम अच्छा है। न रहेगा दिमाग में खलल, न नसबार की जरूरत पड़ेगी। नसवार यानी रूमाल-बदल का प्रपंच, इश्क- मुश्क आदि-आदि। गोरखे को एक चिलम गांजे से नवाजा गया, तो उसने बताया कि गुलावछड़ी का असली नाम लोलो ब्रेगान्जा है। इसी नाम ने कई रहस्य की भीतरी परतों को उघारकर रख दिया। बाप का नाम लाटो सिंह, तो बेटी का नाम लोलो ब्रेगान्जा क्यों... लीला, शीला या चमेली काहे नहीं? कटहर गुसाई की सगुन लीला का सहारा लिया गया, तो बात आगे बढ़ी कि ससुरी शिमला में उनकी एक 'फुरफुरी' थी, यह उसी की चेंगना है। गोरखा को नाम के अलावा कुछ नहीं मालूम था। काम करते हुए मात्र तीन महीने गुजरे थे अब तक। लाटो बाबू ने उसे दार्जिलिंग की एक चाय दुकान से उठाया था। इसलिए उसके कलेजे का आयतन कम था। हर वक्त सांस की जगह भाप उठा करता था कि जाने किस गलती पर फाटक से बाहर कर दिया जाए। गोरखा का अपना अनुभव बुरा था। प्रियपात्र बनने के लिए कोशिश तो कई बार की उसने, पर लोलो से हर बार अंग्रेजी में गालियां सुनने को मिलीं। मद्धिम आवाज और बड़ी- बड़ी आँखों की गहराइयों से निकलने वाली 'बास्टर्ड-
रास्कल-यू फूल' का लहजा बेहद डरावना था। डर की पैमाइश हिन्दुस्तानियों के लिए अलग हुआ करती है। कॉन्वेंटी बच्चे इसके गवाह हैं, जो गुरु जी की छड़ी टूट जाने पर भी भय नहीं खाते, लेकिन रहस्य में गुंथे- - साफ-सुथरे पब्लिक स्कूलों के मैदान में गुलमोहर के खुशनुमा दरख्त के नीचे मिस की धाराप्रवाह अंग्रेजीदां डांट से मूत्र-त्याग तक कर देते हैं। लोलो सिर्फ अंग्रेजी बोलती थी। हिन्दी कामचलाऊ आती थी। पोशाकों का चयन लेकिन हिन्दुस्तान के हर प्रांत से जुड़ा था। एक दिन कश्मीरी सलवार सूट, दूसरे दिन स्कर्ट-ब्लाउज, तीसरे दिन राजस्थानी घाघरा-चोली, चौथे दिन बनारसी कामदार साड़ी, पांचवें दिन 'नखलऊ' का जरीदार कुर्ता। ऐसा लगता था, स्कूल जाने के कारणों में सज- धजकर आउटिंग करना भी शामिल था, पर गाने वह अंग्रेजी ही पसंद करती थी। भारतीय नाच से खूब वाकिफ थी। खाने में ब्रिटिश सलीका ही मंजूर था। रहन-सहन का बाकी ढब भी लंदन से आयातित था। जाहिर है, इसीलिए क्रिश्चियन औरत उसके ज्यादा करीबी थी। ये सब होने के बाद सवाल यह उठता था कि एकाएक गया कैसे करीबी हो गया लाटो बाबू की जिंदगी में और वह भी चालीस साल बाद? नेता रामदास बताते हैं कि लाटो बाबू के दो बेटे अमेरिका में हैं। एक, किसी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी में है- डाइरेक्टर जेनरल, दूसरा अमेरिका के फेडरल बैंक में मैनेजर है। सबको वहाँ की नागरिकता मिल गई -कच्चे-बच्चे सब माइकल जैक्सन के रिश्तेदार हो गए। रह गई लोलो ब्रेगान्जा। वह साथ निभा रही है लाटो बावू का। कुछ बातों की तस्दीक के लिए विलट यादव ने सोलह दिनों तक सेंट फ्रांसिस स्कूल के म्यूजिक टीचर जैकी जोसेफ को डेढ़ किलो दूध पहुँचवाया। सतरहवें दिन जोसेफ से विलट ने शर्माते हुए अदबदाहट भरी शैली में कुछ पूछा, जिसका बास्तविक अर्थ यह था कि लोलो ब्रेगान्जा क्या है। जोसेफ ने ठहाका लगाया। फिर चुप्पी साध गया। बोला, 'नो कमेंट्स'। वह तो कहिए कि दूध की मलाई ने अंदर हलचल मचाई, तो जोसेफ पसीजा। फिर विलट यादव अपनी जानकारी बताता गया और जोसेफ तस्दीक करता गया, पर लोलो लाटो बाबू की क्या है, यह उसको भी पता नहीं था। हाँ, इतना भर मालूम था कि प्रिंसिपल
मारिया डिकोस्टा अमेरिका से लाटो बाबू की परिचिता है। ... पोटली खुली, तो जोसेफ अपनी रो में बकता गया, "ही विलांग्स टू ए ग्रेट वैरियर फैमिली राना परटाप... यू नो, लाटो वावू वांटस् टू बी नोन एज राजपूट... नो-नो ही डजन्ट वांट टू बी ए मिलियेनर... ही वांटस् टू सेव हिज ग्रेट इन्ट्रोडक्शन... वॉट अ मैन विदाउट रूट्स... सो ही हैज कम हियर टू सेव हिस्ट्री ऑफ हिज ग्रेट फैमिली।... नो, आय कांट एक्सप्रेस इन हिन्डी... बॉट ए मैन यू आर, यू कांट अन्डरस्टेंड दीज थिंग्स, प्लीज गो!" टूटी-फूटी अंग्रेजी का विलक्षण ताव ! पर इस 'प्लीज गो' के पीछे 'कम अगेन' का भाव था। सो उस प्रिय भाव को सहेजा विलट यादव ने और बहुत सारी बातें जान गया। यह दूसरी बात है कि समझ नहीं पाया। मसलन, "टी.वी. देखता है टुम... नेई...लाटो बाबू एन.आर.आई. है... अब्बी लास्ट वीक तो शेक हैंड किया टुमारा पी.एम. से... अमिताभ बच्चन ?... ओ, यस-यस, ही इज आलसो एन.आर.आई...बट लाटो वावू इज ग्रेटर दैन हिम... ही कम्स फ्रॉम ए वैरियर फैमिली... फाइट किया अपना कन्ट्री के लिए राना परटाप... गास का ब्रेड खाया... यू नो..." नहीं, बिलट यादव कुछ नहीं जानता... एक्सेप्ट लोलो, ही डजन्ट वांट टू नो एनीथिंग... वाट ए मैन विदाउट लब?... यस-सर, राइट... आई नो रोमियो- जूलियट। तो जोसेफ को इसी कारण सहानुभूति हो आई विलट यादव से। एक दिन छिपाकर गुप्त तौर पर दिखाया विलट यादव को स्कूल का फंक्शन और लोला का डांस। क्या घुमारी, क्या उछाल, क्या मुस्कराहट, क्या वक्र भंगिमा, क्या चपलगति। विलट के मन ने एकबारगी कहा, जोहरावाई नखलऊ वाली फेल, बनारस की छप्पनछुरी बेपानी, माधुरी दीक्षित का ’धक-धक’ - बेआवाज ! यानी इतिहास से वर्तमान तक छाई हुई सारी स्वप्न कुमारियों का वजूद विलट यादव ने एक क्षण में तिरोहित कर दिया और छाती पर दोहत्थड़ मारकर भूशायी हो गया। जोसेफ ने लौटकर देखा, विलट यादव की आँखें उलटी हुई हैं, मुँह खुला हुआ है, टाँगें काँप रही हैं और सृष्टिखण्ड से ब्रह्माण्ड तक एक ही वाक्य गूँज रहा है, विलट यादव के प्रकंपित स्वर में, ”बप्पा रे, लाटो बाबू का नाचघर !”
नाचघर की माया अजीब है, पर विलट यादव को लोगों ने बताया, वे इस माया को बखूबी जानते हैं। समझाया प्रोफेसर एन. डी. भार्गव ने "स्टार टी.वी. देखो, बी.बी.सी और सी.एन.एन की मदद लो, जान जाओगे। सौ रुपये के खर्च में पता चल जाएगा सब कुछ... बोफोर्स कांड हुआ, पता लगा तुम्हें? नहीं, इतने अरब का घोटाला हुआ... पर कांग्रेस फिर सत्ता में आ गई। इसी कारण... नहीं जानने के कारण। तांत्रिक साधु चंद्रास्वामी मत्ता दिलाते हैं... विदेशमंत्री से 'हाँ' कहवा के लाखूभाई को लूट लेते हैं... पी.एम. बनवा देते हैं उन्हें और सत्ता-पलट होते ही तिहाड़ जेल चले जाते हैं...! पी.एम. को इजलास में बुलाती है अदालत... अपराधी गृहमंत्री बन जाता है... पशुओं का चारा चर जाते हैं मंत्री प्रजाति के आदमी। जूतों के प्रचार के लिए नंगे चित्र खिंचवाते हैं मॉडल। नहीं जानते कुछ। बहुत कुछ बदल रहा है देश में। अमेरिका यही है अब। लोला को जानने के लिए अमेरिका जाने की कोई जरूरत नहीं। लोला को देखने के लिए स्टार टी.वी. देखी... एक दिन मैथुनरत दिख जाएगी स्कीन पर !" भार्गव ने टी.वी. खोलकर दिखाया। विशाल भवन, भव्य माहोल, संसद... प्रक्षेपित होती रोशनियां, उद्दीप्त चेहरे, प्रभा-मंडल... फटी-फटी आवाज में एक- दूसरे पर आरोप-दर- आरोप लगाते हुए... 'पूर्णिया चलो तुमको वहीं बताएंगे सब' जैसे वाक्य चीखते हुए वीर... एक नाटा-सा आदमी विह्वल होकर 'पुलिस- पुलिस' की तर्ज पर 'प्लीस-प्लीस' कहता हुआ। विलट यादव ने सिहर कर आँखें बंद कर लीं। पूछा, "का है ई सब?" भार्गव ने कंघा थपथपाकर विलट से कहा, "लाटो बावू का नाचघर!" फिर कान में धीरे-धीरे, पर जलती हुई आवाज में कहा, "आखें खोलो... देखो, लोला नाच रही है..." "कहाँ?" विलट यादव खड़ा हो गया। उत्तेजित, भग्न हृदय लिये। "देखो, विलट यादव ! गौर से देखो। चेहरे पर देखो इन महामहिमों के... अंदर घुसो इनके मन के... सबके भीतर लोला नाच रही है... नंगी लोला!" भार्गव ने बीभत्स आवाज में कहा। फिर विलट यादव को देखा। उसके चेहरे पर कुछ नहीं
था... न राग-विराग, न तृष्णा, न बुभुक्षा, सिर्फ लोला थी। भार्गव ने एक झटके से विलट का हाथ पकड़ा और घर के बाहर कर दिया। ... बाहर बरसात थी। आसमान के दो हिस्सों में काटती हुई। हिस्सों में बँटता रहा विलट यादव। कई-कई दिन, कई-कई रात। स्टार टी.वी. देखता रहा, आँखे खोलकर। लोला नहीं आई स्क्रीन पर ! आया सिर्फ एक मुठंडा। लहीम-शहीम, गोरा-चिट्टा । मूल भोजपुर का। टेरेस पर बैठा। साथ में लाटो बावू भी थे। चुप, गरिमामय, निर्वाक। मुठंडा उन्हें देखता रहा, मुस्कराता रहा। लोला क्रिश्चियन औरत के साथ आई। बैठी, आँखें फाड़कर देखा- आदमी के मूल पूर्वजों सरीखे मुठंडा को। उठ गई फिर। अंदर दौड़ती हुई भाग गई। मुछंडा भदेस ढंग से ठठाकर हँसा। लाटो बावू निर्वाक, बरसते हुए आसमान को देखते रहे... अंश-अंश विभक्त होते हुए !... हाँ, चाहिए यह। हाँ, चाहिए वह... उसके आगे वाली चीज भी... उसके पीछे वाली चीज भी... बंदरों की तरह उछाल भरने वाली ताकत चाहिए, वैम्पायर की तरह हुने फैला कर खून सोखने की कला चाहिए... औरत को, पूंजी को, ऐश्वर्य को अधिक- से-अधिक भोग लेने का विज्ञान चाहिए... जिंदगी के लिए आज के दिन में चाहिए अंश-अंश सब कुछ... फिर कैसे जी ले कोई सिर्फ मनुष्य की तरह... मूल मनुष्य की तरह ! अगले दिन फाटक के आगे तीन गाड़ियां लगीं। गए कुछ लोग। मुठंडा, लाटो बाबू, ये- वो ! सिर्फ गोरखा रह गया। एक चिलम गांजे की मिली रात में, तो फूंक लगा कर बोला, "लोला मिस चली गई।" "कहाँ?" विलट यादव ने तड़प कर पूछा। " विलेज... गाँव..." गोरखा ने आनंदित होकर कहा, जैसे खुद लौट गया हो अपने डीहवार मे। "कहाँ है गाँव?" विलट यादव ने भू-परिक्रमा करते हुए पूछा। "पता नहीं।" गोरखा ने उसे क्रोध में देखा, तो उठकर भागा।
...अब कहाँ-कहाँ जाता विलट, जब पता ही नहीं कि मूल मनुष्य का गाँव कहाँ है... कहाँ, क्या पाने के लिए चले गए लाटो बाबू... और उनका साथ निभाने के लिए पूरे सृष्टिखंड में अकेली तैयार लोला- जिसका परिचय भी नहीं मालूम कि वह लाटो बाबू की कौन है!
भारत दर्शन मुहम्मद कलीम शाह पीर का जन्मदिन था, ऐन उसी दिन गजब का वाकया हुआ। विलट यादव सोया हुआ था। भैंसें चारा की खोज में' में-में' कर रही थीं। दिन मरगिल्ली बिल्ली की तरह पतीली ढनढनाता भागा जा रहा था। ऐन ऐसे माहौल में दौड़ता हुआ आया चुल्हाई। झोलंग खाट को हिलाकर रख दिया पठे ने। मुंह से आवाज फूटी, तो खटाल गूंज गया, "उस्ताद ! गजब हो गया..." विलट ने नींद में अकबका कर उसका कंधा थामा। उठने लगा, तो चुल्हाई खाट के नीचे गिर गया। जाहिर था, विलट का असंतुलित बदन डगमगाएगा, पर यह जरूरी न था कि चुल्हाई की रीढ़ की हड्डी बांस की खपच्चियों की तरह कंपकंपाए। "उस्ताद!" चुल्हाई की कराह ने भैंसों को बहकाया। भैंसों ने इधर-उधर पगहा तुड़ाकर भागना चाहा। तब तक बिलट ने उन्हें अपने गुरु-गंभीर आवाज में डांट लगाई। भैंसे थम गई, तो फिर विलट ने खाट पर थसकिया लगाना चाहा। लाड़-भरे स्वर में डांटा, "तुम्हारी यही आदत खराब है..." आदत चुल्हाई की कमर जैसी नहीं थी। या कहें, कमर की आदत कुछ दूसरी थी। गजब बात का होल अंदर से गायब था। और बाहर जो था, वह पिपहियां की तरह बजाना चाह रहा था।
चाह विलट यादव की भी अलग थी। उसमें नींद का खुमार शामिल होना चाह रहा था, पर चुल्हाई की कमर खाट की तरह साथ छोड़ रही थी और धाराशायी होने को बेताब थी। इसलिए विलट ने उसकी कमर की ताबेदारी निभाई। पास खींच कर एक हाथ मारा। बांह पकड़कर झटका दिया। 'अरे बाप' की याद ने थोड़ी राहत दी चुल्हाई को। बाकी कसर विलट ने पास बिठाकर निकाल दी।
अपने में लौटा चुल्हाई, तो विलट ने कंधे पर थपकी दी। सहानुभूति की एक धार अंदर गई, तो बाहर के प्रवाह पर विलट ने कब्जा जमाया। पूछा, "अब बोल का गजब हुआ?"
"उस्ताद!" चुल्हाई की जीभ अब भक-भक तपने लगी। उत्तेजना ने फिर से उसके बजूद को गिरफ्त में ले लिया, "गजब हो गया... गुलाबछड़ी आ गई!" विलट यादव का मुंह अधखुला का अधखुला रह गया। अंदर बंद मन का कपाट खुला, तो चुल्हाई का बेतहाशा लाड़ उभड़ आया।
"तुमने देखा का?"
"एकदम लाल बग-बग साड़ी... हल्दी-हल्दी देह... साथ में मुठंडा बॉडी गार्ड...।"
"ये फिर आ गया, ससुरा !" बोलते-बोलते विलट यादव की जान सशरीर खटाल से बाहर चली गई।
लहर-नमकीन का बाजार
बाहर वाले की कोई पहचान नहीं होती। बाहर की चीज अंदर आ रही हो, अंदर की चीज बाहर जा रही हो, तो समझ पाना मुश्किल होता है कि क्या आया और क्या गया। आने वाला विदेशी माल हो, तव तो प्रचार किया नहीं कि माल जम गया, लेकिन देशी चीज पर विदेशी रैपर लगाया, तो मुश्किल हो जाती है। 'बुढ़िया की सोनपापड़ी' को पेप्सी का रैपर और भोजपुरी बोलने वाले मुछंडा को अंग्रेज गुलाबछड़ी- देशी बाजार में बेभाव का बना दे, तो आश्चर्य नहीं।
जाहिर है कि गोरखा से जब-जब बतियाया मुठंडा और वह भी भोजपुरी में, गुलाबछड़ी ने 'शटअप' कहा। और 'शटअप' होकर भोजपुरिया मुठंडा मुस्कराया, तो गोरखा ने समझा कि देशी चिलमची है। किसी न नहीं समझा कि गुलाबछड़ी मुठंडा को परिचय बनाने से रोक रही है, ताकि उसकी औकात बनी रहे, पर औकात अपरिचित रह जाने से भी जाती है। दूसरी बात, जो अपरिचित रह जाए, वह 'बाडी-गॉर्ड' हो या मालिक, जमता नहीं। मुठंडा इसीलिए उखड़ गया और एक दिन सुबह-सुबह विलट यादव ने देखा कि मुठंडा भागा जा रहा है। "भेयर, सर!" गोरखा ने अदबदाकर भदेस अंग्रेजी में पूछा। "टू हेल..." मुठंडा ने भोजपुरी उच्चारण में अंग्रेजी दागा और रवाना हो गया। ....सबने सुख की सांस ली। संभव है कि सबमे गुलावछड़ी भी शामिल हो, काहे कि आजादी की रफ्तार किसे नहीं भाती। रफ्तार तो रफ्तार है, एक बार धर लिया, तो पहुँचा दिया ढाका से होनोलुलू। और पसर गया, तो रफ्तार नहीं, 'प्लैटफारम' बन के रह गया। सो मुठंडा के जाने पर विलट यादव के खटाल में पंचप्यारों ने सुकून की चाय पी और मुहावरों की मलाई से मूष्ठों को आवदार बनाया।
उधर दबाव कमा, तो गुलाबछड़ी ने ड्राइवर को भी छुट्टी दे दी। शिमला गया या पिलखुआ आ पिट्सवर्ग, कुछ पता नहीं, पर सड़क ने पाया कि गुलाबछड़ी का खुर मखमल पर लोच खा रहा है।
लोच ने सड़क को जुबान दी, तो बिलट को कैसे नहीं कुछ मिलता। मिला तो खटाल के पंचप्यारों ने समझा, लिफ्ट मिल रही है। सो खटाल बंद। भैंसों का मालिक खुद गले में पगहा डाल के गुलाबछड़ी के पीछे-पीछे' मार्निंग वॉक' करने लगा। रही बात वॉकी-टॉकी की, तो वो कैसे पीछे छूटता। सो कटहर गोसाई, प्यारे यादव, भरोसी कुर्मी और चुल्हाई- सब कंधे पर सुख सागर लादकर पीछे- पीछे चलने लगे। रास्ते में विलट यादव का गुणगायन, बीच में गुलावछड़ी की सौंदर्य-गाथा का पाठ और किनारे पर पहुँच के बस, वही एक मंत्रोच्चार, " हाय हो करेजा के फॉफी ! एक बार मचान पर आ जा... तूफान मेल नहीं बना दिया, तो मूंछ उखाड़ के हाथ में दे देना।"
लहर-नमकीन को खटका लगा। हल्दीराम के बाजारू षड़यंत्र की भनक लगी। फिर आत्म-विश्लेषण का दौर शुरू हुआ। मार्निंग वॉक पर रोक लग गई। एक दिन-दो दिन-तीन दिन। विलट यादव का चैन छिन गया कि एकाएक यह क्या हुआ। अभी तो सलीम- अनारकली का पहला सीन भी नहीं हुआ, न अकवर दि ग्रेट आया, न दरबारी लोगों का षड़यंत्र छिड़ा, न जंग की रणभेरी बजी, फिर गुलाबछड़ी को किसने चिन दिया दीवारों में?
फ्रीडम ऐट मॉर्निंग आवर
दीवार अगले ही दिन टेरेस पर दिखा। वही मुठंडा ! खुली जगह में खुली देह मुग्दर भांजता और भोजपुरी में गालियां बकता, "ससुर के नाती ! भंभोर के रख दिया कुक्कुरमाछी ने!" विलट यादव को लगा, ससुर खटाल पर गर्म है, कहीं ढाह न दे। वो ढह गया, तो विलट कव तक खड़ा रहेगा। यानी वो भी नेस्तनाबू ! पर कटहर गोसाई ने ढाढ़स दिया, "उस्ताद ! वभनघुड़की है। थमे तो गए और दूह दिया, तो समझो किला फतह..."
फतह की कार्रवाइयां चलने लगीं। गुरुमंत्र पर गुरुमंत्र फूंका जाने लगा। चुल्हाई ने एक दिन प्रेम-पत्र थमा दिया गुलावछड़ी को। प्यारे कुर्मी ने नकबेसर का पुड़िया एकदम मुट्ठी में जमा दिया। तिस पर पुराण वांचने की कसर बाकी नहीं रखी, 'गुलाबछड़ी ! विलट यादव का घर बसा दे... यह रखेल-पुतरिया की जिनगी भी कोई जिनगी है।' पर हुआ कुछ नहीं। जवाब नदारद। वही अंग्रेजी वाला हाल। 'हुम' कह के दांतों तले होठ भींच लिया। अव यह विदेशी हाव-भाव का मतलव वृझे, तो कौन वृझे। तिस पर कटहर गोसाई ने जासूसी कवायद की, "नजर रखा जा रहा है... बोलेगी का बेचारी... हुम का मतलब 'गड्यो हो' तो 'भैंसवो हां'।... समझो तो प्राणप्यारी हो गई और ना समझो, तो भोजपुरिया
मोठंडा की वागी शाहजादी। चलाओ किस्सा, जितनी देर चले... और चाहो, तो ले उड़ो एक झपट्टा में अनार... दू मिनट में सात समंदर पार... कहाँ-कहाँ जाएगा मुछंडा!"
पर मुठंडा के दांव का कोई अता-पता नहीं चला। कोई करता तो क्या, कौन-सी दिशा से आक्रमण हो, और कौन-सी पूंछ से लंका दहन, यह निर्णय लेता, तो कौन, और कैसे? मुछंडा एकदम शांत मन से रामायण पढ़ता और मुग्दर भांजता हुआ कुक्कुरमाछियों को गालियाँ देता।
गुलाबछड़ी ऐन स्कूल जाने के वक्त अंदर ख्वावगाह से बाहर निकलती। मुठंडा को अंग्रेजी में हिदायत देती और टप-टप' हील' वजाती सड़क पर आ जाती। बेफिकिर हो कुलांचें मारती कि अब बनारसी पान-दुकान के पास चुल्हाई की कसरत देखने को मिले, चाहे विलट यादव का भुजंगासन ! होता रहे सब कुछ चाहे जितने दिन हो।
दिन का क्या, ससुर प्याज की आमद है। आया, तो सड़ रहा है, गया तो आठ रुपये किलो। ले उड़ा इंदिरा जी का सिंहासन, पर मुठंडा को कौन हिलाएगा, यह किसी को पता नहीं चल रहा था... और पता हुआ जिस दिन, उस दिन सारा किस्सा ही खत्म हो गया।
जरा लौ लगा के जानिए जनाब... हुआ यू्ँ कि एक दिन लाटो बाबू के नाचघर से नीचे उतरी रक्काशा गुलाबछड़ी। मुछण्डा को "बाय" कहा। सड़क पर आई तो जूतियों से ’कम सेप्टेम्बर’ की धुन बजाई। आगे बढ़ी, तो विलट यादव सामने ! रास्ता रोककर शुरू हो गए। दिए जा रहे हैं प्रवचन- संभोग से समाधि तक, काक भुशण्डी से लेकर जय गुरुदेव तक का ’आंका-यांका-तीन तड़ाका’... कि हे, तभी आ गया पीछे से ’लोटा-लाठी’ ले के मुछण्डा। नहीं, लाठी-फाठी कुछ नहीं, एकदम निहत्था। आया और एकदम से कंधा पर हाथ रखा विलट यादव के। ठण्डी जुबान से सिर्फ इतना ही कहा, "चीर के दुन्नो रनवाँ हाथ में दे दीहब ससुर...समझे कि नाय... ई को अंग्रेज की पतुरिया नाही समझो... हमार बहुरिया हय, हमार बहुरिया..." फिर सीधे पलटा और चार डग में नाचघर के शीर्ष स्थान पर पहुँच गया... और ऐन उसी दिन जो कुछ वहाँ फहरा, वह आजाद मुलुक का राष्ट्रीय झण्डा था।
विलट यादव ने तिरछी और बुझी नजरों से देखा, एक तरफ खड़ा है नंगे बदन मुछण्डा और दूसरी तरफ गुलाबछड़ी, बीच में झण्डे के साथ टूटी-फूटी हिन्दी में गाया गया तुमुल स्वर से युक्त एक नाद -
"हिन्दी हैं हम, हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा...।"