लापता / हेमन्त शेष
उनके यहाँ पहले कभी गया नहीं था, एक अधूरा सा पता जेब में था, पर निकलने से पहले एक चित्र मन में था. जिस घर में जा रहा हूँ, उसका फाटक गहरे हरे रंग का होगा, खिड़कियों के पल्ले हमेशा बंद रहते होंगे, गली में चार बच्चे क्रिकेट खेल रहे होंगे, घंटी बजा कर आइसक्रीम बेचने वाला आदमी टोपी पहने हुए होगा, एक चौक होगा, जिसमें दो बाल्टियाँ- एक हरी और एक गुलाबी एक उलटी और दूसरी सीधी पड़ी होंगीं, दरवाजा खटखटाने पर कम से कम आठ मिनट बाद सूती साड़ी में एक घरेलू सी औरत हाथ पोंछते हुए आयेगी और मुझ से कहेगी- “ आप गलत पते पर आ गए हैं भाई साब, यहाँ कोई तैलंग साब नहीं रहते, ये तो अम्बिकादत्त जी का मकान है!”
मैं गया और पहुंचा वहाँ, जहाँ मुझे जाना था.
उनके घर का फाटक भूरे रंग का निकला, उस मकान की सब खिड़कियाँ खुली हुई थीं, गली सुनसान थी, केवल एक मरियल सा काला कुत्ता वहाँ दिखा, चौक नहीं था, बरामदा था, जिसमें तीन कुर्सियां पड़ीं थीं. दरवाज़ा खटखटाने की नौबत नहीं आई क्योंकि दीवार पर बिजली की घंटी थी, जिसे दबाने के २२ सेकण्ड बाद खुद तैलंग साहब आये और खुश होते हुए बोले- : अरे! आइये, आइये, मैं कब से आप का इंतज़ार कर रहा था”.