लातूर / उमेश मोहन धवन
भगवानदास जी को मरे अभी तीन दिन ही हुये थे। उनके शोक में सम्मिलित होने दूर दूर से रिश्तेदार आये थे जिनमें लातूर वाली बुआजी भी शामिल थीं। दोपहर में खाली बैठे रिश्तेदारों में तरह तरह की बातें चल रही थी। तभी किसी ने दस दिन पहले दिल्ली में आये भूकम्प की चर्चा छेड़ दी। बुआजी से भी रहा नहीं गया। “अरे ये भी कोई भूकम्प था। भूकम्प तो आया था हमारे लातूर में 1993 में जिसमें करीब बीस हजार लोग मारे गये थे। भारी पत्थरों से बने मकान खिलौनों की तरह बर्बाद हो गये थे। शायद ही कोई मकान बचा होगा जो तबाह ना हुआ होगा। हर तरफ लाशें ही लाशे़ दबी थीं। क्या इंसान क्या जानवर क्या मकान कुदरत ने किसी को भी नहीं बख्शा था। एक झटके में सारा लातूर खंडहर में बदल गया था” सब लोग बुआजी की बातें बड़े ध्यान से सुन रहे थे। भगवानदास की पत्नी शांति भी सिर झुकाये बुआजी को एकटक देख रही थी। उसने धीरे से एक नज़र अपने पति की तस्वीर पर डाली और नम आँखों से अपने दोनो बच्चों की तरफ देखा। फिर थोड़ा रुक कर धीमे स्वर में बुआजी से पूछा “लातूर तो बाद में बस गया होगा ना बुआ जी?