लालबाबू / प्रियंका ओम
सोलह साल की उम्र में आधी रात को छोटकी चाची के साथ पूर्ण नग्न अवस्था में पकड़े गए थे लाल बाबू। जब तक छोटका चाचा कुदाल उठा लाये तब तक लाल बाबू कमरे से फरार हो चुके थे।
अगले दिन छोटका चाचा खेत में फावड़ा लिये मिले थे। "गाँव छोड़ के भाग जा नहीं तो एहीं गाड़ देंगे तोका अउर केकरो के पता तक न चली कि धरती निगल गईल कि आसमान खा गईल!"
सर झुकाए ही कहा था "भूल हो गया। माफ़ कर।"
चच्चा ने बात पूरी होने से पहले ही कहा था, "कहीं भाग जा ससुरा के, बाबू साहब के एकलौता नहीं होता तो भागने का मौका नहीं देते। जवानी के जोश में माँ समान के साथ...छी छी छी।" चच्चा ने बात अधूरी छोड़ दी थी।
ऐसा भागे कि फिर पीछे मुड़ के नहीं देखा। अब चार साल बाद नाई से दाढ़ी मूँछ बनवाते-बनवाते कुदाल की धार का अंदाज़ा हो गया था, सो कमर कस के निकल पड़े गाँव की ओर। जो होगा देख लेंगे!
मैय्या की सूरत याद करके रो लेते थे। रक्षा बंधन पर दोनों बहनों की याद में तड़प उठते। दो राखी सुनी कलाई में और माथे पर कुमकुम खुद ही सजा लेते। ऊ दुन्नो भी अब बड़ी हो गई होगी। मैय्या कहती थी लड़की जल्दी सायानी हो जाती है। बाबू को क्या चच्चा ने बता दिया होगा? लेकिन अब ई सब सोचने का क्या फायदा। पहिले सोचा होता तो...
चाची कौउन-सी रेखा थी जो इतना बड़ा जोखिम ले लिया। लेकिन ऊ हमको अमिताभ से कम कहाँ समझती थी। दिन भर मेरे आगे पीछे, जैसे चच्चा से उसका पेटे नहीं भरता था। उस दिन भी उसी ने कहा आज रात को आ जाओ लल्ला, तुहार चच्चा तो खेत पर ही सोयेंगे फसल की रखवाली के लिए.
खैर जो हुआ सो हुआ। अब तो गाँव जाकर ही रहेंगे। चच्चा सब भूल-भाल गए होंगे। नहीं भूले होंगे तो शर्ट पैंट का कपड़ा देखकर भूल जायेंगे। हाँ चाची को आँख उठा कर भी नहीं देखेंगे। यहाँ शहर में कउन कमी है! एक खोजो हज़ार मिलती हैं।
मैय्या तो हमको याद कर-कर के जर्जर हो गई होगी और बाबू कमर से ज़रा झुक गए होंगे। उनके लिए गमछा के साथ लाठी भी ले लिया। दोनों बहन जो कहेंगी दिला देंगे, अब अपने मन से का ले? पसंद नहीं आया तो पैसा पानी में! मैय्या के लिए दो सूती साड़ी, मैचिंग चूड़ी और एक जोड़ी चमड़े की चप्पल और एक हवाई भी।
स्टेशन पर उतरे नहीं कि उनके पहुँचने की खबर आग की तरह उनके घर पहुँच गई और उनको भी ये खबर मिल गई कि जिस दिन ऊ गायब हुए थे उसके अगले दिन ही घर में आग लग गई औउ ऊ आग में छोटकी चाची स्वाहा हो गई थी। पैर कांपने लगा था। एक मन किया कि आधे रास्ते से ही लौट जायें। पलटे ही थे कि छोटका चाचा की आवाज़ सुनी "ऐ लाल रुक!" उनकी तो जैसे सांस ही रुक गई थी।
चच्चा ने कंधे पर हाथ रख कर कहा "अच्छा किया कि तू वापस आ गया बाबू साहब की तबीयत भी कुछ ठीक नहीं रहती।" चल घर चल।
"चच्चा ऊ हम ।"
"अरे! जेकर गलती था उको सजा मिल गयी। जब एक औउरत को अपन इ़ज्ज़त का फिकर नहीं तो मर्द तो साला कुत्ता होता है, हर जगह मुँह मारता फिरता है, ऊपर से गरम खून। भूल जा सब, चल।"
मैय्या ख़ुशी से रोने लगी थी। बाबू बिछौना से उठ खड़े हुए थे बोले "अब बिना कहे कहीं नहीं जाना लल्ला।"
"जायेंगे कैसे नहीं बाबू, नौकरी मिल गई है शहर में बस पंद्रह दिन का छुट्टी पर आये है।"
"नौकरी?" बाबू को ज़रा आश्चर्य हुआ था।
"हाँ, एक इंजिनियर के साथ लग गए हैं। ऊपर का कमाई खूब है दूनो बहिन का बियाह खूब धूम-धाम से करेंगे। तुम लड़का देखो बाबू।"
"लेकिन बबुआ बता के तो जाते। हम तो सोचे कि ।" आगे के शब्द गले में ही अटक गए थे।
"ई समय रोने का नहीं ख़ुशी मनाने का है। बेटा चार साल बाद मिला है।" अम्मा ने ये कह कर बात खत्म कर दी थी।
सबको सौगात दिया। एक डिब्बा मिठाई का भी था वह मैय्या के हाथ दिया।
"माई ई ले देसी घी का लड्डू एक कीलो है। तुमको मिट्ठा बहुत पसंद है ना।"
"जुग जुग जीओ बेटा। भगवान् के भोग लगा के सबके बाँट दैत हती।"
चूल्हे के पास बैठकर मैय्या के हाथ की गरम-गरम रोटी और बैगन की सब्जी खाए का मज़ा दुनिया के कोई माल पुए में ना है।
"तो चार साल काहे खबर तक नहीं लियेव बेटवा?"
"कुछ नहीं मैय्या बस सोचलीं कि अब कुछ बनै के घर जाएब।"
"भगवान खूब तरक्की दे हमार बेटवा के."
पायल की छम-छम की आवाज़ के साथ चकाचक नई साड़ी में घूँघट लिए एक औउरत आई और उनके पैर के पास की जमीन को छू कर परनाम किया तो लाल बाबू उसके गोरे-गोरे गुलाबी नेल पालिश लगे हाथ और आलता लगे पैर भर ही देख पाए थे।
"इ कौन है मैय्या?"
"बड़का चच्चा के पतोहू। आदित के कनियाँ। तोहार पते न रही, खबर कैसे देती? तू बड़ हती बेटा, मुँह देखाई देबे के पड़ी। अभी बस पंद्रह दिन भेल है।"
जेब में हाथ डाला तो सौ का नोट मिला। देने लगे तो माँ ने कहा "जमीन पर रख दे बेटा। ऊ ले लेतैय। भाबौह न लगतों।"
नई दुल्हन ख़ामोशी से जमीन पर नज़र गड़ाए खड़ी थी। बिना कोई हरकत किये जैसे ही नोट देखा फट से उठा लिया। बहुत ही बेसब्र थी जाने के लिए. लाल बाबू से भी ज़्यादा जो दुबारा उसके गोरा उजला हाथ देखने के लोभ में बेसब्र थे।
उस दिन रात भर बिस्तर पर करवट बदलते रहे। दुधिया रंग के चेहरे की आकृति खुद ही ख्याल में बनाते रहे। कोमल हाथों की छुअन की कल्पना में सिहरते रहे। ई अदितवा कितना किस्मत वाला है दिन भर खेत की मट्टी में सनेगा, रात में साला मलाई में नहायेगा सोचते-सोचते तकिया को ही उसकी गोरी कमर समझ दबोच लिया।
मैय्या के साथ भन्शा में ऐसी जुगत लगाई कि एक ही आँगन के दूसरे कोने में खाना पकाती अदितवा की कनियाँ को सारा दिन ताड़ते रहते। कभी-कभी भाग्यवश उसका चेहरा भी दिख जाता।
इतना सुन्दर रूप कितना स्वादिष्ट होगा।
हे भगवान् अब तुम्हीं कोई उपाय करो। अब तो ऊ भी देख कर हँस देती है। सात-आठ दिन तो देखा-देखि में ही निकल गया। आँख और हाथ दोनों में दरद बैठ गया है!
एक सुस्ताई दोपहर को जब घर के सारे मर्द खेत में थे और दोनों बुजुर्ग औरतें बगल की एक बीमार चाची का हाल चाल पूछने जा रही थी तब मैय्या ने कहा "खेत काहे न जाय छी लल्ला।"
"खेत के काम हमरा से ना होई, हम इहे रुकैत हती।"
"ठीक है।" कह कर मैय्या निकल गई थी, जाते-जाते बड़की चाची पतोहू से कहती गई "अन्दर से किबाड़ बंद करके कोठलिय में रहीं।"
मौका अच्छा था सो दुन्नों बहिन को भी पचास-पचास रुपैय्या देकर मनिहारी वाली के घर भेज दिया लाल बाबू ने। बोले " जो मन करे सो लेना पैसा कम पड़े तो औ देंगे, हम बड़ भाई है। शहर में कमाते हैं।
दोनों ख़ुशी-ख़ुशी घर से निकल गर्इं और उनके जाते ही लाल बाबू सीधा उसके कोठली। जो अन्दर से बंद नहीं थी में घुस बाज की तरह झपट्टा मार कर उसे नोचने ही लगे थे कि उसने घुटे हुए शब्दों में कहा था "दाग पड़ जाएगा तो इनको का जवाब देंगे हम?"
"अरे तुम उस बुरबक से डरती हो?"
"मरद हैं हमारे।"
"ऊ मर्द रहता तो तुम किबाड़ अंदर से बंद नहीं करती?"
"सुने कि शहर में सिनेमा होता है। बहुते रौशनी होती है। सड़क पर चाट फुचका का ठेला भी होता है!" साड़ी ठीक करते हुए अदितवा की कनियाँ ने पूछा था।
"तुम हमरे साथ शहर चलोगी का।" लुंगी कसने के बाद लाल बाबू उसको देखते हुए पूछे थे।
"ले चलेंगे तो काहे नहीं चलेंगे!"
"ठीक है हम कुछ सोचते हैं और सुनो अदितबा को बाहरे सूता के रात को फिर आयेंगे कह देते है।"
"तो रोका कौउन है?"
इतना सुनते ही लाल बाबू एक बार फिर उसके साथ बिछौना पर गिर गए.
कह तो दिए कि कुछ सोचते हैं। लेकिन चाची के चक्कर में चार साल अनाथ बनके जीवन बिताये हैं, इस बार कुछ हुआ तो घर बार सब दिने के लिए छूट जाएगा।
ले के शहर भाग जायें कि नहीं, दिन इसी उहापोह में निकल जाता रात आदित के दारू में नींद की गोली देकर खुद उसके कोठली में चले जाते।
अपने तन की भूख मिटाते-मिटाते शहर के बारे में उसकी जिज्ञासा की भूख शांत करते। बहुत बार झुंझला भी जाते। लेकिन फिर ये सोच कर शांत हो जाते कि "अब दिनै केतना बचा है?" उसको शहर ले जाने का विचार तो त्याग ही चुके थे। "अब ई झमेला में कौउन पड़ेगा।" बस झूठ-मूठ का सपना दिखा कर अपना काम निकाल रहे थे।
शहर वापस जाने से पहले मैय्या ने कहा "केकरो जुट्ठ हरिया चाटे से त अच्छा है बियाह कर लो बबुआ।"
जिंदगी में पहली बार शरम से आँख झुक गयी थी "कनियाँ देख ले मैय्या कर लेब।" कह कर चले गए थे!
छै महीने बाद बुलावा आया था बियाह तै कर दिया है!
आदित की कनियाँ मोटा गई थी, माई ने कहा पेट से है।
बियाह रात घूँघट उठाते ही बिछौना से उछल कर नीचे खड़े हो गए थे। जैसे बिच्छु ने डंक मार दिया था।
"मैय्या तुमको यही शूर्पनखा मिली अपने राज कुमार जैसे बबुआ के लिए?"
मैय्या के लिए तो वह राजकुमार ही थे। गोरी पारदर्शी चमड़ी के अन्दर दौड़ता खून देख कर ही तो मैय्या ने "लाल" नाम रखा था।
अप्पन अप्पन किस्मत है बिटवा, एक मरद को औउरत के मुँह से केतना काम रही, जाके देख ले कंगन ठीक हती की ना।
दुल्हन ने अपने निचले होठों को दांतों के बीच दबा कर दर्द को अन्दर ही जब्त कर लिया लेकिन आँसू को बहने से नहीं रोक पाई.
वापस कमरे में आके फिर दुबारा मुँह नहीं देखा। बस अपना काम किया औउ सो गए. शूर्पनखा घूँघट के अन्दर दर्द से छटपटाती रही बिलबिलाती रही। अपने जन्म के मन्हूस पलों को कोसती रही "माँ ने जनम के साथ ही नमक चटाया होता तो आज विष नहीं पीना पड़ता!"
लाल बाबू दो दिन बाद ही शहर चले गए और साल भर फिर बहिन का शादी पर आये थे। अदितवा का बेटा एकदम लाल बाबू पर गया था।
गुलाबी नेल पालिश वाली को कनखी से देखा तो नज़र मिलते ही ऊ मुँह बिचका ली थी।
रात को थकी हारी शूर्पनखा जब बिछौना पर औंधे लेटे लाल बाबू से सटी तो शिकार की ताक में माहिर शिकारी लाल बाबू ने अपना काम किया और सो गए. बिना कोई बातचीत, अँधेरे में बस शूर्पनखा के नाक में सोने की चमकती हुई गुल्फी देखी थी। न अपमान की पीड़ा दिखी न दरद भरा आँसू, जो बह कर केश में नारियल तेल के साथ घुल मिल गया।
सुबह चाँदी की नयी चम-चम पायल बिछौना पर देखा तो रात का सारा दर्द भूल गई सूर्पनखा।
बहन की विदाई के बाद लाल बाबू जब अपना सामान बाँधने लगे तो मैय्या ने कहा "दुल्हिन के भी ले जा बेटा।"
सूर्पनखा को एक सम्बोधन मिला था 'दुल्हिन'
" ना माई इहे रहे दे, सेवा करा ओकरा से।
"ऐ बेटा तोहर बियाह अपन खातिर त ना करली। बहुत सेवा करा लेली अब अपने साथ रखी।"
"ई सहर जाके का करेगी? इहे रहे द।" लाल बाबू ने विरोध किया था।
"इ गोर धो के फेक देत त एकरा जैसन कोय न होत।" मैय्या ने खुश होते हुए कहा था!
माँ के तर्क के आगे विवश हो गए थे लाल बाबू। अनमने ही कहा "ठीक है मैय्या कह दे ओकरा से सामान बांध लेबे के."
शहर में सबको लाली लगाया देखा तो शूर्पनखा ने भी एक दिन सिन्दूर लगाने के बाद उसी अंगुली को अपने होंठ पर रगड़ लिया।
लाल बाबू खाना खाने आये तो कहा "इ का की हो, छुछंदर के सर पर चमेली का तेल कहीं शोभता है?"
आँख डबडबा गई थी लेकिन ख़ुशी भी हुई थी "मुँह तो देखा।"
लाल बाबू शहर में इंजिनियर के सहयोग से ठीकेदारी का काम शुरू कर दिए थे। काम बढ़ गया था आमदनी भी बहुत ज़्यादा होती थी, शूर्पनखा साक्षात लक्ष्मी थी!
घर पर दस लोगन का भीड़ हरदम रहती थी। कोयला का चूल्हा दिन भर धधकता रहता। चाय का बर्तन चूल्हा से उतरता नहीं था और कभी-कभी तो दो चार लोग का खाना भी बनाना पड़ता था।
जो खाता ऊ बड़ाई किये बिना नहीं रहता और लाल बाबू गद्-गद् हो जाते।
जब बच्चा थी तब बहुते सुनी थी कि "मरद के मन का रस्ता उसका पेट से होकर जाता है।" लेकिन लाल बाबू का मन एक चूल्हा का खाना से कहाँ भरता था। उनके लिए तो सुरपा बस उनकी माँ की इच्छा और 'अंतिम रास्ता' थी।
सूर्पनखा को एक और सम्बोधन मिला था "भाभी जी" जो दूर से ही उसके कान में पड़ता था। लेकिन लाल बाबू के लिए वह अब भी सिर्फ़ 'सुरपा' थी, एक दिन कहा भी था "जानती हो कुरूप घरवाली का एगो बहुत बड़ फायदा है किसी और का मन नहीं ललचाता।" कहकर जोर से हँसे थे लाल बाबू लेकिन सुरपा की आंखों में आँसू तैरने लगे थे।
इ कह देने भर की बात थी, लेकिन असल में 'अपने मन से जानिये पराये मन की बात।' जैसी हालत थी, उनको स्वयं भी रूप रंग से क्या दरकार थी। उन्हें तो बस औरत के शरीर से मतलब था। इसलिए तो सुरपा का घर से अकेले बाहर निकलना उनको गंवारा नहीं था और साथ कहीं ले जाते नहीं थे। कहते 'हूर के साथ लंगूर' जैसा लगेगा। गाँव से आते बकत भी सख्ती से कहा था "घूँघट में ही रहना पराये मर्द के सामने!"
लाल बाबू बहुत बड़े आदमी बन गए थे। घर आते तो नशे में झूमते हुए. हाथ में बोतल जो कभी-कभी रहती थी अब रोज रहने लगी थी।
भाभी जी तन और मन दोनों से भूखी प्यासी बैठी रहती। लाल बाबू भूखे होते तो खाना भी प्रेम से खाते और सुरपा की भूख भी मिटाते। पेट पहले से भरा होता तो दोनों को लात मार देते।
अपने भाग्य पर न इठलाती न शोक मनाती सुरपा दिन भर घर का काम करती। जो खाली समय मिलता तो पूजा-पाठ में ध्यान लगाती लेकिन भगवान् तो जैसे खाली फोटो में ही थे। गोदी में अभी तक एगो बबुआ नहीं आया था पांच साल हो गया था बियाह को, कलेजा पर पत्थर रख के एक दिन लाल बाबू से कहा भी था दूसर बियाह काहे नहीं कर लेते?
"पैसा अउर अउरत का हमको कमी नहीं। बांकी हमरी औउरत तुम्हांr रहोगी, काहे की हम निश्चिंत रहते हैं।" बिना देखे ही कह दिया था, मुँह देखते तो पता चलता कि अपमान की पीड़ा से काला चेहरा कैसा हरा हो गया था।
दुन्नो बहिन का घर और गोद दोनों बस गया था। सुरपा की तपस्या से भी भगवान् खुश हुए तो सात साल बाद उ भी पेट से हुई. अब बोतल के साथ औउरत भी लाते। लाल लिपस्टिक अउर लाल नेल पालिश वाली।
'भाभी जी' भंषा में ही सो जाती।
एक दिन मुँह खोली तो लाल बाबू ने रहस्योद्घाटन किया था, "अरे गाँव-शहर में कौन-कौन बच्चा हमरा है हमको पते नहीं है। हाँ अदितवा का बेटा हमरा है इ हमको पता है। तुम हमरे लिए अंतिम उपाय हो, अब तुम लोड हो तो हम का उपवास करें?"
पोता हुआ तो मैय्या-बाबू का आत्मा जुराया। पोता तीन साल का हुआ तो मैय्या तृप्त आत्मा के साथ गुजर गई और बाबू शहर आ गए बेटा पतोहू के पास।
लाल बाबू ने दूसरा घर बसा लिया था 'सोने के लिए!'
पांचवीं पास सुरपा रामायण जी पढ़के जब छोटे से बच्चे को सुलाती तो बाबू भी सुनते और एक दिन रामायण सुनते-सुनते उ भी सो गए. हमेशा के लिए!
लाल बाबू को उनके अमर्यादित आचरण ने निचले स्तर का बना दिया था। सुरपा से मिलने आने वाली आस पड़ोस की औरतों को सब काम धंधा छोड़ कर ऐसे घूरते जैसे उनकी "विशेष आँखें" कपड़ों के भीतर भी देख पाने में सक्षम हो, तंग आकर सुरपा धीरे-धीरे उन सबसे रिश्ता ख़तम करके अपने घर में बंदी की तरह कैद होती चली गई.
इसी आचरण से त्रस्त बहन के ससुराल की दूसरी बहू बेटियाँ जब असुरक्षित महसूस करने लगीं तो बहनोई ने भी सारे रिश्ते नाते ख़तम कर लिए. अपने बाबू के साथ दुनियादारी की खातिर बहनों ने जो रिश्ता रखा था ऊ भी ख़तम हुआ।
लाल बाबू का भी घर आना कम हो गया था। अपना जुगाड़ ऊ बाहरे कर लिए थे घर का राशन तरकारी किसी के हाथ भिजवा देते। सुरपा उन्हें याद नहीं रहती थी। उसी तरह जैसे सुरपा अपना 'असली' नाम भूल गई थी।
उस दिन जैसे सूरज पश्चिम में उगा था। नींद में बेसुध सुरपा के ऊपर चढ़ गए थे लेकिन उपवास करते-करते सुरपा को भूखे रहने की आदत हो गई थी, सो अपने ऊपर से धकेल दिया था।
नशे में धुत लाल बाबू अपने को सँभाल नहीं पाए और जमीन पर गिर गए. शेर की तरह दहाड़ उठे थे, लड़खड़ाते संवाद में कहा था "एतना हिम्मत तोहर?" और फिर जबरदस्ती करने की कोशिश की थी।
कुछ न सूझा तो "बारह साल का बेटा हो गया है।" उमर का दुहाई दिया था सुरपा ने।
"अरे मरद हरदमे जवान रहता है।" कहते हुए अपनी कोशिश में लगे रहे।
लेकिन "हमरा मन नहीं है अब ई सब का।" कहते हुए आखिरी प्रयास किया था सुरपा ने!
बिफर गए थे लाल बाबू " मैय्या के मान में रखे हैं तो तुम अपने आप का जीनत अमान समझने लगी हो। अरे ई किस्मत है तुमरा नहीं तो कुत्तो नहीं चाटता, मुँह पर थूक दिए थे।
फिर अपमान के दर्द में सुरपा के विरोध की क्षमता जैसे विलीन हो गई और लाल बाबू अपने काम में लीन।
बाप के संस्कारों से अछूता और इंजिनियर से प्रभावित जीवन में पल कर बेटा भी इंजिनियर बन गया था सब उसे "सुरपा का बेटा कहते।"
चौबीस साल का हुआ तो बेटे का बियाह कर दिया। अकेले-अकेले उकता गया था मन। सास बनके मन भर गया।
बहुत मान मनौउअल करके दोनों ननद को बुलाया था, पड़ोसी भी सुरपा की खातिर आ गए थे लेकिन तमाशे के शौक़ीन लाल बाबू कहाँ बाज आने वाले थे?
नशे में चूर काम करने वाली एक औरत के साथ जबरदस्ती कर बैठे। बात आग की तरह फ़ैल गई और बाद में पैसा देकर मामला शांत करने की कोशिश की गई थी लेकिन ऊ औरत तो खुदे आग थी "कोशिश की थी, कर कुछ नहीं पाये अब उमर कहाँ रही।" कहकर पैसा लेने से मना कर दिया था।
लेकिन फिर गुलाबी नेल पालिश और लाल आलता से रंगा पोतुहू का गोरा हाथ अउर पैर देख लाल बाबू का लोभी मन ललचा जाता था।
छम-छम पायल की आवाज़ पर बेटे से पहले बाप की नज़र उठ जाती थी। एक दो दिन जब बेटा नौकरी पर औ सुरपा भजन कीर्तन में गई थी तो हिम्मत करके पोतुहू के कमरे में घुस भी गए थे लेकिन दरोगा के बेटी के डर से फिर पलट गए थे।
बेटे को बाप एक आँख नहीं सुहाता था पत्नी की शिकायत पर अलग घर ले लिया। सुरपा से भी साथ चलने को कहा लेकिन पत्नी धर्म से बंधी सुरपा ने दोनों को आशीर्वाद देकर विदा कर दिया।
पार्किन्सन की बीमारी ने लाल बाबू को कहीं का नहीं छोड़ा था। जवानी के साथ-साथ अउरत का मेला भी उजड़ गया था। लेकिन इतने के बाद भी लाल बाबू का छिछोरा मन कहाँ मानता था? डॉक्टर के पास जाते तो कभी नर्स का हाथ पकड़ लेते तो कभी कहीं छू लेते और बवाल हो जाता।
बीमार पड़ी हड्डियाँ कमजोर पड़ गई थीं। ज़्यादा मेहनत करने से हाथ में बहुत दर्द रहने लगा था। अब सारा दिन अपने कमरे की खिड़की से दूसरे की बहू-बेटी को दूर से ताड़ते रहते। आँखों से ही मन की भूख मिटाते।
सूर्पनखा तो छूने भी नहीं देती थी, बिछौना अलग कर रखा था।