लाठी और किसान / सुरेश सौरभ
Gadya Kosh से
किसान-आप पुलिस वालों को बेगुनाह किसानों पर लाठियाँ भांजकर दुःख नहीं होता।
पुलिस-होता है पर क्या करूं, नौकरी है। निभानी पड़ती है।
किसान-धिक्कार है ऐसी नौकरी पर, जो जायज मांगों के लिए आवाज़ उठा रहे किसानों पर लाठियाँ भांजती है।
पुलिस-मेरा भी दिल दुखता है। कभी-कभी मन करता है कि यह नौकरी छोड़ दूं। तभी मेरे बच्चों की स्कूल की फीस, तमाम ज़रूरतों से पुकारती मेरे घर की कातर आंखें, बूढ़े मां-बाप की दवा, टिफिन रखी गई पत्नी की मासूम रोटियाँ, हमें बेबस कर देतीं हैं।
किसान-तो ये पाप करते रहोगे?
पुलिस-हमसे ज़्यादा पाप, तो आप लोग ऐसी क्रूर सरकारें चुनकर करतें हैं, जो निहत्थे किसानों पर लाठियाँ चलवाकर, पानी फेंकवाकर अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंट देतीं हैं।
किसान-निःशब्द।