लार्ड मिन्टो का स्वागत / बालमुकुंद गुप्त
भगवान करे श्रीमान् इस विनयसे प्रसन्न हों - मैं इस भारत देशकी मट्टीसे उत्पन्न होनेवाला, इसका अन्न फल मूल आदि खाकर प्राण-धारण करनेवाला, मिल जाय तो कुछ भोजन करनेवाला, नहीं तो उपवास कर जानेवाला, यदि कभी कुछ भंग प्राप्त होजाय तो उसे पीकर प्रसन्न होनेवाला, जवानी बिताकर बुढ़ापेकी ओर फुर्तीसे कदम बढ़ानेवाला और एक दिन प्राणविसर्जन करके इस मातृभूमिकी वन्दनीय मट्टीमें मिलकर चिर शान्तिलाभ करनेकी आशा रखनेवाला शिवशम्भु शर्मा इस देशकी प्रजाका अभिनन्दनपत्र लेके श्रीमान्-की सेवामें उपस्थित हुआ हूं। इस देशकी प्रजा श्रीमान्-का हृदयसे स्वागत करती है। आप उसके राजाके प्रतिनिधि होकर आये हैं। पांच साल तक इस देशकी 30 करोड़ प्रजाके रक्षण, पालन और शासनका भार राजाने आपको सौंपा। इससे यहांकी प्रजा आपको राजाके तुल्य मानकर आपका स्वागत करती है और आपके इस महान् पदपर प्रतिष्ठित होनेके लिये हर्ष प्रकाश करती है।
भाग्यसे आप इस देशकी प्रजाके शासक हुए हैं। अर्थात यहांकी प्रजाकी इच्छासे आप यहांके शासक नियत नहीं हुए। न यहांकी प्रजा उस समयतक आपके विषयमें कुछ जानती थी, जबकि उसने श्रीमान्-के इस नियोगकी खबर सुनी। किसीको श्रीमान्-की ओरका कुछ भी गुमान न था। आपके नियोग की खबर इस देशमें बिना मेघकी वर्षाकी भांति अचानक आ गिरी। अब भी यहांकी प्रजा श्रीमान्-के विषयमें कुछ नहीं समझी है, तथापि उसे आपके नियोगसे हर्ष हुआ। आपको पाकर वह वैसीही प्रसन्न हुई है, जैसे डूबता थाह पाकर प्रसन्न होता है। उसने सोचा है कि आपतक पहुंच जानेसे उसकी सब विपदोंकी इति हो जायेगी।
भाग्यवानोंसे कुछ न कुछ सम्बन्ध निकाल लेना संसारकी चाल है। जो लोग श्रीमान् तक पहुंच सके हैं, उन्होंने श्रीमान्-से भी एक गहरा सम्बन्ध निकाल लिया है। वह लोग कहते हैं कि सौ साल पहले आपके बड़ोंमेंसे एक महानुभाव यहांका शासन कर गये हैं, इससे भारतका शासक होना आपके लिये कोई नई बात नहीं है। वह लोग साथही यह भी कहते हैं कि सौ साल पहलेवाले लार्ड मिन्टो बड़े प्रजापालक थे। प्रजाको प्रसन्न रखकर शासन करना चाहते थे। यह कहकर वह श्रीमान्-से भी अच्छे शासन और प्रजा-रञ्जनकी आशा जनाते हैं। पर यह सम्बन्ध बहुत दूरका है। सौ साल पहलेकी बातका कितना प्रभाव हो सकता है, नहीं कहा जा सकता। उस समयकी प्रजामेंसे एक आदमी जीवित नहीं, जो कुछ उस समयकी आंखो देखी कह सके। फिर यह भी कुछ निश्चय नहीं कि श्रीमान् अपने उस बड़ेके शासनके विषयमें वैसाही विचार रखते हों, जैसा यहांके लोग कहते हैं। यह भी निश्चय नहीं कि श्रीमान्-को सौ साल पहलेकी शासननीति पसन्द होगी या नहीं तथा उसका कैसा प्रभाव श्रीमान्-के चित्तपर है। हां, एक प्रभाव देखा कि श्रीमान्-के पूर्ववर्ती शासकने अपनेसे सौ साल पहलेके शासककी बात स्मरण करके उस समयकी पोशाक में गवर्नमेन्ट हौसके भीतर एक नाच, नाच डाला था।
सारांश यह है कि लोग जिस ढंग से श्रीमान्-की बड़ाई करते हैं वह एक प्रकारकी शिष्टाचारकी रीति पूरी कर रहे हैं। आपकी असली बड़ाईका मौका अभी नहीं आया, पर वह मौका आपके हाथमें विलक्षण रूपसे है। श्रीमान् इस देशमें अभी यदि अज्ञातकुल नहीं तो अज्ञातशील अवश्य हैं। यहांके कुछ लोगोंकी समझमें आपके पूर्ववर्ती शासकने प्रजाको बहुत सताया है और वह उसके हाथसे बहुत तंग हुई। वह समझते हैं कि आप उन पीड़ाओंको दूरकर देंगे, जो आपका पूर्ववर्ती शासक यहां फैला गया है। इसीसे वह दौड़कर आपके द्वारपर जाते हैं। यह कदापि न समझिये कि आपके किसी गुणपर मोहित होकर जाते हैं। वह जैसे आंखोंपर पट्टी बांधे जाते हैं, वैसेही चले आते हैं, जिस अंधेरेमें हैं, उसीमें रहते हैं।
अब यह कैसे मालूम हो कि जिन बातोंको कष्ट मानते हैं, उन्हें श्रीमान् भी कष्टही मानते हों? अथवा आपके पूर्ववर्ती शासकने जो काम किये, आप भी उन्हें अन्याय भरे काम मानते हों? साथही एक और बात है। प्रजाके लोगोंकी पहुंच श्रीमान् तक बहुत कठिन है। पर आपका पूर्ववर्ती शासक आपसे पहलेही मिल चुका और जो कहना था वह कह गया। कैसे जाना जाय कि आप उसकी बातपर ध्यान न देकर प्रजाकी बातपर ध्यान देंगे? इस देशमें पदार्पण करनेके बाद जहां आपको जरा भी खड़ा होना पड़ा है, वहीं उन लोगोंसे घिर हुए रहे हैं, जिन्हें आपके पूर्ववर्ती शासकका शासन पसन्द है। उसकी बात बनाई रखनेको अपनी इज्जत समझते हैं। अब भी श्रीमान् चारों ओरसे उन्हीं लोगोंके घेरेमें हैं। कुछ करने धरनेकी बात तो अलग रहे, श्रीमान्-के विचारोंको भी इतनी स्वाधीनता नहीं है कि उन लोगोंके बिठाये चौकी पहरेको जरा भी उल्लंघन कर सकें। तिसपर गजब यह कि श्रीमान्-को इतनी भी खबर नहीं कि श्रीमान्-की स्वाधीनता पर इतने पहरे बैठे हुए हैं। हां, यह खबर हो जाय तो वह हट सकते हैं।
जिस दिन श्रीमान्-ने इस राजधानीमें पदार्पण करके इसका सौभाग्य बढ़ाया, उस दिन प्रजाके कुछ लोगोंने सड़कके किनारोंपर खड़े होकर श्रीमान्-को बड़ी कठिनाईसे एक दृष्टि देख पाया। इसके लिये पुलिस पहरेवालोंकी गली, घुसे और धक्के भी बरदाश्त किये। बस, उन लोगोंने श्रीमान्-के श्रीमुखकी एक झलक देख ली। कुछ कहने सुनने का अवसर उन्हें न मिला, न सहजमें मिल सकता। हुजूरने किसी को बुलाकर कुछ पूछताछ न की न सही, उसका कुछ अरमान नहीं, पर जो लोग दौड़कर कुछ कहने सुनने की आशासे हुजूरके द्वार तक गये थे, उन्हें भी उल्टे पांव लौट आना पड़ा। ऐसी आशा अन्तत: प्रजाको आपसे न थी। इस समय वह अपनी आशाको खड़ा होनेके लिये स्थान नहीं पाते हैं।
एक बार एक छोटा-सा लड़का अपनी सौतेली मातासे खानेको रोटी मांग रहा था। सौतेली मां कुछ काममें लगी थी, लड़केके चिल्लानेसे तंग होकर उसने उसे एक बहुत ऊंचे ताकमें बिठा दिया। बेचारा भूख और रोटी दोनोंकी भूल नीचे उतार लेनेके लिये रो रो कर प्रार्थना करने लगा, क्योंकि उसे ऊंचे ताकसे गिरकर मरनेका भय हो रहा था। इतनेमें उस लड़केका पिता आगया। उसने पितासे बहुत गिड़गिड़ाकर नीचे उतार लेनेकी प्रार्थना की। पर सौतेली माताने पतिको डांटकर कहा, कि खबरदार! इस शरीर लड़केको वहीं टंगे रहने दो, इसने मुझे बड़ा दिक किया है। इस बालककीसी दशा इस समय इस देशकी प्रजाकी है। श्रीमान्-से वह इस समय ताकसे उतार लेनेकी प्रार्थना करती है, रोटी नहीं मांगती। जो अत्याचार उसपर श्रीमान्-के पधारनेके कुछ दिन पहलेसे आरम्भ हुआ है, उसे दूर करनेके लिये गिड़गिड़ाती है, रोटी नहीं मांगती। बस, इतनेहीमें श्रीमान् प्रजाको प्रसन्न कर सकते हैं। सुनाम पानेका यह बहुत ही अच्छा अवसर है, यदि श्रीमान्-को उसकी कुछ परवा हो।
आशा मनुष्यको बहुत लुभाती है, विशेषकर दुर्बलको परम कष्ट देती है। श्रीमान्-ने इस देशमें पदार्पण करके बम्बईमें कहा और यहां भी एक बार कहा कि अपने शासनकालमें श्रीमान् इस देशमें सुख शान्ति चाहते हैं। इससे यहांकी प्रजाको बड़ी आशा हुई थी कि वह ताकसे नीचे उतार ली जायगी, पर श्रीमान्-के दो एक कामों तथा कौंसिलके उत्तरने उस आशाको ढीला कर डाला है, उसे ताकसे उतरनेका भरोसा भी नहीं रहा।
अभी कुछ दिन हुए आपके एक लफटन्टने कहा था कि मेरी दशा उस आदमीकीसी है, जिसके एक हिन्दू और एक मुसलमान दो जोरू हों, हिन्दू जोरू नाराज रहती हो और मुसलमान जोरू प्रसन्न। इससे वह हिन्दू जोरूको हटाकर मुसलमान बीबीसे खूब प्रेम करने लगे। श्रीमान्-के उस लफटन्टकी ठीक वैसी दशा है या नहीं, कहा नहीं जा सकता। पर श्रीमान्-की दशा ठीक उस लड़केके पिताकीसी है, जिसकी कहानी ऊपर कही गई है। उधर उसका लड़का ताकमें बैठा नीचे उतरनेके लिये रोता है और इधर उसकी नवीना सुन्दरी स्त्री लड़केको खूब डरानेके लिये पतिपर आंखें लाल करती है। प्रजा और "प्रेस्टीज” दो खयालोंमें श्रीमान फंसे हैं। प्रजा ताकका बालक है और प्रेस्टीज नवीन सुन्दरी पत्नी - किसकी बात रखेंगे? यदि दया और वात्सल्यभाव श्रीमान्-के हृदयमें प्रबल हो तो प्रजाकी ओर ध्यान होगा, नहीं तो प्रेस्टीजकी ओर ढुलकनाही स्वाभाविक है।
अब यह विषय श्रीमान्-हीके विचारनेके योग्य है कि प्रजाकी ओर देखना कर्तव्य है या प्रेस्टीजकी। आप प्रजाकी रक्षाके लिये आये हैं या प्रेस्टीजकी? यदि आपके खयालमें प्रजारूपी लड़का ताकमें बैठा रोया करे और "उतारो, उतारो” पुकारा करे, इसी में उसका सुख और शान्ति है तो उसे ताकमें टंगा रहने दीजिये, जैसाकि इस समय रहने दिया है। यदि उसे वहांसे उतारकर कुछ खाने पीनेको देनेमें सुख है तो वैसा किया जा सकता है। यह भी हो सकता है कि उसकी विमाताको प्रसन्न करके उसे उतरवा लिया जाय, इसमें प्रजा और प्रेस्टीज दोनोंकी रक्षा है।
जो बात आपको भली लगे वही कीजिये - कर्तव्य समझिये वही कीजिये। इस देशकी प्रजाको अब कुछ कहने सुननेका साहस नहीं रहा। अपने भाग्यका उसे भरोसा नहीं, अपनी प्रार्थनाके स्वीकार होनेका विश्वास नहीं। उसने अपनेको निराशाके हवाले कर दिया है। एक विनय और भी साथ साथ की जाती है कि इस देशमें श्रीमान् जो चाहें बेखटके कर सकते हैं, किसी बातके लिये विचारने या सोचमें जानेकी जरूरत नहीं। प्रशंसा करनेवाले अब और चलते समय बराबर आपको घेरे रहेंगे। आप देखही रहे हैं कि कैसे सुन्दर कासकेटों में रखकर, लम्बी चौड़ी प्रशंसा भरे एड्रेस लेकर लोग आपकी सेवामें उपस्थित होते हैं। श्रीमान् उन्हें बुलाते भी नहीं, किसी प्रकारकी आशा भी नहीं दिलाते, पर वह आते हैं, इसी प्रकार हुजूर जब इस देशको छोड़ जायेंगे तो हुजूरबालाको बहुतसे एड्रेस उन लोगोंसे मिलेंगे, जिनका हुजूरने कभी कुछ भला नहीं किया। बहुत लोग हुजूर की एक मूर्तिके लिये खनाखन रुपये गिन देंगे, जैसे कि हुजूरके पूर्ववर्ती वैसरायकी मूर्ति कि लिये गिने जा रहे हैं। प्रजा उस शासककी कड़ाईके लिये लाख रोती है, पर इसी देशके धनसे उसकी मूर्ति बनती है।
विनय हो चुकी, अब भगवानसे प्रार्थना है कि श्रीमान्-का प्रताप बढ़े यश बढ़े और जबतक यहां रहें, आनन्दसे रहें। यहांकी प्रजाके लिये जैसा उचित समझें करें। यद्दपि इस देशके लोगोंकी प्रार्थना कुछ प्रार्थना नहीं है, पर प्रार्थनाकी रीति है, इससे की जाती है।
['भारतमित्र', 23 सितम्बर, 1905 ई.]